बुधवार, 6 नवंबर 2019

तीन दशक तीन फिल्में (Three decade three films)


मेरे सबसे ज्यादा पसंदीदा फिल्में अस्सी के दशक के, गाने 90 के दशक के और न्यूज शो 2000 के दशक के रहे हैं, इसके लिए आप चाहें तो मुझपर ओल्ड फैशन्ड होने का आरोप लगा सकते हैं और
मेरे टेस्ट पर कर सकते हैं सवाल
नमस्कार मैं प्रणव कुमार

कुछ दिन पहले Gaurav Jha ने अपने मामा यानी कि Manjit Thakur सर के आज्ञा को पुरा करते हुए अपनी तीन पसंदीदा फ़िल्म की कहानी सुना गए और जाते जाते इस भीड़तंत्र में मुझे भी टैगीत कर दिया। अब वैसे तो बहुत से ऐसे फ़िल्म हैं, जिसे मैं अपनी पसंदीदा फ़िल्म कहकर आपके सामने पेश कर सकूं, पर फिलहाल 80,90 और 2000 के दशक से तीन फिल्मों की बात करूंगा।

पसंदीदा फ़िल्म:01

गोलमाल, ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म रही है, जिसने कई पुरस्कार भी जीते हैं। यह फ़िल्म सर्वप्रथम मैंने दूरदर्शन पर देखी थी जो उत्पल दत्त साहब के देहांत के अवसर पर दिखाई गई थी। इसके बाद सीडी पर देखी फिर कम्प्यूटर और लैपटॉप पर।आज भी मेरे लैपटॉप में ये फ़िल्म मिल जाएगी।आज के युग मे जब कि लोगों में सेंस ऑफ ह्यूमर की भारी कमी हो गयी है या फिर इसके नाम पर बस फूहड़ता और अश्लीलता ही परोसी जा रही है, यह फ़िल्म लोगों के मनको गुदगुदाने के लिए आज भी प्रासंगिक है। इस फ़िल्म के सभी पहलू(अभिनय,निर्देशन,गीत,संगीत,डायलॉग) ने मुझे छुआ। अमोल पालेकर और उत्पल दत्त मेरे पसंदीदा अभिनेता बन गए और ऋषिकेश दा पसंदीदा निदेशक। और फिर मैंने चुन चुन के इन तीनो की फिल्में देखी। नरम-गरम, बातों बातों में, छोटी सी बात, रंग-बिरंगी,रजनीगंधा,शौकीन,चुपके चुपके,मिली,गुड्डी आदि भी इसी श्रेणी की कुछ फिल्में हैं।

फ़िल्म की शुरुआत इसके टायटल सॉंग से होती है जो अमोल पालेकर(जो उस वक्त सीए के छात्र होते हैं और फायनल रिजल्ट की प्रतीक्षा में होते हैं) अपने मित्र के यहाँ एक पार्टी में मित्रों के संग गया रहे होते हैं। इस गीत के बारे में दो बातें कहना चाहूँगा, अव्वल तो ये की इस गीत में एक लाइन है 'भूख रोटी की हो तो पैसा कमाइए... पैसा कमाने के लिये भी पैसा चाहिए', इस लाइन के मुखरे में जहाँ आलसी वामपंथ के दर्शन की भर्त्सना करते हुए रोटी के लिए काम करने की बात कही गई है वहीं अंतरे में पूँजीवाद के दर्शन की झलक मिल जाती है। दूसरी बात ये की अब ऐसी निश्छल और जीवंत पार्टियां बहुत सीमित रह गयी है, हाँ सिविल,सीए,इंजीनियरिंग आदि की तैयारीमे जुटे यूपी-बिहार के कुछ सिंगल लौंडे आज भी ऐसी गीत-नाद वाली पार्टी करते दिख जाते हैं, वर्ना तो सिंगल से कपल हुए नहीं कि दारू और डीजे के धुन में ढिंचिक-ढिंचिक करने लग जाते हैं।

फ़िल्म की अभिनेत्री बिंदिया गोस्वामी भी फ़िल्म में बला की खूबसूरत दिखती हैं, और उनकी ड्रेसेज भी कमाल की हैं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, आवाज और अभिनय सभी आकर्षित करनेवाली हैं। उनकी ड्रेस के साथ स्कार्फ और बड़ी सी मोतियों की माला। जिस तरह से वो राम प्रसाद की जगह लक्ष्मण प्रसाद को चुनती हैं वो लड़कियों के कॉमन सेंस को बहुत बढ़िया से दर्शाता है।

अमोल पालेकर शालीन अभिनय तो करते ही हैं, इस फ़िल्म में लकी शर्मा के रोल में गजब का है हैंडसम भी लगते हैं। उत्पल दत्त का अपमान करने के लिए जब वो कहते है कि अरे माली जिसका नाम भवानीशंकर हो वो तो समझो पैदा होते ही बुड्ढा हो गया बहुत मजेदार है
उत्पल दत्त जी का चरित्र फ़िल्म की जान तो है ही, उन्होंने भवानीशंकर के चरित्र में सचमुच में जान डाल दिया है। फ़िल्म का सबसे छोटा पर सबसे पसंदीदा डायलॉग 'इश्शश' उनका ही है।
इस फ़िल्म के लिए उत्पल दत्त साहब और अमोल पालेकर दोनो को ही फिल्मफेयर और अन्य कई पुरस्कार मिले हैं।

फ़िल्म में अन्य कलाकार जैसे डेविड (केदार मामा)हो, दीना पाठक जी(मिसिज कमला), मंजू सिंह(रत्ना), यूनुस परवेज(बड़े बाबू) राम प्रसाद के दोस्त सभी ने अपने अभिनय से अपने किरदार को जीवंत किया है।


