जीवन-चक्रव्यूह
विकल मोन मानि लै कि हारि अखन हम,
कि सीमा तोड़ि विजय पाबि अखन हम?
पराजय हल्लुक छैक, भारी छैक विजय तऽ,
मुदा कि सत्य छैक, ई जानी अखन हम ।।१।।
विजय कि छैक सदिखन सुखक निवाला?
सघन वन मे सभ कियौ नै पाबय उजाला!
पराजय में सेहो लुकायल कत्तहु लुत्ती सन,
आशा से भरल जेना कोनो पेय प्याला।।२।।
ई जीवन बनल अछि चक्रव्यूह दोधारी,
रचलकै मोह कोनो भ्रमजाल भारी।
बुझल अछि एतय करू प्रवेश कोनाक,
मुदा नहि ज्ञात अछि निकास द्वारि।।३।।
कत्तहु हम ऐ जाल में फँसि नै जाय,
चोट खाऽ कऽ कत्तहु फेर सहि नै पाबि!
विचारक ज्वार में डगमगा रहल छी,
घूरि जाय की विजयक गीत गाबि।।४।।
नहि! घुरनाई तऽ कोनो वीरता नहि छैक,
सहज छैक परेनाई, कठिन धीरता सही छैक।
कठिन बाट चुनि, चलय निर्भय सदिखन जे,
धर्मध्वज, शौर्य केर हकदार वैह छैक।।५।।
प्रथम नहीं हम भेलहू एहि दौड़ में तऽ,
दोसर स्थान पर सदिखन रहलहू हम।
नै पेलहु सभकिछू, नै छूटल बहुत किछू,
विजय केर अंश के लऽ कऽ चललहूँ हम।।६।।
प्रयत्न से हमर नाता रहल अछि,
अभाव में सेहो हम गाबैत रहलहु अछि।
एक एकटा हारि से सीखि के निरंतर,
नवआशा ज्योति जराबैत रहलहु अछि।।७।।
हे मैया! तू ही आब हमारा ई शक्ति दे,
कि हम सभ मोह जाल से मुक्त भऽ जाय।
नै होय लक्ष्य खाली पराजय-विजय केर,
मनुषऽक हृदय में जुड़ि के जिबि हम ।।८।।
ओहि भूमि पर बनय स्थान हमरो,
जतय कर्म, करुणा, समर्पण
बसल होय।
जतय लोक श्रद्धा से लेबय नाम हमर,
जतय मूल्य मानव धर्म के सजल होय।।९।।
- प्रणव कुमार झा राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड, नै दिल्ली [30.04.2025]
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