गुरुवार, 18 जुलाई 2024

आदर्श भोजन [मूल मैथिली कथा। लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक: प्रणव झा]

 

आदर्श भोजन

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक: प्रणव झा  (केवल अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु)

 मेरे एक मित्र हैं शर्माजी । अमीर लोगों को कुछ न कुछ व्यसन रहता ही है। इनको नेचुरोपैथी का सनक है । एक बार उनका निमन्त्रण मिला । वो दुख दूर होने के उपलक्ष्य मे महाभोज का आयोजन किए थे । मुझे देखते ही उल्लसित होकर बोले - कहिए, झाजी ! आप कहाँ भोजन करेंगे ? समदरका (सर्वसाधारण) मे अथवा मेरे खास महल मे ?

अब कहिए, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो विशेष छोड़ कर सामान्य का ग्रहण करेगा ? अहारे व्यवहारे च त्यक्त लज्जा सुखी भवेत् ।

ऐसे ऐसे समय मे मिथ्या संकोच घातक होता है। अतः मैंने  नम्रतापूर्वक सूचित कर दिया कि जब कंद खानेवाले  कणाद को भी  'विशेष' का महत्त्व दे गए हैं तो मैं तो सम्पूर्ण तण्डुल खानेवाला हूँ।

अस्तु। नियत समय पर मित्र महोदय मुझे अंदर ले गए। रईस तो थे ही। सुन्दर कमलपत्री गलीचा वाल आसन। चाँदी का चमकता थाली-कटोरी,लोटा-गिलास। देख कर मन प्रसन्न हो गया। दो  आसन लगे हुए थे। एक उनके हेतु, एक मेरे हेतु, मित्र महोदय आदरपूर्वक अपने संग बिठाए।

थोड़ी देर मे भोजन परोसना शुरू हुआ। पहले एक एक टुकड़ा कागजी नींबू थाली मे रख दिया गया। उसके बाद अंजुरी भर कर पालक साग का महीन कतरा।  सलादका काटा हुआ पत्ती एक मुट्ठी अँकुरित मुङ। उबला हुआ मूँगफली।दो चार गाजर और चुकन्दर। चार पाँच लाल-लाल टमाटर। अन्त मे चोकर की एक-एक मोटी रोटी।

मैं  मन मे विचारने लगा – हे भगवान! ये और वस्तु लाएँगे कि इतने पर ही  'अमृतोपमस्तरणमसि स्वाहा' करना पड़ेगा?

मैं इसी तारतम्य मे था कि मित्र महोदय बोले-अब हुआ जाए, नमोनारायण करिए। मुझे संशय हुआ कि मित्र महोदय कहीं दिल्लगी तो नहीं कर रहे हैं। परन्तु मुखाकृति से  परिहास का कोई भी  आभास नहीं मिला। अगत्या मैं उसी  पर नैवेद्य काटने लगा।

शर्माजी अत्यन्त रुचिपूर्वक भोजन करने लगे। मैं भी उनके  देखादेखी सलाद के पत्ती मे कागजी नींबू निचोड़ने लगा ।

शर्माजी पालक का पत्ता चबाते हुए बोले -बहुत लोगों को ऐसा  भोजन पसन्द नहीं पड़ता है। कितने ही  मित्र तो मेरा  उपहास भी करते हैं । परन्तु मुझे तो इसमे  अपूर्व स्वाद मिलता है।

तदनन्तर वो  भोजन कि  वैज्ञानिक व्याख्या करने लगे -देखिए, इसमे सभी प्रकार के विटामिन भरा है। टमाटर मे विटामिन  , अँकुर मे विटामिन बी, नींबू मे विटामिन सी, जौ के आटे मे  'स्टार्च' 'प्रोटीन' दोनों मिल जाएंगे। चुकन्दर से 'शुगर' और मूँगफली से  'फैट'। पालक मे 'आयरन' गाजर मे 'कैलशियम' सलाद मे 'फास्फोरस' है। कहने का  अभिप्राय यह है कि  शरीर के हेतु जितना भी  पोषक उपादान होता है वह सब  इस  भोजन मे भरपूर है। तदनन्तर वो 'कैलोरी' का हिसाब समझाने लगे। फल्लाना उपादान इतनी मात्रा मे, ढिमकाना उपादान उतनी मात्रा मे....। इस प्रकार से यह  एकदम संतुलित आहार है। सारांश यह कि स्वास्थ्य के  दृष्टि से यह आदर्श भोजन है।

मैं गटगट सबकुछ सुनता रहा। मित्र महोदय बोले - बारह वर्ष से यही 'स्वास्थ्यकर भोजन' चला रहा हूँ, इसीलिए मेरा स्वास्थ देखिए....।

मैंने देखा कि मित्र महोदय स्वयं सुखी लकड़ी जैसे लगते हैं। हाड़ - हाड़ निकला हुआ है। केकड़े सा बदन। देह मे दम्म नहीं। तथापि अपने स्वास्थ्य का  गर्व रखते हैं। अब ऐसी जगह क्या बोला जाए?

शर्माजी चोकर की रोटी चबाते हुए बोले-यदि इसी प्रकार के सात्विक आहार पर लोग रहे तो एक सौ वर्ष जी सकता है।

मैंने मन मे कहा- तब फिर जी कर क्या ही करेगा? मैं बाज आया ऐसे जीने से ।

शर्माजी टमाटर को चूसते हुए बोले -अहा! क्या अपूर्व वस्तु है यह टमाटर! अमेरिका मे इसे  'गोल्डेन एपुल' (सुनहला सेब) कहते हैं। परन्तु अपने देश मे लोग 'हाइजिन' (स्वास्थ्यविज्ञान) नहीं समझते हैं। कितने ही मूर्ख मेरे भोजन पर हँसते हैं। ज्यादा दूर क्यूँ जाएंगे? मेरे अपने घर मे वैज्ञानिक भोजन का महत्त्व कोई नहीं समझता है। मैंने लाख चेष्टा किया, तथापि मेरे 'लाइन' पर कोई नहीं आता है। आज ही देखिए न, सुबह से ही पूरी-कचौरी छना रहा है। सब कोई उसी मे लगे हुए हैं। मेरे साथ कोई बैठने के लिए तैयार नहीं हुआ । आज बहुत दिन पर संयोगवश आप के साथी मिल गए हैं।

मैंने मन मे भगवान का स्मरण किया-हे नारायण! यह किस दिन का बदला चुकाए हो? और और आमंत्रित लोग पूरी कचौड़ी उड़ा रहे हैं और मेरे कर्म मे यह  विटामिन वाला चोकर लिखा था!

बाहर से हलुआ और मालपूआ का सुगन्ध आने लगा। शर्माजी बोले – लोगों की रुचि बिगड़ गई है। मैदा और चीनी समझिए तो जहर है। 'नेचरोपैथी' (प्राकृतिक चिकित्सा) मे इसे 'हवाइट प्वाएजन' कहते हैं। इसी लिए मैं दूध मे चीनी नहीं मिलाने देता हूँ। पी कर देखिए न।

यह कहकर वो एक कटोरी दूध मेरी ओर बढा दिए। मुँह मे लगा कर देखा जारा सा भी मीठा नहीं। हे मधुसूदन! मित्र महोदय आपसे भी आगे बढ़ गए हैं। आपने मधु दैत्य से युद्ध किया । ये मधुर मात्र से युद्ध ठाणे हुए हैं।

मुझे दूध पीते देख शर्मा जी ने माना किया-हाँ, हाँ । ऐसे  नहीं। चाय की भांति चुस्की लेकर पीजिए । एक ही सांस मे पीना  'हाइजिन' के विरुद्ध है।

मैं मन ही मन बोला -हे हाइजिन देवी। तुम कहाँ से  हैजा की तरह टपक पड़ी हो। मेरे ही लिए बंधी पड़ी थी? वो भी आज के ही दिन के लिए? मैंने कोन सा अपराध किया था?

मित्र महोदय पुनः जहर उगलने  लगे- चटनी अचार को तो मैं हाथ से छूता भी नहीं हूँ , और न ही अपने हितैषी बन्धुओं को छूने दे सकता हूँ  । परन्तु आज चार दिन से रंग बिरंगा अचार, रायता, खटमिट्ठी, चटनी बन रहा है । ए जी ! मैं पूछता हूँ कि यह सब किसलिए? जिह्वा को क्षणिक तृप्ति देने हेतु 'सिस्टम' (शरीर-यंत्र) को क्यूँ खराब करें ? चटकार खाते-खाते एक तो अभ्यास पड़ जाता है, दूसरा की ज्यादा खा लिया जाता है जो 'हाइजीन' के सर्वथा विरुद्ध है ।

मन मे आया की साफ कह दें - ए जी मित्र महोदय ! मैं बाज आया ऐसे हाइजिन से । आप रखिए अपना विटामिन । मैं जा रहा हूँ उसी दल मे जहाँ हलुआ कचौरी परोसा जा रहा है । अमिरती आपके वास्ते जहर होता हो, मेरे वास्ते अमृत ही है । इस ऎन भोज के अवसर पर क्यों डाका दे रहे हो।

