मंगलवार, 27 मई 2025

संघर्ष और तपन

 

संघर्ष और तपन

तप में जो तपकर निखरे हैं,

वो ही भू पर चमके हैं।

सोना सहकर तपन आँच की,

कुंदन बन कर दमके हैं।

 

लोहा जब तक ताप न पाता,

कैसे वह फौलादी बनता?

जो सह जाता चोटों को,

वही समर में हैं तनता।

 

कांसा जब भट्ठी में पिघले,

सुंदर मूरत गढ़ता है।

तपकर, गलकर,  साँचे मे ढल

कीमत उसका बढ़ता है।

 

मोम जले जब बन कर दीप,

तम में विलीन हो जाता है।

और कोयला, भी जल कर, तप कर,

बन कर राख, मिट जाता है।

 

संघर्षों की तपन सहे वो,

जिनमे धैर्य और मूल्य गहे।

जो भीतर से खोखले हों,

वे झोंकों में ढहे-बहे।

 

संघर्ष नहीं बस तोड़े हरदम,

पर गढ़ दे व्यक्तित्व नया।

जिसमें हो मूल्य, धीरज, बल

वही तपकर फिर निखर गया।

 

आत्मा मे हो दीप्ति ज्ञान की,

अँधियाली कुछ कर पाए क्या?

जिसने दुख को पीकर जीता,

संघर्षों से घबराए क्या?

 

धीरज, साहस, सत्य, विवेक

चित्त में जिनके बहते हैं।

वही पुरुष महान बनें हैं,

हर तम जो सह सकते हैं।

 

जलना तो सबको पड़ता है,

कुछ राख, कुछ अंगार बनें।

कुछ दीपक सा टिमटिम जलें,

कुछ तपकर फौलाद बनें।
 
 
- 24.05.2025 (इस्पात नगर भिलाई) 

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

जीवन-चक्रव्यूह [मैथिली]

 

जीवन-चक्रव्यूह

विकल मोन मानि लै कि हारि अखन हम,
कि सीमा तोड़ि विजय पाबि अखन हम?
पराजय हल्लुक छैक, भारी छैक विजय तऽ,
मुदा कि सत्य छैक, ई जानी अखन हम ।।१।।

 

 विजय कि छैक सदिखन सुखक निवाला?
सघन वन मे सभ कियौ नै पाबय उजाला!
पराजय में सेहो लुकायल कत्तहु लुत्ती सन,
आशा से भरल जेना कोनो पेय प्याला।।२।।

 

ई जीवन बनल अछि चक्रव्यूह दोधारी,
रचलकै मोह कोनो भ्रमजाल  भारी।
बुझल अछि एतय करू  प्रवेश कोनाक,
मुदा नहि ज्ञात अछि निकास द्वारि।।३।।

 

कत्तहु हम ऐ जाल में फँसि नै जाय,
चोट खाऽ कऽ कत्तहु फेर सहि नै पाबि!
विचारक ज्वार में डगमगा रहल छी,
घूरि जाय की विजयक गीत गाबि।।४।।

 

नहि! घुरनाई तऽ कोनो वीरता नहि छैक,
सहज छैक परेनाई, कठिन धीरता सही छैक।
कठिन बाट चुनि, चलय निर्भय सदिखन जे,
धर्मध्वज, शौर्य केर हकदार वैह छैक।।५।।

 

प्रथम नहीं हम भेलहू एहि दौड़ में तऽ,
दोसर स्थान पर सदिखन रहलहू हम।
नै पेलहु सभकिछू, नै छूटल बहुत किछू,
विजय केर अंश के लऽ कऽ चललहूँ हम।।६।।

 

प्रयत्न से हमर नाता रहल अछि,
अभाव में सेहो हम गाबैत रहलहु अछि।
एक एकटा हारि से सीखि के निरंतर,
नवआशा ज्योति जराबैत रहलहु अछि।।७।।

 

 हे मैया! तू ही आब हमारा ई शक्ति दे,
कि हम सभ मोह जाल से मुक्त भऽ जाय।
नै होय लक्ष्य खाली पराजय-विजय केर,
मनुषऽक हृदय में जुड़ि के जिबि हम ।।८।।

 

 ओहि भूमि पर बनय स्थान हमरो,
जतय कर्म, करुणा, समर्पण बसल होय।
जतय लोक श्रद्धा से लेबय नाम हमर,
जतय मूल्य मानव धर्म के सजल होय।।९।।

-      प्रणव कुमार झा राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड, नै दिल्ली [30.04.2025]

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

तुमको देखा करते हैं

 

चुपके चुपके हम कभी, तुमको देखा करते हैं

तेरी चाहत मे न जाने, क्या क्या सोचा करते हैं।

गंगातट तेरे अधरों मे, और नैनों मे झील कभी

पूर्णिमा के चाँद मे कभी, तुमको ढूंढा करते हैं।

 

जब भी मिलते हैं तुमसे, गाँठ सी लग जाती है दिल मे

कुछ न कह पता हूँ, बात दिल की रह जाती दिल मे

अच्छे लगते तेरे सितम भी, अदा तेरी छू जाती दिल को

तेरे बिन लगता सब सुना, तनहाई रहती महफिल मे ।

 

तेरे नूपुर की छम-छम, तेरी चूड़ी की सरगम

सुनकर मैं खो जाता हूँ, भूल के अपने सारे गम ।

गिराती हो तुम बिजली, देकर एक कुटिल मुस्कान

देखना कहीं ले न जाए, एक दिन यह मेरी जान ।

 

जुल्फें तेरी जैसे कि, अमावस की काली रात हो

खो जाऊँ मैं इनमे कहीं, काश ! तो फिर क्या बात हो।

तेरी अल्हरता जैसे झरने की कलकल सी है

तेरे काया की क्यारी, जैसे कोई मधुवान सी है ।

 

तेरी खुशबू जैसे कोई भालसरी की डाली है

तेरी चाहत मुझको जैसे तू चीज कोई निराली है।

तेरा प्रणय पा सका तो, धन्य मैं हो जाऊंगा

तुमको खुशियाँ दे सका तो, सद्गति मैं पाऊँगा ।

-      प्रणव झा [28.11.2010]