मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

अम्मल [मैथिली कविता - मंद बुद्धि के छंद]

 

अम्मल (Maithili Poem)

जे खाय अछि गुटका
भऽ जाय अछि गलचुटका।
जे खाय अछि पान
दै अछि सभ के ज्ञान।
जे पीबय अछि चाय
तरोताजा भऽ जाय।
रोज पिबय जे दारू
भऽ जाय अछि बीमारू।
जे पीबय अछि पानि
बनल रहय अछि जुआनि।
पैघ के करय जे आदर
पाबय नेहक चादर।
जे पोथी पढय अछि
ज्ञान ओकर बढ़य अछि।
भोरे करय जे ध्यान
होय ओकर कल्याण।
जे मेहनत करय अछि
आगा ओ बढ़य अछि।
नेह बढाबय अछि जे
नेहे पाबय अछि ओ।

ताकय जे मंच माला

बुझु दाल मे काला ।
चलु आब हम जाय छी
घुरि-फिरि के आबय छी। 


 

गिद्ध [मूल मैथिली कथा का अनुवाद]

 

गिद्ध

लेखक एवं अनुवादक : प्राणव झा

(केवल स्वांतः सुखाय, अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )

दादी, घर पर गिद्ध बैठ जाने से क्या होता है?” रमण ने अपने बाल मन मे उठे इस प्रश्न को दादी से पूछते हुए बोला था। सुबह से ही शोर उठा था कि सी डी झा के घर पर गिद्ध बैठ गया है।

बाबू रे जिस घर पर गिद्ध बैठ जाता है न उस घर मे भूत-प्रेत का वास होने लगता है। क्योंकि गिद्ध बहुत गंदा जीव होता है, मरे हुए जीवों को नोच कर खाता है।“

 
रमण ने कई बार गिद्ध नाम के इस विशालकाय पक्षी को घर के पिछवाड़े मे बड़े ताड़ के पेड़ पर बैठा देखा था, और कई बार दादी से साथ खेतों की ओर जाने पर देखा था मरे हुए जानवरों का मांस नोचते हुए।

 
किन्तु रमण ने टीवी पर रामायण मे देखा था कि जटायु और संपाती नाम के गिद्धों की तो महिमा मंडन किया गया है। उन लोगों को आदरणीय माना गया है। इस विरोधाभास को लेकर अक्सर ही रमण के मन मे भ्रम की स्थिति खड़ी हो जाती थी।
यह घटना उस समय की है जब रमण करीब : वर्ष का बालक था और गाँव मे रहता था। समय बीतने पर रमण अपनी दादी और माँ के साथ पिताजी के पास रहने गाजियाबाद चला आया था। रमण के पिताजी गाजियाबाद के एक फैक्ट्री में लेखाकार का काम करते थे। रमण का नाम एक निजी विद्यालय में लिखा दिया गया था। अब रमण 13  वर्ष के हो गए थे। घर से विद्यालय करीब किलोमीटर पर था। रमण प्रतिदिन सायकल से विद्यालय जाता था। रास्ते में एक चारागाह पड़ता था जिसमे रमण अक्सर देखते थे कि लोग अपने मरे हुए पशुओं के लाश को फेंक कर चले जाते थे। रमण देखता था कि अक्सर ही एक 16-17 वर्ष का लड़का उन लाशों के चमड़े छुड़ाता रहता था और उस लाश को गिद्ध – कुत्ते सब मिल कर खाते थे। बाद मे वह लड़का उस मे से बचे हड्डी सब को भी अपने झोले मे बार लेता था। यह देख कर रमण के मन मे उस लड़के के प्रति बहुत ही घृणा का भाव आता था। किन्तु मन मे जिज्ञासा भी उत्पन्न होता था कि “वह ऐसा गंदा काम क्यूँ करता है? उन हड्डियों का क्या करता है?” किसी-किसी से सुना था कि कुछ लोग हड्डियों से काला जादू करते हैं। कितने ही बार रमण को हुआ कि उससे पूछें कि “तुम यह क्या करते हो और इस काम से तुम्हें क्या मिलेगा?” किन्तु रमण को अपने और उसके वेश-भूषा का अंतर हमेशा ही उसके पास जाकर उसके विषय मे बात करने का साहस करने से रोक देता था।

