शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

तीसरी प्रतिज्ञा [मूल मैथिली कथा का अनुवाद]

 

तीसरी प्रतिज्ञा

लेखक एवं अनुवादक : प्राणव झा

(केवल स्वांतः सुखाय, अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )

 

आज राघव का सिविल सेवा का अंतिम परिणाम आनेवाला था इसलिए कल रात से ही उनका मन छटपटा रहा है। एक क्षण के लिए भी नींद उनकी आँखों मे नहीं आ सकी। क्यों न हो, कई वर्षों से जो उनकी आँखों मे स्वप्न था वह अब उनके मात्र एक क्लिक की दूरी पर था। काँपते हाथों से उसने परिणाम के लिए क्लिक किया और .....।
Raghav Jha: All India Rank 24 : Got Selected for Indian Administrative Service.
यह देखकर उनकी मन:स्थिति जो हुई उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। उनको हुआ जैसे उनके पंख लग गए हो और वो दूर आसमान मे उड़े जा रहे थे। किन्तु स्वयं को चिकोटी काट कर उन्होने खुद को सचेत किया। फिर बरबस ही उन्हे नौ वर्ष पहले की वो घटना याद आ गई , आज की स्थिति को जिसका परिणाम कहा जा सकता है।


उस वक्त राघव दसवीं में गए थे। पिताजी एक सामान्य सरकारी कर्मचारी थे। घर में सारी मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध थी किंतु भोग-विलासिता दे दूरी बनी हुई थी। राघव के दो बाल सखा थे – बंटी और मोंटी। बंटी के पिताजी भी सरकारी कर्मचारी ही थे, और मोंटी के पिताजी व्यापारी थे। मोंटी के पिताजी ने उसे एकटा बढिया विडियो गेम खरीद कर दिया था जिसके देखा देखी मे बंटी ने भी अपने पिताजी से कह कर वैसा ही विडियो गेम खरीदवा लिया था। अब दोनों दोस्त राघव को चिढ़ाने लगे थे कि देखो हम लोगों के पास इतना बढ़िया विडियो गेम है और आपके पास नहीं है। यह सुन सुन कर राघव बहुत दुखी हो गए थे। उसने पिताजी के पास जिद किया कि पिताजी मेरे लिए भी वैसा ही विडियो गेम मंगा दीजिए। पिताजी ने उनको समझाया कि बाबू वो वीडियो गेम बहुत महंगा है और अभी खरीदना आवश्यक नहीं है। अभी दीदी को इंजिनियरिंग मे दाखिला दिलवाना है उसमे खर्चा होगा। और अन्य काम हैं। किन्तु राघव कहाँ मानने वाले थे। उन्होने कहा कि मोंटी और बंटी के पिताजी ने भी तो दिलाया है न! इसपर पिताजी बोले कि मोंटी के पापा अमीर व्यापारी हैं और बंटी के पापा घुसखोर। उनसे आप अपनी बराबरी क्यों करते हो ? इस पर राघव तुनक कर बोले कि ऐसी ईमानदारी को लेकर क्या करोगे जो बेटे के शौख भी पूरी नहीं कर सकता! इतना कह कर वह मुँह फुलाए वहाँ से चले गए। किन्तु उनकी आँखों मे अभी भी विडियो गेमे नाच रहा था।  

 

