गुरुवार, 18 जुलाई 2024

बीमा का एजेंट [मूल मैथिली कथा। लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक: प्रणव झा]

 

बीमा का एजेंट 

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक: प्रणव झा  (केवल अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु)

 संसार मे दो  वस्तु से बचाने का उपाय नहीं है। एक यमदूत से, दूसरा बीमा कम्पनी के एजेंट से! यमदूत तो जीवन मे एक ही बार दर्शन देते हैं , किन्तु बीमा का भूत जहाँ एक बार प्रवेश किया वहीं जोंक की तरह चिपक जाते हैं उनको जितना ही झिड़कने का प्रयास करेंगे उतना ही और अंदर घुसते चले जाएंगे।

एक बार मेरे पर एक भूत लाग गए - ध्रुव नन्दन प्रसाद सत्तू सम्मर बांध कर मेरे पीछे लाग गए नित्य नियम संध्याकाल पहुँच जाते , बैठते, बतियाते और अन्त मे वही प्रस्ताव कि 'जिन्दगी का बीमा करा लिजिए इसमे फायदा ही फायदा है कम-से-कम पाँच हजार का भी 'पालिसी' ले लीजिए '

मैंने लाख कहा कि 'अरे महराज ! मुझे अभी बीमा नहीं कराना है।' परन्तु कौन सुनता है ! वो जवाब पाने के बाद भी बैठे ही रह जाते थे बीच-बीच मे कितने ही लोग आते , कितने ही लोग जाते किन्तु बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद ध्रुव के जैसे अपने स्थान पर अचल मुझे खाने हेतु बुलाने आता तब भी उठने का नाम नहीं । भोजनोत्तर पुनः गप्प लाद देते भद्रलोग को कैसे कहा जाए कि आब कृपा कीजिए। अगत्या उनके खातिर दो घंटा और बैठना पड़ता जब 11 बजे के बाद मुझे ऊँघते हुए से देखते तब अपना कागज-पत्र समेट बोलते - अच्छा, अभी चलता हूँ कल सबेरे पुनः सेवा मे हाजिर हो जाऊंगा

नित्य प्रति यही क्रम चलने लगा मैं महा संकट मे पड़ गया था। कोई भी कार्य करना कठिन उनसे जान छुड़ाने का बहुत प्रयास किया , किन्तु सब व्यर्थ

अन्त मे एक उपाय किया। उनकेआने के समय से पहले कोठली मे ताला बंद कर हरिकीर्तन मे चला गया। जब डेढ़पहर रात बीत गया  और मुझे विश्वास हो गया कि बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद आकर वापस लौट गए होंगे तब आवास पर गया परन्तु दरवाजे के पास गया तो देखता हूँ कि वो खंभे जैसे खड़े हैं। बोले - मैं दो घंटे से यहाँ पर खड़ा होकर देख रहा हूँ ।

मैंने चाहा कि खड़े खड़े ही बात करके उनको विदा कर दूँ। किन्तु वो तो सहज जीव थे नहीं। मेरे पीछे लगे चले आए और उस रात 12 बजे तक बैठे रहे ।

उसके बाद जैसे जैसे मैं अपना दिनचर्या बदलता गया वैसे वो भी अपनी गतिविधि मे परिवर्तन करते गए मैं दाल-दाल तो वो पात-पात !खाते-पीते, सोते-जागते जब देखता, बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद आ कर सर पर सवार !

अब उनसे जान छुड़ाने हेतु एक कौशल रचा। कालेज से आते ही अंदर से कोठरी बंद कर दिया और बाहर से ताला बन्द करबा दिया नौकर को सीखा दिया - देखो, यदि वो बाबू आएंगे तो यह मत कहना कि मैं अंदर मे हूँ । ताला बंद देखकर वो लौट जाएंगे तब खिड़की से मुझे बता देना ।

मैं बन्द घर मे अपने लिखा-पढ़ी के काम मे लग गया । कुछ ही देर बाद बाबू ध्रुबनन्दन प्रसाद का आहट जान पड़ा। वो आए और ताला बन्द देख ठमक गए परन्तु वो साधारण व्यक्ति तो थे नहीं कि तुरंत ही लौट जाते। उन्होने पहले ताला को खींचकर देखा। नहीं खुला। तब कुछ देर तक बरामदा मे खड़ा रहकर पश्चाताप करते हुए विदा हुए। मेरे जान मे जान आया।

जब लगा कि वो चले गए हैं तब फक से निश्वास छोड़ा। ताबतक पीछे मे खिड़की मे  झिलमिल सा  हुआ। मैंने बिना देखे ही पूछाक्या रे ठगना! वो गए?

