बीस साल के बाद
लेखक : जगदीश प्रसाद मण्डल अनुवादक : प्रणव झा
(केवल स्वांतः सुखाय, अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )
आषाढ़ महिना। आर्द्रा नक्षत्र। दिन के ग्यारह बज रहे थे। गर्मी अपने उच्च शिखर पर थी। वैसे पंद्रह दिन पहले एक मूसलाधार बारिश हुई थी किन्तु तपती धरती ने वर्षा के एक ही घंटे के बाद धरती ऊपर के सारे पानी को अपने पेट मे समा लिया था। आकाश मे बिखरे बादलों की छोटी छोटी टुकरियाँ रिस-रिस कर विलुप्त हो गई। किसान समाज बारिश के लिए स्वाती नक्षत्र का चिड़ियाँ की भांति मुँह खोले आकाश की ओर देख रहे थे, किन्तु वर्षा के आगमन का कोई लक्षण देखने मे नहीं आ रहा है।
रोहनिया और बम्बै-गुलाबखास आम पक कर गिर गए थे। सफेदा, कृष्णभोग, जरदालू, सबुजा भरखैर पक रहे हैं। गोटि-पङरा कलकतिया भी पकना शुरू हो चुका है। कृष्णभोग सफेदा इत्यादि बहुत सारे आम अब आधा हुये जा रहे हैं।
रहमत अलपुरा-ताजपुर से, अर्थात अपनी बेटी के यहाँ से आकर चापाकल पर हाथ-पैर धोकर दालान के चौकी पर आँखें बंद कर जागे ही पड़े थे। उसी समय मैं स्वयं बगीचे से जाल मे आम लिए दालान पर पहुंचा तो इनको सोये हुए देखा। बगल मे खड़े हो विचार करने लगा कि कौन हैं? मेरा मन गवाही दिया कि हो सकता है कि आकर मेरी खोज की होगी और मुझे न देखकर प्रतीक्षा मे सो गए हैं। खाने-पीने का समय हो ही गया है इसीलिए जगाना आवश्यक है।
मैं बोला - “ओ सोनेवाले जागिए।”
नींद से सोये रहने पर न उठने मे देर होती, किन्तु जागे मे वो क्यूँ होता। अपनी आवाज सुनते ही वो उठ कर बैठ गए। स्मृति मे ज़ोर दिया कि कौन हैं? किन्तु पहचान नहीं सका। आगे मे खड़ा न खुद ही कुछ बोल रहा था और न चौकी पर बैठे वही कुछ बोल रहे थे। उनके मन मे जो परिचित उठ रहे थे वो तीस-चालीस वर्ष के परिचित थे, इसलिए कुछ बोलेंगे ही। किन्तु उनके चेहरे का रूप देख मैं बिलकुल नहीं पहचान सका। । सन्नाटे के बीच बोला -
“आपको पहचान नहीं सका?”
वो मुसकुराते हुए बोले - “मैं रहमत हूँ!”
‘रहमत’ सुन मन को चारो ओर दौड़ाया । कौन रहमत? एक नाम के अनेकों लोग होते हैं। गाँव-गाँव मे होते हाँ। असमंजस मे पड़ा मैं बोला -
“कौन रहमत?”
हँसते हुए रहमत बोले-
“मैं गोधनपुर का रहमत।”
गाँव का नाम सुनते ही रहमत याद आए। बीस वर्ष पूर्व रहमत इसी रास्ते नित दिन मोथी का चादर बेचने जाता-आता था। स्वयं चादर खरीदूँ या न खरीदूँ, किन्तु रहमत दालान पर आकर साइकिल आगे मे लगा कर, कुछ समय बैठ कुशल-क्षेम करते ही थे। अपनी मौसी गोधनपुर मे थी, उनके घर से सटे ही पश्चिम मे रहमत का घर। मैं भी जब गोधनपुर जाता था तो रहमत के यहाँ भी भेँट-घाँट करने जाता था। आज का परिवेश बदल गया है इसीलिए हिन्दू और मुसलमान के बीच कुछ दूरी बन गया है किन्तु अपना ऐसा नहीं था। भाई-भाई जैसे सम्बन्ध बने हुए थे-ओह। जब से मौसी मरी और दोनों बेटियाँ ससुराल बसने लगी तब से अपना गोधनपुर आना-जाना छूट गया। मौसी का बेटा नहीं रहने से संबंध भी प्रायः मिट गए हैं।
बोला-
“रहमत भाई?”