डॉक्टर राही मासूम राजा ने बहुत ही शानदार डायलॉग्स लिखे हैं, खासकर रामप्रसाद द्वारा बोली जानेवाली हिंदी डायलॉग्स। एक जगह भवानीप्रसाद के नौकड़ी के आवेदन बारे में पुछेजाने पर बड़ेबाबू कहते हैं कि '30 नौसिखिये है बाँकि के सब तजुर्बेकार हैं'। एक और मस्त डायलॉग है जब उर्मिला को उसकी दोस्त कहती है 'जब लड़की दहीबड़ा खाने से मना कर दे तो समझ जाना चाहिए उसे प्यार हो गया है'


पंचम दा के संगीत के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है।'आनेवाला पल...' शायद ही कोई संगीत प्रेमी होगा जिसका पसंदीदा न हो। इसके अलावा 'इक बात कहूँ गर मानो तुम, सपनो में न आना जानो तुम' भी मुझे बहुत पसंद है और इस गीत के बीच मे लता दी का हँस देना बहुत ही।

इस फ़िल्म से लगाव का एक कारण यह भी है कि मैं खुद के अंदर भी दो शख्स, राम प्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद पाता हूँ, एक जो वास्तविक जीवन मे स्मार्ट दिमाग वाला पर सीधा-सादा बनकर नौकड़ी करनेवाला और परिवार की जिम्मेदारी निभानेवाला है और दूसरा शख्शियत फेसबुक पर आता है, शायरी और कविता करता है, कहानियां बनाता है, लोगों को प्रभावित करता है, विभिन्न राजनैतिक-सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखता है।

कुल मिलाकर यह एक बार बार देखी जाने वाली फिल्म है
Ramada Chennai Egmore (13.10.2018)में.

पसंदीदा फ़िल्म :02
#DDLJ
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सौ,दो सौ,पाँच सौ करोड़ कमाने का रिकॉर्ड चाहे जो कोई भी बना रहा हो, पर बात यदि लंबी पारी खेलने का हो तो बॉक्स ऑफिस का द्रविड़ और लक्ष्मण यही फ़िल्म है जिसने मराठा मंदिर में 1000 सप्ताह पूरे कर दिए। रिकॉर्ड बनाने के मामले में ये फ़िल्म तेंदुलकर से कम नहीं है। उस वक्त सारेगामा एचएमवी पर आए इसके कैसेट्स ने अपने समय मे सर्वाधिक कैसेट्स बिकने वाले एलबम का रिकॉर्ड बनाया। राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मफेयर सहित अनेको पुरस्कारों से इस फ़िल्म और उसके प्रमुख किरदारों की झोलियां भर गई थी।

पहली बार जब मैंने ये फ़िल्म वीसीपी पर देखी थी उसवक्त मुझे यह निहायत ही बकवास फ़िल्म लगी थी(फ़िल्म के अंत के फाइटिंग सीन को छोड़कर)। दूसरी बार कहीं सीडी पर देखी तब मुझे ये फ़िल्म हर तरह से लाजवाब लगी। और तब मुझे ये भान हुआ कि 'फिल्मों का अच्छा या बुरा लगना कदाचित उम्र के सापेक्ष होता है।' औऱ फिर मैंने ये फ़िल्म सिनेमा हॉल में देखा जब ये करीब 10 वर्ष पुरानी हो चुकी थी।

शाहरुख मुझे बचपन से लुभाते थे, उनका हेयरस्टाइल और स्टीरियो टाइप बॉडी लैंग्वेज जो टीवी पर आनेवाले उनके गाने में देखता था। कोई ना कोई चाहिए...हमेशा से मेरा फेवरेट रहा है, और उसमें किया गया बाइक स्टंट मेरी फैंटसी। शाहरुख-काजोल मेरी सबसे पसंदीदा ऑनस्क्रीन जोड़ी रही है और इनकी केमिस्ट्री वैसे ही रोमांचित करती है जैसे सोडियम के जल में घुलने की केमिस्ट्री। इन दोनों की खासियत ये भी रही है कि जहाँ इन दोनों ने स्क्रीन पर बेहतरीन रोमांस किया है वहीं डर और गुप्त जैसे फ़िल्म में खतरनाक प्रेमी विलेन का भी और बाजीगर तथा दुश्मन में बदले की भावना वाले शख्त इंसान का भी।

राज मल्होत्रा का किरदार मुझे आदर्श किरदार नाजर आता है जैसे लड़के के बारे में लड़कियां सपना देखती होगी। वो पढ़ाई-लिखाई से दूर है,लापरवाह है,अमीर बाप का बेटा इसीलिए करियर की भी चिंता नहीं।पर इतनी बेपरवाही के बाद भी वो अपने सामाजिक मूल्यों को जानता,लड़कियों से हर हद तक का मजाक करता है पर फिर भी लड़कियों की इज्जत करना जानता है,उनकी हिफाजत करना जानता है,लोगों का दिल जीतना जानता है,रूठों को मनाना जानता है। पढ़ाई में फिसड्डी है पर खेलकूद में अव्वल है। बाप से हमेशा दूर रहकर फुटानी करता है पर बाप से हर पल भावनात्मकता से जुड़ा भी रहता है। डेयरिंग है,पर समाज से टकरा जाने के बजाय समाज को कन्विंस करने की हिम्मत करता है।

अनुपम खेर राज के पिता के रूप में लाजवाब हैं। अनुपम खेर साहब मुझे ऑनस्क्रीन सबसे अच्छे पिता लगते हैं,चाहे वो आरएचटीडीएम,दिल है कि मानता नही, डैडी,चाहत या डीडीएलजे हो। मुझे यकीन है कि उनके जैसा पिता कोई बनना चाहता हो या न हो पर ऐसा पिता हर कोई पाना चाहता होगा।

अमरीश पुरी साहब बाऊजी की भूमिका को जीवंत किया हुआ है,ऐसा काजोल ने भी कई दफे कहा है। इससे पहले मैंने उन्हें खलनायक की भूमिका में ही देखा है,यद्यपि इस भूमिका में भी कई लोगों को खलनायिकी ही दिखती है,पर मुझे बाऊजी की भूमिका देखकर महानगरों में बसे कुछ मैथिल कन्याओं के पिता याद आ जाते हैं।