परन्तु उत्तर सुनये ही हृदय काँप गया। ठगना के स्थान मे स्वयं बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद खड़े थे! बोले- क्या! लिखा-पढी हो रहा है?  मुझे तभी सन्देह हुआ कि अंदर मे ही तो नहीं हैं। इसीलिए पीछे से आकार देखा। बाहर ताला क्यूँ बंद है ?

मैंने ठगना पर अपन क्रोध उतारते हुए कहा - बेबकूफ धोखा से बंद कर के कहीं चला गया है। अब आएगा तब न?

एजेंट महोदय बोले-कोई चिन्ता नहि। मेरे चाबी के गुच्छे मे 'मास्टर की' है। लगा कर देखता हूँ।

दो मिनट के अंदर एजेंट महोदय दरवाजा खोलकर अंदर प्रविष्ट हो गए।

यह चालाकी भी व्यर्थ गया। अब कौन सी युक्ति रची जाए? दूसरे दिन रविवार था। काछमछा कर सो गया। ठगना को सीखा दिया – देखो, आए तो कह देना कि मालिक बीमार हैं।

परन्तु उस दिन मेरे लिए और सजा हो गया। बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद अपने कंपनी के डाक्टर को बुलाकर ले आए। और भर दिन मेरे पास मे बैठकर लेक्चर दैते रहे कि जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं। जल्दी बीमा करा लेना चाहिए।

मैंने मन ही मन कहा - अरे महाराज! पहले आपसे जिंदगी बच जाए तब न इसका बीमा कराऊँ!

दो-चार दिन के बाद पूजा की छुट्टी मे कालेज बन्द हो गया। मैं एजेंट महोदय से जान छुड़ाते हुए हजारीबाग का टिकट कटाया।

हजारीबाग पहुँच कर एक मकान किराया पर लिया और शान्तिपूर्वक रहने लगा। एजेंट महोदय के कृपा से शरीर का जो रक्त सूख गया था वो क्रमशः भरने लग गया था।

एक दिन झील के किनारे  पुल पर बैठकर कमल की शोभा देख रहा था कि एक अप-टु-डेट नवयुवती आती हुई दृष्टिगोचर हुई । पतले छरहरे शरीर मे शान्तिपुरी साड़ी के ऊपर लाल कोट। सौम्य मूर्त्ति। पृथ्वी पर अन्दाजे से तौल-तौल कर चरण देती हुई। वो मेरी ओर बिना देखे ही , शालीनतापूर्वक अपना रास्ता पकड़े , लवेंडर की खुशबू छोड़ते हुए आगे बढ़ गई।

दूसरे दिन मैं पुस्तकालय मे बैठा था कि वही रमणी पहुँची। ऐसा संयोग कि मेरी लिखी हुई ही एक किताब वो मांग बैठी। मेरे मुँह पर एक आनन्दमिश्रित कौतूहल का भाव आ गया जो तीक्ष्णबुद्धि रमणी को दिख गया। किताब उलटते-पलटते एक बार मेरी ओर तीव्र दृष्टि दे देखी।

'लाइब्रेरियन' ने मेरा परिचय देते हुये कहा यही किताब के लेखक हैं। देवीजी ने दोनों हाथों को जोड़कर अभिवादन किया और अपने स्मृति पर बल देते हुये बोली आपको शायद मैंने कहीं देखा है।

मैं- कल सन्ध्याकाल झील के किनारे मे बैठा था।

वोजी , क्षमा करें। मैंने उस समय पहचाना नहीं । यहाँ पर कितने दिन रहेंगे?

मैंपूरी छुट्टियों मे यहीं रहने का विचार है ।

वो - डेरा कहाँ पर है?

मैंने अपना पता बताया ।

रमणी बोली मैं एक कष्ट देना चाहती हूँ। मुझे कुछ पढ़ना है। यदि डेरा पर आऊँगी तो कुछ समय दे सकते हैं क्या ?

मैं जबतक कुछ सोचता सोचता तबतक मुँह से निकाल गया - 'अवश्य' रमणी धन्यवाद देते हुए विदा हुई।

दूसरे दिन मैं अपने बरामदे पर बैठा अखबार पढ रहा था कि वही सौम्यमूर्त्ति - लाल कोट के  परिधि मे अपनी सम्पूर्ण सौम्यता आवेष्टित किए - पहुँच गई। शिष्टाचार के उपरान्त कुर्सी पर बैठी।

मैंने पूछा - आपका नाम जान सकता हूँ?

देवीजी एक विलक्षण अन्दाज मे आँखें झुकाकर , मुसकुरा उठी। बोली - मं...जु...ला।

इन तीन अक्षरों को जिस 'अदा' से उच्चारण किया वो अभी तक नहीं भूला हूँ ।

मंजुला देवी 'अटैची केस' से एक किताब बाहर करती हुई बोली- मुझे 'लाॅजिक' मे कइ जगह 'कठिनाई' है। वो सब ' मार्क' कर  के ले आई हूँ। आइ.. कर चुकी होती, किन्तु बीच मे कुछ कारण से पढाइ छूट गया था। इस बार 'प्राइवेट' से 'ऎपियर' होने का विचार है।

उस दिन से गुरु-शिष्या का सम्बन्ध स्थापित हुआ। मंजुला देवी प्रतिदिन आने लगी। 'लाॅजिक' के साथ साथ कुछ काव्य साहित्य की भी चर्चा होने लगी।

एक दिन मंजुला देवी अपने साथ एक दूसरी कोमलांगी को लिए आई। कञ्चन-लता जैसी कोमल बदन पर कल्पना सी सूक्ष्म रेशमी परिधान। सुनहले चश्मे  के भीतर से छन कर दिव्य तेज निकल रहा था।

मंजुला देवी उनका परिचय देते हुए बोली-ये  मेरी सखी 'ज्योतिर्मयी'  सेकेन्ड इयर मे पढ़ती है। कविता भी करती है इनकी रचना 'सुधा' , 'माधुरी' मे निकलती है  'कल्पना' उपनाम है 'कल्पना'

मंजुला देंवी उनके हाथ से एक सुन्दर 'नोटबुक' छिनते हुए बोली ये बहुत शर्मीली है। ऐसे अपनी कविता नहीं सुनाएगी। बैठकर इनका गीत सुना जाए

संध्या काल कोकिल-कंठ कल्पना अपनी 'निर्झरिणी' शीर्षक कवितां सुनाने बैठी स्वरलहरी से झील के जल मे तरंग उठने लग गया समस्त प्रदेश मधुर आलाप से मुखरित हो उठा सायंकालीन वातावरण मे संगीत सुनते-सुनते हमलोग ऐसे मंत्रमुगध हो गए कि जेल का घंटा बजने पर चैतन्य हुआ दस बजे रात को डेरा पर वापस आए।

सुबह होने पर मंजुला और कल्पना के साथ एक हृष्टपुष्ट ओजस्वी महिला आई। अच्छी-ख़ासी चौड़ी-तगड़ी, भरा-पुरा चेहरा, गठीला शरीर।

मंजुला उनका परिचय देते हुए बोली ये हैं पुरुषार्थवती देवी। 'आर्य महिला पीठ'  से व्यायाम-विशारद। ये अपने व्यायाम का प्रदर्शन करने हेतु यहाँ 'कन्या-विद्यालय' मे आई हैं। इनको लाठी और तलवार चलाने हेतु कितने ही 'पदक' मिल चुका है। ये सभी प्रकार का आसन जानती हैं। अभी बाइस  वर्ष की ही उम्र है, किन्तु शारीरिक बल मे किसी भी पुरुष से कम नहीं है। बल्कि बहुत कम मर्द इनसे पंजा भिड़ा सकते हैं ।

पुरुषार्थवती देवी अपने पुरुषार्थ का वर्णन सुन गर्व से मेरी ओर देखने लगी । मेरी तो इच्छा हुई कि एक बार बल की परीक्षा हो जाए। परन्तु पुरुषार्थवती के मांसल बाँह और पुष्ट कलाई देख पंजा लड़ाने का साहस नहीं हुआ। कहीं हार गया तो कैसी भारी लज्जा की बात होगी! वो भी सुन्दरी सब के बीच मे!

