गुरुवार, 18 जुलाई 2024

कन्या का जीवन [मूल मैथिली कथा। लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक: प्रणव झा]

कन्या का जीवन

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक: प्रणव झा  (केवल अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु)

-"ओ मेहमान जी! देखिए, मुझे दस आया। अब आपकी गोटी कट गई।"

-" तित्तिर दाइ! रोना-धोना मत करिए। आपको दो खुदरा आया है।"

-"नहीं! दस आया है। एक कौड़ी चित्त पड़ा है वो नहीं दिखाता है?"

-"नहीं! दो कौड़ीयां चित्त हैं। आपने कंगन से सरका दिया इससे पलट गया। ऐसे बेईमानी मत करिए।"

-"बेइमानी तो आप कर रहे हैं। हारने लगते हैं तो ऐसे ही रोना-धोना करने लग जाते हैं। जाइए अब आप के साथ नहीं खेलूँगी।"

यह चौसर का झगड़ा चल ही रहा था की धप्प से बगीचे मे एक लाल सिनुरिया आम गिरा। तित्तिर दाइ दौड़ी। और मैं भी तो दस ही वर्ष का था। आम लूटने नहीं दौड़ता तो फिर बाल्यावस्था कहलाता क्या ?

फल यह हुआ कि दोनों लोग एक ही बार उस आम के पास जाकर गिरे। तित्तिर उस आम को दबोच कर मुट्ठी मे पकड़े! और मैं तित्तिर के मुट्ठी को अपने मुट्ठी मे कसे था ! कोई छोड़ने के लिए तैयार नहीं।

तित्तिर बोली-"ओ मेहमान जी! इस आम को मैंने पाया है आप मेरी मुट्ठी छोड़ दीजिए नहीं तो अब मैं दाँत काट लूँगी सो कह देती हूँ ।"

मैं जब तक जवाब देता तबतक तित्तिर दाई ने इतनी जोर से दाँत काटा की मैं कराह हुआ और फट से हाथ छोड़ दिया । तित्तिर दाइ वो आम लेकर भागी।

मैं अप्रतिभ हो गया। तित्तिर दाइ मचानपर बैठकर दाँत से कुतर-कुतर कर आम खाने लगी । मुझे उदास देख कर बोली -"क्या ओ मेहमान जी! आप भी खाओगे? इस ओर से जूठा नहीं है। आप खा लो।"

मैंने कहा -"अच्छा, रहने दीजिए । मेरा जनेऊ हो गया है।"

वो बोली -"आप मेहमान हैं। मुझे आपसे छीनकर नहीं खाना चाहिए था। यह अनुचित हुआ । अब भी आप खा लीजिए। बहुत मीठा है । "

मैंने कहा -"मैं ही दौड़ा वह अनुचित हुआ। यह क्या मेरा बगीचा है ?"

वो लज्जित होते हुए बोली -"यह आप क्या कह रहे हैं? बहिन-बहनोई का धन क्या दूसरों का होता है? भाभी सुनेगी तो मेरी कितनी फजीहत करेगी? आपको मेरी कसम है, यह आम ले लीजिए ।"

तबतक मेरी नजर उसके बाँह पर पड़ी। कहा - "अरे! यह रक्त कैसे बह रहा है?"

वो बोली-"वाह रे पुछनेवाले! खुद ही चूड़ी भी तोड़ दिए और पूछ कैसे रहे हैं शुभ्रशाभ्र बनकर?"

मैं सिहर उठा। कहा-"देखिए, बहन को मत कहना।"

वो बदमासी से बोली -"वाह! कहूँगी नहीं तो क्या ? भैया को दिखा दूँग!"

मैं भाय से अवाक रह गया। खुशामद करते हुए कहा - "तित्तिर दाइ, आपको मेरी कसम है यदि बहिन और ओझाजी को कहोगी तो मैं आज ही अपने गाँव चला जाऊंगा ।"

वो बोली - "तो फिर ये आम खा लीजिए ।"

अंततः निरुपायहोकर मुझे ही सन्धि करनी पड़ी। परन्तु जैसे ही एकबार चूसता हूँ कि तित्तिरदाइ तालियाँ पीटती हुई खिलखिला उठी - "जाइए, आपको भठा दिया, मैं सब को कह दूँगी कि आपने मेरा जूठन खाया है ।"

यह कहते हुए तित्तिर दाइ आम का जलखरी हाथ मे उठाई और घर की ओर विदा हो गई। मैं भी उसके पीछे लग गया ।

आँगन मे आया तो देखता हूँ कि दीदी ठाँव-बाट करके बैठी है। बोली - "आज कितनी देर हो गई ! अभी तक पानी भी नहीं पिए हो।"

मैं पैर धो कर पीढ़ी पर बैठ गया बहिन पहले से ही चूड़ा थाली मे भिंगाई हुई थी तित्तिर वहाँ  पहुँच गई।

मुझे देख बोली क्यूँ ओ मेहमान जी वो बात मैं भाभी से कह दूँ?

मैंने अनुरोध पूर्वक कहा आप कहोगी तो मैं भी कह दूंगा । देखिए आपने जो दाँत काटा वो अभी तक दर्द दे रहा है

यह कहकर मैं उनको अपना हाथ दिखाने लगा । उसपर चार दाँतों के चिन्ह वैसे ही अंकित था। तबतक बहन एक कटोरी आम का रस लेकर पहुँच गई।

मेरा हाथ देख बोली - अरे ! यह क्या हो गया है ?

तित्तिर दाइ वहाँ से भागी और जा कर आम पापड़ बनाने लगी ।

बहन को न जाने कैसे समझ आ गया । ननद को डांटते हुए बोली  - जाइए, आपको रत्ती भर भी ज्ञान नहीं हुआ। विवाह की उम्र हो चली है और मेरे भाई से हमउम्र जैसे व्यवहार करती हैं। कल से आपके साथ बगीचा नहीं जाने दूँगी ।

इसके बाद की बातें अच्छे से स्मरण नहीं है। हाँ इतना याद है कि जिस दिन मैं गाँव जाने लगा उस दिन बगीचे के कोने मे तित्तिर दाइ खड़ी थी। मुझे सड़क की राह पकड़ते देख वो बोल उठी – ओ मेहमान जी ! जरा सुनते जाइए।

मैं पास मे गया तो वो बोली – “मुझसे कितने ही अपराध हो गए होंगे सो कहा सुना माफ करना “

यह कहकर उसने मेरे हाथों मे एक सिनुरिया आम रख दिया।

मैंने कहा - दीदी ने मेरे साथ बहुत सारा आम दे दिया है । देख नहीं रही हो सेवक के सर पर पिटारा।

परन्तु वो बोली आप नहीं लोगे तो मेरे मन मे बहुत दु:ख होगा।

यह कह कर वो अपने आँचल से आँख पोंछने लगी। मैंने आम जेब मे रख लिए ।

चौदह वर्ष बाद

मैंने इस बीच मे एम०ए० कर लिया लॉ कर लिया। जगह जगह से विवाह का प्रस्ताव आने लगा । परन्तु मैं एक ही जवाब देता था पहले जीवन मे प्रवेश कर जाऊंगा अर्थात जीविका स्थिर हो जाएगा तब।

इसी बीच मे ओझाजी का पत्र आया आपकी बहन बीमार हैं। आकार देख जाइए ।

मैं वहाँ पहुंचा तो देखा कि – न वो नगरी न वो ठाम। इन चौदह वर्षों मे जैसे सब कुछ परिवर्तन हो गया हो। जो विशाल हवेली मैंने देखा था उसके स्थान पर पुराने तलब के मेढ पर छोटा सा बाँस का मड़ैया देखने मे आया जो पूर्व का उपहास कर रहा था। जहाँ सात-सात बखारी रहता था वहाँ केवल एक मात्र टूटा हुआ भुसकाड़ मात्र खड़ा था ओझाजी परम सिकस्त हालत मे थे यह समझने मे कोई मुश्किल नहीं हुई।

आँगन पहुंचा तो बहन ने अनुरोध करते हुए बोला – हूँ! एक युग पर तुम्हें याद आई हम लोगों को एकदम से ही भूल गए थे!