रहमत बोले-
“जी।”
समय को देखते हुए अन्य बातचीत को रोकते हुये बोला -
“भाई! नहाने-खाने का समय है, इसीलिए मैं भी नहा लेता हूँ, पीछे दोनों भाई साथ खाएँगे।”
खाना सुन रहमत बोला-
“मैं खाकर आया हूँ, भूख नहीं हैं, प्यास लग गया था, चापाकल पर जाकर पानी पी लिया ।”
मैं बोला -
“अन्न खाने की क्षुधा नहीं है तो दो आम ही खा लीजिए ।”
रहमत बोला-
“अब कैसे भी हुई तो बूढ़े की हड्डी ही हुई न, इसीलिए कुछ नहीं खाएँगे ।”
विचार को रोकते हुए मैं बोला -
“अच्छी बात है, नहीं खाएँगे तो मत खाइये। आप आराम करिए, मैं नहा खा लेता हूँ।”
जाल लिए आँगन गया। आँगन मे आम की जाल ओसारा पर रख बाल्टी-लोटा लिए चापाकल पर जाकर नहाया। नहाने के बाद धोती को दालान के ढाठ पर फैला कर खाने के लिए आँगन गया।
दालान पर रहमत भाई सो गए। मैं भी खाकर आकर दालान पर दूसरे चौकी पर सो गया । एक तो अमरस्सा का समय, दूसरा पूर्वा की बहती हवा और उस पर से दालान खुला हुआ, तुरंत ही नींद आ गई।
ढाई बजे रहमत उठ कर चापाकल पर जा मुँह-हाथ धो दालान पर आकर चौकी पर बैठते हुए मुझे भी उठाए । उठ कर चापाकल पर जा मुँह-हाथ धो दालान पर आकर विचार किया कि अभी आँगन मे पत्नी को उठा कर चाय बनाने कहूँगा यह अच्छा नहीं होगा। खाते-पीते वो घन्टा-डेढ़ घन्टा पीछे ही गई थी, इसलिए कच्ची नींद मे उठा, चाय बनाने कहूँगा यह अच्छा नहीं होगा। जब चाय कि सारी व्यवस्था स्वयम दालान पर रखा ही हूँ तो फिर स्वयं बनाने मे ही क्या हर्ज हैं। केतली-लोटा लिए चापाकल पर गया। केतली धोकर लोटा मे पानी लिए दालान पर आकर चाय बना कर दोनों लोगों ने पिया। अपना मन भी हल्का हुआ और रहमत भाई का मन भी हल्का हुआ। दोनों लोगों ने पान खाकर एक ही चौकी पर बैठ कर गप-शप शुरू करते हुए मैं बोला-
“रहमत भाई, आपके देखे हुए चेहरे का रूप ऐसा क्यूँ हो गया?”
बीस वर्ष पूर्व रहमत न टोपी पहनते थे न लूँगी। घर पर भले लूँगी पहनते होंगे किन्तु गाँव से बाहर धोती-कुर्ता और कंधे पर गमछा रखते थे। नवाज पढ़ते समय गमछे का ही मुरेठा बांध कर नवाज पढ़ते थे। किन्तु परिवेश बदलने से रहमत भाय लूँगी पहन कर भी गाँव-गाँव घूमने लगे और टोपी भी पहनने लगे इसीलिए पहचानने मे धोखा हो गया। वैसे, जवानी के चेहरे और बुढ़ापे के चेहरे मे भी अंतर आ गया है । मैं बोला -
“रहमत भाई, बहुत दिन के पश्चात आपसे भेँट हुई है।”
जैसा मैं बोला वैसे ही विचार को स्वीकार करते रहमत भाई बोले-
“बीस वर्ष से ज्यादा हो गए गाँव-गाँव घूमना छोड़ दिया। क्योंकि अब लोग प्लास्टिक का ही बिस्तर उपयोग करने लगे हैं , मोथी का बिछावन छोड़ दिया है।”
रहमत भाइ का विचार मन मे जँचा, मुँह से कुछ नहीं बोला, केवल मुंडी डुलाकर स्वीकार कर लिया।
रहमत भाई पुन: बोले-
“अल्ला मियाँ ने दो बेटे और एक बेटी दे रखा है, वो लोग भी अब जवान हो गए हैं।”
मैं बोला-
“तीनों का शादी-विवाह हो गया है कि नहीं?”