मंजुला बोली - आज 'गर्ल स्कूल' मे 'बैठक' है। ये अपनी 'मस्ल' दिखाएगी और कइ एक प्रकार की 'जिमनैस्टिक' करेगी। वहाँ पर  'प्रेसिडेंट' आप ही को बनाना पड़ेगा। उसी खातिर हम लोग आए हैं।

सभा मे जा कर पुरुषार्थवती का पुरुषार्थ देखा। वो पहले भिन्न-भिन्न भाग के मांसपेशीयाँ दिखाई। तदुत्तर शीर्षासन, उत्तानासन आदि नाना प्रकार के आसन करते हुए अपने सीने पर दो लोगों को चढ़ा ली, और एक ही बार मे दोनों को जोर से झिड़क कर उठ गई । एवं प्रकार से वो रंग बिरंग के खेल दिखाकर अपना नाम सार्थक करने लगी  और सभामंडप करतल ध्वनि से गूँजने लगा।

मैंने अपने भाषण मे कहा कि प्रत्येक स्त्री को ऐसी ही पुरुषार्थवती बनना चाहिए परन्तु मन ही मन भगवान को धन्यवाद भी दिया कि ऐसी पुरुषार्थवती अपने सर पर नहीं पड़ी । अन्यथा कठिन समस्या उपस्थित हो जाता।

एक दिन मंजुला मेरे से 'सिलाजिज्म'(अनुमानखंड) पढ रही थी हठात बोल उठी - आज सिनेमा चलेंगे? बहुत बढिया 'शो' है

मैंने कहादेखा जाएगा तबतक 'आर्ग्युमेन्ट' (तर्क) 'टेस्ट'(जाँच) करिए परन्तु उसके बाद जो अभिनेता-अभिनेत्री की अलोचना छिड़ी वो कहाँ सँ कहाँ पहुँच गई

मंजुला 'लाॅजिक' बन्द करते हुए बोलीआपको किसका 'अभिनय' ज्यादा पसन्द पड़ता है?

मेरे  मुँह से 'देविकारानी' का नाम सुनते ही मंजुला तुनक उठी बोली - 'दुर्गा खोटे' क्यूँ नहीं?

मैंने कहा  - क्षमा करिए आपकी दुर्गा खोटे मर्दानी स्त्री जैसी स्त्री लगती है , जैसे पुरुषार्थवती देवी

मंजुला बोली - तब आपके भी देविकारानी मे केवल हाव-भाव ही है आप 'सेक्स अपील' (यौन आकर्षण)पर जाते हैं

युवती शिष्या के मुँह से ऐसी दोषारोपण सुन मैं स्तम्भित रह गया

वो बोली - काननबाला आपको कैसी लगती है ?

मैंने उत्तर दिया - उनके कंठ मे अपूर्व माधुर्य है जैसे कल्पना के स्वर मे

यह सुन मंजुला देवी के मन मे ईर्ष्या का भाव गया जो मुझे प्रत्यक्ष दृष्टगोचर हुआ

तबतक  'कल्पना' और पुरुषार्थवती दोनों संग-संग ही पहुच गए

मंजुला ने हँसते-हँसते स्वागत कियाआइए आइए , काननबाला और दुर्गा खोटे ! आप लोगों को यही 'टाइटिल' मिला है

कल्पना देवी प्रायः हम लोगों की वार्तालाप बाहर से सुन रही ठी। कुटिल मुस्कान के साथ उत्तर दी - हाँ, परन्तु देविकारानी बनने का सौभाग्य तो आप ही को प्राप्त है

मंजुला के आभापूर्ण गाल पर लज्जा की लालिमा दौड़ गई

उस राति सुन्दरी सब के अनुरोध से मुझे भी सिनेमा जाना ही पड़ा

इसी प्रकार कुछ ही दिनों  मे मंजुला बहुत समीप आ गई एक दिन बोली - आपकी 'पत्नी' तो यहाँ है नहीं खाने-पीने मे बहुत तकलीफ होता होगा

मैंने कहा - नहीं ठगना है, वो पूरी बना देता है चावल खाने का मन होता है तो स्वयं बना लेता हूँ ।

मंजुला बोली - ओह ! मेरे रहते हुए आप कष्ट कर रहे हैं! अभी क्या बना रहा है ?

मैंने कहामछली तल रहा है ।

वो बोलीमछली का हाल वो क्या जानेगा ? मैं खुद ही जा रही हूँ ।

यह कह वो चप्पल चटर-चटर करते हुए रसोई घर मे पहुँच गई। वहाँ लाल कोट खुट्टी पर टाँङ, स्टुल पर बैठ गई

मेरे मन मे एक अपूर्व भाव उदित होने लगा।

थोड़े देर मे मंजुला एक 'प्लेट' मे तली मछली और चावल लिए आई मैंने कहा - ओह ! आपको आज बहुत कष्ट दिया

वो बोली - कष्ट कोनसा ? ये तो मेरा काम ही है। अब से मैं हरेक दिन अपने हाथों से बना कर खिलाया करूंगी ।  हाँ, तो फिर शुरू करिए न ।

मैंने कहायह कैसे हो सकता है? आप भी खाईए ।

वो शर्माते हुए बोली ठीक है, मैं भी पीछे खा लूँगी। पहले आप तो खा लीजिए

अन्त मे विशेष आग्रह करने पर वो भी मेरे संग बैठ गई ठगना मुँह बनाते हुए वहाँ से चला गया ।

छुट्टी पूरी होने मे दो ही दिन बचे रह गए थे । मंजुला को बहुत कुछ पढ़ना शेष रह गया था । अब कैसे पूर्ति होगा ?? मैं चिन्ता मे पड़ गया सोचते-सोचते सर भारी हो गया

रात मे बिस्तर पर पड़े हुए इसी भावना मे मग्न था कि मंजुला पहुँची मेरे खाट के पास कुर्सी खीच कर बैठ गई मेरा हाथ अपने हाथ मे लेकर बोलीबुखार तो नहीं है । सर मे दर्द हो रहा है क्या ?

उसने मेरा सर टटोला और फुर्र से उठी दस मिनट मे 'यु-डी-कोलोन' लिए आई लगाते हुए बोली - क्या, अब कुछ 'रिलीफ' (शान्ति) जान पड़ रहा है?

मैं  मुग्ध होते हुए बोला - मंजुले ! आप धन्य हैं। आदर्श देवी ! आपका उपकार मैं आजन्म नहीं भूलूँगा इस ऋण से मैं कैसे उऋण हो सकता हूँ ?

मंजुला बोलीमैंने क्या पुरस्कार पाने के हेतु आपकी सेवा की है ? यह तो मेरा कर्तव्य है । किन्तु यदि आप मेरे से प्रशन्न हैं तो एक सहायता कर सकते हैं।

यह कहकर मंजुला देवी ने एक 'फार्म'  बाहर निकाला। बोली - मैंने एक 'इन्श्योरेंस' (बीमा) कम्पनी का 'एजेंसी' लिया हुआ है। यदि आप एक 'पालिसी' ले लें तो मेरा कुछ उपकार हो जाएगा

मैंने मन मे कहा - हे भगवान ! धन्य आपकी माया यहाँ पर भी बीमा का चक्र लगा ही आया !

मैं यंत्रवत फार्म को भरने लगा

सुन्दरी का प्रस्ताव कैसे अस्वीकार किया जाए ! वो मेरे हाथ मे फार्म पकड़ा दी और कोट के अंदर से 'फाउण्टेनपेन'  निकाल कर बोलीइसको भरिए तो ।

वो सबकुछ पढ़ कर बोली - और सब तो ठीक है केवल 5000) जो आपने लिखा है वो ठीक नहीं है । इस मे एक अंक अपनि ओर से जोड़ देती हूँ

यह कह कर वो 5 से  पूर्व 1 जोड़ , 15000) कर दी ।

मैंने मंजुला के सर मे सिन्दुर की एक सूक्ष्म विंदु देख पूछाआपके पति कहाँ हैं? क्या करते हैं?

मंजुला बोलीउनका कोई सर्विस नहीं है 'बिजनेस' करते हैं किन्तु मैं उनपर 'बडेन' (भार) हो कर नहीं रहना चाहती हूँ ।  बल्कि मैं ही अपनी 'अर्निङ्ग' (कमाइ) से उनका 'हेल्प' कर देती हूँ इस  'पालिसी' मे मुझे 600) कमीशन मिलेगा उस से उनका बहुत काम चल जाएगा।

यह कह मंजुला देवी यत्नपूर्वक अपना सारा कागत-पत्र समेट, अटैची केस मे रखी और कृतज्ञता सूचक शब्द मे बोली - इस कृपा के हेतु मैं हार्दिक धन्यवाद देती हूँ

मैं जब तक कुछ उत्तर देता - देता तबतक बाहर से कर्कश आवाज आया - प्रोफेसर साहेब !

स्वर पहचानते देर नहीं हुई वही ध्रुवनन्दन प्रसाद ! ये आखिर यहाँ तक खदेड़ते चले आए! जी खट्टा हो गया । दाल भात मे मुसलचन्द ! ये अभी कहाँ से आ गए!