अपनी छोटी सी भूमिका को मंदिरा बेदी और लिट्ल गर्ल मिस राजेश्वरी सिंह उर्फ चुटकी भी यादगार बनाती है।

फ़िल्म में सबसे बेहतरीन संवाद शाहरुख-काजोल का लगता है जब आखिरी सीन से पहले के सीन में शाहरुख सबसे विदाई ले रहे होते हैं और माफी मांग रहे होते हैं।

आज जबकि लगभग हर योरोपीय देश मे भारतीय और मैथिल मध्यमवर्ग रह रहे हैं और रोजगार कर रहे हैं,उसवक्त आदित्य चोपड़ा के इस फ़िल्म के माध्यम से ही लोगों ने योरोप देखा और बहुतों के अंदर वहां जाने के इच्छा का बीज भी अंकुरित हुआ होगा।

फ़िल्म का संगीत भी लाजवाब है,और पंडित जसराज के घराने के जतिन-ललित बंधुओं ने भी यहाँ अपना कमाल दिखाया। "मेरे ख्वाबों में जो आये","तूझे देखा तो ये जाना" और "न जाने मेरे दिल को क्या हो गया" मेरा ऑल टाइम फेवरेट है, "जरा सा झूम लूँ" में आशा ताई और काजोल की मस्ती कमाल की है खासकर बर्फ में जो काजोल पेंग्विन की तरह उछलती है।

ड्रेस डिजायनर के रूप में मनीष मल्होत्रा भी इस फ़िल्म से उभर कर आये थे और कहानी के हिसाब से फ़िल्म में वेस्टर्न और इंडियन ड्रेस की कमाल के कॉम्बिनेशन्स बनाए हैं।

फ़िल्म के कई डायलॉग आज भी बहुत लोकप्रिय हैं जैसे "जा सिमरन जा,जी ले अपनी जिंदगी". मेरा सबसे प्रिय डायलॉग "बड़ेबड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं सेनोरिटा", जो हमे सड़कों पर और भीड़ में सहिष्णु बने रहने की पाठ भी पढ़ाता है। इसके अलावा अनुपम खेर का डायलॉग "मैंने तुझे तुनतुना बजाने के लिए पैदा नहीं किया है" भी खासा पसंद है।

अंत मे Gaurav और Kabir Jha जैसे कुंवारे मित्रों को इस फ़िल्म से शाहरुख का ये डायलॉग डेडिकेट करना चाहूंगा कि ''मेरी मां कहा करती थी, जो शादी वाले घर में हाथ बंटाता है, उसको बहुत सुंदर दुल्हन मिलती है।'' और कबीर ब्रो तो हैं भी एनआरआई और कथित तौर पर मिथिला के दूसरे सबसे अमीर आदमी तो जाते जाते उनके लिए सलाह की वो बीयर की फैक्ट्री लगाने के बहाने आए और इसी महीने राजनगर में होनेवाले Madhubani Literature Festival में डॉक्टर Savita Jha Khan मैम का हाथ बटाएँ तो उन्हें भी सविता मैम की तरह सुंदर,सुशील,गुणवान और पढ़ीलिखी कन्या मिल जाएगी। 🙂



पसंदीदा फ़िल्म 03:
#दिल_चाहता_है
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दिल चाहता है, मेरे दिल के बहुत करीब होने का एक प्रमुख कारण यह है की यह फिल्म मैंने अपने किशोरावस्था में देखी थी जब दोस्ती का जज्बा सर्वाधिक उफान पर होता है, उस वक्त में अमूमन साधारण और सहृदय इंसान के लिए दोस्ती का रिस्ता सर्वोपरि होता है, यहाँ तक की माँ-बाप से भी ज्यादा प्यारा. 'दिल चाहता है' यद्यपि कुछ नए तरह की प्रेम-कहानी कहने वाली एक फिल्म ह पर मेरे जैसे अधिकांश लोग इसे तीन दोस्तों की कहानी के रूप में ही देखते हैं जिसे उस वक्त फरहान अख्तर ने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के स्थापित मानकों को तोड़ते हुए एक नए अंदाज में प्रस्तुत किया था. फिल्म में एक सुपरहिट गाना भी है ..."हम हैं नए अंदाज क्यों हो पुराना". इस गाने में तीन दोस्तों को क्लब में मस्ती करते हुए नाचते देखकर हमारी भी फैंटसी हुआ कराती थी वैसे ही क्लब में नाचने की, यद्यपि उस वक्त हम में न वैसे नाचने की हिम्मत थी न क्लब में जाने की. इस फिल्म ने फरहान अख्तर को भी बॉलीवुड में स्थापित कर दिया था.
फिल्म के सफलता का पूर्ण क्रेडिट निर्देशक फरहान अख्तर को जाना चाहिए जिन्होंने तकनीकी रूप से परिपूर्ण और आनंददायक फिल्म बनाने के लिए कई बॉलीवुड मानदंडों को तोड़ दिया था। सैफ अली खान दिल चाहता है के आश्चर्यजनक पैकेट हैं और उनमें बहुत सारी अनपेक्षित प्रतिभा जो उस वक्त तक छुपी हुई थी उभर कर आई थी, खासकर जहां कॉमेडी भूमिकाएं हैं। लेकिन मुझे लगता है की फिल्म में अक्षय खन्ना से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन आया जो सिड के चरित्र को जिवंत कर देते हैं. उनके व्यवहार, सोच, व्यवहार बहुत प्रामाणिक है। फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार, फिल्म फेयर सहित अनेको पुरस्कार मिले हैं. फिल्म के लिए सैफ अली को सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता और अक्षय खन्ना को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का फिल्मफेयर मिला था.