रहमत भाई बोले-
“तीनो के बाल-बच्चे भी हो गए हैं ।”
मैं बोला -
“तब तो परिवार बड़ा है।”
‘परिवार’ सुन रहमत भाइ के मन मे खुशी का हिलोर उठा जिससे होठों पर हँसी आ गया। बोले-
“बौआ, जान बुझ कर जिंदगी मे न ही किसी के लिए गलत सोचा है और न गलत किया है। अज्ञानता मे यदि किसी का बुरा हो गया हो तो हो गया हो।”
मैं बोला-
“बेटा लोग कमाइ करते हैं कि नहीं?”
मैं यह इसलिए पूछा कि परिवेश ऐसा बन गया है और बन भी रहा है कि अधिकांश नवयुवक श्रम से देह चुरा रहे हैं जिससे श्रम-संस्कृति भी धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है।
रहमत भाई बोले-
“जैसे अपने दोनों बेटे परदेश मे श्रम कर रहे हैं वैसे ही दोनों जमाई भी श्रम कर रहे हैं, जिससे दोनों ही परिवारों मे गुजर-बसर करने मे कोई परेशानी नहीं होती हैं। परसो ही बेटी के यहाँ गया था। चार नाति-नातिन हैं। कल बेटी ने नहीं आने दिया इसीलिए आज लौटा हूँ ।”
विचार को मोड़ते हुए मैं बोला -
“अपना कारोबार कैसे मर गया?”
कुछ समय रहमत भाई मन ही-मन स्मरण किए, पीछे बोले-
“बौआ! एक बार नहीं, जीवन मे दो बार ऐसा हुआ है। पहली बार हुआ था कपड़ा बुनने मे। उस समय मे गाँव गाँव मे लोग चरखा चलाते थे जिससे एक रोजगार चलता था। सभी गांवों मे तो नहीं किन्तु जगह-जगह खादी-भण्डार था। मैं भी झंझारपुर और तमुरिया खादी-भण्डार से सूत खरीदता था और घर पर दोनों प्राणी मिलकर कपड़ा बबुनते थे और खादी-भण्डार मे बेचते थे। उसी से गुजारा चलता था।”
खादी-भण्डार के सम्बन्ध मे पता ही था –इसी लिए मुंडी डुलाकर स्वीकार करते हुए बोला-
“बहुत अच्छा रोजगार था।”
मरे विचार से जैसे रहमत भाई को सह मिला वैसे ही मन मे खुशी आया। किन्तु तुरंत ही मुँह के खुशी की रेखा जैसे लुप्त हो गई वैसे ही एकाएक मुँह पर उदासी आ गई। कुछ समय चुप रहने के बाद रहमत भाय बोले-
“बौआ, जब कपड़ा का कारोबार बंद हो गया तब खादी-भण्डार सब भी बंद हो गए । कपड़ा बुनकर और चरखा चलाने वाले सब बेरोजगार हो गए। मैं भी दोनों प्राणी जब बेरोजगार हो गया तो कई दिन और कई रात को चूल्हे की आग नहीं जलती थी। अंत मे पत्नी को कहा कि अब तो प्राण बचना कठिन हो गया है”
रहमत भाइ के जीवन मे अंधेरा ही अंधेरा देख अपना अंदर की आत्मा जैसे डोल रहा था। बोला-
“हूँ, जीवन जीना तो कठिन हो ही गया था!”