परन्तु शिष्टाचार वश ऐसा नहीं कहा हुआ । चुपचाप पालक का पत्ता चबाने लगा ।

शर्माजी बोले - आप बहुत जल्दी-जल्दी खाते हैं। यह हाइजिन के विरुद्ध है । प्रत्येक कौर को बत्तीस बार चबाना चाहिए जिससे मूँह मे उसका रस तैयार हो जाए । देखिए मैं कैसे खाता हूँ ।

वो एकट पालक की पत्ती लेकर दाँत से पीसने लगे ।

मैं भी उनका अनुसरण करते मन मे सोचने लगा - 'यद्धात्रा लिखितं ललाटपटले तन्मार्जितं कः क्षमः ? अभी सारे भाग्यशाली मिष्टान्न चबा रहे हैं और मेरे प्रारब्ध मे घास-पात लिखा था । शर्माजी ! आज समस्त नेचरो पैथी का अभ्यास मुझे करा दीजिए फिर ऐसा दूसरा मूर्ख जल्दी नहि फँसेगा । इसीलिए तो इतना प्रलोभन देकर आपने अपने वैशेषिक जाल मे फँसाया ? ऐसा बलि का बकरा बनने  हेतु दूसरा कौन मिलेगा ?

मुझे खामोश देख शर्माजी बोले – आप खा नहीं रहे हैं । प्रत्येक समर्थ व्यक्ति को तीन हजार कैलोरी खाना चाहिए । उसी हिसाब से परोसा गया है । ऐसे पौष्टिक भोजन को बर्बाद नहीं करना चाहिए । आप चुकन्दर नहीं खाते हैं ?

मैंने उबले चुकन्दर को मूँह मे डाला । मूँह भी चुकन्दर जैसा ही हो गया । मित्र महोदय ने पूछा - क्या ! अच्छा नहीं लगा ? इस मे बहुत-बहुत 'विटामिन' है । सारा खाइये । अरे, और चुकन्दर दो ।

मेरे आगे एक अंजुरी भर चुकन्दर उड़ेल दिया । मैं मन मार कर अनासक्त योगी की तरह चुकन्दर निगलने लगा ।

इतने दिनों पर अपने एक अनुवर्ती को पाकर मित्र महोदय मुझ पर अत्यन्त प्रशन्न हुए । रसोइये को बुलाकर बोले - देखो, रात्रि मे भी मेरे साथ ही इनका प्रबन्ध रहेगा खास मेरे ही चौका मे । मेरी ओर देखकर बोले  - सोयाबीन तो आप नहीं खाए होंगे । रात को मैं आपको सोयाबीन का दर्रा खिलाऊंगा और पपीते का घंट।

मैंने विनयपूर्वक कहा-अब इस बार क्षमा किया जाए। दूसरी बार आऊँगा तो घंट खा लूँगा।

हाथ धोने हेतु बाहर आया तो देखता हूँ की आँगन मे आमंत्रित लोगों की पंक्तियाँ लगी हैं और एक डाला लाल-लाल अमिरती, जो कड़ाही से तुरन्त छाना गया है, पत्ते पर परोसा जा रहा है। एक ओर दहिबड़ा उठा है। दूसरी ओर आलूदम। यह रायता जा रहा है। उधर किशमिश की चटनी आ रही है। यह इमली की खटमिट्ठी। तब तक सकरौड़ी का पतीला उठा! केवड़ा के सुगंध से मन भर गया।

मैं विलम्ब से दाँत साफ करने लगा। मित्र महोदय ने पूछा- उधर का भोज देख रहे हैं?

मैंने कहा -हाँ।

शर्माजी मुँह बिचका कर बोले – मैं तो उधर का एक भी वस्तु मुँह मे नहीं दे सकता हूँ। उस भोज का कुल इन्तिजाम मेरी पत्नी के हाथ मे है। मेरे खास मेहमान समझिए तो एकमात्र आप ही हैं।

मैंने  मन मे कहा - हाँ, कर्मलेख जो मेरा ज्यादा प्रबल था सो लाल-लाल अमिरती के स्थान मे लाल-लाल टमाटर दिखा दिए और सकरौड़ी के स्थान मे चुकन्दर ! स्वयं तो पुराकृत किए ही हैं, मेरा भी कोई विशेष पुण्य था जो आज आपका खास मेहमान हुआ । मित्र महोदय खानेवाले लोगों की ओर संकेत करते हुए बोले  - मुझे तो इन लोगों की बुद्धि पर दया आती है । ये लोग ऐसे 'अनबैलैंस्ड फूड' (असन्तुलित भोजन) खा रहे हैं जो अपने सिस्टम को खराब कर रहे हैं।

मैंने कहा - सम्भव है कि उन लोगों को हमारी बुद्धि पर दया आ रही हो ।

मित्र महोदय व्यंग्य तो नहीं समझे। बोले - हाँ वो लोग क्या समझेंगे ? इस विषय मे ज्ञान ही कितना है?

