मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

लोकतंत्रक रंगमंच

 


लोकतंत्रक रंगमंच

 

लोकतंत्रक रंगमंच पर, खेल अजगुत होइत अछि,

नेता लोकनि वादा करैत, जनता लहालोट होइत अछि।

कखनो पार्टी गलबहिया करत, कखनो बैर विरोधक राग,

जनता बीच भ्रमक जाल, केकरो पर करी कोना विश्वास?

 

चुनावी रैली, भाषण भारी, आश्वासनक बौछारि,

वोटक लेल सब किछु संभव, बाद में देत नकारि।

भाषण मे नै रहल मिठास, सबहक बोल भेल कड़वा

कि केलहु, कि करब बात नै, बस लड़बैत रहत सरबा।

 

मीडिया मुद्दाक बात उठाओत नै, करत टीआरपीक खोज

बिना बात के मुद्दा पर मुर्गा, लड़बईत रहत  रोज ।

कोना समाज समृद्ध सुखी होय, किए करत विचार

टीवी न्यूज मे जनता खोजय पापड़, घी, आचार ।

 

जनता भेल अछि साधन मात्र, वोटक गिनतीक खेल,
सेवा शब्दक अर्थ विलुप्त भेल, पैसाक राजक मेल।
चुनावक संग फूटल सपना, आशाक बुझाइत अछि अंत,
लोकतंत्रक दीप जरबाक लेल, कतय अछि सत्यक पंथ?

 

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