सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

हे 'मिथिलानी' आब जागु अहूँ


 

हे 'मिथिलानी' आब जागु अहूँ
बढ़ू जग के संग आब आगू अहूँ
तोरि कुंठित समाज क कुंठित बंधन
प्रगति मार्ग पर चालू दन-दन
अहूँ क सकै छि दुष्ट क मर्दन
पर लेबय परत संकल्प एकर
दहेज़-उत्पीडन के विरोध करू
एहि दानव के निषेध करू
नहीं आवश्यक विवाहक बंधन
बस अपन पैर पर ठाढ़ रहू
हे 'मिथिलानी' आब जागु अहूँ
आब हटा दियौ लाज क पर्दा
आ आँखिक नोर अंहा पोछि लिय
नहीं दुर्बल बनी रहू जग में
युग के बदल के ठानि लिय
आब राजनीति में अहूँ उतरु
पायलट, आफिसर अंहा सेहो बनु
हे 'मिथिलानी' आब जागु अहूँ
आई.ए.एस या आई.पि.एस या
एहि देश क अंहा भविष्य बनु
अछि गौरवशाली मिथिला क इतिहास
अंहा मिथिलानी क इतिहास गढ़ु
हे 'मिथिलानी' आब जागु अहूँ
            -
प्रणव झा 'सूरज का सातवाँ घोड़ा'

बुधवार, 18 मई 2011

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी

लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी

कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी.