लेखक: शेफालिका वर्मा अनुवादक : प्रणव झा
(केवल स्वांतःसुखाय तथा अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )
यह कौन स्टेशन है बाबू – वृद्ध व्यक्ति के प्रश्न के उत्तर मे खगड़िया नाम सुनते ही रोमा सतर्क हो गई।
दिसंबर महीने के सर्द रात मे कैपिटल एक्स्प्रेस चार बजे सुबह मे खगड़िया स्टेशन पर खड़ी थी। रोमा का मन छ:-पाँच करने लगा – यहीं पर उतार जाए या नहीं? पता नहीं जानकी चली गई क्या? या की मानसी चले जाएँ – डब्बे मे सवार सारे व्यक्ति खर्राटे भर रहे थे – शायद कटिहार के सवारी होंगे? चाय – गरम – गरम चाय उतनी हड़बड़ी के बीच मे भी रोमा के मन मे तरंग उठ गया – गर्म चाय लोग क्यूँ बोलते हैं – चाय का अर्थ ही हुआ गर्म, ठंढा हो जाने पर तो शर्बत! और जैसे ही वह स्वर नजदीक आया रोमा पूछ बैठी – जानकी चली गई क्या ?
नहीं, आ रही है – सुनते ही रोमा आनन फानन मे गाड़ी से उतर कर जानकी के प्लेटफॉर्म की ओर विदा हुई। कैपिटल खुल गई, जैसे वो रोमा के उतरने की प्रतीक्षा कर रही थी।
दाँत से दाँत किटकिटाते इस सर्द रात के अंधकार मे छत विहीन प्लेटफॉर्म पर जानकी के यात्रियों की कमी नहीं थी। कमी थी तो किसी साथी की। रोमा दोनों हाथ चादर मे छिपाए, कंधे पर एयर बैग लटकाए प्रतीक्षारत थी।
कोहरे से भरे ऊँघती रात मे ज़ीरो पवार के बल्ब के जैसी रौशनी फैली हुई थी। गाड़ी आने मे कुछ विलंब था। गर्म चाय की चुस्की से यात्री लोग स्वयम को गरमा रहे थे। सभी सहरसा, सुपौल, मधेपुरा के यात्री। इतनी भीड़ मे रोमा अकेली थी। चाय पीने के लिए मन छटपट कर रहा था, किन्तु अकेले चाय पीते भी अजीब सा लगता है।
“चाची कहाँ से आ रही हैं?” – पैरों को स्पर्श करते हुए कोई बोला ।
“ओह सुदेश? रोमा को जैसे चैन मिला” – तुम कहाँ से ?
“मैं तो पटना से आ रहा हूँ “
“पटना से ? पटना से तो मैं भी आ रही हूँ । “
“अच्छा आप कैपिटल से आई होंगी। मैं तो बस से आया हूँ। “
“बस से ? इसी लिए मुलाक़ात नहीं हुई । पटना मे ज्ञात रहता हो साथ ही आते । “
“मुझे पता कहाँ था चाची की तुम पटना मे हो। कब आई पटना चाची ?”
“बच्चे, मैं तो विद्यापति पर्व मे आई थी। कल समाप्त हुआ और मैं सरपट सहरसा भाग रही हूँ ।“
“चाय पियोगी चाची, सुदेश रोमा के बेटे का साथी था, किन्तु बेटे जैसे रोमा के मन को पढ़ लिया।“
“पीने की इच्छा तो है, किन्तु गाड़ी आ जाएगी तब?”
“गाड़ी? अभी तो लाइन भी क्लियर नहीं हुआ है । “
और मिट्टी के कुल्हर मे गर्म – गर्म चाय, उसका भाप रोमा को अच्छा लग रहा था। मन हो रहा था कि कोई एक पतीला गर्म चाय आगे मे रख दे जिसके भाप से अलाव की तरह रोमा अपने को गर्म कर ले। कितने प्रेम से पटना से खगड़िया तक आए थे। । रोमा का मन चाय के भाप मे पिघल रहा था, किन्तु यहाँ से सहरसा पहाड़ हो गया था । कैसे सहरसा पहुँचेंगे , अथाह सागर लग रहा है। । बेटा दिल्ली से आता है तो सहरसा पहुँचते ही कहता है माँ दिल्ली से खगड़िया अच्छे से आ जाता हूँ किन्तु यहाँ से सहरसा की दूरी अमेरिका इंगलेंड लगता है – अमेरिका इंगलेंड आठ-दस घंटे मे आराम से पहुँच जाता है बेटा – किन्तु – आज रोमा को वही अनुभव हो रहा है – किसी भी पार्टी की सरकार बने सबसे ज्यादा मंत्री सहरसा प्रमंडल का ही रहता है , तब भी इसकी यह दुर्गति ?