आँगन मे बाहर निकलते समय देखा कि पत्ते सब पर रसगुल्ला की वर्षा हो रही थी। परन्तु सागर मे रत्न का ढेर रहने से ही क्या ? कर्म भी तो होना चाहिए !

बाहर दलान मे आने पर गृहपति औपचारिकता करते हुए बोले - 'नेचरोपैथी' (प्राकृतिक चिकित्सा) मे तो पान सुपारी सब मना है । इसीलिए आप से भी अनुरोध नहीं ही करूंगा । मैं केवल सौंफ खाता हूँ । आप भी ले लीजिए।

मित्र महोदय पान की तस्तरी की ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देख कर जेब से एक चुटकी सौंफ बाहर किए और मेरी ओर बढ़ा दिए।

देह तो जल गया । परन्तु किया क्या जाए । मैंने सौंफ लेकर मित्र महोदय को धन्यवाद देता हुआ वहाँ से  प्रस्थान किया ।

मन मे किस  तरह का भाव उठा उसका अनुभव केवल भुक्तभोगी ही कर सकते हैं । इस प्रसंग से एक दृष्टान्त स्मरण हो जाता है ।

एक साहित्याचार्य काशी मे बारह वर्ष तक काव्य अलङ्कार नायिका भेद आदि पढ़ रस के पूर्णवेत्ता होकर, देश आ रहे थे । उन दिनों रेल तो ठा नहीं । लोग महीने-महीने दिन पैदल चल कर आते थे । आचार्य को एक दिन जंगल मे रात हो गया।

भादो की अंधेरी रात, उसमे भी बूँदा-बूंदी बारिश हो रही थी । जाएंगे कहाँ ? महा अवग्रह मे पड़ गए । अन्दाजे से ही टटोलते-टटोलते एक साधु की कुटी के पास पहुंचे ।

भीतर से आवाज आया- कौन है ?

ये अपना हाल कहे तो साधु बाबा ने दरवाजा खोल दिया । अंदर भी वैसा ही घुप अँधेरा!

बाबाजी कहे – ओ जी, दो ही कम्बल मेरी कुटी मे है । एक पर मैं सोया हूँ  , दूसरे पर बच्चा । आप किस पर सोएँगे ?

इनहोने विचार किया, क्या ठिकाना अंधेरे मे बच्चा कहीं दब-पिच जाए, इससे तो बेहतर है कि इनके पास ही सो जाऊँ । बेचारे किसी प्रकार से उस दढ़ियल बाबाजी के कम्बल मे घुस-घास कर रात काट लिए ।

बाबाजी तो ब्राम्ह मुहुर्त्त मे ही उठ कर अपने प्रातः कृत्य के हेतु बाहर चले गए । थक कर चूर थे । बिलम्ब से निन्द खुली । जब उठ कर विदा होने लगे तो देखते हैं कि एक अट्ठारह वर्ष की पूर्णयौवना फूल तोर रही है । रसिक तो थे ही । मुग्ध हो गए । इस निर्जन प्रान्त मे ऐसी अप्सरा कहाँ से आ गई ? पुछे – आप कहाँ रहती हैं?

सुन्दरी बोली – मैं इसी कुटी मे रहती हूँ ।

इनहोने पूछा – रात जब मैं आया था तब आप कहाँ थी ?

सुन्दरी चपल मुस्कान के साथ उत्तर दी - उसी कुटी मे ।

ये और अधिक विस्मित होते हुए पुछे - बाबाजी तो कह रहे थे कि उसमे केवल बच्चा है ।

सुन्दरी कटाक्षपूर्वक मुसकुराते हुए बोली – सो नहीं समझे ? मैं हीं बच्चा हूँ न । आपका नाम क्या है ?

साहित्याचार्य स्तम्भित रह गए ! अपना सर ठोकते हुए बोले – अब क्या कहूँ ? यदि आप बच्चा हैं तो मेरा नाम है अभागा कर्मनेढ़ाचार्य !

वही विशेषण अपना मे लगाता हुआ मैंने भी घर का रास्ता पकड़ा ।

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आदर्श भोजन

लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा

 

हमर एक मित्र छथि शर्माजी । अमीर लोक कैं किछु ने किछु व्यसन रहिते छन्हि । हिनका नेचुरोपैथीक सनक छैन्ह । एक बेर हुनकर निमन्त्रण भेटल । ओ दुख छुटबाक उपलक्ष्य मे महाभोजक आयोजन कैने रहथि । हमरा देखितहि उल्लसित भऽ बजलाह - कहू, झाजी ! अहाँ कतय भोजन करब ? समदरका (सर्वसाधारण) मे अथवा हमर खास महल मे ?

