शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

प्रकृति: मौन ईश्वर का सजीव स्पंदन

 


प्रकृति: मौन ईश्वर का सजीव स्पंदन

मैं धूप में तपता रेगिस्तान,
मैं हिमगिरि का श्वेत वितान।
मैं जल में तैरता नील गगन,
मैं पवन में बहता सौरभान।

कभी रुनझुन करुणा की वंशी,
कभी बिजली बन डराता हूँ।
मैं वसुधा की पहली मुस्कान,
मैं मृत्यु का नर्तन नाटा हूँ।

मैं नारी की ममता भी हूँ,
और वीरों का जयगान भी हूँ।
मैं ऋषियों की गूढ़ समाधि,
शिशुओं की पहली तान भी हूँ।

मैं वसंत की कोमल पंखुड़ी,
मैं पतझड़ का हूँ मौन विलाप।
मैं सावन की छलकती आँखें,
वर्षा का हूँ मैं नर्म आलाप।

मैं अरण्य की हूँ मधुर पुकार,
पथिकों का प्यास बुझाता जल।
मैं चिड़ियों की स्वप्निल टोली,
मैं मधुमास का अतरंगी पल।

मैं इंद्रधनुष का सतरंगी रंग,
मैं कमल-कुंज की कोमल दल।
मैं चाँदनी की हूँ शीलत छाँह,
मैं भुवन-राग की उषा-बंद।

मैं मरुभूमि का हूँ निनाद,
मैं गंगाजल मे घुलती आरती।
मैं हल-बैल का खुर-काव्य,
मैं मिट्टी की जननी भारती।

मेरी गहराई नापने चला,
तू विज्ञानों की नाव लिए।
मेरे कण-कण में छिपा सत्य,
शब्दों मे उसे बाँधने चले?

मुझे गले लगा, तू बड़ा हुआ,
सभ्यताओं मे बड़े विस्तार लिया
पर जबजब छीना मेरा श्रृंगार,
देखा तुमने विध्वंस नया।

सुन मानव! मत कर अतिक्रमण,
मत काट पर्वतों का संगीत।
तू मुझमें है लय, मैं तुझमें हूँ,
न भूल मेरी सौंदर्य और शक्ति ।



प्रकृति - यह केवल हरे पत्तों की लहराहट
, जलप्रपातों की कलकल या आकाश के रंगों की छाया नहीं है। यह स्वयं ईश्वर का दृश्य रूप है। यह वह शक्ति है जो बोलती नहीं, पर हर श्वास में, हर धड़कन में, हर चुप्पी में सुनाई देती है।
सत्यम, शिवम्, सुंदरम् - ये केवल दर्शन के शब्द नहीं, प्रकृति के आत्मस्वरूप की त्रयी हैं। यह सत्य है, क्योंकि यह निरंतर है; यह शिव है, क्योंकि यह सृजन और संहार दोनों है; और यह सुंदर है, क्योंकि इसकी हर रचना एक कला है - हर तितली, हर नदी, हर तारा।

जब मनुष्य ने पहली बार आकाश को देखा होगा, तो वह चकित हुआ होगा - न केवल उसकी विशालता से, बल्कि उसके मौन से। वह मौन, जो बोलता नहीं, पर भीतर कुछ खोल देता है। वही मौन है प्रकृति का रहस्य।

प्रकृति निर्माता है, वह पोषक है, वह संहारक भी है - और इन सबके पार साक्षी है हजारों प्राणियों के उत्पत्ति और विनाश का । उसकी चेतना तटस्थ है, पर निष्क्रिय नहीं। वह हर उस कृति को संजोती है जो उसके साथ समरस होकर जीती है, और हर उस आकांक्षा को निगल जाती है जो उसे चुनौती देती है।


मनुष्य के इतिहास में जब भी उसने प्रकृति के साथ संवाद किया है - उसे समझने
, उसके साथ चलने की चेष्टा की है - उसकी सभ्यता ने फल-फूलकर स्वर्णयुग देखे हैं। सिंधु घाटी की जल प्रणाली से लेकर मौर्यकालीन वृक्षपूजा, वैदिक ऋचाओं में वर्णित नदियों की स्तुतियाँ, या महाकाव्यों में वर्णित पर्वतों का मानस संबंध - ये सब इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि जब मानव प्रकृति को आदर देता है, वह स्वयं भी दिव्यता के निकट पहुँचता है।

लेकिन जब यह मनुष्य दंभ से भर जाता है, जब वह अपने विज्ञान और तकनीक के मद में प्रकृति को पराजित करने की चेष्टा करता है, तब प्रकृति अपना मौन त्यागती है। तब वह प्रलय बन जाती है - कभी महामारी, कभी भूकंप, कभी जंगल की आग, कभी बाढ़। यह उसकी चेतावनी नहीं, उसकी न्याय-शक्ति होती है।

प्रकृति की संवेदनशीलता और संतुलन ही उसका सबसे बड़ा चमत्कार है। वह अपने भीतर रात और दिन, सृजन और संहार, जीवन और मृत्यु को साथ लेकर चलती है। और यह विरोधाभास नहीं, बल्कि उसका अद्वितीय सौंदर्य है।


आज
, जब हमारे नगरों की हवा साँस लेने लायक नहीं रही, नदियाँ मैली और पर्वत निर्वस्त्र हो गए हैं, तब यह प्रश्न उठता है - क्या हमने प्रकृति को केवल उपयोग की वस्तु मान लिया है? क्या हम भूल गए कि हम स्वयं प्रकृति के अंग हैं, उससे अलग नहीं?

प्रकृति कोई 'बाहरी दुनिया' नहीं है, यह हमारी चेतना का विस्तार है। जैसे हम अपने शरीर का ध्यान रखते हैं, वैसे ही हमें इस धरती, इस वायु, इस जल, इस आकाश का भी ध्यान रखना होगा। वरना वह माँ, जो हमें जन्म देती है, वही कालरात्रि बन हमारी समाप्ति भी कर सकती है।

यह समय है पुनः संवाद का - प्रकृति से, उससे नहीं जो बाहर दिखती है, बल्कि उस मौन चेतना से जो हमारे भीतर भी उतनी ही जीवित है। जब हम पेड़ को काटते हैं, हम केवल लकड़ी नहीं काटते, हम अपने ही श्वास को कमजोर करते हैं। जब हम नदियों को बाँधते हैं, हम अपने ही प्रवाह को रोकते हैं।


इसलिए
, प्रकृति के साथ कोई युद्ध नहीं होना चाहिए। केवल प्रणय हो - एक शांत, सधा हुआ, समर्पित प्रणय, जिसमें हम प्रकृति को एक गुरु, एक माता, एक मित्र की भाँति स्वीकारें। तभी हम जीवित रहेंगे - केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी।

-      प्रणव झा, शिलोंग, जून 2025


 

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