समझ नहीं पा रहा हूँ मैं कि हार मान लूँ
या हर हद पार कर दूँ जीत की तमन्ना मे
क्या इस तरह जीतकर मैं कुछ पा सकूँगा ?
या कि हार मान कर चैन से जी सकूँगा ?
ये कैसा चक्रव्यू रचा है जीवन ने
जो ललचा तो रहा है मुझे अपनी ओर
मुझे मालूम नहीं कि मैं इसे भेद सकूँगा !
समझ नहीं सका कि इसका द्वार कहाँ हैं?
भेदकर इसे निकलने का मार्ग कहाँ है ?
कदाचित मैं इसमे कहीं फँस चुका हूँ
क्या अब समय है पीछे लौट जाने का ?
क्या मैं अपने कदमों को वापस खींच लूँ ?
नहीं ! ऐसा करना वीरता तो नहीं होगा
और कम से कम मैं कायर तो नहीं हूँ
जिंदगी के रेस मे मैं प्रथम तो नहीं आया
पर हर रेस मे दूसरा स्थान तो पाया है
माना मुझे पूर्णता कभी नहीं मिल पाया
पर हर बार कुछ अंश तो मेरे हिस्से मे आया
हे माँ मुझे शक्ति दे इतना भर कि
मैं पार पा सकूँ इन उलझनों से
और जीत सकूँ दिल इंसानियत का
इस महि मही पर अपना मुकाम बना सकूँ
- 27.01.2010
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