तदुपरान्त उन्होने अपने दुःख का महाभारत पसारा। कौशिकी के बाढ़  से इस दशा को प्राप्त हुई है साल दर साल अन्न बह जाता है। खेत बेच कर जीवनयापन चल रहा है सास मर गई उनके श्राद्धकर्म मे कर्ज हो गया। महाजन का ऋण दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। ओझाजी को ऐसा न गठिया पकड़ा है कि अब अकर्मक हो गए हैं। बहन खुद भी सूख कर काँटा हो गई है।

उनका विवर्ण मुँह देख मन रोने का हो उठा बोलने लगी मुहे छः माह से पेट मे पथरी है। कोई देखने वाला नहीं है। अब ज्यादा दिन नहीं बचूँगी । माँ से भेंट करवा दो, उसी खातिर बुलवाई हूँ।

मेरी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगा। वो मेरी आँखें पोंछती हुई बोली – धत्त पागल! रो क्यूँ रहे हो ? भक्क जाओ ! मैं भी कैसी हूँ कि तुम्हारे आते ही अपना रामायण सुनाने लगी! इसका क्या अंत है । चलो पैर धोओ।

बहन मेरा हाथ पकड़ के पीढ़ी पर ले गई। मैंने उपहार मे जो पेड़े ले गया था उसमे से चार मेरे आगे रख दी। ऐसे ही कैसे दे देती इसीलिए पतीले से थोड़ा माढ़ा बाहर की ।

तबतक एक बच्चा जो तालाब मे मछली पकड़ने के काँटा से खेल रहा था वो दो-चार गरई मछली लेकर पहुँचा। बहन उल्लसित होकर बोली - बौआ तुम्हें मछली का बहुत शौक रहता है। धीरे-धीरे खाओ। दो को पकाकर चोखा बना देती हूँ। अरे बंगट, बाड़ी से हरी मिर्च तोड़ लाओ।

तबतक एक मलिन-वस्त्रा प्रौढा भी तालाब से स्नान किए पहुँची गले मे तुलसी की माला, हाथमे अछिञ्जल, गंगास्तव पाठ करती हुई वैधव्य की साकार मूर्त्ति जैसी। मैंने बहन से पूछा - ''इनको नहीं पहचाना ?''

वो मछली पकाते हुए बोली  - ''पहचानोगे कैसे ? यहाँ आते रहते तब न! ये मेरी परिहारपुर वाली ननद हैं ''

वो मुझे देखकर जरा धखाई बहन बोली ये मेरा भाई है। कोई हर्ज नहीं।

विधवा हाथ का लोटा तुलसीचौरा पर रखते हुए बोली - ''धन्य भाग! इतने दिनों पर बहन याद आई किस दिन इनकी चर्चा नहीं होती थी?''

मैंने देखा की उनके वस्त्र मे जगह जगह पैबंद लगा हुआ था जिस कारण से सामने आने मे संकोच हो रहा था। वो भीगी साड़ी लिए सीधे पिछवाड़े मे चली गई और प्रायः वहीं बैठकर साड़ी सुखाने लगी। मैंने बहन से पूछा - ''ये भी तुम्हारे साथ ही रहती है?''

वो चोखा मे मिर्च मिलाते हुए बोली - "क्या कहते हो ? विपत्ति पर विपत्ति इनके ससुराल मे देवर बहुत दुःख देता है। छः महीने से यहीं पर हैं "

मैंने पूछा - "इनके बच्चे ?"

वो बोली - ''एक लड़का है । और तीन कन्याएँ एक कन्या ससुराल मे बसती है । दो कुंवारी है। आज चतुर्दशी है। ये महादेव पूजती हैं इसीलिए दोनों बहन तालाब से मिट्टी लेने गई है। "

मैंने पूछा - "इनके पति को क्या हुआ?"

वो बोली-"विधाता हरण कर लिए। पूर्णिया जिला मे नौकरी करते थे। वहीं पर मलेरिया ने जकड़ लिया। अब इनको दो दो बेटीयों का कन्यादान करना है। रात-दिन चिंता मे डूबी रहती है।"

तबतक दो बालिकाएँ खोंइछे मे मिट्टी लिए पहुँच गई। बहन बोली-"यही, श्यामा पार्वती आ ही गई। अरी! मेहमान आए हैं। सब्जी बनेगी। अरी श्यामा! छप्पर पर सीताफल का फूल है वो चार तोड़ दो । और अरी पार्वती! तुम झट से बाड़ी से पटुआ का साग तोड़ ले आओ!"

उस बालिका को देख कर मेरे मन मे हठात तित्तिर का रूप नाच उठा। मैंने बहन को  पूछा-"दीदी! मैं द्विरागमन मे तुम्हारे संग आया था तो एक ऐसी ही लड़की थी। प्रायः तित्तिर नाम था। उसका कहाँ विवाह हुआ?"

बहन के होठों पर हँसी आ गई। बोली -"अब तुम उसको देखोगे तो पहचानोगे?"

मैंने कहा -"जरूर पहचानुंगा। वो चलते समय एक आम मुझे दी थी वो ऐसे ही याद है।"

तबतक परिहारपुरवाली भी साड़ी बदल कर आई और मिट्टी का महादेव बनाने लगी। मुझे लगा जैसे उनके शरीर का सारा रक्त पानी बन कर आँख के मार्ग से गिर पड़ा हो। केवल अस्थि और चर्म बस शेष रह गया था।

मैं जलपान कर रहा था सो निगला नहीं जा रहा था। बहन पंखा झेलते-झेलते पूछ बैठी-"बौआ, तुम विवाह क्यूँ नहीं करते हो?"

मैंने कहा -"मन लायक कन्या मिलेगी तब न?"

बहन को कहा -"उस तित्तिर जैसी। यदि उसका विवाह नहि हुआ हो...."

बहन बोली-"धत्त पागल! तुम एक ही रंग के सब दिन रह गए। वही तित्तिर दाइ तुम्हारे सामने मे बैठी हुई है सो नहीं पहचान रहे हो?"

यह सुनते ही परिहारपुरवाली शर्मा कर मुँह ढँक ली। और मेरे तो आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। इतने ही दिनों मे यह अन्तर! कहाँ वो अज्ञातयौवन! कहाँ यह अकालवृद्धा ! कहाँ वो स्वच्छन्द चहकने वाली तित्तिर। कहाँ यह बंगटक की माँ!

मैंने अविश्वास के स्वर मे बहन को पूछा-"अरे! यही तित्तिर दाइ हैं? मैं और ये  एक संग खेले हुए हैं। मैं ने अभी जीवन मे प्रवेश भी नहीं किया है और इंका सबकुछ समाप्त हो गया!"

इस बार पूर्व परिचित स्वर का कुछ आभास सुनाइ पड़ा-"ओ मेहमान जी! आप स्वयं से मेरा मिलान क्यूँ कर रहे हैं? आप पुरुष हैं। और हमलोग जभी कन्या होकर जन्म लेती हैं तभी सब कुछ अवधारण कर लेते हैं। उस समय बचपन मे ज्ञान नहीं था इसलिए आपसे बराबरी कर रही थी। मुझसे जो अपराध हुआ हो वो भूल जाइए। .... अरे! आप पुरुष होकर रो रहे हैं? धत्त! तब हमलोग कैसे धैर्य धारण करेंगे ? यदि हमलोग अपने आँसू बहाने लगे तो गाँव का गाँव बह जाएगा “

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कन्याक जीवन बीछल कथा

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवाद : प्रणव झा

-"हे औ पाहुन! देखू, फेर हमरा दस पड़ल। आब अहाँक गोटी कटा गेल।"

-"ए तित्तिर दाइ! कन्ना नहि करू। अहाँकें दू खुदरा पड़ल अछि।"

-"नहि! दस पड़ल अछि। एकटा कौड़ी चित्त छैक से नहि सुझै अछि?"

-"नहि! दू टा कौड़ी चित्त छल। अहाँ कंगनासॅं घुसका देलिऎक ताहिसॅं एकटा पट भऽ गेल। एना बेइमानी नहि करू।"

-"बेइमानी त अहाँ करैत छी। हारय लगै छी त एहिना कन्ना करऽ लगै छी। जाउ, आब अहाँसॅं नहि खेलाएब।"

ई पचीसीक झगड़ा चलिते छल कि धप्प दऽ गाछीमे एकटा लाल सिनुरिया आम खसलैक। तित्तिर दाइ दौड़लीह। और हमहूँ त आखिर दसे वर्षक रही। आम लूटय लेल नहि दौड़ितहुँ त फेर बाल्यावस्था कहौलकैक की?

फल ई भेल जे दुनू गोटे एके बेर ओहि आम लग जा कऽ खसलहुँ। तित्तिर ओहि आमकें बकबका कऽ मुट्ठीमे धैने! और हम तित्तिरक मुट्ठीकें अपना मुट्ठीमे कसने! केओ छोड़य लेल तैयार नहि।

तित्तिर बजलीह-"हे औ पाहुन! ई आम हम पौलहुँ अछि । अहाँ हमर मुट्ठी छोड़ि दियऽ, नहि त आब हम दाँते काटब से कहि दैत छी।"

हम जा जबाब दिऎन्ह ता तित्तिरदाइ ततेक जोरसॅं दाँत काटि लेलन्हि जे हम किकिया उठलहुँ और बक्क दऽ हाथ छोड़ि देलिऎन्ह। तित्तिर दाइ ओ आम लय पड़ैलीह।

हम अप्रतिभ भऽ गेलहुँ। तित्तिर दाइ मचानपर बैसलि दाँतसॅं कुतरि-कुतरि आम खाय लगलीह। हमरा उदास देखि बजलीह-"की औ पाहुन! अहूँ खायब? एहि दिस निरैठ छैक। अहाँ खा लियऽ।"

हम कहलिऎन्ह-"बेस, रहऽ दियऽ। हमर जनउ भऽ गेल अछि।"

ओ बजलीह-"अहाँ पाहुन छी। हमरा अहाँसॅं छीनि कऽ नहि खैबाक चाहै छल। ई अनुचित भेल। आबो अहाँ खा लियऽ। खूब मीठ छैक।"

हम कहलिऎन्ह-"हमहीं दौड़लहुँ से अनुचित भेल। ई कि हमर गाछी थिक?"

ओ लज्जित होइत बजलीह-"ई अहाँ की कहै छी? बहिन-बहिनोयक धन की अनकर होइ छैक? भौजी सुनतीह त हमरा कतेक फज्झति करतीह? अहाँकें हमर सप्पत अछि, ई आम लऽ लियऽ।"

ताबत हमर नजरि हुनक पहुँचीपर पड़ल। कहलिऎन्ह-"ऎं! ई शोणित कोना बहैत अछि?"

ओ बजलीह-"वाह रे पुछनाइ! अपने चुड़ियो फोड़ि देलन्हि अछि और पुछै छथि कोना शुभ्रशाभ्र भऽ कऽ?"

हम सिहरि उठलहुँ। कहलिऎन्ह-"देखू, बहिनकें नहि कहबैन्ह।"

ओ बदमासीसॅं बजलीह-"वाह! कहबैन्ह ने त की? भैयाकें देखा देबैन्ह!"

हम भय सॅं अवाक रहि गेलहु । नेहोरा करैत कहलिऎन्ह - "तित्तिर दाइ, अहाँ कैं हमरे सप्पत अछि । जौं बहिन आ ओझाजी कैं कहबैन्ह त हम आइए अपना गाम चल जाएब ।"

ओ बजलीह - "तखन ई आम खा लियऽ ।"

अगत्या निरुपाय भऽ कऽ हमरा सन्धि करय पड़ल । परन्तु जहिना एक चोभा लगबैत छी कि तित्तिरदाइ थपरी पारैत खिलखिला उठलीह - "जाउ, अहाँ कैं भठा देलहुँ, हम सभ कैं कहि देबैक जे अहाँ हमर ऎंठ खैलहुँ अछि ।"

ई कहैत तित्तिर दाइ आमक जलखरी हाथ मे उठौलन्हि और घर दिस विदा भऽ गेलीह । हमहूँ हुनकर पाछाँ लगलहुँ ।

आङन मे अएलहुँ त देखै छी जे दीदी ठाँव-बाट कैने बैसलि छथि । बजलीह - "आइ कतेक देरी भऽ गेलौह ! एखन धरि पानिओ नहि पिउने छह ।"

हम पैर धो कऽ पीढ़ी पर बैसि गेलहुँ । बहिन पहिनहि सॅं चूड़ा थारी मे भिजौने छलीह । तित्तिर ओहि ठाम पहुँचि गेलीह ।

हमरा देखि बजलीह - की औ पाहुन । ओ बात हम भौजी सॅं कहि दिऎन्ह ?