रात मे उसने क्रोध मे खाना भी नहीं खाया था। सोते रातों मे उसे खयाल आया कि क्यों न पिताजी का बटुआ चोरी कर लिया जाए और उसमे जो रुपए होंगे उससे दोस्तों के साथ जाकर वीडियो गेम खरीद लेंगे। यह सोचते ही वो उठे और चुपचाप पिताजी के कुर्ते से उनका बटुआ निकाल लिया। सुबह पिताजी को चुनाव ड्यूटी मे जाना था। इसलिए वो सुबह उषाकाल से पहले ही निकल गए । जल्दीबाजी मे उन्होने अपने कुर्ता के जेब को भी नहीं देखा जिसमे उनका बटुआ था और बटुए मे पैसे-कौड़ी के साथ साथ उनका पहचान पत्र, बस पास आदि भी था। बस मे बैठे पिताजी जा रहे थे तभी टिकट चेकर लोग पहुंचे। पिताजी से टिकट मांगने पर उन्होने जभी पास निकालने के लिए जेब मे हाथ दिया तो ..... अरे बाप रे बटुआ तो है ही नहीं! अब उनको हुआ कि क्या करें क्या न करे! उन्होने टिकट चेकर को बात समझाने का प्रयास किया किन्तु वो मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। इनके पास जुर्माना भरने के भी पैसे नहीं थे। उस समय मे मोबाईल फ़ोन की उतनी चलती भी नहीं थी। टीसी उनको बस से उतार कर वाद विवाद करे लगा। खैर, इस मामले को किसी प्रकार निपटा कर किसी तरह से पिताजी ड्यूटी पर पहुँचे थे। किन्तु समय पर चुनाव ड्यूटी पर नहीं पहुँचने के कारण अधिकारी ने उनपर काम मे लापरवाही का आरोप लगा कर उनको सस्पेंड कर दिया। दु:खी मन से पिताजी घर पहुँचे और माँ को सारी बातें बताकर फूट-फूट कर रोने लगे। इसी बीच राघव भी कहीं से खेलते कूदते घर पहुँचे। पहले तो उनको माजरा कुछ समझ मे नहीं आया, किन्तु बात जानने के बाद तो जैसे उनको काटो तो खून नहीं। आत्मग्लानी से वो डूबे जा रहे थे । हो रहा था कि धरती फट जाए और मैं इसमे समा जाऊँ। सोचने लगे कि आज मेरे कारण से पिताजी को निलंबित होना पड़ा और बदनामी हुई वो अलग। कुछ क्षण के लिए तो उनको अपने आप से , जिंदगी से घृणा होने लगा, नाना प्रकार के  नाकारात्मक खयाल आने लगे। एक क्षण होता कि फाँसी लगा लें। अगले क्षण होता कि नदी मे जाकर डूब जाएँ। किन्तु फिर उन्होने अपने आप को सम्हाला और खुद से कहा कि आज मेरे से बहुत बड़ा अपराध हो गया है जिसका फल पिताजी और पूरे परिवार को भोगना पड़ा है। किन्तु मैं कायर नहीं हूँ। मैं इस अपराध का प्रायश्चित करूंगा। किन्तु राघव को यह हिम्मत नहीं हुई कि वो सारी सच्चाई पिताजी को जाकर बता देते। तथापि राघव ने तत्क्षण तीन प्रतिज्ञाएँ ली:
1. जिंदगी मे कभी भी किसी भी प्रकार की चोरी नहीं करूंगा।

2. कभी भी कोई अनावश्यक मांग नहीं करूंगा।

3. पिताजी को आई.ए.एस बन कर दिखाऊँगा और तभी इस अपराध के लिए क्षमा माँगूँगा ।

उसके बाद फिर राघव ने पिताजी का बटुआ अति गोपनिय रूप से रख दिया था। वह दिन है और आज का दिन है, राघव ने सदैव ही अपने दोनों प्रतिज्ञाओं का पालन किया है और प्रतिपल अपने तीसरी प्रतिज्ञ  का पालन करने हेतु प्रयत्नशील रहे हैं। और आज वो दिन आ ही गया, जब उनकी तीसरी प्रतिज्ञा पूर्ण होने जा रही थी।

यह सब सोचते हुए राघव की आँखों से खुशी की आँसू बहने लगे ।

वो वहाँ से सीधे पिताजी का बटुआ निकालने के लिए गए। और फिर गए पिताजी को यह खबर सुनाने। आज-कल इंटरने का जमाना है और कोई खबर फैलाने मे मिनट भी कहाँ लगता है! पिताजी को अन्य लोगों से खबर मिल गई थी कि उनके बेटे ने गाँव-समाज का नाक ऊपर किया है और मिथिला का नाम रौशन। पिताजी खुशी से झूमते हुए राघव के सामने आए। अब राघव के लिए खुद को रोकना बहुत मुश्किल हो गया था। वो पिताजी से लिपट कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगे। उनकी आँखों से गंगा-यमुना बहने लगी। पिताजी ने कहा धत्त पगले, तुमने तो गाँव-समाज का इतना नाम किया है और ऐसे पागलों कि तरह क्यूँ रो रहे हो ! अब राघव ने रोते रोते नौ वर्ष पूर्व की सारी घटनाएँ सुनाने लगा। और अंत मे पिताजी को वो बटुआ निकाल कर दिया। अब सारी ग्लानि सारा अपराध बोध समाप्त हो गया था। आँसुओं की बारिश मे सब साफ हो गया था। लग रहा था जैसे घनघोर घटाटोप के बाद दिन खुल गया था।

        - [नई दिल्ली, 13 जून 2014 ]

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