गुरुवार, 18 जुलाई 2024

टोटका [मूल मैथिली कथा। लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक: प्रणव झा]

 

टोटका

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक: प्रणव झा  (केवल अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु)

बहुत दिनों पर परदेश से चला आ रहा था। घर का  हाल-चाल जाने सात वर्ष हो गए थे। जानता कैसे? चिट्ठी-पत्री तब न? परन्तु मैं तो रूठा हुआ था। कहाँ-कहाँ घूमा रुपए के लिए -जमदेशपुर, कलकत्ता, रंगून। और सात घाट का पानी पीकर आज पुनः देश जा रहा हूँ। जहाँ नूनू चाचा हैं, भाइ है, भाभी हैं, मुन्ना है। सभी के लिए उपहार लेकर जा रहा हूँ। मुन्ना मोटर देखकर नाचने लगेगा। भाभी को साड़ी का किनारा खूब पसन्द पड़ेगा। भाइ और  नूनू चाचा के आगे रुपैए की पोटली पटक दूंगा। कि लीजिए अब हुआ?’  इसी खातिर दिन-रात महाभारत मचा रहता था। अब तो खुश हुए! पहले ही लिख दिए रहते तो स्टेशन पर घोड़ी आती। अब अचानक से मुझे देखकर सभी लोग आश्चर्य करेंगे!

यही सब सोचते, मनमे नाना प्रकार की भावना भरते चला आ रहा था । जब ट्रेन बरौनी पहुंची तो  मातृभूमि की मन  ही मन वन्दना करके कहा - अब भगवान की इच्छा होगी तो एक ही पहर मे आपके दर्शन हो जाएंगे। इन सात वर्षों मे न जाने क्या क्या परिवर्तन हुआ होगा? घर पर कौन कैसे हैं? किसी गाँववाले से भेंट हो जाती तो सारा हाल-चाल जान लेता।

मैं यही सोच रहा था की दिख पड़े घूटर चाचा-झोरी, कम्बल और गंगाजल की सुराही हाथ मे लिए, प्लेटफार्म पर दौड़ते! जैसे कोई  निधि मिल गई हो, वैसे ही प्रसन्नता हुई। खिड़की से सर बाहर करके पुकारा-'घूटर चाचा!

घूटर चाचा मुझे देख चकित हो गए-'कौन? श्रीकान्त? अरे, तुम कहाँ से? ओहो। कितने दिनों पर तुम ऊपर हुए हो? ऐसे कोई घर-द्वार छोड़ता है?

मैंने प्रेमपूर्वक उनका चरण-धूलि लेकर अपने पास बैठाकर पूछा- कहिए घूटर चाचा, सब कुशल-मंगल है?

घूटर चाचा बोले -बहुत बढियाँ। तुम अपना कहो, कैसे थे ? एक चिट्ठी-पत्री भी तो कभी देते ।

मैंने  बात बदलते हुए कहा –अभी  कहाँ से आ रहे हैं?

घूटर चाचा बोले-सिमरिया घाट गया था। गंगाजल लेने हेतु।

मैं- कहिए, घूटर चाचा, वैद्यगीरी खूब चल रहा है न?

घूटर-देहात मे क्या चलेगा? कोई क्या दाम खर्च करना चाहता है?

यह कहते हुए घूटर चाचा मेरी ओर गंभीर दृष्टिस से देखे। जैसे कोई बात लक्ष्य कर रहे हों । पुनः दूसरी ओर देखकर एक दीर्घ निःश्वास छोड़े। मेरे हृदय मे धुकधुकी होने लगा-अरे बाप रे! क्या बात है?

पूछा-घूटर चाचा, मेरे यहाँ सभी लोग अच्छे हैं न? कोई अनिष्ठ घटना तो नहीं हुआ है?

घूटर चाचा बटुआ से तंबाकू बाहर करते हुए बोले  - आपकी घोड़ी मर गई।

मैं-आह! घोड़ी मर गई? मैं कह रहा था कि इस बार गाँव जाऊंगा तो उसपर खूब घूमूँगा । कैसे मरी?

घूटर- दालान के पीछे बंधी थी। जब दालान मे आग लगी तो उसके साथ वह भी जल गई।

मैं-अरे बाप रे! मेरा दालान भी जल गया ? वो कैसे ?

घूटर- जब घर मे आग लगी तो दालान मे भी पकड़ ली । जब तक लोग बुझाते –बुझाते तब तक मे सब साफ हो गया। रात का समय था न!

शंकित चित्त से पूछा – किसी व्यक्ति का नुकसान तो नहीं हुआ न ?

घूटर-नहीं। लोग नहीं जले। क्योंकि....

मैंने फक से निश्वास छोड़ा। खैर, लोग तो बचे। चीज-वस्तु जान बचेगा तो फिर हो जाएगा। परन्तु यदि मुन्ना.....। यह सोचते हुए बदन सिहर उठा। पूछा-क्या? यह आग कैसे लगी?

घूटर चाचा बोले-आपके नूनू चाचा के एकादशा के दिन जो दूध उबाला गया उसी की आग ....

यह सुनते ही मेरे आँखों के आगे अंधेरा छा गया । अरे! अब नूनू चाचा को नहीं देखुंगा । हे भगवान! मैं कैसा पापी हुआ!

मुझे आँख पोछते देख घूटर चाचा बोले-ऐसे कोई अधीर होता है? जन्म-मरण तो लोगों का लगा ही रहता है । इस संसार मे कोई जीवित रहने आया है?

मैंने हिचकते-हिचकते पूछा – उनको क्या हुआ था?

घूटर-कोई वैसा रोग-व्याधि तो नहीं था। आपकी भाभी का एकोदिष्ट किए थे, उसी दिन पेट मे ऐसा दर्द उठा की.....

हाय! हाय! भाभी पहले ही विदा हो गईं ! अब बैगनी किनारा वाला वो साड़ी कौन पहनेगा?

मैं फफक-फफक कर रोने लगा। घूटर चाचा चुप करते हुए बोले – ऐसे कोई पागल होता है? वो लक्ष्मी थी। चली गई। जीतने दिन जीती वो तो कष्ट ही होता न!

मेरे मुँह पर विस्मयबोधक चिह्न देख घूटर चाचा बोले – वो तो जब से विधवा हुई उसी दिन से ....

हे भगवान! भैया भी नहीं रहे! मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। भैया-भाभी दोनों विदा हो गए! और मुन्ना को किसने रखा होगा? कैसा होगा?

बहुत देर तक आँसुओं की झड़ी के आवेश से बोल नहीं सका।  उधर घूटर चाचा निर्विकार भाव से  तंबाकू चुनाते रहे। कितने ही काल बाद किसी तरह कंठ से पूछा – मुन्ना कैसा है ?

घूटर चाचा होठों मे तंबाकू रखते हुए बोले – उसी के शोक मे तो आपके भाई मरे। कैसे न हो ? न खाना न पीना .....

मैं निष्पन्द रह गया। जो अन्तिम बन्धन था वो भी टूट गया। भैया, भाभी, नूनू चाचा, मुन्ना सब समाप्त। अब किसके खातिर गाँव जाऊँ? और जाकर क्या देखुंगा? संसार ही उजड़ गया! न वो राम न वो अयोध्या! अब कौन मोटर पाकर नाचेगा? कौन साड़ी देख कर खुश होगी। किस पर स्नेह का अभिमान करूंगा?

तब तक गाँव का स्टेशन पहुँच गए - समस्तीपुर जंक्शन। मैंने सीने को  वज्र सा करके बोला- घूटर चाचा, मैं तो अब सीधे हरिद्वार जाऊंगा। संन्यासी को रुपैया-पैसा से क्या काम? आप यह पोटली ले लीजिए और हर साल उन लोगों के निमित्त ब्राह्मण-भोजन करा दिया कीजिएगा।

घूटर चाचा पुनः मेरी ओर गम्भीर दृष्टि से देखे। जैसे कुछ लक्ष्य कर रहे हों। पुनः बोले -हाँ, ठीक। अब उतरो।

मैंने अनुरोध करते हुए कहा – आपको थोड़ी सी भी दया नहीं आती है? मेरा घर उजड़ गया, निर्वंश हो गया हूँ और आपके लिए कुछ भी नहीं! जाइए, मेरा जो डीह-डाबर है वो आप ही जोत कर खाइएगा।

परन्तु घूटर चाचा पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा। वो तंबाकू का लुग्दी फेंकते हुए मेरा हाथ पकड़ कर नीचे उतारने लगे । मैंने हाथ झाड़ते हुए कहा - देखिए घूटर चाचा! मैं कह देता हूँ! जबरदस्ती मत करिए। मैं अपने होश मे नहीं हूँ ।

घूटर चाचा बोले- तुम वही श्रीकान्त रह गए। अभी तक बचपना नहीं छूटा है। तुम्हारा घर-द्वार लोग-बाग सब वैसे ही बिना किसी क्षति के हैं। चलो उतरो।

मैंने कहा - घूटर चाचा! बहलाइए मत। अब मैं बच्चा नहीं हूँ।

घूटर चाचा-तुम्हें विश्वास  नहीं होता है तो चलो चल कर देख लो ।

मैं- तो मुन्ना जीवित ही है?

घूटर-हाँ।

मैं-और भैया?

घूटर-वो भी।

मैं-भाभी?

घूटर-वो भी।

मैं-और, नूनू चाचा?

घूटर.-खूब मस्त हैं।

मैं-और घर?

घूटर-वो भी बचा हुआ है।

मैं – तब तो दालान भी नहीं जला ?

घूटर-नहीं।

मैं-और घोड़ी?

घूटर-खूब हिनहिनाती है।

मैं – तब आप इतना बना कर क्यूँ बोले ?

घूटर-अजी! बरौनी मे मैंने देखा की तुमको हिचकी उठा है।  वैसे बंद नहीं होता। इसीलिए मैंने इतनी देर तक ऐसी ऐसी बातें कहता आया हूँ जिससे की खूब आतंकित हो जाओ। यह हिचकी का टोटका है। देखते नहीं हो, अब हिचकी कहाँ गया?

मुझमे फक्क से प्राण आया। घूटर चाचा के पैर पर गिरते हुए कहा -धन्य हैं महाराज! मेरा प्राण छुट रहा था और आप टोटका कर रहे थे। ऐसी चिकित्सा करने लगे की मेरा प्राण ही जाने लगा! बाप-रे-बाप! उतना अशुभ बात सब कैसे मन मे आया? मेरा तो अभी तक बदन काँप रहा है।

घूटर चाचा-क्या करोगे? उन लोगों की आयु और बढ़ गई है। हिचकी का 'टोटका' ऐसा ही होता है।

मैथिली टेक्स्ट : अगले पृष्ठ पर


 

टोटमा

लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा

बहुत दिनपर परदेशसॅं चल अबैत रही। घरक हाल-चाल बुझना सात वर्ष भऽ गेल रहय। बुझितहुँ कोना? चिट्ठी-पत्री होइत तखन ने? परन्तु हम त रूसल रही। कहाँ-कहाँ घुमलहुँ रुपैयाक हेतु-जमदेशपुर, कलकत्ता, रंगून। और सात घाटक पानि पीबि आइ पुनः देश जा रहल छी। जहाँ नूनूकका छथि, भाइ छथि, भौजी छथि, मुन्ना अछि। सभक लेल सनेस नेने जाइत छिऎन्ह। मुन्ना मोटर देखितहि नाचय लागत। भौजीके साड़ीक कोर खूब पसिन्द पड़तैन्ह। भाइ ओ नूनूककाक आगाँ रुपैयाक मोटरी पटकि देबैन्ह। जे 'लियऽ आब भेल? एही खातिर दिन-राति महाभारत मचैत छल। आब त खुशी भेलहुँ! पहिने लिखि देने रहितिऎन्ह त स्टेशनपर घोड़ी अबैत। आब एकाएक हमरा देखि कऽ सभ गोटे अकचकाइ जैताह!

यैह सभ सोचैत, मनमे नाना प्रकारक भावना करैत चल अबैत छलहुँ। जखन ट्रेन बरौनी पहुँचल त मातृभूमिकें मनहिमन वन्दना कय कहल-आब भगवानक इच्छा हैतैन्ह त एके पहरमे अहाँक दर्शन भऽ जाएत। एहि सात वर्षमे नहि जानि की-की परिवर्तन भेल हैत? गामपर के कोना अछि? कोनो गौआसॅं भेट भऽ जाइत त सभटा हाल-चाल बुझि जैतहुँ।

हम यैह सोचैत छलहुँ कि देखाइ पड़लाह घूटर कका-झोरी, कम्बल ओ गंगाजलक सुराही हाथमे नेने, प्लेटफार्मपर दौड़ैत! जेना कोनो निधि भेटि गेल हो, तहिना प्रसन्नता भेल। खिड़कीसॅं माथ बाहर कय सोर कैलिऎन्ह-'घूटर कका!

घूटर कका हमरा देखि चकित भऽ गेलाह-'के? श्रीकान्त? हौ, तों कतयसॅं? इह। कतेक दिन पर तों ऊपर भेलाह? एना केओ घर-द्वार छोड़ैत अछि?

हम प्रेमपूर्वक हुनक चरण-धूलि लऽ अपना लग बैसा कऽ पुछलिऎन्ह- कहू घूटर कका, सभ कुशल-मंगल छैक?

घूटर कका बजलाह-बड़ बढियाँ। तों अपन कहह, कोना छलाह? एकटा चिट्ठीओ-पत्री त कहियो दितहुन।

हम बात बदलैत कहलिऎन्ह-एखन कहाँसॅं आबि रहल छिऎक?

घूटर कका बजलाह-सिमरियाघाट गेल छलहुँ। गंगाजल लेबक हेतु।

हम- कहू, घूटर कका, बैदगीरी खूब चलैत अछि कि नहि?

घूटर-देहातमे की चलत? केओ कि दाम खर्च करऽ चाहैत अछि?

ई कहैत घूटर कका हमरा दिस गंभीर दृष्टिसॅं तकलैन्ह। जेना कोनो बात लक्ष्य करैत होथि। पुनः दोसरा दिस ताकि एक दीर्घ निःश्वास छोड़लन्हि। हमरा हृदयमे धुकमुक्की होमय लागल-रे बाप! की बात छैक?

पुछलिऎन्ह-घूटर कका, हमरा ओहि ठाम सभ लोक निकें अछि कि ने? कोनो अनिष्ट घटना त नहि भेलैक अछि?

घूटर कका बटुआसॅं तमाकू बाहर करैत बजलाह-अहाँक घोड़ी मरि गेल।

हम-अहा! घोड़ी मरि गेल? हम कहैत छलहुँ जे एहि बेर गाम जाएब त ओहिपर खूब बूलब। कोना मुइलैक?

घूटर-दलानक पछुअतिमे बान्हल रहय। जखन दलानमे आगि लगलैक त ओही संग ओहो जरि गेल।

हम-आहि रौ बाप! हमर दलानो जरि गेल? से कोना?

घूटर-जखन घरमे आगि लागल त दलानोमे धऽ लेलकैक। जा लोक मिझाबय-मिझाबय ता साफ भऽ गेलैक। रातिक समय रहैक कि ने!

शंकित चित्तसॅं पुछलिऎन्ह-कोनो लोक त नहि नोकसान भेलैक?

घूटर-नहि। लोक नहि जरल। किएक त....

हम फक दऽ निसास छोड़ल। खैर, लोक त बाँचल। चीज-वस्तु जान बचतै त फेर भऽ जेतैक। परन्तु जौं मुन्ना.....। ई सोचैत देह सिहरि उठल। पुछलिऎन्ह-की? ई आगि कोना लगलैक?

घूटर कका बजलाह-अहाँक नूनूककाक एकादशाह दिन जे दूध औंटल गेलैन्ह तकरे आगि....

ई सुनैत हमरा आँखिक आगाँ अन्हार भऽ गेल। ऎं! आब नूनूककाकें नहि देखबैन्ह। हे भगवान! हम केहन पापी भेलहुँ!

हमरा आँखि पोछैत देखि घूटर कका बजलाह-एना केओ अधीर होअए? जन्म-मरण त लोककें लागले रहैत छैक। एहि संसारमे केओ जीबय आयल अछि?

हम हिचकैत-हिचकैत पुछलिऎन्ह- हुनका की भेल छलैन्हि?

घूटर-कोनो तेहन रोग-व्याधि त नहि छलैन्हि। अहाँक भौजीक एकोदिष्ट कएने रहथि, ताहि दिन पेटमे तेहन दर्द उठलैन्ह जे.....

हाय! हाय! भौजी पहिनहि बिदा भऽ गेलीह! आब बैगनी कोरक ओ साड़ी के पहिरत?

हम फफकि-फफकि कऽ कानय लगलहुँ। घूटर कका चुप करैत बजलाह-एना केओ बताह होअए? ओ लक्ष्मी छलीहि। चलि गेलीह। जे दिन जिबतथि से त कष्टे होइतैन्ह!

हमरा मुँहपर विस्मयबोधक चिह्न देखि घूटर कका बजलाह-ओ तॅं जहियेसॅं विधवा भेलीह तहियेसॅं....

आहि रौ बा! भैयो नहि रहलाह! हम पुक्की पाड़ि कानय लगलहुँ। भैया-भौजी दुनू विदा भऽ गेलीह! आ मुन्नाकें के रखने हैतैक? कोना हैत?