आब कहू, के एहन मूर्ख हैत जे विशेष छोड़ि कऽ सामान्यक ग्रहण करत ? अहारे व्यवहारे च त्यक्त लज्जा सुखी भवेत् ।

एहन एहन समय मिथ्या संकोच घातक होइ छैक। अतएव हम नम्रतापूर्वक सूचित कय देलिऎन्ह जे जखन कण खैनिहार कणादो 'विशेष' कें महत्त्व दय गेल छथि तखन हम त सम्पूर्ण तण्डुल खैनिहार थिकहुँ।

अस्तु। नियत समयपर मित्र महोदय हमरा भीतर लय गेलाह। रईस त रहबे करथि। सुन्दर कमलपत्री गलीचाबला आसन। चानीक चमकैत थारी-बाटी लोटा-गिलास। देखि कऽ मन प्रसन्न भऽ गेल। दू टा आसन लागल रहय। एक हुनका हेतु, एक हमरा हेतु, मित्र महोदय आदरपूर्वक अपना संग बैसौलन्हि।

थोड़ेक कालमे परसब शुरू भेल। पहिने एक-एक फाँक कागजी नेबो थारीमे राखि देलक। तदत्तुर एक-एक आँजुर पलाकी सागक मेंही कतरा। सलादक कतरल पत्ती एक मुट्ठी अँकुरल मुङ। उसिनल चिनिया बादाम। दू चारि टा गाजर ओ चुकन्दर। चारि पाँच टा लाल-लाल टमाटर। अन्तमे चोकरक एक-एक मोटगर रोटी।

हम मनमे विचारय लगलहुँ- या भगवान! ई और वस्तु आनत कि एतबेपर 'अमृतोपमस्तरणमसि स्वाहा' करय पड़त?

हम एही तारतम्यमे छलहुँ कि मित्र महोदय बजलाह-आब होउ, नमोनारायण करू। हमरा संशय भेल जे मित्र महोदय कतहु दिल्लगी त ने कय रहल छथि। परन्तु मुखाकृतिसॅं परिहासक कोनो टा आभास नहि भेटल। अगत्या हम ओही पर नैवेद्य खोंटय लगलहुँ।

शर्माजी अत्यन्त रुचिपूर्वक भोजन करय लगलाह। हमहूँ हूनक देखादेखी सलादक पत्तीमे कागजी नेबो गाड़य लगलहुँ।

शर्माजी पलाकीक पात चिबबैत बजलाह-बहुत गोटाकें एहन भोजन पसन्द नहि पड़ैत छैन्ह। कतेक मित्र त हमर उपहासो करैत छथि। परन्तु हमरा त एहिमे अपूर्व स्वाद भेटैत अछि।

तदनन्तर ओ भोजनक वैज्ञानिक व्याख्या करय लगलाह-देखू, एहिमे सभ प्रकारक भिटैमिन भरल छैक। टमाटरमे भिटैमिन ए, अँकुरीमे भिटैमिन बी, नेबोमे भिटैमिन सी, यवक चीकस मे 'स्टार्च' 'प्रोटीन' दुनू भेटि जाएत। चुकन्दरसॅं 'शुगर' ओ चिनियाबादामसॅं 'फैट'। पलाकीमे 'आयरन' गाजरमे 'कैलशियम' सलादमे 'फोसफरस'। कहबाक अभिप्राय ई जे शरीरक हेतु जतेक पोषक उपादान होइत छैक से सभटा एहि भोजनमे भरल अछि। तदनन्तर ओ 'कैलोरी' क हिसाब बुझाबय लगलाह। फल्लाँ उपादान एतेक मात्रामे, चिल्लाँ उपादान ओतेक मात्रामे....। एवं प्रकार ई एकदम बैलैंस्ड फूड, अछि। सारांश ई जे स्वास्थ्यक दृष्टिऍं ई आदर्श भोजन थीक।

हम गटगट सभटा सुनैत गेलहुँ। मित्र महोदय बजलाह-ह बारह वर्षसॅं यैह 'हाइजिनिक फूड' चला रहल छी, तै हमर स्वास्थ देखू....।

हम देखल जे मित्र महोदय अपने सनटिटही जकाँ लगैत छथि। हाड़ - हाड़ उगल छैन्ह। कराँकुल सन बगय। देहमे दम्म नहि। तथापि अपना स्वास्थ्यक गर्व रखैत छथि। आब एहन ठाम की बाजल जाओ?

शर्माजी चोकरक रोटी चिबबैत बजलाह-यदि एही प्रकारक सात्विक आहारपर लोक रहय त एक सै वर्ष जीबि सकैत अछि।

हम मनमे कहल-तखन जीबि कऽ करबे की करत? हम बाज ऎलहुँ एहन जिउनाइसॅं।

शर्माजी टमाटरक चोभा लगबैत बजलाह-अहा! की अपूर्व वस्तु थीक ई टमाटर! अमेरिकामे एकरा 'गोल्डेन एपुल' (सोनहुला सेव) कहैत छैक। परन्तु अपना देशमे लोक 'हाइजिन' (स्वास्थ्यविज्ञान) नहि बुझैत अछि। कतेक मूर्ख हमर भोजनपर हॅंसैत अछि। बेसी दूर किएक जाएब? हमरा अपने घरमे वैज्ञानिक भोजनक महत्त्व केओ ने बुझैत अछि। हम लाख चेष्टा कैल, तथापि हमर 'लाइन' पर केओ नहि अबैत अछि। आइए देखू ने, भोरेसॅं पूरी-कचौरी छना रहल अछि। सभ केओ ओहीमे लागल अछि। हमरा संग केओ बैसक लेल तैयार नहि भेल। आइ बहुत दिनपर संयोगवश अहाँ एक टा संगी भेटि गेलहुँ अछि।

हम मनमे भगवानक स्मरण कैल-हे नारायण! ई कोन दिनक बदला चुकैल? और और नोतिहारी सभ पूरी कचौड़ी उड़ा रहल छथि और हमरा कर्ममे ई भिटैमिन बला चोकर लिखल छल!

बाहरसॅं हलुआ ओ पालपूआक सुगन्ध आबय लागल। शर्माजी बजलाह-लोकक रुचि बिड़गल छैक। मैदा ओ चीनी बुझू त जहर थीक। 'नेचरोपैथी' (प्राकृतिक चिकित्सा) मे एकरा 'हवाइट प्वाएजन' कहैत छैक। एही द्वारे हम दूधमे चीनी नहि मिलाबय दैत छिऎक। पीबि कऽ देखियौ ने।

ई कहि ओ एक बाटी दूध हमरा दिस बढा देलन्हि। मुँहमे लगा कऽ देखल एको रत्ती मीठ नहि। हे मधुसूदन! मित्र महोदय अहूसॅं टपि गेलाह। अहाँ मधु दैत्यसॅं युद्ध कैल । ई मधुर मात्रसॅं युद्ध ठनने छथि।

हमरा दूध पिबैत देखि शर्माजी मना कैलन्हि-हाँ, हाँ । ओना नहि। चाह जकाँ सीपि-सीपि कय पीबू। एके छाकमे पीबि गेनाइ 'हाइजिन' क विरुद्ध थीक।

हम मनहि मन कहल-हे हाइजिन देवी। तों कहासॅं हैजा जकाँ टपकि पड़लीह। हमरे लेल बथाएल छलीह? सेहो अजुके दिन खातिर? हम कोन अपराध कैने छलिऔह?

मित्र महोदय पुनः जहर उगिलय लगलाह- चटनी अँचार कें त हम हाथ सॅं नहि छुबैत छी , और ने अपना हित बन्धु कैं छुबय दैत सकैत छी । परन्तु आइ चारि दिन सॅं रंग बिरंगक अँचार, रायता, खटमिट्ठी, चटनी बनि रहलैक अछि । औ जी ! हम पुछैत छी जे ई सभ किऎक ? जिह्वा के क्षणिक तृप्ति देवक हेतु 'सिस्टम' (शरीर-यंत्र) कैं किऎक खराब करब ? चटकार खाइत-खाइत एक त अभ्यास पड़ि जाइत छैक, दोसर बेशी खैना जाइत छैक जे 'हाइजीन' कऽ सर्वथा विरुद्ध थीक ।

मन मे आएल जे साफ कहि दिऎन्ह - औ जी मित्र महोदय ! हम बाज ऎलहुँ एहन हाइजिन सॅं । अहाँ राखु अपन भिटैमिन । हम जाइ छी ओहि दल मे जहाँ हलुआ कचौरी परसाइत अछि । अमिरती अहाँ वास्ते जहर रहौ, हमरा वास्ते अमृते थिक । ई ऎन भोजक अवसर पर किऎक डाका दैत छी

परन्तु शिष्टाचार वश एना नहि कहि भेल । चुपचाप पलाकीक पात कचरय लगलहुँ ।

शर्माजी बजलाह - अहाँ बहुत जल्दी-जल्दी खाइत छी । ई हाइजिन कऽ विरुद्ध थीक । प्रत्येक कौर कें बत्तीस बेर चिबाबक चाही जाहि सॅं मूँह मे ओकर रस तैयार भऽ जाय । देखू हम कोना खाइत छी ।

