गुरुवार, 4 जनवरी 2024

अलंकार-शिक्षा (लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा )

 

भोलबाबा तंबाकू चूर्ण बना रहे थे। मुझे देखकर पूछेक्या जी, कहाँ जा रहे हो ?

मैंने कहाआपही के यहाँ कुछ अलंकार के ज्ञान प्रात करने आया हूँ

भोलबाबा एक क्षण चुप्पी ओढ़ लिए। पुनः गम्भीरतापूर्वक बोलेतब फिर आँगन चलो।

मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ देख बोलेयहाँ दालान पर जितना महीने भर मे सीखोगे, उतना आँगन मे एक ही घंटे मे सीख जाओगे। परंतु देखना आवाज मत करना।

वो चुपचाप मुझे द्वार के ओट मे ले गए वहाँ सिरकी के  भीतर कोठी के  आर मे मुझे बैठा लिए

उधर महिलाओं मे वाक-युद्ध चल रहा था। बाबा धीमे-धीमे बोलेतुम कागज-कलम  निकाल लो और जल्दी से नोट करते जाओ अलंकारों की बारिश हो रही है।

एक स्त्री दूसरे को बोलीऊँह! ओल जैसा चुभन वाली बोल क्यों बोल रही हो?

बाबा बोलेदेखो, यहाँ 'ओल' और 'बोल' मे अनुप्रास है 'ओल' उपमान, 'बोल' उपमेय, 'जैसा' वाचक 'चुभन वाली' धर्म यह पूर्णोपमा अलंकार हुआ

ताबतक दूसरी स्त्री बोलीआपकी बातें भी तो विष जैसी ही होती है।

बाबा बोलेयहाँ 'विष' उपमान, 'बात' उपमेय, 'जैसी' वाचक धर्म लुप्त है इसीलिए यह  लुप्तोपमा अलंकार हुआ

तीसरी स्त्री बोलीजैसी वो हैं वैसी ही आप हैं और जैसी आप हैं वैसी ही वो हैं।

बाबा बोले  - देखो, उपमेय का उपमा उपमान से और उपमान का उपमा उपमेय से दिया गया है। यह उपमेयोपमालंकार है

तबतक चौथी ने टिप्पणी दीआप जैसे भी आप ही हैं।

बाबा बोले  - यह अनन्वयालंकार का उदाहरण हुआ

पुनः कोई बोली  - बाप रे बाप ! रात दिन गदहकिच्चन ! यह घर मछली बाज़ार से भी बढ़ गया है

बाबा बोलेयहाँ पर  उपमेय 'घर' मे उपमान मछली बाज़ार से अधिक उत्कर्ष दिखाया गया है यह व्यतिरेक अलंकार हुआ

दूसरी स्त्री बोलीऊँह! आपलोगों के मुँह मे लगाम नहीं है? जीभ है या चरखा?

बाबा बोलेदेखो, यहाँ 'लगाम' का वाच्यार्थ नहीं लेकर लक्ष्यार्थ ग्रहण करना चाहिए - 'लगाम जैसा निरोधक वस्तु' जीभ मे चरखा का  संशय होने से  यह संदेहालंकार हुआ

पुनः कोई एक बोलीइस घर मे कम कौन है? लंका मे बहुत छोटा वो उनचास हाथ का !

बाबा बोलेयहाँ पर  काकु द्वारा व्यंजित किया गया है कि कोई कम झगड़ालू नहीं। तात्पर्य यह कि आप भी भारी झगड़ालू हैं। लोकोक्ति के प्रयोग से इस भाव को और अधिक संपुष्ट किया गया है।

दूसरी बोलीबोलिए, बोलिए नहीं बोलेंगे तो पेट का अन्न कैसे पचेगा?

बाबा बोले - ' बोलिए, बोलिए ' इस द्विरुक्ति मे वीप्सालंकार है अन्न पचाने का विलक्षण कारण बोलना कल्पित किया गया है। यह विभावना अलंकार हुआ

तीसरी बोलीबात समझी भी नहीं इतने  मे ही चुभ गया।

बाबा बोलेयहाँ पर  कारण से पहले कार्य की ही उत्पत्ति कही गई है। अतएव यह अक्रमातिशयोक्ति अलंकार हुआ

वो पुनः बोली - एह मुँह कैसे बनाई है जैसे किसी ने अम्ल घोल कर पिला दिया हो

बाबा बोले - यह उत्प्रेक्षालंकार हुआ यहाँ पर हेतुत्प्रेक्षा है आधार सिद्ध है इसलिए सिद्धास्पद

ताबतक दूसरी स्त्री बोली - यह घर नहीं, नर्क है मेरे पिता अंधे थे जो ऐसे जगह शादी कर दिए। जो इस घर मे आई वो गई।

बाबा बोलेअलंकार की बाढ़ गई यहाँ पर  'घर' उपमेय का निषेध कर  'नर्क' उपमान का विधान किया गया है यह शुद्धापन्हुति अलंकार हुआ दूसरे वाक्य मे 'पिता' उपमॆय मे 'अंधे' उपमान का निषेध-रहित आरोप किया गया है इसलिए रूपक अलंकार हुआ तीसरे वाक्य मे 'आई' और 'गई' मे परस्पर विरोधक प्रतीति होने से विरोधाभास-अलंकार हुआ

पुनः तीसरे कंठ से निकाला - हाँ इनके पिता तो धन्ना सेठ हैं ! मायके से एक काला कौआ तो आता ही नहीं है। यदि आता तो पृथ्वी पर पैर भी नहीं रखती।

बाबा बोलेदेखो, स्वरभंगिमा से यह तात्पर्य निकाला कि इनके पिता सेठ नहीं हैं , अर्थात दरिद्र हैं यहाँ पर काकू द्वारा विपरीतार्थक व्यंजना है। कौआ का अर्थ 'कौआ जैसा तुच्छ दूत' यहाँ पर वाचक, धर्म और उपमेय- तीनों लुप्त है। इसलिए वाचकधर्मोपमेयलुप्ता उपमा अलंकार हुआ। पृथ्वीपर पैर नहि रखना यह  अतिशयोक्ति अलंकार हुआ।

चौथे कंठ से निकालाआपका मायका तो अमीर है। इसी लिए अक्षिंजल का ही व्यवहार होता है!

बाबा बोले-देखो, यहाँ पर  ध्वनि है कि आपका मायका दरिद्र है।  मायका का  अभिप्राय माँ-बाप-भाई-भतीजा आदि। यह शुद्धाप्रयोजनवती उपादान-लक्षणा हुआ। अक्षिंजल मे व्याज निंदा है। तात्पर्य कि भृत्य के अभावमे अपने हाथें पानी भरते हैं। यह गूढ प्रयोजनवती लक्षणा हुआ।

तबतक कोई बोल उठी- चलनी दूसे सूप को जिसमे हजारों छेद! आपके भी हाथ मे तो अभी तक कठोर श्रम के निशान पड़े हैं।

बाबा बोले यहाँ पर लोकोक्ति के प्रयोग द्वारा अप्रस्तुत 'चलनी' के व्याज से प्रस्तुत जेठानी/देवरानी  पर आक्षेप किया गया है। इसलिए इसे अन्योक्ति अलंकार समझो। दूसरे वाक्य का भाव है कि  मायके मे कूटिया-पीसिया करते-करते  आपके हाथ मे चिन्ह पड़ गया है। यहाँ भी गूढ प्रयोजनवती लक्षणा है।

पुनः किसी कंठ से निकाला मेटे पिता फरठिया नहीं हैं।

बाबा बोले- यहाँ पर काकु-वैशिष्ट्य से  आर्थी व्यंजना निकल रहा है कि  'आपके पिता फरठिया हैं।'

इतनेमे ही सिसकी का स्वर सुनाइ पड़ा। कोई कंपित गले से बोलीजिसने मेरे माथे मे सिंदूर दिया उनकी आँखों पर पट्टी बंधा हुआ था कि फरठिया के  बेटी को  उठा लाए।

बाबा बोले- सीधे 'स्वामी' नहीं कहकर ' जिसने मेरे माथे मे सिंदूर दिया ' ऐसे घुमा-फिरा कर द्राविड़ी प्राणायाम किया गया है। यह पर्यायोक्ति अलंकार हुआ।

इतने मे ही  किसी ने धीमे-धीमे कुछ चुभनेवाली बात कही वो सुनाई नहीं दिया उसपर दूसरी स्त्री उत्तेजित होकर फुफकार छोड़ी जो मेरी ऐसी मानमर्दन करवाते हैं अब उन्हीं की मैं जाकर दशा बिगाड़ती हूँ।

यह कहते हुए वो मूसल लेकर द्वार की ओर बढ़ी

बाबा बोले- अब भागो। नहीं तो सारा अलंकार बाहर हो जाएगा। आज का पाठ इतने तक ही रहने दो।

बुधवार, 3 जनवरी 2024

"अर्जित जमीन" (लेखक एवं अनुवादक : प्रणव झा)

 

 










“क्या हुआ जी, कोई समाधान मिला की नहीं?” लाल चाची लाल चाचा  को बरामदे पर सर पे हाथ रखे बैठे देखकर बोली।
कहाँ कोई बात बनी। वो तो अड़ा हुआ है कि नहीं आपको पैसे तो देने ही होंगे अन्यथा मैं यह जमीन किसी और के हाथों बेच दूंगा और आपको बेदखल होना पड़ेगा।
और पंच सब क्या बोले ?

पंच सब क्या बोलेंगे, बोल रहे हैं कि आपके पास पैसे देने के कोई सबूत नहीं है, न ही आपके नाम से जमीन लिखाया गया है, फिर यह बात कैसे मान लिया जाए कि यह पाँच कट्ठा जमीन आपने खरीदी है! अच्छा तो फिर कुछ बीच का रास्ता ही निकाला जा सकता है। अब देखिए कि कल क्या फैसला होता है।

बात यह था कि करीब पच्चीस-तीस वर्ष पहले लाल चाचा अपने मेहनत और श्रम के कमाई से पाँच कट्ठा आवासीय जमीन गाँव के जमीनदार ’सेठजी’ से खरीदे थे । उस समय मे गबरू जवान थे, कलकत्ता के एक मील मे नौकरी करते थे। कुछ पैसा हुआ तो माई ने कहा कि एक आवासीय जमीन खरीद लो। अच्छा तो फिर कुछ जमा किए गए रुपए और कुछ ईपीएफ़ से पैसे निकाल कर उन्होने सेठजी से पाँच कट्ठा आवासीय जमीन खरीद लिया था। किन्तु कमी इतनी रह गई थी कि वो जमाना निष्कपट लोगों का था। लिखा-पढ़ी, कागज-पत्र आदि कहाँ होता था गाँवों मे उस समय! बस मौखिक आश्वासन चलता था। इसीलिए लाल चाचा को इस आवासीय भूखंड का दखल तो मिल गया था किन्तु जमीन की रजिस्ट्री नहीं मिली थी। ये सब बातें तो लाल चाची को पता भी नहीं था। कौन ये सब बाते उस जमाने मे अपनी नई पत्नी को बताता था! अच्छा तो फिर लाल चाचा ने धीरे धीरे उस बांस के जंगल को साफ किया और कुछ ही साल मे एक छोटा-मोटा पक्का मकान बना लिया। उस समय मे गाँव मे गिनती के घर ही पक्का मकान बने थे, उस समय लाल चाचा के नाम की डंका भी बजती थी गाँव मे। बाद मे जवानी ढली और काम भी छूट गया। और वो गाँव पकड़ लिए। गाँव मे ज्यादा खेती-बाड़ी तो थी नहीं कि उसी मे लगे रहते, तब फिर कैसे भी समय तो कट ही रहा था। वैसे लाल चाचा का यह निजी विचार था कि लोगों को जीवन मे तीन कर्म पूरा करना होता है – घर बनाना, बेटी की शादी  और बेटों को अपने पैरों पर खड़े रहने योग्य बनाना। सो लाल चाचा इन तीनों कार्यों से निश्चिंत हो गए थे और कभी गाँव मे तो कभी बेटे के पास अपना जीवन बिताने लगे थे।