हम अनुरोध पूर्वक कहलिऎन्ह - अहाँ कहबैन्ह त हमहूँ कहि देबैन्ह । देखू अहाँ जे दाँत कटलहुँ से एखन धरि भकभका रहल अछि ।

ई कहि हम हुनका अपन हाथ देखाबय लगलिऎन्ह । ओहि पर चारिटा दाँतक चिन्ह ओहिना अंकित रहय । ताबत बहिन एक बाटी आमक रस नेने पहुँचि गेलीह ।

हमर हाथ देखि बजलीह - ऎं ! ई की भेलौह अछि ?

तित्तिर दाइ ओहिठाम सॅं पड़ैलीह और जा कऽ अमौट पारय लगलीह ।

बहिन कैं नहि जानि कोना बुझा गेलैन्ह । ननदि कैं डटैत बजलीह - जाउ, अहाँ कैं एको रत्ती ज्ञान नहि भेल अछि । विवाहक वयस भऽ गेल और हमरा भाय सॅं एकपिठिया जकाँ करैत छी । काल्हि सॅं अहाँक संग गाछी नहि जाय देबैक ।

एकरा बादक गप्प नीक जकाँ स्मरण नहि अछि । हॅं एतबा मोन अछि जे जाहि दिन हम गाम जाय लगलहुँ तहिया गाछीक कोन मे तित्तिर दाइ ठाढ़ रहथि । हमरा सड़कक बाट धरैत देखि ओ बाजि उठलीह - हे औ पाहुन ! कनेक सुनैत जाउ ।

हम लग मे गेलिऎन्ह त ओ बजलीह - "हमरा सॅं कतेक अपराध भऽ गेल हैत से कहल सुनल माफ करब ।"

ई कहि ओ हमरा हाथ मे एकटा सिनुरिया आम धऽ देलन्हि ।

हम कहलिऎन्ह - दीदी बहुत रासे आम हमरा संग कऽ देने छथि । देखैत छिऎक नहि खबासक माथ पर चङेरा ।

परन्तु ओ बजलीह - अहाँ नहि लेब त हमरा मन मे बड्ड दुःख हैत ।

ई कहि ओ आँचर सॅं अपन आँखि पोछय लगलीह । हम ओ आम जेबी मे धऽ लेल ।

चौदह वर्ष बाद ।

हम एहि बीच मे एम०ए० कऽ गेलहुँ । लौ कऽ गेलहु । ठाम-ठाम सॅं विवाहक प्रस्ताव आबय लागल । परन्तु हम एके जबाब दिऎक - पहिने जीवन मे प्रवेश कऽ जाएब अर्थात जीविका स्थिर भऽ जाएत तखन ।

एही बीच मे पत्र ओझाजीक पत्र आयल - अहाँक बहिन दुःखिता छथि । आबि क देखि जैयौन्ह ।

हम ओतय पहुँचलहुँ त देखैत छी- ने ओ नगरी ने ओ ठाम । एहि चौदह वर्ष मे जेना सभ किछु परिवर्तन भ गेल होइक । जे विशाल हवेली हमर देखल रहय तकरा स्थान मे पुरान पोखरिक भीड़ पर एकटा छोट-छीन टाटक मड़ैया देखय मे आएल जे पूर्वक उपहास करैत छल । जहाँ सात-सात टा बखारी रहैत छल तहाँ केवल एक मात्र टूटल भुसकाड़ टा ठाढ़ छल । ओझाजी परम सिकस्त हालत मे छथि ई बुझबा मे भाङठ नहि रहल ।

आङन पहुँचलहु त बहिन अनुरोध करैत बजलीह - हऽ ! एक युग पर तोरा मन पड़लौह । हमरा लोकनि कैं एकदम्मे बिसरि गेलाह !