मैंने उखड़ते हुए उत्तर दिया- मुझे अभी फुरसत नहीं है कल दिन मे आइयेगा   अभी एक भद्र महिला यहाँ पर हैं

बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद अंदर आते हुए बोले - प्रोफेसर साहब ! आप प्रायः धोखा मे हैं ये मेरी 'पत्नी ' हैं।

मंजुला देवी शरारत भरे मुसकान से मेरी ओर देखकर बोली यही हैं मेरे  'पति' मिस्टर डी. एन. प्रसाद। अच्छा , तो अब अभी आज्ञा दीजिए। नमस्ते।

मूल मैथिली टेक्स्ट अगले पृष्ठ पर


 

 

बीमाक एजेंट प्रणम्य देवता

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक : प्रणव झा

संसार मे दू वस्तु सॅं बचबाक उपाय नहि एक यमदूत सॅं , दोसर बीमा कम्पनीक एजेंट सॅं ! यमदूत जीवन मे एके बेर दर्शन दैत छथिन्ह , किन्तु बीमाक भूत जहाँँ एक बेर प्रवेश कैलन्हि तहाँँ जोंक जकाँँ सटि जाइत छथि हुनका जतेक झाड़क कोशिश करू ततेक और भीतर पैसल जैताह

एक बेर हमरो पर एक भूत लागि गेलाह - ध्रुव नन्दन प्रसाद सतुआ सम्मर बान्हि कऽ हमरा पाछाँँ लागि गेलाह नित्य नियम संध्याकाल पहुँँचि जाथि , बैसथि, गप्प करथि और अन्त मे वैह प्रस्ताव जे 'जिन्दगी बीमा करा लियऽ एहि मे फायदे-फायदा अछि कम-सॅं-कम पाँँचो हजार 'पालिसी' लऽ लियऽ '

हम लाख कहलिऎन्ह जे ' महराज ! हमरा एखन बीमा करैबाक नहि अछि ' परन्तु के सुनैत अछि ! जबाब पौलो उत्तर बैसले रहि जाथि बीच-बीच मे कतेको लोक आबय , कतेको लोक जाय किन्तु बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद ध्रुव जकाँँ अपना स्थान पर अचल हमरा खाय लेल बजाबऽ आबय तौखन उठबाक नाम नहि भोजनोत्तर पुनः गप्प लाधि देथि भद्रलोक कैं कोना कहल जाय जे आब कृपा करु अगत्या हुनका खातिर दू घंटा और बैसय पड़य जखन ११ बजेक बाद हमरा औंघायल सन क्रम देखथि अपन कागज-पत्र समेटैत बाजथि - बेश, एखन चलै छी काल्हि सबेरे पुनः सेवा मे हाजिर भऽ जायब

नित्य प्रति यैह क्रम चलय लागल हम महा संकट मे पड़ि गेलहुँँ कोनो कार्य करब से कठिन हुनका सॅं जान छोड़ैबाक बहुत चेष्टा कैलहुँँ , किन्तु सभ व्यर्थ

अन्त मे एक उपाय कैलहुँँ हुनका ऎबाक बेर सॅं पहिने कोठरी मे ताला बंद कऽ हरिकीर्तन मे चल गेलहुँँ जखन डेढ़पहर राति बीति गेलैक और हमरा विश्वास भऽ गेल जे बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद आबि कऽ फिरि गेल हैताह तखन डेरा गेलहुँँ परन्तु फाटक लग गेलहुँँ देखैत छी जे खंभा जकाँँ ठाढ़ छथि बजलाह - हम दू घंटा सॅं एहिठाम ठाढ़ भेल ताकि रहल छी

हम चाहलहुँँ जे ठाढ़े-ठाढ़ गप्प कऽ कऽ हुनका विदा कऽ दी किन्तु सहज जीव छलाह नहि हमरा पाछाँँ लागल भीतर चल एलाह और ओहि राति १२ बजे धरि बैसल रहलाह

ओकरा बाद जेना-जेना हम अपन दिनचर्या बदलैत गेलहुँँ तहिना ओहो अपना गतिविधि मे परिवर्तन करैत गेलाह हम डारि-डारि पात-पात ! खाइत-पिबैत, सुतैत-उठैत जखन देखी, बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद आबि कऽ माथ पर सवार !