किन्तु कुछ दिन पहले एक ऐसा बम फटा जिसके कारण लाल चाचा को अपना अर्जित आवासीय भूखंड हाथ से निकलते हुए लगने लगा । जैसे होने लगा की जीवन मे कुछ नही किया हो। बात ये हुई थी कि अचानक से गाँव मे यह बात उठा कि इनके आवास की जमीन तो इनके नाम पर है ही नहीं। सेठ जी के मरने के उपरांत यह जमीन उनके बड़े बेटे के नाम चढ़ा दिया गया था और आज सेठ जी के मृत्यु के कई वर्षों बाद  जमीनदार जी इस जमीन को किसी और को बेचने की बातें कर रहे थे। लाल चाचा को जब यह खबर दलालबौआ द्वारा लगा वो जमीनदार जी के पास जाकर बोले कि अरे जमीनदार जी ! यह क्या अन्याय कर रहे हैं। यह आवासीय भूखंड मैंने आपके पिताजी से खरीदी थी चार हजार रुपए कट्ठा के भाव से बीस हजार रुपए में यह आपको भी मालूम है। आपके सामने पैसे गिन कर दिए थे। कितने ही सालों से इस आवासीय भूखंड पर घर बनाकर वास कर रहा हूँ। वो उस समय मे तो लिखा-पढ़ी हुआ नहीं था, अब आप करना चाहते हो तो यह जमीन मेरे नाम लिखिए। इस बात पर जमीनदार जी भौं चढ़ाते हुए बोले कि देखिए आपने दो कट्ठे के ही पैसे दिए थे, और बाँकी के तीन कट्ठे मे ऐसे ही वास कर रहे हैं, इसलिए यदि आप सारा जमीन लिखवाना चाहते हैं तो लाख रुपए की दर से तीन लाख रुपए लगेंगे, और नहीं यदि आपके पास पाँच कट्ठा जमीन खरीदने का कोई सबूत है तो बताइये। इतनी घुड़की लाल चाचा जैसे निश्छल व्यक्ति को विचलित करने  के लिए काफी था।  तथापि उन्होने हिम्मत करके कहा की अरे श्रीमान जी ऐसे कैसे आप बोल रहे हैं! आपके सामने ही आपके पिताजी से मैंने यह जमीन खरीदी थी और कितने ही सालों से यहाँ रह रहा हूँ। आज से पहले तो आपने कुछ नहीं बोला। बीच मे दलालबौआ बोले कि चाचाजी आपके पास लेन-दें का कोई सबूत कोई कागज है क्या?  यदि नहीं है तो फिर तो पंचायत बैठाकर जो निर्णय होगा वो स्वीकार करना पड़ेगा अन्यथा आपको उस जमीन से बेदखल होना होगा।

कल होकर पंचायत बैठी। - पंचायत क्या समझिए दलालबौआ, जमीदारबाबू, और दो चार पिछलग्गू। पंचायत मे जमीनदार बाबू ने तीन लाख रुपए की मांग रखी। लाल चाचा ने भी अपना पक्ष रखा। अंततः यह निर्णय हुआ कि लाल चाचा या तो दो कट्ठा जमीन जिस पर घर बना हुआ था वो सीधे जमीनदार बाबू से लिखवा लें और यदि पांचों कट्ठा का आवासीय भूखंड चाहिए तो डेढ़ लाख रुपए (जमीनदार बाबू द्वारा प्रस्तावित मूल्य का आधा) जमीनदारबाबू को देना होगा।