रास्ता के खोये हुये राही को जैसे नया रास्ता मिलने से मन मे खुशी आ जाता है, वैसे ही रहमत भाई को हुआ। मुस्कुराते हुए बोले-
“बौआ, घरवाली ने कहा कि कपड़ा का कारोबार न बंद हो गया है किन्तु दुनिया मे क्या वही बस करोबार है। अल्ला मियाँ ने जब दो हाथें और दो पैर दिये हैं तो दूसरा कारोबार करेंगे।”
मैं बोला -
“वो तो ठीक ही बोली।”
रहमत भाई बोले-
“घरवाली को पूछा, दूसरा कौन सा करोबार करेंगे? घरवाली बोली, मोथी का बिछावन बना गाँव-गाँव बेचेंगे। विचार मेरे भी मन मे जांचा और वही करने लगा। बिछावन बुनता गाँव-गाँव मे बेचने भी लगा और गाँव-गाँव से मीठी भी खरीद कर लाने लगा। किन्तु अल्ला मियाँ को वह भी नहीं देखा गया। वह कारोबार भी बंद हो गया । गाँव-गाँव घर-घर मे लोग अब प्लास्टिक के बिछावन उपयोग करते हैं।”
रहमत भाइ के मन की पीड़ा को मिटाने के ख्याल से बोला -
“जाने दीजिए, अब आप भी बूढ़े हो गए न। अच्छा है बच्चे परदेश मे कमा रहे हैं। गाँव मे क्या अब कुछ रखा है। बैठे-बैठे खाइये और अल्ला मियाँ का सुमिरन करिए।”
रहमत भाई बोले-
“बौआ! कह तो रहे हैं आप लाख रुपए की बात, किन्तु गाँव-गाँव और घर-घर के जो बेटे-बहू की लीलाएँ देखता हूँ उससे अपनी भी चिंता बढ़ जाती है।”
रहमत भाई को सान्त्वना देते हुए बोला-
“रहमत भाई, दुनिया मे न सभी के बेटे-बहू एक जैसे नहीं होते और न ही एक जैसा व्यवहार है। कुछ बुरे हैं तो कुछ अच्छे भी हैं। इसीलिए, दुनिया की लीला देखकर मन मे चिंता न करें। अपने बेटे-बहू सुधरे-सम्हले रहें, बस उतने से ही मतलब रखिए।”
अपने बेटे-बहू के व्यवहार से या कि मेरे विचार सुनकर, रहमत भाई के मन मे खुशी आया जिससे मुँह मुस्कुराए। उसी बीच दिन भी ढला। धूप की तीव्रता भी कम हुई। रहमत भाई बोले -
“बौआ, अब जाता हूँ । जब तक जी रहा हूँ तब तक तो आस बना हुआ ही है। आपने भी तो मेरे गाँव आना-जाना छोड़ दिया है।”
औरों की तरह झूठ-मूठ क्यूँ कुछ बोलता, स्पष्ट ही कहा -
“रहमत भाई, जब तक मौसी जिंदा थी तब तक मैं भी और माँ भी आते-जाते थे, किन्तु जब वो मर गई और दोनों मौसेरी बहन ससुराल बसने लगी तब फिर कहाँ जाऊंगा।”
मौसी का नाम सुनते ही रहमत भाई को जैसे कुछ याद आया वैसे ही सर पर हाथ देते, अफसोस करते हुए बोले - “बौआ, वो क्या परिवार था! मतलब तुम्हारे मौसी का परिवार, और देखते देखते अभी कहाँ चला गया!”
रहमत भाई के विचार मे सह नहीं दिया, क्योंकि मौसी के परिवार की घटना बहुत दुखद रही है। विचार को मोड़ते हुए बोला -
“रहमत भाई, खाने के समय कुछ खाए नहीं, आम का महिना है, दो आम भी तो खा लीजिए।”
अपने पेट पर हाथ फेरते हुए रहमत भाई बोले- “बौआ, सुबह के समय मे कुछ ज्यादा खा लिया था, बेटी ने मुर्गा बनाया था, इसीलिए खाने की कोई इच्छा नहीं है। चाय तो पी ही ली है । हो गया, ऐसे ही दोनों लोगों के बीच प्रेम बना रहे। दुनिया मे कुछ है।”
रहमत भाई का विचार सुन अपना भी स्नेह (प्रेम) उमड़ पड़ा। बोला- “रहमत भाई, आम भी नहीं खाएँगे तो मत खाइये। जब गाँव ही जा रहे हैं तो एक जाली आम घर पर ही लेते जाइए। पत्नी भी खाएँगी और आप भी चार-दिन-पाँच-दिन खाइएगा।”
रहमत भाई चुप ही रह गए । बाग से जो आम जाल मे लाया था वो जाल मे ही था । आँगन से जाल उठा लाया और रहमत भाई के आगे रख दिया।
जाल के आम को निहारते हुए रहमत भाई बोले - “सारा आम कलमी ही जान पड़ता है ।”
मुस्कुराते रहमत भाई आम की जाल हाथ मे लटका कर विदा हुए। थोड़े दूर तक रहमत भाई को विदा कर मैं घूम कर आ गया ।
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