आब हुनका सॅं जान छोड़ैबाक हेतु एक कौशल रचलहुँँ कालेज सॅं अबितहि भीतर सॅं कोठरी बन्द कऽ देलहुँँ और बाहर सॅं ताला बन्द करबा देलिऎक नौकर कैं सिखा देलिऎक - देख, जौ बाबू अबथुन्ह नहि कहिऔन्ह जे हम भीतर मे छी ताला बंद देखि कऽ अपने फिरि जैथुन्ह तखन खिड़कीक बाटें हमरा कहि दिहें

हम बन्द घर मे अपन लिखा-पढ़ीक काज मे लगलहुँँ थोड़बे कालक बाद बाबू ध्रुबनन्दन प्रसादक आहटि बुझि पड़ल एलाह और ताला बन्द देखि ठमकि गेलाह परन्तु साधारण व्यक्ति छलाह नहि जे लगले फिरि जैतथि पहिने ताला कैं खिचि कऽ देखलथिन्ह नहि फुजलैन्ह तखन किछु काल बरामदा पर ठाढ़ रहि अछता-पछता कय विदा भेलाह हमरा जान-मे-जान आएल

जखन बूझि पड़ल जे चल गेलाह तखन फक दऽ निसास छोड़लहुँ। तावत पाछाँ मे खिड़कीक झिलमिली उठल। हम बिनु देखनहि पुछलिऎक - की रौ ठगना! गेलथुन्ह?

परन्तु उत्तर सुनैत हृत्कम्प भऽ गेल। ठगनाक स्थान मे स्वयं बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद ठाढ़ छलाह! बजलाह- की! लिखा-पढी भऽ रहल छैक? हमरा तैखन सन्देह भेल जे भितरे मे नहि छथि। तै पछुआड़ सॅं आबि कऽ देखल। बाहर ताला किऎक बंद छैक?

हम ठगना पर अपन क्रोध उतारैत कहलिऎन्ह- बेबकूफ धोखा सॅं बंद कऽ कऽ कतहु चल गेल अछि। आब आओत तखन ने?

एजेंट महोदय बजलाह-कोनो चिन्ता नहि। हमरा कुंजीक झब्बा मे 'मास्टर की' अछि। लगा कऽ देखैत छिऎक।

दू मिनटक भीतर एजेंट महोदय केवाड़ फोलि भीतर प्रविष्ट भऽ गेलाह।

ईहो चालाकी व्यर्थ गेल। आब कोन युक्ति रचल जाओ? दोसरा दिन रवि रहैक। हम कछनी काछि कऽ पड़ि रहलहुँ। ठगना कैं सिखा देलिऎक- देख, अबथुन्ह कहि दिअहुन जे मालिक दुखित छथि।

परन्तु ओहि दिन हमरा और सजाय भऽ गेल। बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद अपना कंपनीक डाक्टर कैं बजा कऽ लऽ ऎलाह। और भरि दिन हमरा लग मे बैसि लेक्चर दैत रहलाह जे जिंदगीक कोनो ठेकान नहि। जल्दी बीमा करा लेबाक चाही।

हम मने-मन कहलहुँ - महाराज! पहिने अहाँ सॅं जिंदगी बाँचि जाय तखन ने एकर बीमा कराबी!

दू-चारि दिनक बाद पूजाक छुट्टी मे कालेज बन्द भऽ गेल। हम एजेंट महोदय सॅं जान छोड़वैत हजारीबागक टिकट कटौलहुँ।

हजारीबाग पहुँचि कऽ एक मकान किराया लेल और शान्तिपूर्वक रहय लगलहुँ। एजेंट महोदय कृपा सॅं शरीरक जे शोणित सुखा गेल छल से क्रमशः भरय लागि गेल।

एक दिन झीलक कात पुल पर बैसल कमलक शोभा देखैत रही कि एक अप-टु-डेट नवयुवती अबैत दृष्टिगोचर भेलीह। पातर छरहर शरीर मे शान्तिपुरी साड़ीक ऊपर लाल कोट। सौम्य मूर्त्ति। पृथ्वी पर अन्दाज सॅं तौलि-तौलि कऽ चरण दैत। हमरा दिशि बिनु तकनहि, शालीनतापूर्वक अपन बाट धैने, लवेंडरक खुशबू छोड़ैत, आगाँ बढि गेलीह।