लाल चाचा ने कभी सपने मे भी नहीं सोचा था कि उनके साथ ऐसा कपट भी हो सकता है। किन्तु अब कोई चारा नहीं रह गया था। बेटे को जब यह बात बताया तो उसकी प्रतिक्रिया ठंडी थी। पहले तो अफसोस जताया कि पिताजी आजतक आपने यह बात न माँ को बताया था न ही हमलोगों को। फिर बोला कि दो ही कट्ठा लिखवा न लीजिए, घराड़ी लेकर क्या कीजिएगा, हम लोगों को भी कोई गाँव मे रहने देना नहीं चाहता है, और साल मे कुछ दिनों के लिए ही तो गाँव जाते हैं। किन्तु लाल चाचा के लिए वह जमीन किसी संतान से कम थी क्या ! अपने पसीने की कमाई से अर्जित जमीन। उन्होने निर्णय किया कि डेढ़ लाख देकर पांचों कट्ठा जमीन लिखवा लेंगे। लिखवाने का खर्च भी पचास-साठ हजार रुपए लग ही जाएंगे। मतलब कि अब सवाल था दो लाख रुपए की व्यवस्था करने का। कुछ पैसे इधर-उधर से कर्ज लिए। बाँकी के लिए बेटे को कहा तो बेटे ने कहा ठीक है आप उसका खाता संख्या भेजिए मैं कहीं से दस-पंद्रह दिनों मे व्यवस्था कर ट्रांसफर कर देता हूँ। लाल चाचा जब जमीनदार बाबू के पास खाता संख्या मांगने गए तो एक नया ही तमाशा शुरू हो गया। जमीनदार बाबू बोले कि पैसे तो सारे आपको नकद ही देने होंगे इसलिए आप अपने खाते पर मँगवा लीजिए और मुझे बैंक से निकाल कर दे दीजिएगा।

लाल चाचा ने सारी बातें बेटे से कही। बेटे ने कहा नहीं यह ठीक नहीं है। वह कैश मे पैसे लेकर ब्लैक मनी बनाना चाहता है इसलिए मना कर दीजिए। और वैसे भी यदि आज आपसे पैसे ले लेगा और पहले की ही भांति बाद मे मुकर जाएगा तब क्या करेंगे? इसीलिए आप साफ कह दीजिए कि यदि पैसे बैंक के माध्यम से लेंगे तो ठीक नहीं तो मैं नकद नहीं दूंगा।

लाल चाचा को इस बुढ़ापे मे ऐसाउपद्रव हुआ था की  दिमाग ऐसे ही पागल हुए जा रहा था, उस पर से अपने अर्जित जमीन का हाथ से निकाल जाने का दर। इसी लिए कदाचित उनको अपने बेटे का यह आदर्शवादी बातें अच्छी नहीं लगी थी । उल्टा-सीधा सोचने लगे। हुआ कि लड़का कहीं टाल तो नहीं रहा है।

फिर ध्यान आया अपने एफ़डी के बारे मे । तकरीबन डेढ़ लाख होंगे। बड़े ही जतन से इकट्ठा कर के रखे थे। किसी मनोरथ को पूरा करने। पता नहीं शायद पोते के उपनयन के लिए या फिर अपने श्राद्ध हेतु या कि अपने बाद लाल चाची के लिए, यह तो उन्ही का मन जानता होगा या फिर लाल चाची का

एकाएक निर्णय लिया और लाल चाची को बोले कि एक काम करिए – बक्से से मेरे एफ़डी के कागज सब बाहर करिए। लाल चाची उद्देश्य को समझते हुए बोली कि धैर्य रखिए न, कंटीर ने कहा है न कि जमीनदार बाबू का खाता संख्या भेजने के लिए, वो पैसे भेज देगा। कह तो वह सही ही रहा है न कि – ईमानदारी का पैसा कमसेकम ईमानदारी से जमीनदार को मिले। एकबार फिर जाइए उससे मांगिए न खाता संख्या। यदि पैसे की उसे तलब है तो देगा ही न।

हाँ! मैं भरोसा कर के पछता रहा हूँ, अब आपका बेटा ईमानदारी दिखा रहा है, वह भी पछताएगा बाद मे। अरे जी, अब सज्जन और ईमानदार लोगों का युग रह गया है क्या ! देखे नहीं कैसे जमीन के लिए एक को आग लगाकर मार दिया गया । इस लालची और बाईमान दुनियाँ का कोई ठिकाना नहीं। इसीलिए निकालिए झट से कागज सब, आज ही बैंक हो आता हूँ।

अब इतना सुनने के बाद लाल चाची क्या जवाब दे सकती थी। उनके पास इतना आभूषण भी तो नहीं था कि आवेश मे आकार कह देती कि “अच्छी बात है, फिर इन आभूषणों को ही बेच दीजिए”। बस चुपचाप बक्सा खोलकर कागज निकालने लगी।