एनपीएस(NPS) मैथिली लघुकथा
लेखक एवं अनुवादक : प्रणव झा
मूल कथा लिंक : http://pranawjha.blogspot.com/2019/06/nps.html
“सुनिए, जल्दी से मुझे कुछ खाने के लिए दे दीजिए, मुझे नटवर बाबू के पास जाना है, एनपीएस खाता खुलवाने“ दुकान से लौटते ही विनोद मिश्र ने अपनी पत्नी अंजलि देवी से कहा।
"एनपीएस! यह क्या होता है जी ?" अंजलि देवी ने प्रत्युत्तर में पूछा।
यह पेंशन खाता होता है जिसमे लोग अपनी कमाई का कुछ हिस्सा जमा करते रहते हैं और साठ वर्ष का होने के बाद उस जमा पैसे मे से लोगों को पेंशन मिलता है। इसमे दूसरे खातों से ज्यादा ब्याज भी मिलता है जिससे पैसे तेजी से बढ़ते हैं।
"ओह! फिर इसमे क्या होशियारी है? जिसके पास अतिरिक्त पैसे हों उनके लिए यह तामझाम हुआ, हम लोगों की सारी कमाई तो खाने-पीने, दवाई-दारू, बच्चों की पढ़ाई और रिश्तों नातों को निभाने मे चला जाता है, तो फिर इस एनपीएस मे पैसे कहाँ से देंगे! बच्चे जो पढ़ लिख जाएंगे तो बुढ़ापे मे पेंशन की क्या आवश्यकता रह जाएगी? और फिर सरकार भी तो सुना है कि वृद्धा पेंशन देती है।“ – प्रस्ताव का प्रतीकार करते हुए अंजलि बोली।
विनोद और अंजलि मिथिला के एक गाँव से पलायित होकर दिल्ली आए थे। पहले गाँव मे विनोद अपने पैतृक जमीन पर खेती-बारी कर के गुजारा करते थे। किन्तु दिनो दिन खेती-बारी की हालत खराब होते जा रही थी, आमदनी घटती जा रही थी। इसी बीच मे तीनो बच्चे भी बड़े होते जा रहे थे, जिनकी पढ़ाई-लिखाई, दवाई-दारू भी अब इनको जोड़ना पड़ रहा था। माता-पिता के मरने के बाद भाई लोग भी अलग हो गए थे। इस परिस्थिति मे अंजलि इनके पीछे पड़ी हुई थी कि इस खेती-बारी से गुजारा करना मुश्किल है और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी इस गाँव के विद्यालय मे सही से नहीं हो पा रहा है, इसीलिए चलिए दिल्ली, वहीं मेहनत, मजदूरी करेंगे और वहीं रहेंगे। अपने गाँव के और मेरे पीहर के कितने ही लोग वहाँ गए हैं और सुख से रहते हैं। खेतों को बटाई लगा दीजिए। खेतों को अब कौन बटाई लेता है, और जो लेता है वह भी कुछ ढंग का उपज कहाँ देता है। किन्तु खेतों का मोह कब तक। भगवान भरोसे यह सब छोड़ना ही पड़ता है। अंततोगत्वा अपनी पत्नी की बात मान कर एकदिन सपरिवार विनोद मिश्र ने दिल्ली का रास्ता पकड़ा।
मैथिल ब्राम्हण का लचर शरीर था, इसीलिए तो विनोद किसी फैक्ट्री में काम करने मे सक्षम नहीं हो सके। अंततः उनके ससुराल के एक व्यक्ति जो द्वारका के एक अपार्टमेंट में एक छोटी से परचून की दुकान चलाते थे, उन्होने कहा कि मेरे अपार्टमेंट में एक धोबी था जो लोगों के कपड़े मे स्त्री करता था वो कहीं भाग गया है, तो यदि आप कहें तो वहीं पर काम पकड़वा देता हूँ। पहले तो हुआ कि धोबी का काम कैसे करूंगा, किन्तु मरता क्या न करता वाला हिसाब था। उन्होने काम शुरू किया। कुछ ही दिनों मे उनकी दुकान चल पड़ी। अब महीने के 15-20 हजार रुपए कमा लेते थे। अंजलि ने भी एक अपार्टमेंट में दो घरों मे खाना बनाने वाली का काम पकड़ लिया था। और ये लोग पालम गाँव के एक कालोनी मे किराए पर रहने लगे थे। जिंदगी ठीक ठाक कटने लगी थी किन्तु बचत के नाम पर इन लोगों के पास ठनठन गोपाल ही था। इन्ही के गाँव का एक लड़का नटवर भी इसी बीच में दिल्ली आया था पढ़ाई करने हेतु। कई बार विनोद से कहा था कि चाचा जी कुछ बुढ़ापे के लिए भी बचाइए। एक एनपीएस खाता खोल लीजिए। किन्तु सदौव ही विनोद उसकी बातों को हवा में उड़ा देते थे।
