बचपन से ही हमारे कानों में गूंजती दो प्रसिद्ध कहावतें, "गाय हमारी माता है" और "भैंस के आगे बीन बजाए," केवल शब्दों का खेल नहीं हैं। ये कहावतें हमारी सामाजिक संरचना और मानसिकता का सजीव प्रतिबिंब हैं। इनका विश्लेषण करना हमें हमारे समाज की जड़ों और उसमें व्याप्त असमानताओं को समझने में मदद करता है।
गाय और भैंस, दोनों ही हमारे लिए महत्वपूर्ण दुग्ध उत्पादक जानवर हैं। यह सर्वविदित है कि भारत में कुल दूध उत्पादन में भैंसों का योगदान आधे से अधिक है। भैंस का दूध अधिक पौष्टिक और वसायुक्त होता है, जिससे अधिक ऊर्जा मिलती है। इसके बावजूद, भैंसों को समाज में तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है, जबकि गायों को पूजनीय और आदरणीय माना जाता है। यह भेदभाव केवल जानवरों तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में असमानता
हमारे समाज में, अधिकांश उत्पादन में किसानों और कामगारों का श्रम शामिल होता है। वे कठिन परिश्रम करते हैं, जिससे समाज की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। इसके बावजूद, श्रेय और सम्मान का बड़ा हिस्सा व्यापारी और सेवा क्षेत्र के अधिकारियों को मिलता है। वे समाज में आदरणीय और पूज्य बन जाते हैं, जबकि वास्तविक श्रम करने वाले लोग उपहास और तिरस्कार के पात्र बन जाते हैं। यह स्थिति हमारी सामाजिक व्यवस्था की विकृति को दर्शाती है।
भैंस के तिरस्कार के कारण
भैंस को तिरस्कृत करने के कई कारण हैं:
1. कुरूपता: भैंस का बाहरी रूप समाज की सुंदरता की परिभाषा में फिट नहीं बैठता।
2. मंदबुद्धि और असभ्य व्यवहार: भैंस को अक्सर मंदबुद्धि और असभ्य माना जाता है।
3. श्रम का अपहरण: अन्य वर्गों (गायों) द्वारा भैंस के श्रम का अपहरण कर लिया जाता है।
इसके विपरीत, गाय को सुंदर और सभ्य माना जाता है। गाय अपनी ब्रांडिंग कर भैंस के उत्पादन का श्रेय ले लेती है। यही स्थिति आज के समाज में भी देखने को मिलती है। सुंदरता, चाहे वह मूर्खता की भी प्रतीक क्यों न हो, किसी अन्य के श्रम का अपहरण कर लेती है और बिना किसी प्रयास के आरामदायक जीवन जीती है। इसी प्रकार, बुद्धिजीवी और सभ्य कहे जाने वाले लोग किसानों और कामगारों के श्रम का अपहरण कर उनके उत्पादन पर अपना नाम चस्पा कर लेते हैं, और अधिकांश लाभ हड़प कर समाज में आदरणीय स्थान बना लेते हैं, जबकि वास्तविक श्रम करने वाले लोग उपहास और तिरस्कार के पात्र बन जाते हैं।
भारत में सबसे अधिक भैंसें और सस्ता श्रम उपलब्ध है। यह केवल संयोग नहीं है, बल्कि हमारी मानसिकता का परिणाम है। भैंस के दूध की गुणवत्ता गाय के दूध से अधिक होती है। बचपन से हमें गायों के लिए अनेकों कहावतें और ललित निबंध सिखाए जाते हैं, जबकि भैंसों के लिए केवल "भैंस के आगे बीन बजाए" जैसी कहावतें सुनाई जाती हैं। किसी मोटे या काले को चिढ़ाने के लिए भी भैंस शब्द का प्रयोग किया जाता है।
स्थिति यह है कि बहुत से बच्चे, जो हर रोज भैंस का दूध पीकर बड़े होते हैं, यदि भैंस को देख लें तो दूध पीना छोड़ देते हैं। ऐसी ही उपेक्षा किसानों और कामगारों के प्रति हमारे दैनिक जीवन में भी दिखाई देती है।
सम्मान और संवेदनशीलता की आवश्यकता
इस लेख का उद्देश्य किसी सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन का मॉडल प्रस्तुत करना नहीं है, बल्कि यह कहना है कि हमें उत्पादन के प्रमुख श्रम शक्ति, किसानों और कामगारों को कम से कम उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए और उन्हें उचित सम्मान और प्यार देना चाहिए।
यह आवश्यक है कि हम अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाएं और उन लोगों को सम्मान दें जो हमारे लिए खाद्य और अन्य आवश्यक वस्तुएं उत्पन्न करते हैं। उन्हें केवल एक उपकरण या साधन नहीं समझना चाहिए, बल्कि एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानना चाहिए जो हमारी अर्थव्यवस्था और समाज को चलाते हैं।
जय भारत! यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि हमारे समाज के हर हिस्से को समान सम्मान और महत्व देने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए। हमें अपने किसानों और कामगारों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए और उनकी मेहनत को सराहना चाहिए। यही सच्ची समाज सेवा है और यही सच्ची देशभक्ति है।