शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

जीवन-चक्रव्यूह

 

विकल मन मान ले कि हारूँ अभी मैं,
कि सीमाएँ तोड़ विजय पा लूँ अभी मैं?
पराजय सरल है, कठिन है विजय तो,
मगर क्या सत्य है, यह जान लूँ मैं।।१।।

 

विजय क्या है सदा सुख का निवाला?
समर मे हर कोई  नही पावे उजाला।
पराजय में भी छुपा कहीं मोतियों सा,
विचारों से भरा कोई पेय प्याला।।२।।

 

ये जीवन बना चक्रव्यूह दोधारी,
रचा है मोह ने
भ्रमजाल  भारी।
पता है यह करूँ  प्रवेश कैसे,
नही पर ज्ञात है निकास द्वारि।।३।।

 

कहीं मैं इसी जाल में फँस न जाऊँ,
आघात खाकर कहीं फिर सह न पाऊँ!
विचारों के ज्वार में डगमगा रहा हूँ,
वापस हटूँ या विजय गीत गाऊँ।।४।।

 

नहीं! लौटना तो कदापि वीरता नहीं है,
सहज है भागना, कठिन धीरता सही है।
कठिन राह चुन, चले निर्भय सदा जो,
धर्मध्वज, शौर्य का हकदार है वो।।५।।

 

प्रथम नहीं मैं हुआ इस दौड़ में तो,
द्वितीय स्थान पर सदा ही रहा हूँ।
न पाया सबकुछ, न खोया बहुत कुछ,
विजय के अंश को लेकर चला हूँ।।६।।

 

प्रयत्नों से मेरा नाता रहा है,
अभावों में भी मैं गाता रहा हूँ।
हर एक हार से सीख कर निरंतर,
नव आशा ज्योति जलाता रहा हूँ।।७।।

 

हे माँ! तू ही अब मुझे यह शक्ति दे दे,
कि मैं हर मोह जाल से मुक्त हो लूँ।
न हो लक्ष्य केवल पराजय-विजय का,
मनुज के हृदय में बसकर जियूँ मैं ।।८।।

 

कि उस धरणि पर बने स्थान मेरा,
जहाँ कर्म, करुणा, समर्पण बसे हों।
जहाँ लोग श्रद्धा से उच्चारें नाम मेरा,
जहाँ मूल्य मानव धर्मों के रसे हों।।९।।

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