“सुदेश जानकी मे जगह मिल जाएगा न? सुना है , लोग डब्बा बांटे रहते हैं ।“
“जगह कैसे नहीं मिलेगा चाची? आज तक कोई स्टेशन पर छूटा है – रोमा के मन मे साहस हुआ। मानसी मे उतरती तो सात बजे के पैसेंजर से अच्छे से सहरसा पहुँच जाती। जानकी का नाम सुन कर खगड़िया मे उतार गई। कैपिटल चली गई, जानकी मे जगह नहीं मिला तो क्या करूंगी? – इसी आशंका से रोमा का मन दुखी हो जाता था। वो रहते तो मुझे क्या सोचना था किन्तु वो तो सहरसा मे बच्चों के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं और मैं? यात्रीगण मे एक हलचल मच गई – चाची, जानकी आ रही है।
अंदर ही अंदर रोमा का बदन काँप रहा था – हे भगवान, जगह तो मिल जाए – स्टेशन पर बहुत भीड़ हो गया । कैपिटल और बस के यात्रीगण भादव के मेघ की भांति एक ही जगह घनघोर हो गए। फूंफकारते, हाहाकार करते जानकी एक्स्प्रेस स्टेशन पर आ गई। सारा ट्रेन पहले से ही ठूंस-ठूंस कर भरा हुआ । लगन का समय। पायदान से डब्बा तक लोग लटके हुए । सामने एक स्लीपर कोच लग गया। रोमा उसी मे चढ़ने का उपक्रम करने लगी – अरे, अरे यह रिजर्व डब्बा है , बाराती जा रही है।
सुदेश जगह लेने हेतु आगे बढ़ गया था । घुप्प अंधेरे मे रौशनी की एक रेखा को पकड़े रोमा गुम हो रही थी। और फिर उस बारताई को दीन स्वर मे बोली – मुझे कहीं भी किनारे मे जगह दे दीजिए।
“यह आरक्षित डब्बा है, इसमे आप कैसे जाएंगे , उसमे भी बाराती लोगों के साथ – कोई एक शुभचिंतक बाराती बोला और रोमा को जैसे होश आया – सही मे तो बोल रहा है । बाराती की उच्छृंखलता, उन्मुक्तता एवम उन्माद के बीच मैं अकेली हूँ, इस आग्रह का दुस्साहस भी मैंने कैसे किया? रोमा आगे दौड़ गई – फर्स्ट क्लास के डब्बा मे यात्रीगण जबर्दस्ती चढ़ रहे थे और कंडक्टर सभी को डांट-फटकार रहा था – यह फर्स्ट क्लास है – उस धक्कामुक्की मे रोमा के साहस ने जवाब दे दिया। डब्बे मे सुई रखने भर का स्थान नहीं था। एक बारगी तो रोमा को अंधकार सा लगने लगा कि अब गाड़ी छुट गई, सुदेश का पता नहीं था, अब मैं क्या करूंगी ? जैसे मृत्युकाल मे मनुष्य अंतिम सांस तक हाथ पैर पटक कर बचने का प्रयास करता है वैसे ही रोमा साहस करके उस रेलमपेला मे फर्स्ट क्लास के कम्पार्टमेंट मे घुस गई। गाड़ी खुल गई, कंडक्टर बोल रहा था – यह कौन तरीका है, नियम कानून सब टूट गया, किसी को नहीं चढ़ने दूंगा। किन्तु उद्धत और हताश यात्रीगण क्या स्त्री क्या पुरुष गैरकानूनी काम कर कानूनदा टीटी को उत्तरहीन कर दिए ।
रोमा चुपचाप स्थिर भाव से टीटी से बोली – मेरा टिकट यहाँ से फर्स्ट क्लास का बना दीजिए। टीटी चुपचाप रोमा को कूपा मे अच्छे से बैठा दिया। गाड़ी की गति तेज हो गई थी। उस डब्बे मे आदमी अनाज के बोरे की भांति भरे हुए थे – यह टीटीया कैसे कर रहा था – लोगों की जान जा रही थी और उसको कानून सूझ रहा था – किसी पुरुष का स्वर उठा।
ऊँह, बड़े कानून का भाय था तो दूसरी गाड़ी का प्रबंध क्यूँ नहीं कर दिया – एक स्त्री का स्वर तीव्र हुआ ।
देखिए, आप लोग चुप रहिए । किस लिए शोर मचा रहे हैं? गाड़ी पर तो चढ़ गए न? अब सभी लोग बीस बीस रुपए निकाल कर टीटी को दे दीजिए । उसको भी आराम, हम लोगों को भी आराम । नहीं रे भाई, बीस रुपए? तब फिर टिकट ही नहीं कटा लेते ? विद्यार्थी लोह पाँच रुपए देंगे- कितने ही युवा तुर्क लोग इस कोने से उस कोने तक अपने अपने स्वर को मुखरित कर रहे थे- हाँ, हाँ विद्यार्थी लोग पाँच रुपए – सभी अपना राग अलापने लगे – क्या होगा , जो जैसे लोग वो वैसे पैसे देंगे। पाँच, दस, पंद्रह, बीस करके भी सब देंगे तो टीटी खूब कमा लेगा। हाँ जी हाँ, मन ही मन तो सोचता होगा टीटीया कि ऐसा ही दिन रोज आए। गंगा तो किसी दिन नहाता है आदमी। काले वर्दी से लैस, टॉप लगाए इस पर चमकते, लिखा-पढ़ा स्लैब वो रोबीला और सुदर्शन व्यक्तित्व वाला फर्स्ट क्लास का कंडक्टर कहाँ था यह रोमा नहीं जानती थी। उसका मन रह रह कर धडक रहा था कि आज ट्रेन छूट जाती तो क्या होता ? खगड़िया कि अंधेरी रात......
