आशा का आकाश
सूनी आँखों मे अब तो आते भी नहीं हैं नीर,
कौन सुनेगा, किससे कहूँ मैं अपने मन की पीड़।
आशाओं के दीप कभी जो जलते थे निशि-दिन,
बुझे पड़े मन के आँगन मे, हुए मलीन और क्षीण।
अरदास के जो स्वर उठते थे मेरे मन मंदिर मे,
मौन पड़े हैं कुंठित होकर, रुँधे हुए से स्वर मे ।
प्रणय पुष्प जो खिले हुए थे पाकर प्रेम बसंत ,
पतझड़ मे वो बिखर गए हैं, हुआ करुण ही अंत।
दूर सुनाई पड़ती है यह किसकी करुण रुदन?
क्यूँ राधा को अक्सर जग मे मिलते नहीं मदन!
मेरे मन की मूक व्यथा तेरा ही स्वागत कर लूँ ,
पीड़ाओं के वृन्तों को अपनी मुट्ठी मे भर लूँ।
मनुज नहीं जो जीते हैं बस बनकर जिंदा लाश,
घोर निराशा मे भी वो खोजे आशा का आकाश।
- 12.02.2025
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