फ़िल्म तीन दोस्तों की कहानी दर्शाती है के कैसे तीन युवक उम्र के साथ ज़िम्मेदारी समझते हैं। फ़िल्म के मुख्य किरदार समीर (सैफ अली खान), सिद्धार्थ (अक्षय खन्ना) व आकाश (आमिर खान) हैं। हम भी उस वक्त तीन पक्के दोस्त हुआ करते थे, अपनी सीमित साधनो में खूब मस्ती किया करते थे. कभी भी मिलना हो तो महफ़िल जम ही जाता था बिना दिन-रात समय-साल के परवाह के. फिल्म की कहानी जिस तरह से चलती है है कुछ इसी तरह से हमारे जीवन की कहानी भी चल रही थी.

आकाश प्रेम की अवधारणा पर विश्वास नहीं करता है। समीर बेहद रोमांटिक लेकिन भ्रमित लड़का है। जब भी वह किसी लड़की की ओर आकर्षित होता है तो वह सोचता है कि उसे सच्चा प्यार मिल गया है। पेशे से कलाकार और तीनों में से सबसे परिपक्व सिद्धार्थ, रोमांस में रूचि नहीं रखता और अपने काम के प्रति बहुत गंभीर, परिपक्व और समर्पित हैं। आकाश, जो अपने निजी जीवन में बेअदब आदमी है, जल्दबाजी में शालीनी (प्रीति जिंटा) नाम की एक लड़की से प्यार का इजहार करता है। बिना ये जाने कि वह किसी रोहित नामक से सगाई कर चुकी है। वह समीर और उसकी तत्कालीन प्रेमिका प्रिया (सुचित्रा पिल्लई) के बीच ब्रेकअप भी कराता है और उनके प्यार/अफेयर का मजाक भी उडाता है, पर बाद में वही आकाश सारी दुनिया से लड़कर और दुनिया के सामने अपने प्यार का इजहार करता है तथा प्रेम-विवाह करता है। शुरुआत में अपने डैड के काम को हलके में लेनेवाला आकाश बाद में अपने डैड का बिजनेश सम्हाल लेता है. हम दोस्तों के साथ भी ऐसा कुछ हुआ की प्राइवेट जॉब को तुच्छ समझनेवाला और सरकारी बाबू/प्रोफेशर बनने की हसरत रखनेवाला मेरा दोस्त एमएनसी में सॉफ्टवेयर इंजिनियर बन जाता है और किसी एमएनसी में सॉफ्टवेयर इंजिनियर बनने की हसरत रखनेवाला मैं सरकारी बाबू बन जाता हूँ, तो कोई और भी है जिसके करियर की नाव उसे बहाकर उसके मंजिल को 'बैंकर' बनने तक पहुंचा देता है. फिल्म में डिम्पल कपाड़िया और प्रीति जिंटा ने भी सराहनीय भूमिका निभाई है, खासकर छोटे से रोल में डिम्पल ने अपने कद्रदानों को खासा प्रभावित किया था.

फिल्म में शंकर एहसान लोय का संगीत और जावेद अख्तर साहब के गीत ने भी खूब धमाल मचाया है और पुरस्कारों और रिकॉर्ड्स के कई मानक स्थापित किये. संकर महादेवन, शान और केके हमेशा से मेरे प्रिय रहे हैं, फिल्म का टायटल गीत दिल चाहता है... और कोई कहे....आज भी मेरे फेवरेट हैं. इस फिल्म के गाने को आर डी बर्मन अवार्ड एवं उदित नारायण को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.

फिल्म में कई हास्य और संवेदना से भरे सीन हैं जो दर्शकों को लम्बे समय तक याद रहनेवाला है. उनमे से एक लाजवाब सीन है जब, आकाश और सिड रातोरात घबराये हुए समीर के घर पहुँचते हैं और उसे तकिये पर बैठा देख उसका हाल पूछते हुए उसका मजाक उड़ाते है, और समीर बड़े ही भोले अंदाज में कहता है "हँसलो सालों..तुमसे अच्छा तो वो ट्रकवाला था जिसने मुझे लिफ्ट दिया" इसपर जब वो आश्चर्य जताते बोलते हैं...तू गोआ से मुंबई ट्रक से आया... तो जवाब में समीर उसी भोलेपन से कहता है की .....तो क्या मैं इस तकिये पर रोज-रोज बैठता हूँ!
यद्यपि भावनात्मक रूप से दिल चाहता है समकालीन युवा के कहानी को बेहतरीन ढंग से कहने में सक्षम है चाहे वो किसी भी वर्ग से हों, पर कुछ क्रिटिक का मानना है की फिल्म सब-अर्बन और ग्रामीण क्षेत्रो में ख़ास प्रभाव नहीं जमा सका जिसका कारण था की फिल्म की कहानी उच्च वर्ग के लडको और परिवारों की जीवन शैली को दिखते हुए थी जो निम्न-मध्यवर्गीय दर्शकों से कनेक्ट नहीं कर पायी थी.
फिल्म में एक तरह से इंसानी जीवन के किशोरावस्था से परिपक्वता आने तक के सफर की कहानी भी है कुछ फ़साना है तो जीवन की कुछ सच्ची कहानी भी है. मुझे भी कभी एहसास होता था की हम भी कभी जीवन की रेस में कूदने के बाद एक दूसरे से दूर हो जायेंगे, मेरे दोस्त कहते थे ऐसा कुछ नहीं होगा, पर हुआ कुछ ऐसा ही की कभी भी मिल लेनेवाले दोस्त अब हम कभी भी नहीं मिल पाते हैं. मेरी फैंटसी रहती है की फिल्म के अंत की तरह ही कभी मेरे ये मित्र अपनी मर्सीडी(ना सही अपनी एसयूवी लेकर ही सही) मेरे घर या ऑफिस आये और बोले "अरे भाय छोडो ये घर-ऑफिस-काम तो जिंदगी भर चलता ही रहेगा चलो राजनगर चलते है....वहाँ Madhubani Literature Festival का मजा लेंगे.