ओ एकटा पलाकीक पत्ती लऽ कऽ दाँत सॅं पीसय लगलाह ।

हमहूँ हुनका अनुसरण करैत मन मे सोचय लगलहुँ - 'यद्धात्रा लिखितं ललाटपटले तन्मार्जितं कः क्षमः ? एखन सभ भाग्यशाली मिष्टान्न कचरि रहल अछि और हमरा प्रारब्ध मे घास-पात लिखल छल । शर्माजी ! आइ समस्त नेचरो पैथी कऽ अभ्यास हमरा करा दियऽ फेर एहन दोसर मूर्ख जल्दी नहि फॅंसत । स्वाइत एतेक प्रलोभन दऽ कऽ अहाँ अपन वैशेषिक जाल मे बझाओल ? ई बलिदानक बकरा बनक हेतु दोसर के भेटत ?

हमरा गुम्म सुम्म देखि शर्माजी बजलाह - अहाँ खाइ छी नहि । प्रत्येक समर्थ व्यक्ति कैं तीन हजार कैलोरी खैबाक चाही । ओही हिसाब सॅं परसल गेल अछि । एहन पौष्टिक भोजन कैं छुतैबाक नहि चाही । अहाँ चुकन्दर नहि खाइ छी ?

हम उसिनल चुकन्दर मूँह मे देल । मूँहो चुकन्दरे सन भऽ गेल । मित्र महोदय पुछलन्हि - की ! नीक नहि लागल ? एकरा मे बहुत-बहुत 'भिटैमिन' छैक । सभटा खाउ । हौ, और चुकन्दर दहुन ।

हमरा आगाँ एक आँजुर चुकन्दर उझिलि देलक । हम जी जाँति कऽ अनासक्त योगी जकाँ चुकन्दर घोटय लगलहुँ ।

एतेक दिन पर अपन एक अनुवर्ती पाबि मित्र महोदय हमरा पर अत्यन्त प्रशन्न भेलाह । भनसीया कैं बजा कऽ कहलथिन्ह - देखह, रातिओ हमरे सङ्ग हिनक प्रबन्ध हैतैन्ह खास हमरे चौका मे । हमरा दिस ताकि कऽ बजलाह - सोयाबीन त अहाँ नहि खैने हैब । राति ह अहाँकें सोयाबीनक दर्रा खोआएब और अर्नेवाक घंट।

हम विनयपूर्वक कहलिऎन्ह-आब एहि बेर क्षमा कैल जाय। दोसरा बेर आएब त घंट खा लेब।

अँचाबक हेतु बाहर ऎलहुँ त देखै छी जे ओसारापर नोतिहारी लोकनिक पंघति लागल अछि और एक चङेरा लाल-लाल अमिरती, जे कड़ाहसॅं तुरन्त छानल गेल अछि, पातपर परसा रहल अछि। एक दिस दहिबड़ उठल। दोसर दिस आलूदम। ई रायता जा रहल अछि। ओम्हर किशमिशक चटनी आबि रहल अछि। ई तेतरिक खटमिट्ठी। तावत सकरौड़ीक पातिल उठल! केवाड़क सुगन्धसॅं मन भरि गेल।

हम विलम्बसॅं खरिका करय लगलहुँ। मित्र महोदय पुछलन्हि-ओम्हरुका भोज देखि रहल छी?

हम कहलिऎन्ह-हॅं।

शर्माजी मुँह बिचका कऽ बजलाह-हम त ओहिमहक एकोटा वस्तु मुँहमे नहि दय सकैत छी। ओहि भोजक कुल इन्तिजाम हमरा स्त्रीक हाथमे छैन्हि। हमर खास पाहुन बुझू त एकमात्र अहीं टा छी।

हम मनमे कहल-हॅं, कर्मलेख जे हमर बेसी प्रबल छलाह से लाल-लाल अमिरतीक स्थानमे लाल-लाल टमाटर देखा देलन्हि और सकरौड़ीक स्थानमे चुकन्दर ! अहाँ अपने त पुराकृत कैनहि छी, हमरो कोनो विशेष पुण्य छल जे आइ अहाँक खास पाहुन भेलहुँ । मित्र महोदय खैनिहार सभक दिस संकेत करैत बजलाह - हमरा त हिनका सभक बुद्धिपर दया अबैत अछि । ई लोकनि तेहन 'अनबैलैंस्ड फूड' (असन्तुलित भोजन) खा रहल छथि जे अपना सिस्टम कै खराब कऽ रहल छथि ।

हम कहलिऎन्ह - सम्भव जे हुनको लोकनि कैं हमरा बुद्धि पर दया अबैत होइन्ह ।

मित्र महोदय व्यंग्य त नहि बुझलैन्ह । बजलाह - हॅं ओ लोकनि की बुझताह ? एहि विषय मे ज्ञाने कतेक छैन्ह ?