तदुपरान्त ओ अपना दुःखक महाभारत पसारलन्हि । कौशिकीक बाढ़ि सॅं एहि दशामे प्राप्त भऽ गेल छथि । साले-साले अन्न दहा जाइत छैन्ह । खेत बेचि कऽ बेसाह चलैत छैन्हि । सासु मरि गेलथिन्ह । हुनका काज मे कर्ज भऽ गेलैन्ह । महाजनक ऋण दिन-दिन बढल जाइ छैन्ह । ओझाजी कैं तेहन गठिया धैने छैन्ह जे आब अकार्यक भऽ गेलाह। बहिन अपने सुखि कऽ काँट भऽ गेलीह अछि ।

हुनक विवर्ण मुँह देखि मन कानि उठल । कहय लगलीह - हमरा छौ मास सॅं पेट मे पिलही अछि । केओ देखिनाहर नहि । आब बेसी दिन नहि बचबौह । माय सॅं भेंट करा दैह, ताहि खातिर बजौलिऔह अछि ।

हमरा आँखि सॅं टप-टप नोर खसय लागल । ओ हमर आखि पोछैत बजलीह - दुर बताह ! कनै छह किऎक ? दुर जो ! हमहु केहन छी जे तोरा अबितहि अपन रामायण सुनाबय लागि गेलिऔह ! एकर की कोनो अन्त छैक । चलह पैर धोअह ।

बहिन हमरा हाथ पकड़ि क पीढ़ी पर लऽ गेलीह । हम संदेश मे जे पेड़ा लऽ गेल रही रहिऎन्ह ताहि मे सॅं चारिटा हमरा आगाँ मे राखि देलन्हि । ओहिना कोना दितथि, तैं पातिल सॅ थोड़ेक माढ़ बहार कैलन्हि ।

ताबत एकटा नेना जे पोखरि मे बंसी खेलाइत रहैन्ह से दू चारि टा गरइ माछ नेने पहुँचि गेलैन्ह । बहिन उल्लसित भय बजलीह - बौआ तोरा माछक बड़ सौख रहै छौह । नहूँ-नहूँ खा । दूटा पका कऽ साना कऽ दैत छिऔह । हे रौ बंगट, बाड़ी सॅ हरियर मरिचाइ तोरि ला ।

ताबत एकटा मलिन-वस्त्रा प्रौढा सेहो पोखरिसँ स्नान कैने पहुँचलीह । गरमे तुलसीक माला, हाथमे अछिञ्जल, गंगास्तव पाठ करैत । वैधव्यक साकार मूर्त्ति जकाँ । हम बहिनकँ पुछलिऎन्ह - ''हिनका नहि चिन्हलिऎन्ह ?''

ओ माछ पकबैत बजलीह - ''चिन्हबहुन्ह कोना ? एहिठाम अबैत रहितह तखन ने ! ई हमर परिहारपुर वाली ननदि थिकीह ।''

ओ हमरा देखि किछु धखैलीह । बहिन कहलथिन्ह - ई हमर भाय थिकाह । नहि कोनो हर्ज ।

विधवा हाथक लोटा तुलसीचौरापर रखैत बजलीह - ''धन्य भाग! एतबा दिनपर बहिन मोन पड़लन्हि । कोन दिन हिनकर चर्चा नहि होइत छलैन्ह?''

हम देखल जे हुनका वस्त्रमे ठामठाम पेओन लागल छैन्ह जाहि कारणँ समझ ऎबामे संकोच भऽ रहल छैन्ह । ओ तीतल नूआ नेने सोझे पछुआड़मे चलि गेलीह और प्रायः ओहिठाम बैसि नूआ सुखाबय लगलीह । हम बहिनकँ पुछलिऎन्ह - ''ईहो तोरे संग रहैत छथुन्ह?''

ओ सानामे मरिचाइ गुरैत बजलीह - "की कहै छह ? विपत्तिपर विपत्ति । हिनका सासुरमे दिओर बड़ दुःख दैत छैन्ह । छौ माससँ एतहि छथि ।"

हम पुछलिऎन्ह - "हिनका धिया - पुता ?"

ओ बजलीह - ''एकटा बङट छथिन्ह । और तीन टा कन्या । एक कन्या सासुर बसै छथिन्ह । दू टा कुमारिए छथिन्ह । आइ चतुर्दशी थिकैक । ई महादेव पुजै छथि । तैं दुनू बहिन पोखरिसँ माटि लाबए गेलि छैन्ह ।"

हम पुछलिऎन्ह - "हिनका स्वामीकँ की भेलैन्ह?"

