संघर्ष और तपन
तप में जो तपकर निखरे हैं,
वो ही भू पर चमके हैं।
सोना सहकर तपन आँच की,
कुंदन बन कर दमके हैं।
लोहा जब तक ताप न पाता,
कैसे वह फौलादी बनता?
जो सह जाता चोटों को,
वही समर में हैं तनता।
कांसा जब भट्ठी में पिघले,
सुंदर मूरत गढ़ता है।
तपकर, गलकर, साँचे मे ढल
कीमत उसका बढ़ता है।
मोम जले जब बन कर दीप,
तम में विलीन हो जाता है।
और कोयला, भी जल कर, तप कर,
बन कर राख, मिट जाता है।
संघर्षों की तपन सहे वो,
जिनमे धैर्य और मूल्य गहे।
जो भीतर से खोखले हों,
वे झोंकों में ढहे-बहे।
संघर्ष नहीं बस तोड़े हरदम,
पर गढ़ दे व्यक्तित्व नया।
जिसमें हो मूल्य, धीरज, बल
वही तपकर फिर निखर गया।
आत्मा मे हो दीप्ति ज्ञान की,
अँधियाली कुछ कर पाए क्या?
जिसने दुख को पीकर जीता,
संघर्षों से घबराए क्या?
धीरज, साहस, सत्य, विवेक
चित्त में जिनके बहते हैं।
वही पुरुष महान बनें हैं,
हर तम जो सह सकते हैं।
जलना तो सबको पड़ता है,
कुछ राख, कुछ अंगार बनें।
कुछ दीपक सा टिमटिम जलें,
कुछ तपकर फौलाद बनें।
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