आँगन मे बहरैबाक काल देखल जे पात सभ पर रसगुल्लाक वर्षा भऽ रहल अछि । परन्तु सागर मे रत्नक ढेरिए रहने की ? कर्मो त होमक चाही !

बाहर दलान मे एला पर गृहपति उचती करैत बजलाह - 'नेचरोपैथी' (प्राकृतिक चिकित्सा) मे त पान सुपारी सभ मना छैक । तैं अहूँ कैं आग्रह नहिए करब । हम केवल सौफ खाइ छी । अहूँ लऽ लियऽ ।

मित्र महोदय पानक तस्तरी दिस उपेक्षापूर्ण दृष्टि सॅं ताकि जेबी सॅं एक चुटकी सौंफ बहार कैलन्हि और हमरा दिस बढ़ा देलन्हि ।

देह त जरि गेल । परन्तु कैल की जाय । हम सौफ लय मित्र महोदय कैं धन्यवाद दैत ओहि ठाम सॅं प्रस्थान कैल ।

मन मे कोन तरहक भाव उठल तकर अनुभव केवल भुक्तभोगी कऽ सकैत छथि । एहि प्रसंग मे एकटा दृष्टान्त स्मरण भऽ जाइत अछि ।

एक साहित्याचार्य काशी मे बारह वर्ष धरि काव्य अलङ्कार नायिका भेद आदि पढ़ि रसक पूर्णवेत्ता भय, देश अबैत रहथि । ताहि दिन रेल त रहैक नहि । लोक मास-मास दिन पैरे चलि कऽ आबय । आचार्य कैं एक दिन जंगल मे राति भऽ गेलैन्ह ।

भादवक अन्हरिया राति, ताहू मे फूही पड़ैत । जैताह कतय ? महा अवग्रह मे पड़ि गेलाह । अन्दाजे सॅं टोइया-टप्पर दैत एक साधु कुटी लग पहुँचलाह ।

भीतर सॅं आवाज एलन्हि - के अछि ?

ई अप्पन हाल कहलथिन्ह त साधु बाबा केबाड़ खोलि देलथिन्ह । भितरो मे तहिना अन्हार कुप्प !

बाबाजी कहलथिन्ह - हे औ, दुइए टा कम्बल हमरा कुटी मे अछि । एकटा पर हम सुतल छी , दोसरा पर बच्चा । अहाँ कोन पर सुतब ?

ई बिचारलैन्हि, कोन ठेकान अन्हार मे बच्चा कतहु पिचा-तिचा जाइ, ताहि सॅं बरु हिनके लग सूति रही । बेचारे कोनो तरहें ओहि दढ़ियल बाबाजीक कम्बल पर घुसिया-फुसिया कऽ राति कटलन्हि ।

बाबाजी त ब्राम्हीए मुहुर्त्त मे उठि कऽ अपन प्रातः कृत्यक हेतु बहरा गेलाह । थाकल ठेहिआएल रहथि । बिलम्ब सॅं निन्द टुटलैन्ह । जखन उठि कऽ विदा होमय लगलाह त देखैत छथि जे एकटा अट्ठारह वर्षक पूर्णयौवना फूल तोरि रहल छथि । रसिक त रहबे करथि । मुग्ध भऽ गेलाह । एहि निर्जन प्रान्त मे एहन अप्सरा कहाँ सॅं आबि गेलीह ? पुछलथिन्ह - अहाँ कतय रहैत छी ?

सुन्दरी कहलथिन्ह - हम एही कुटी मे रहैत छी ।

ई पुछलथिन्ह - राति जखन हम आएल रही तखन अहाँ कतय रही ?

सुन्दरी बिहुँसि कय उत्तर देलथिन्ह - ओही कुटी मे ।

ई और अधिक विस्मित होइत होइत पुछलथिन्ह - बाबाजी त कहने रहथि जे ओहि मे केवल वच्चा अछि ।

सुन्दरी कटाक्षपूर्वक मुसकुराइत कहलथिन्ह - से नहि बुझलहुँ ? हमही ने वच्चा थिकहुँ । अहाँक नाम की थिक ?

साहित्याचार्य स्तम्भित रहि गेलाह ! अपन कपार ठोकैत बजलाह - आब की कहू ? यदि अहाँ वच्चा त हमर नाम अभागल कर्मनेढ़ाचार्य !

सैह विशेषण अपना मे लगबैत हमहूँ घरक बाट धैलहुँ ।

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