एक दिन रमण जब विद्यालय जा रहा था तो उसके घर से थोड़ा ही आगे एक मोदियाइन का घर था जिसने 3-4 मवेशियाँ पाल रखे थे । उसने देखा कि वहाँ पर कुछ लोग उस लड़के हो घेरे हुए हैं और अंधाधुंध लाठीया बरसा रहे थे। भीड़ से कुछ सम्मिलित स्वर सुनने में आ रहा था कि "मारो साले को, यह गिद्ध है, यही बहुत दिनों से नजर लगाए हुये था फलां के मवेशी पर जिस कारण से वह मर गया। बहुतों के मवेशियों पर इसकी गिद्ध वाली नजर रहती है... आदि आदि।" मार खाते-खाते वह लड़का अधमरू हो गया था। वह तो अच्छा हुआ कि किसी ने पुलिस को सूचित कर दिया था, इसीलिए पुलिस ने आकर  के भीड़ को तीतर-बितर कर दिया और उस लड़के की जान बची।



कुछ दिनों के बाद एकदिन रमण घर पर किसी बात से रूठ गया था। छुट्टी का दिन था और नहाया-धोया भी नहीं था। ऐसे ही बनियान और  पैजामा पहने घर से निकल गया था। घूमते-घामते उसी चारागाह की ओर पहुंचा। देखा तो वह लड़का फिर नजर आया। बस फिर क्या, रमण उसके पास पहुँच गया। उससे पूछा – अरे! तुम ऐसा गंदा काम क्यूँ करते हो? लोगों के मवेशियों को काला जादू से मार देते हो , और उनका खाल खींच लेते हो। उस दिन इतनी मार पड़ी फिर भी वही काम!


उसने कहा मरे हुए मवेशियों का खाल-हड्डी निकालना मेरा खानदानी धंधा है। किन्तु हम लोग किसी के मवेशियों को मार देते हैं या कि नजर-गुजर लगा देते हैं यह शत प्रतिशत अनर्गल आरोप है हम  लोगों पर। इस प्रकार के भीड़ अक्सर ही हम लोगों पर अत्याचार करते हैं।


हम लोग जो यह चमड़ा छुड़ा कर ले जाते हैं, उसी की सफाई कर के और फिर पॉलिश आदि कर के रंग-बिरंग के जूते , बेल्ट, बैग, बटुआ और कितने ही अन्य अन्य श्रृंगार की और उपयोग की वस्तुएँ  बनाई जाती हैं, वह सभी को भोग्य और शुद्ध लगता है। और आपने क्या कहा  हड्डी.....हा..हा..हा.., अरे जी हड्डी का हम लोग कालाजादू मे उपयोग नहीं करते हैं। सारा माल दिल्ली के शाहदरा-उस्मानपुर एरिया में भेज दिया जाता है। जहां पर उसकी सफाई होता है। फिर फैक्ट्री में कटाई-घिसाई-पोलिस कर के रंग-बिरंग के  सजावट की वास्तुएँ, भगवान की मूर्तियाँ, महिलाओं के श्रृंगार के लिए  माला-झुमका आदि कितने ही आकर्षक वस्तुएँ इन्ही हड्डीयों की बनाई जाती है। बड़े मेले और बाजार सब में जो सस्ती-सस्ती मोती मालाएँ सब देखते हो, वो क्या कोई असली होती हैं! सभी इन्ही हड्डीयों की बनाई जाती है। सो यह सारी वस्तुएँ कोई भी हो, पंडित, मुल्ला, बनिया-रार, साहेब-गुलाम सभी को प्रिय लगती हैं। और हम जैसे काम करने वाले सभी के लिए गंदे होते हैं! 


यदि हमारे जैसे काम करने वाले नहीं हो, और यह गिद्ध कुत्ते नहीं हों तो आपका यह समाज मरे हुए जानवरों के सड़े हुए लाशों से पटा पड़ा रहेगा और कोई उठाने वाला नहीं मिलेगा। हम लोग हैं तो आप लोग इस सड़ाँध से छुटकारा पाते हैं। किन्तु फिर भी आप लोग हमे गिद्ध कह कर प्रताड़ित करेंगे, अवसर पाते ही लठियाएंगे, मारेंगे, और इज्जत कि तो ख़ैर छोड़ ही दीजिए!


अब रमण सब कुछ समझ गया था। पारिस्थितिकि में गिद्ध का महत्व भी, और यह भी समझ गया था कि कैसे आपका पहनावा और वेश भूषा भी आपको किसी व्यक्ति से संवाद करने मे और उसके विषय मे वास्तविकता जानने मे एक अवरोधक की भांति कार्य करता है। रमण को याद आया कि कैसे गांधीजी ने चम्पारण में किसानों के दुखदर्द को देख कर अपना  सूट-बूट त्याग दिया था, , उसके बाद उनको देश के अंतिम और सबसे कमजोर तबके की समस्याओं को समझने में कोई परेशानी नहीं रही थी।

[28 सितंबर 2019]