संक्षिप्त में कहा जा सकता है की विनोद, भावना, ईमानदारी और ज्ञान का मिश्रण "दिल चाहता है" को वास्तव में चिरस्थायी फिल्म बनाता है.
(दिसंबर 2018)

शनिवार, 28 सितंबर 2019

“गिद्ध” (मैथिली लघुकथा) [giddh - Maithili short story]

“बाबी गै घर पर गिद्ध बैस गेने की होईत छैक?” रमण अपन बालमन में उठल प्रश्न बाबी से पुछैत बाजल छल भोरहे से गाम में अनहोर उठल छल जे सीडी झा के घर पर गिद्ध बैस गेलै य।

"बाउ रे जै घर पर गिद्ध बैस जाइत छै ने तै घर में भूत-प्रेत के वास होमय लागैत छै
किएकि गिद्ध बड्ढ अधलाह जीव होइत छैक, मुइल जीव के नोचि के खाइत छैक”
 
रमण कइएक बेर गिद्ध नामक ऐ विशालकाय पक्षी के घरक पछुआर में बड़का ताड़ गाछ पर बैसल देखने छल, आ गोटेक बेर बाबी संगे खेत दिस गेला पर देखने छल मुइल जानवर के मांस नोचैत
। 

मुदा रमण टीवी पर रामायण मे देखने छल जे जटायु आ संपाती नाम के गिद्ध के त महिमा मंडन कैल गेल छै। हुनका सबके आदरणीय मानल गेल छैक। ई विरोधाभास के ल क अकसरहा रमन के मोन मे भ्रम के स्थिति ठाढ़ भ जाय छल।

ई घटना ओय समय के छल जखन रमण करीब छ: वर्षक बालक छलाह आ गाम में रहैत छलाह
समय बितला पर रमण अपन बाबी आ माय संगे बाबूजी लग रह गाजियाबाद चलि आयल छल रमण के बाबूजी गाजियाबाद के एकटा फैक्ट्री में अकाउंटेंट के काज करैत छलखिन रमण के नाम एकटा प्राइवेट इस्कूल में लिखा देल गेल छल आब रमण 13  वर्ष के भ गेल छलाह घर से इस्कूल करीब २ किलोमीटर छलै रमण रोज सायकल से इस्कूल जाइत छलाह रास्ता में एकटा चौर पड़ै छलै जै में रमण देखैत छलाह जे लोक अपन मुइल पशु सबहक लहास फेंक के चलि जाय छल रमण देखैत छल जे अक्सरहां एकटा 16-17 वर्षक छौरा ओय लहास के चमड़ा छोड़ाबैत रहे छल आ ओय लहास के गिद्ध-कुकुर सब मिल के खाइय छल, बाद में ओ छौरा ओय में से बचल हड्डी सब के सोहो अपना झोरा में भरि लैत छल ई देख के रमण के ओ छौरा के प्रति बड्ड घिन आबैत छलै, मुदा मोन में जिज्ञासा सेहो उठैत छलै जे "ओ एहन अधलाह काज किएक करैत अछि?" ओय हड्डी सब के ओ की करैत अछि? ककरो-ककरो से ओ सुनने छल जे किछ लोक हड्डी से कालाजादू करैत छैक? कतेको बेर रमण के भेलै जे ओकरा जा के पूछी जे "तों ई की करैत छहक आ ऐ काज से तोरा की भेटैत छह?" मुदा रमण के अपन आ ओकर वेश-भूषा के अंतर सदिखन ओकरा लग जा क ओकरा विषय में बात करै के साहस करै से रोकि दैत छल

एक दिन रमण जखन इस्कूल जाय छल त ओकरा घर से कनिकबे आगाँ एकटा मोदियाइन के घर छलै, जे 3-4 टा माल जाल पोसने छल
ओ देखलक जे ओत  किछु गोटे ओहि छौरा के घेरने छल आ अंधाधुंध लठियेने छलै भीड़ से किछु सम्मिलित स्वर सुनबा में आबि रहल छल जे "मार सार के, ई गिद्ध थिकै, यैह बड्ड दिन से नजर लगउने छल फलां के माल पर जाहि कारणे ओ मरि गेल बहुतो के माल जाल पर एकर गिद्ध बला नजैर रहैत छैक... आदि आदि।" मारि खाइत-खाइत छौरा अधमरू भ गेल छल। ओ त निक भेलै जे कियौ पुलिस के सूचित क देने रहै, तैं पुलिस आबि के भीड़ के तीतर-बितर केलकै आ ओहि छौरा के जान बचलै

किछु दिन बाद एकदिन रमण घर पर कोनो बात से रूसल छल
छुट्टी के दिन छलैक ओ नेहेनहो सोनेने नै छल एहिना गंजी पैजामा पहिरने घर से परा गेल छल घुमैत-घामैत ओहि चौर दिस पहुँचल देखलक त ओ छौरा फेर नजैर एलै बस फेर की, रमण ओकरा लग पहुँचलै ओकरा पुछलकै हौ! तो एहन अधलाह काज किएक करै छहक? लोक के माल-जाल के काला-जादू से मारि दैत छहक, आ ओकर खाल खिंचैत छहक! ओहि दिन एतेक मारि लागलह तैयो फेर यैह काज!

ओ कहलक मुइल माल-जाल के खाल-हड्डी निकालनाइ हमर खानदानी धंधा छियै
मुदा हमसब किनको माल-जाल के मारि दैत छियै आ की नजैर-गुजैर लगा दैत छियै ई सौ टका अनर्गल आरोप अछि हमरा सब पर ऐ तरहे भीड़ अक्सरहा हमरा सब पर अत्याचार करैत अछि