मछली बाजार की तरह डब्बे मे सवाल जवाब हो रहा था। विषय एक ही था कि आज टीटी खूब कमा लेगा। उसे खूब हाथ लगा। तीन चार सौ से ज्यादा रुपए उसे हो जाएंगे। यात्रीगण सहर्ष रुपए देने के लिए तैयार थे।
गाड़ी के हिचकोले से थोड़ी देर के लिए रोमा की आँख लग गई। एक झटके से गाड़ी अटकी तो रोमा अकचका कर उठी। उषाकालीन हवा समस्त डब्बे मे फैली थी और जैसे रोमा के कान मे गुनगुना रही थी – उठो, अब आप आ गई हो अपने देश मे ।
कौन स्टेशन है ?
बगल मे बैठे एक स्वतन्त्रता सेनानी बोले – सिमरी बख्तियारपुर।
रोमा को चैन मिला ।
अरे जी, ये टीटीया कहाँ चला गया?
- कोई स्त्री स्वर व्यंग मे बोली। रोमा समझ गई की टीटी का प्रसंग अभी तक चल रहा है। पता नहीं क्यूँ रोमा को किसी स्त्री का टंकार और अहंकार से भरा स्वर अच्छा नहीं लगता था । स्त्री तो लक्ष्मी सरस्वती है, संगीत की रसाधर।
- क्या जाने किसका मुँह देखकर उठा था – तीन चार सौ रुपए मुफ्त मे छोड़ दिए।
बाप रे, ऐसा आदमी आज के युग मे नहीं देखा – जैसे विषैले सर्प पर पैर पड़ने से आदमी चिल्लाता है – नहीं , उसका आज का दिन बहुत खराब था। । कितना ही कमा लिया रहता। बहुत बेवकूफ था वह टीटी। लोग पैसे निकाले रह गए और वो ..... इसे ही कहते हैं बेवकूफ – ऐसे ही लोग सब धरती के भार होते हैं। क्या महिला क्या पुरुष सभी का एक ही स्वर था।
और रोमा के हृदय मे धधक उठा – कि जमाना आग हो गया है । पहले सब ईमानदार होते थे। और एक दो घूसखोर। सब बोलते थे – साला बहुत घूसखोर है। आज जब सभी बेईमान हो गए हैं, तो एक ईमानदार को देख लोग बोलते हैं – साला बेवकूफ है। अक्ल रहता तो यही हाल होता ?
क्या होते जा रहा है युग को? सुनते थे कि गंगाजल मे कीड़े नहीं लगते हैं – क्या अब यह भी असत्य हो गया है ? क्या यही युगधर्म है ? कुएँ मे ही भाँग घोल दिया गया है इसी लिए तो मानव ऐसे बौरा रहे हैं। पता नहीं मिट्टी पानी को क्या हो गया है ? समस्त वातावरण मे रबड़ जलने की चिराइन गंध फैली हुई है। कहीं कुछ प्रेम मय नहीं, विवेकमय नहीं। विवेकहिन मनुष्य क्या करेगा देश के लिए, राष्ट्र के लिए? किन्तु, नहीं, कायाकल्प होगा, अवश्य होगा। जब समस्त सृष्टि जलमग्न हो जाएगा और एक मनु और श्रद्धा बचकर नए सृष्टि का निर्माण करेंगे। ये हिंसा, ये बाढ़, ये सूखा, रेल दुर्घटना, हवाई जहाज दुर्घटना, आतंकी घटना – सब पृथ्वी के जलमग्न होने की पूर्वभूमिका नहीं है? सोचते सोचते रोमा ने अपना सर पकड़ लिया – सहरसा स्टेशन आ रहा था। रोमा अचानक से ज़ोर ज़ोर से बोलने लगी – आप सब उस टीटी को इतना बेवकूफ समझ रहे हैं , किन्तु सोचिए तो वो आज आम आदमी से कितना ऊपर उठ गया कि मिलते हुए पैसे को लात मार दिया। पैसे तो सभी कमाते हैं, किन्तु प्रतिष्ठा कितने लोग अर्जित करते हैं?
और सभी की बोलती बंद हो गई। वो टीटी किसी कोने से निकल कर डब्बे के गेट पर खड़ा हो गया था। कूप के किस कोने मे, रात के अंधकार मे चुपचाप बैठा वो इतनी वाग्धारा को बर्दास्त किया होग, यह अनुमान भी असंभव था। टीटी का चेहरा आंतरिक ऊर्जा से दीप्त था। सभी के चेहरे पर अपनी व्यंगमय मुस्कान देते हुये सभी को आवरण हीन करते हुए स्टेशन पर उतार गया।
बढ़-चढ़ कर बोलने वाले सभी व्यक्ति जैसे बेवजह ही छोटे हो गए।
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