ओह! मैं भी कहाँ कहानी को फ्लैशबैक में लेकर चला गया हूँ! हाँ, तो अंजलि के प्रतिकार का उत्तर देते हुए विनोद बोले कि सरकारी पेंशन की आशा लोग कब तक रखेंगे! और वैसे भी वह बिल्कुल ही लाचार लोगों के लिए है। मैं क्यूँ मनाऊँ कि बुढ़ापे तक मैं लाचार रहूँ। और रही बात बच्चों के पढ़ लिख जाने के बाद बुढ़ापे की क्यूँ चिंता करना, तो अजी, मैं भी पहले यही सोचता था। किन्तु आज जो मेरे साथ घटना हुई है उसके बाद मेरे ज्ञानचक्षु खुल गए हैं।
"ऐसा क्या हुआ है आप के साथ आज? " अंजलि ने पूछा।
अरे मैं जिस रास्ते से दुकान पर जाता हूँ, उस रास्ते में एक लालबत्ती पर प्रत्येक दिन एक बुजुर्ग गाड़ीवालों से भीख माँगते रहते हैं। पहनावे कपड़े और वेशभूषा से वो अच्छे परिवार के लगते थे, इसलिए मेरे मन मे प्रतिदिन जिज्ञासा होता था कि कौन सी परिस्थिति हुई होगी कि इस बूढ़े व्यक्ति को भीख मांगना पड़ रहा है। आज मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने बूढ़े व्यक्ति से पूछ ही लिया कि चाचा जी क्या बात हो गई कि आपको भीख मांगना पड़ रहा है?
इस पर वह बूढ़ा कहने लगा कि वो पहले एक प्राइवेट नौकरी करते थे। अपने बेटे को खूब मन से पढ़ाया-लिखाया, बेटा इंजिनियर बन गया। शादी विवाह हुआ. फिर बेटा-बहू दोनों अमेरिका चले गए नौकरी करने हेतु। बूढ़ी पत्नी पहले ही स्वर्गवासी हो गई थी। इसलिए बेचारे बुजुर्ग अकेले ही यहाँ रह गए थे। बाप-बेटा मिल कर शुरुआत में द्वारका में एक छोटा सा फ़्लैट खरीदा था उसी मे अकेले रहते हैं। अपनी सारी कमाई उन्होने घर चलाने मे, बेटा-बेटी की पढाई , विवाह और इस घर में खर्च कर दिए थे इसीलिए खाते मे कोई पैसे नहीं हैं। पहले बेटा बीच बीच में पैसे भेज देता था, किन्तु कुछ महीनों पहले किसी बात पर बेटे के साथ कहा-सुनी हो गया था उसके बाद बेटे ने फोन करना छोड़ रखा है और पैसे भी नहीं भेज रहा है। अरोसी-पडोसी अब, कौन किसे देखता है और कितने दिन! ये भी अपने जिद्द छोड़ कर बेटे से बात नहीं किए। रहने की कोई चिंता नहीं किन्तु खाने के लिए जो पैसे चाहिए उसके लिए अपनी जिद्द मे वो भीख मांगने लगे हैं।
मैंने उनसे कहा कि चाचा जी आप चाहें तो एक उपाय कर सकते हैं, आप इस मकान को किराए पर चढ़ा दीजिए और मेरे कालोनी मे सस्ते मे किराया पर मकान ले कर रहिए और जो पैसे बचेंगे उसमे खाना पीना हो जाएगा । यदि मन बने, तो मुझे कहिएगा, मैं मकान खोज दूंगा।
यह कहकर मैं आगे बढ़ गया किन्तु मेरे मन मे बार बार उनकी स्थिति याद आने लगा और इसी लिए ही मैंने मन बना लिया है कि नटवर बाबू से कह कर ऑनलाइन एनपीएस खाता खुलवा लूँगा, और हर महीने मे हजार-दो हजार-पांच सौ जो भी होगा वो एनपीएस खाता में जमा करूंगा। यह कहकर विनोद भूजा का अंतिम कौर मुंह में निगल कर पानी पी कर घर से बाहर निकल गए।
इति।