ओ बजलीह-"विधाता हरण कऽ लेलथिन्ह। पूर्णिया जिलामे नौकरी करैत रहथिन्ह। ओही ठाम मलेरिया धऽ लेलकैन्ह। आब हिनका दू दू टा बेटीक कन्यादान करबाक। राति-दिन चिंतामे डूबलि रहै छथि।"

ताबत दू टा बालिका खोंइछमे माटि नेने पहुँचि गेलथिन्ह। बहिन बजलीह-"इएह, श्यामा पार्वती आबिए गेलि। हे गै! पाहुन ऎलथुन्ह अछि। तरकारी बनतैक। गै श्यामा! चारपर कदीमाक फूल छैक से त चारि टा तोड़ि दे। और हे गै पार्वती! तॊं झट दऽ बाड़ीसॅं पटुआक साग तोड़ने आ!"

ओहि बालिकाकें देखि हमरा मनमे हठात तित्तिरक रूप नाचि उठल। हम बहिनकें पुछलिऎन्ह-"दीदी! हम द्विरागमनमे तोरा संग आएल रहियौक त एकटा एहने छौंड़ी रहैक। प्रायः तित्तिर नाम रहैक। ओकर कतय विवाह भेलैक?"

बहिनक ठोरपर हॅंसी आबि गेलैन्ह। बजलीह-"आब तों ओकरा देखबहौक त चिन्हबहौक?"

हम कहलिऎन्ह-"जरूर चिन्हबैक। ओ चलय काल एकटा आम हमरा देने रहय से ओहिना मोने अछि।"

ताबत परिहारपुरवाली सेहो नूआ बदलि कऽ ऎलीह और माटिक महादेव बनाबय लगलीह। हमरा बुझि पड़ल जेना हुनका शरीरक सभटा शोणित पानि बनि कऽ आँखिक मार्गसॅं खसि पड़ल होइन्ह। केवल अस्थि ओ चर्म टा शेष रहि गेल छैन्ह।

हम जलखै करी से घोटल नहि जाय। बहिन पंखा होंकैत-होंकैत पुछि बैसलीह-"बौआ, तों विवाह किऎक नहि करैत छह?"

हम कहलिऎन्ह-"मन लायक कन्या भेटय तखन ने?"

बहिन कहलिऎन्ह-"ओही तित्तिर सन। जौं ओकर विवाह नहि भेल होइक...."

बहिन बजलीह-"धुर बताह! तों एके रंग सभ दिन रहि गेलह। वैह तित्तिर दाइ तोरा सोझामे बैसल छथुन्ह से नहि चिन्हैत छहुन?"

ई सुनैत परिहारपुरवाली लजा कऽ मुँह झाँपि लेलन्हि। और हमरा त आश्चर्यक कोनो सीमा नहि रहल। एतबे दिनमे ई अन्तर! कहाँ ओ अज्ञातयौवन! कहाँ ई अकालवृद्धा ! कहाँ ओ स्वच्छन्द चहकयवाली तित्तिर। कहाँ ई बंगटक माय!

हम अविश्वासक स्वरमे बहिनकें पुछलिऎन्ह-"ऎं! यैह तित्तिर दाइ थिकीह? हम ई एक संग खेलाएल छी। हम एखन जीवनमे प्रवेशो नहि कैलहुँ और हिनकर सभटा समाप्त भऽ गेलैन्ह!"

एहि बेर पूर्व परिचित स्वरक किछु आभास सुनाइ पड़ल-"हे औ पाहुन! अहाँ अपनासॅं हमरा किऎक मिलान करैत छी? अहाँ पुरुष छी। और हमरा लोकनि जखने कन्या भऽ कऽ जन्म लैत छी तखने सभ किछु अवधारि लैत छी। ओहि समय नेनामे ज्ञान नहि रहय तैं अहाँसॅं बराबरी करैत रही। हमरासॅं जे अपराध भेल हो से बिसरि जायब। ... ऎं! अहाँ पुरुष भऽ कऽ कनैत छी? दुर! तखन हमरा लोकनि कोना धैर्य धारण करब? जौं हम सभ अपन नोर बहाबय लागी त गामक गाम दहा जाय।"

 

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