हमसब जे ई चमड़ा छोड़ा के ल जाइत छी, ताहि के सफैया क के आ फेर पोलिस आदि क चमका के रंग रंगक, जुत्ता, बेल्ट, बैग, पर्स आ कतेको आन आन श्रृंगारक आ उपयोगक वास्तुजात बनायल जाइत अछि, जे सभगोटे के भोग्य आ शुद्ध बुझना जाइत छैक
आ अहाँ की कहलियै हड्डी.....हा..हा..हा.., यौ जी हड्डी के हमसब कालाजादू के उपयोग नै करैत छियै सभटा माल दिल्ली के शाहदरा-उस्मानपुर एरिया में भेज देल जाइत छैक जत ओकर सफैया होइत छैक फेर फैक्ट्री में कटाई-घिसाई-पोलिस क के रंग रंग के सजावट के वास्तु जात, भगवान क मूर्ति, स्त्रीगण के श्रृंगार के लेल माला-झुमका आदि कतेको आकर्षक वस्तुजात एहि हड्डी सभ के बनायल जाइत छैक बड़का मेला आ मार्केट सब में जे सस्ता सस्ता में मोती माला सब देखैत छियैक, से कोनो असली होइत छैक! सभटा एहि हड्डी सब के बनाओल जाइत छैक से ई वस्तु जात कियौ हो, पंडित, मुल्ला, बनिया-रार, साहेब-गुलाम सब के सिनेह्गर लागैत छैक, आ हमरा सन के काज केनिहार सभके लेल अधलाह होइत छैक!  

जौं हमरा सन के काज केनिहार नै होइ, आ ई गिद्ध कुकुर नै होइ त अहाँक ई समाज मुइल जानवर के सड़ल लहास से पटल पड़ल रहत आ ओकरा कियौ उठेनाहर नै भेंटत
हम सब छी त अहाँ सब ऐ सड़ांध से छुटकारा पाबैत छी मुदा तैयो अहाँ सब हमरा सब के गिद्ध कहि प्रताड़ित करबै, मौक़ा पाबिते लठियेबै, मारबई, आ इज्जत के त खैर छोड़िये दिय!

आब रमण सब किछु बुझि गेल छल। पारिस्थितिकि में गिद्ध के महत्वो, आ इहो बुझि गेल छल कि केना अहाँक पहिरन-ओरहन सेहो अहाँके कोनो लोक से संवाद करै में आ ओकरा विषय में वास्तविकता जानै में एकटा अवरोधक जेकाँ काज करै छैक
रमण के मोन पड़लैन जे कोना गांधीजी चम्पारण में किसानक दुखदर्द के देख अपन सूट-बूट त्यागि देने छलाह, तै के बाद हुनका देश के अंतिम आ सबसे कमजोर तबका सब के समस्या समझ में भांगट नै रहल छलैन्ह 
 
इति।

एनबीई की कार्यप्रणाली


सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं, एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
देता हूं तुमको मैं ज्ञान, क्या होता है प्रत्ययन
अस्पताल जिनमें हो, कम से कम 200 बेड
अनुभवी शिक्षक और, जरूरत के सारे इक्विपमेंट
करते हैं वो आवेदन, चलाने कोर्स डीएनबी
दस्तावेज के साथ भेजते, आवेदन की पूरी फी
फिर होता है निरीक्षण, और लग जाते हैं परीक्षक
रपट भेजते हैं जो करके, अस्पताल का परीक्षण
उन रपटों का अध्ययन करके, कमियां हैं खोजी जाती
उन कमियों को दूर करने की, उसके बाद बारी आती
फिर 1 दिन प्रत्ययन समिति की, बैठक है बुलाई जाती
रखा जाता केस और फिर, सामूहिक निर्णय आता
किसी को मिलता सुझाव और, कोई है प्रत्ययन पाता
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं, एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
  
एनबीई करवाता है, कितनी सारी परीक्षाएं
डॉक्टर बनने के लिए सभी को, इनसे तो गुजरना है
नीट पीजी, एसएस, एम डी एस के साथ एफ़एमजीई भी
डीएनबी, एफ़एनबी तो,  ट्रेनिंग के बाद करना है जी
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
डीएनबी में प्रवेश के हेतु होता ऑनलाइन काउंसलिंग
सीट आवंटनके बाद है मिलता, जॉइनिंग के लिए 7 दिन
जॉइनिंग के बाद उम्मीदवार, करवाते हैं पंजीयन
अस्पताल में ट्रेनिंग करते लगाकर अपना तन और मन
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
बढ़ाते अपना ज्ञान वेबइनियर और सीएमई द्वारा
एफ़एटी परीक्षा से लेते हैं, भाँप अपनी कमियां सारा
तब आता है थीसिस को, सबमिट करने की बारी
साथ शुरू हो जाता है, अंतिम परीक्षा की तैयारी
करते हैं उत्तीर्ण जो परीक्षाएं प्रायोगिक और सिद्धान्त
मिलती हैं डिग्री उनको जब आयोजित होता है दीक्षांत
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
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1.    एनबीई का है यह नारा स्वास्थ्य सुलभ हो देश हमारा
2.    जय भारत जय
एनबीई

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

नालंदा की एक सैर (A visit to Nalanda)


ह्वेनसांग मेमोरियल, नालंदा

ह्वेनसांग एक चीनी भिक्षु-विद्वान थे, जिन्होंने 7 वीं शताब्दी मे नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने, बुद्ध की सच्ची शिक्षाओं की पांडुलिपियों को एकत्र करने और बुद्ध से जुड़े पवित्र स्थानों की यात्रा करने के लिए चीन से भारत की यात्रा की । ह्वेनसांग ने सिल्क रूट और भारत में अपनी यात्रा के 17 वर्षों का एक विस्तृत विवरण छोड़ा है, जो बाद मे भारत मे बौद्ध धर्म की स्थापना एवं विकास की सूचना का प्राथमिक स्रोत बना। 


सन 629 में उसे एक स्वप्न में भारत जाने की प्रेरणा मिली। उसी समय तंग वंश और तुर्कों का युद्ध चल रहे थे। इस कारण राजा ने विदेश यात्राएं निषेध कर रखीं थीं। पर बौद्ध पाठ्यों में मतभेद और भ्रम के कारण इसने भारत जाकर मूल पाठ का अध्ययन करने का निश्चय किया। और फिर किर्गिस्तान, तियानशन, उज्बेकिस्तान, ताशकंद, फारस आदि मार्ग से होते हुए भारत पहुंचे थे और वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय मे अध्ययन-अध्यापन किया था।