बड़ीकाल धरि नोर-झोरक आवेशसॅं बाजि नहि सकलहुँ। ओम्हर घूटर कका निर्विकार भावसॅं तमाकू चुनबैत रहलाह। कतेक कालपर कोनहुना कंठसॅं पुछलिऎन्ह- मुन्ना कोना अछि?

घूटर कका ठोरमे तमाकू रखैत बजलाह-ओकरे शोकमे त अहाँक भाय मुइलाह। कोना ने होउन्ह? ने खैनाइ ने पिनाइ....

हम निष्पन्द रहि गेलहुँ। जे अन्तिम बन्धल छल सेहो टूटि गेल। भैया, भौजी, नूनूकका, मुन्ना सभ समाप्त। आब ककरा खातिर गाम जाउ? और जा कऽ की देखब? संसारे उजड़ि गेल! ने ओ राम ने ओ अयोध्या! आब के मोटर पाबि नाचत? के साड़ी देखि कऽ खुशी हैत। ककरापर स्नेहक अभिमान करबैक?

तावत गामक स्टेशन पहुँचि गेल- समस्तीपुर जंक्शन। हम छातीकें वज्र कऽ कऽ बजलहुँ- घूटर कका, हम त आब सोझे हरिद्वार जायब। संन्यासीकें रुपैया-पैसासॅं कोन काज? अहाँ ई मोटरी लऽ लियऽ और साले-साले हुनका लोकनिक निमित्त ब्राह्मण-भोजन करा देल करबैन्ह।

घूटर कका पुनः हमरा दिस गम्भीर दृष्टिसॅं तकलन्हि। जेना किछु लक्ष्य करैत होथि। पुनः बजलाह-हॅं, ठीक। आब उतरह।

हम अनुरोध करैत कहलिऎन्ह-अहाँके एको रती दया नहि होइत अछि? हमर घर उजड़ि गेल, निर्वंश भऽ गेलहुँ और अहाँक लेखे धन सन! जाउ, हमर जे डीह-डाबर अछि से अह्नीं जोति कऽ खाएब।

परन्तु घूटर ककापर एको रत्ती प्रभाव नहि पड़लैन्ह। ओ तमाकूक सिट्ठी फेकैत हमरा हाथ धऽ नीचा उतारय लगलाह। हम हाथ झाड़ैत कहलिऎन्ह-देखू घूटर कका! हम कहि दैत छी! जबरदस्ती नहि करू। हम अपना होशमे नहि छी।

घूटर कका बजलाह-तों वैह श्रीकान्त रहि गेलाह। एखन धरि नेनमति नहि छुटलौह अछि। तोहर घर-द्वार लोक-बेद सभ ओहिना अनामति छौह। चलह, उतरह।

हम कहलिऎन्ह-घूटर कका! परतारू जुनि। आब हम बच्चा नहि छी।

घूटर कका-तोरा विश्वास नहि होइत छौह त चलि कऽ देखि लैह।

हम-त मुन्ना जीबिते अछि?

घूटर-हॅं।

हम-और भैया?

घूटर-ओहो।

हम-भौजी?

घूटर-ओहो।

हम-आ, नूनूकका?

घूटर.-खूब मस्त छथुन्ह।

हम-और घर?

घूटर-ओहो बाँचल छौह।

हम -तखन दलानो नहि जरल?

घूटर-नहि।

हम-और घोड़ी?

घूटर-खूब हिनहिनाइत छौह।

हम-तखन अहाँ एतेक बना कऽ किऎक कहलहुँ?

घूटर-हौ! बरौनीमे हम देखल जे तोरा हिचकी उठल छौह। ओना बन्द नहि होइतौह। तैं हम एतेक काल धरि तेहने-तेहने बात कहैत ऎलिऔह जाहिसॅं खूब आतंक भऽ जाओ। ई हिचकीक टोटमा थिकैक। देखै छह नहि, आब हिचकी कहाँ गेलौह?

हमरा फक्क दऽ प्राण आएल। घूटर ककाक पैर पर खसैत कहलिऎन्ह-धन्य छी महाराज! हमर प्राण छुटैत छल और अहाँ टोटमा करैत छलहुँ। तेहन चिकित्सा करय लगलहुँ जे हमर प्राणे जाय लागल! बाप-रे-बाप! ओतेक अशुभ बात सभ कोना फुरल? हमरा त एखन धरि देह काँपि रहल अछि।

घूटर कका-की करबहक? हुनका लोकनिक आयुर्दा और बढि गेलैन्ह। हिचकीक 'टोटमा' एहिना होइत छैक।

 

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