नव नंद महाविहार के संस्थापक और निदेशक जगदीश कश्यप ने नालंदा में उस स्थान पर  एक ह्वेनसांग मेमोरियल की स्थापना के विचार का प्रस्ताव रखा जिस स्थान पर ह्वेनसांग ने बौद्ध धर्म की सच्ची समझ की खोज में अपना लंबा तीर्थयात्रा समाप्त किया। स्मारक का निर्माण 1957 में भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री झोउ एन-लाई द्वारा संयुक्त रूप से शुरू किया गया था। लेकिन अपरिहार्य कारणों से यह तब पूरा नहीं हो सका। 2005 में, भारत और चीन के विशेषज्ञों की एक टीम ने नवीकरण के संबंध में सुझाव दिए, जिसके बाद 2007 में स्मारक पूरा हुआ। 

ह्वेनसांग मेमोरियल भारत और चीन की साझा बौद्ध विरासत का प्रतीक है। यह भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक संबंध को प्रदर्शित करता है। यह भविष्य में दोनों देशों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का एक मंच भी है।


स्मारक चीनी और भारतीय स्थापत्य शैली से प्रेरित है। सतत रूप से वक्र छत को संतुलित तरीके से डिज़ाइन किया गया है, क्षैतिज रेखाओं मे विभक्त किया गया है जो बुरी आत्माओं को दूर करती है ऐसा  माना जाता है। छत मे नीली चमकती हुई टाइलें लगी हैं जो स्वर्ग और आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं। दीवालों पर लाल रंग जो बुरी आत्माओं को दूर रखनेवाला और खुशी का प्रतीक है, तथा स्वर्ण रंग जो इमारत को एक धात्विक चमक देती है का मिश्रित प्रयोग दिखाता है । चीनी और भारतीय वास्तुशिल्प तत्वों को कलात्मक रूप से ह्वेनसांग को सीखने, ध्यान और भुगतान करने के लिए एक शांतिपूर्ण स्थान बनाने के लिए मिश्रित किया गया है।


प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय 22 जल निकायों से घिरा हुआ है। ह्वेनसांग मेमोरियल ऐतिहासिक पद्मपुष्करनी झील के पूर्वी तट पर स्थित है।



बड़े कांस्य गेट को मुख्य संरचना के घुमावदार छत और नीली चमकते हुए टाइल के विवरण के साथ पूरक करने के लिए बनाया गया है। एक सौंदर्य विशेषता होने के अलावा, यह चीनी सांस्कृतिक प्रभाव का भी प्रतिनिधित्व करता है; ऐसा माना जाता है की यह बुरी आत्माओं को मुख्य कक्षों में प्रवेश करने से रोकने के लिए एक स्क्रीन की तरह कार्य करता है।



स्मारक के अंदर वेदी पर ह्वेनसांग की एक कांस्य प्रतिमा है, उपदेश मुद्रा में। उन्हें एक चीनी तीर्थयात्री (यात्रा पर जाने वाले साधु) के रूप में जाना गया था और बौद्ध धर्म के प्रसार में उनके योगदान को बौद्धों द्वारा स्वीकार किया गया है, इसलिए  उन्हें एक बौद्ध संत के रूप में चित्रित किया गया है।

मूर्ति के पीछे सफेद संगमरमर की दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की एक उभरी हुई प्रतिमा है। ह्वेनसांग की इच्छा थी कि उनके अगले जन्म में वे मैत्रेय बुद्ध के साथ पैदा हों ताकि उन्हें मैत्रेय के साथ अभ्यास करने और मुक्ति पाने का अवसर मिले, कदाचित इसी कांसेप्ट को दर्शाती यह संरचना है।


समाकर के अंदर दीवारों पर बुद्ध और ह्वेनसांग के जीवन के अनगिनत किस्सों को एक वृत्तिचित्र के रूप मे बताती सैंकड़ों तस्वीरें एवं प्रिंटेड पेंटिंग्स हैं। ये बुद्ध और ह्वेनसांग के पुण्य जीवन और आत्म बलिदान के महत्व पर जोर देने वाली कहानियां हैं। ये कथाएँ कई भारतीय और चीनी स्मारकों को जोड़ने वाली हैं, जिनमें अजंता की गुफाएँ, किज़िल और दुनहुआंग की गुफाएँ शामिल हैं। स्मारक की छत पर बनी आकृति अजंता की गुफाओं मे से एक की प्रतिकृति है।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भग्नावशेष कैंपस
तुर्कों का आक्रमण भारतीय इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है. तुर्क आक्रमण ने समकालीन भारत को न सिर्फ आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर किया अपितु बौद्धिक रूप से पंगु करने और पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ा.

इसका सबसे क्रूर उदहारण है तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के द्वारा तत्कालीन विश्व में शिक्षा ार शोध का उत्कृष्टतम केंद्र नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर देना और साथ ही इसमें अध्ययन-अध्यापन करनेवाले और प्रश्रय देनेवाले हजारों बोद्धो की ह्त्या और यहाँ के पुस्तकालयों में रखे हजारों पुस्तकों एवं शोधपत्र को जलाकर ख़ाक कर देना. कहते हैं की यहां लगी आग की महीनों तक धधकती रही थी.

यह एक कृतघ्न, मुर्ख और क्रूर लुटेरे शासक का ऐसा कुकर्म था जिसने सैंकड़ो विद्वानों के जीवन भर के शोध को ख़ाक में मिला दिया और तत्कालीन भारत के बौद्धिकता को सैंकड़ो वर्ष पीछे पहुंचा दिया. यह भारतीय इतिहास में कृतघ्नता का भी एक ज्वलंत उदहारण है, क्योंकि कहते हैं कि बख्तियार खिलजी जब एकबार बीमार हुआ और अपने वैद्यों के इलाज से ठीक नहीं हुआ तब किसी बौद्ध वैद्य ने अपने इलाज से उसे ठीक कर दिया. पर उस मुर्ख कुकर्मी आक्रमणकारी को यह बेहद नागवार गुजरा कि उसके धर्मावलम्बियों के पास जिसका इलाज नहीं था वो कोई विधर्मी के पास कैसे हो! और इसी खुंदक में उस कृतघ्न ने न सिर्फ हजारों बौद्धों की ह्त्या करवाई अपितु उनके ज्ञान के सबसे बड़े केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय को ही नष्ट कर दिया.


नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। 


अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। 

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम को प्राप्त है। बाद में महान सम्राट हर्षवर्धन और फिर पालवंश के राजा धर्मपाल ने भी इसके विस्तार और विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया।


हर्षवर्धन ने यहां उस समय में मल्टीस्टोरी लाइब्रेरी बनवाई थी, जिसमे हर विषय के ग्रन्थ और शोध उपलब्ध थे। इसमें अध्यापन कक्ष एक खुले ऑडिटोरिम की तरह है जिसके दोनों छोड़ पर छात्रों के कमरे बने हुए हैं, आगे आचार्यों के लिए ऊँचा मंच और पीछे के विद्यार्थियों के लिए भी ऊंचा मंच बना हुआ है. साथ ही पानी पिने के कुँए भी बने हुए हैं. छात्रावास के कमरों का आकार देखकर साथ गए सत्यप्रकाश गोपाल जी का वक्तव्य था की पटना में छात्रावास का आकार भी लगभग इतना ही होता है।

विश्वविद्यालय परिसर के भग्नावशेषों के दिवालों की मोटाई लगभग आठ फुट की होगी. इसे देखकर मुझे बरबस ही दिल्ली के पचास गज वाले और छह इंच मोटी दीवाल वाले घरों की याद आ गई, और मैं कल्पना करने लगा की यदि ऐसी मोटी दीवाले वहां बनाई जाए तो फिर तो बस दीवाल ही दीवाल हो कमरा के लिए तो जगह ही न बचे 😂.


तस्वीर में जो भग्नावशेष दिख रहा है वो विश्वविद्यालय प्रांगण में बना स्तूप है जो बिहार के प्रतिक चिन्हों में से एक है।



काला बुद्ध उर्फ तेलिया बाबा का मंदिर


भगवान बुद्ध की यह विशालकाय और भव्य प्रतिमा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के प्रांगण से सटे एक मंदिर में स्थापित है। यह मंदिर इस रूप मे अद्वितीय है कि काली बेसाल्ट चट्टान का उपयोग कर भगवान बुद्ध की इतनी बड़ी मूर्ति बनाया गया है जो कि बहुत कम ही दिखाई देता है।

मजेदार बात यह है कि भौतिकतावाद के विरोधी महात्मा बुद्ध को यहाँ भी भौतिकतावाद का प्रतीक बना दिया गया है(बहुत से घरों में सुख समृद्धि के लिए लाफ़िंग बुद्धा और स्लीपिंग बुद्धा के मूर्ति रखने का चलन है) और लोग इन्हें तेलिया भैरब बाबा के नाम से पूजते हैं। मंदिर में उपस्थित पुजारी बताते हैं कि यहां सच्चे दिल से मांगी हर मन्नत पूरी होती है। यहां हर पहर लोगों का आना-जाना लगा रहता है और लोग बुद्ध की विशालकाय मूर्ति पर अपने बच्चों को मोटा होने, उनमें रिकेट्स, एनिमिया, सुखड़ा सहित कई तरह की बीमारियों से निजात दिलाने के लिए सरसों का तेल और सात प्रकार के अनाज चढ़ाते हैं. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. 

यहां भगवान बुद्ध की तेलिया बाबा के नाम पर स्थापित मूर्ति की ख्याति स्थानीय स्तर ही नहीं, विदेशों में भी है. बड़ी संख्या में थाई और नेपाली बौद्ध यहां आकर मंत्र जाप करते हैं. बुद्ध की मूर्ति पर तेल चढ़ाते हैं और रूमाल या पेपर से मूर्ति पर लगाए गए तेल को पोंछकर अपने शरीर पर मालिश करते हैं.
जलमंदिर पावापुरी

पावापुरी में स्थित जल मंदिर जैन धर्म के लोगों का एक पवित्र तीर्थ स्थान है। कहते हैं कि भगवान महावीर का महापरिनिर्वाण इसी जगह पर हुआ था और इस मंदिर के अंदर भगवान महावीर की चरण पादुका है, जो सभी जैन लोगों के लिए पूजनीय है। एक विशाल झील के बीचोंबीच स्थित जल मंदिर का दृश्य बहुत ही मनभावन है। इस मंदिर का आर्किटेक्चर भी सुंदर है सफेद संगमरमर से बना मंदिर कुछ कमलाकृति लिए हुए है।

 

चारों तरफ विशाल जल जल राशि में कमल ही कमल खिले नजर आते हैं, जो बहुत ही मनोरम नजारा प्रस्तुत करता है। 



इस जल में कई प्रकार के पक्षियों का भी डेरा है जैसे सिल्ली, बत्तख, स्वैम्पहेन, चकेबा आदि। 
झील के बीचो-बीच बने इस मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 600 फीट लंबा एक पूल है जिसके आरंभ द्वार पर आप दो-तीन सूचना पट्ट देखेंगे जिसे पढ़कर इस मंदिर से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना आपको प्राप्त हो सकती है। कुल मिलाकर या एक अच्छा मनोरम दृश्य वाला पर्यटन केंद्र है जहां आप जाकर कुछ समय के लिए ही सही जीवन की आपाधापी के बीच कुछ सुकून सा प्राप्त कर सकते हैं। 



यदि आप अपने कार से नहीं हैं, तो इन स्थलों की यात्रा का लुफ्त ई-रिक्शा से भी करके उठा सकते हैं जो आपको एक अलग ही मजा और अनुभव दे सकता है।