दोसरा दिन हम पुस्तकालय मे बैसल रही कि वैह रमणी आबि पहुँचलीह। एहन संयोग जे हमरे लिखल एक पुस्तक माङि बैसलथिन्ह हमरा मुँह पर एक आनन्दमिश्रित कुतूहलक भाव आबि गेल जे तीक्ष्णबुद्धि रमणी कैं लक्षित भऽ गेलैन्ह। पुस्तक उनटबैत-पनटबैत एक बेर हमरा दिस तीव्र दृष्टि सॅं तकलन्हि।

'लाइब्रेरियन' हमर परिचय दैत कहलथिन्ह-यैह पुस्तकक लेखक थिकाह। देवीजी दुनू हाथ जोड़ि कय अभिवादन कैलन्हि और अपना स्मृति पर बल दैत बजलीह- अहाँ कैं प्रायः हम कतहु देखने छी।

हम- काल्हि सन्ध्याकाल झीलक किनार मे बैसल रही।

- हॅं, क्षमा करब। हम ओहि समय चीन्हल नहि। एहि ठाम कतेक दिन रहब?

हम - भरि छुट्टी एत्तहि रहबाक विचार अछि।

- डेरा कतय अछि?

हम अपन पता कहलिऎन्हि।

रमणी बजलीह- हम एकटा कष्ट देबक चाहैत छी। हमरा किछु पढबाक अछि। यदि डेरा पर आबी किछु समय दऽ सकैत छी?

हम जा किछु सोची-सोची ता मुँह सॅं बहरा गेल - 'अवश्य' रमणी धन्यवाद दैत विदा भेलीह।

दोसर दिन हम अपन बरामदा पर बैसल अखबार पढैत रही कि वैह सौम्यमूर्त्ति - लाल कोटक परिधि मे अपन सम्पूर्ण सौम्यता आवेष्टित कैने - पहुँचि गेलीह। शिष्टाचारक उपरान्त कुर्सी पर बैसलीह।

हम पुछलिऎन्ह - अहाँक नाम बुझि सकैत छी?

देवीजी एक विलक्षण अन्दाज सॅं नेत्र निहुड़ा, मुसकुरा उठलीह। बजलीह - मं...जु...ला।

तीन अक्षर जेहन 'अदा' सॅं उच्चारण कैलन्हि से एखन धरि नहि बिसरैत अछि।

मंजुला देवी 'अटैची केस' सॅं एक किताब बाहर करैत बजलीह-हमरा 'लाॅजिक' मे कइएक ठाम 'डिफिकल्टी' अछि। से सभ ' मार्क' कऽ कऽ नेने आयल छी। आइ.. कऽ गेलि रहितहुँ, किन्तु बीच मे किछु कारण सॅं पढाइ छुटि गेल। एहि बेर 'प्राइवेट' सॅं 'ऎपियर' होएबाक विचार अछि।

ओहि दिन सॅं गुरु-शिष्याक सम्बन्ध स्थापित भेल। मंजुला देवी नित्य आबय लगलीह। 'लाॅजिक' संग-संग किछु काव्यो साहित्यक चर्चा होमय लागल।

एक दिन मंजुला देवी अपना संग एक दोसर कोमलांगी कैं नेने ऎलीह। कञ्चन-लतिका सन सुकुमार देहयष्टि पर कल्पना सन सूक्ष्म रेशमी परिधान। सोनहुला चश्माक भीतर सॅं छनि कय दिव्य तेज बहराइत।

मंजुला देवी हुनक परिचय दैत बजलीह- हमर सखी 'ज्योतिर्मयी' सेकेन्ड इयर मे पढैत छथि। कवितो करैत छथि हिनक रचना 'सुधा' , 'माधुरी' मे बहराइत छैन्ह 'कल्पना' उपनाम छैन्ह 'कल्पना'

मंजुला देंवी हुनका हाथ सँ एक सुन्दर 'नोटबुक' छिनैत बजलीह - बड्ड लजकोटरि छथि ओना अपन कविता नहि सुनौतीह। वैसि कय हिनक गीत सुनल जाय

सन्धयाकाल कोकिल-कंठी कल्पना अपन 'निर्झरिणी' शीर्षक कवितां सुनबय बैसलीह स्वरलहरी सँ झीलक जल मे तरंग उठय लागि गेल समस्त प्रदेश मधुर आलाप सँ मुखरित भऽ उठल सायंकालीन वातावरण मे संगीत सुनैत-सुनैत हमरा लोकनि एहन मंत्रमुगध भऽ गेलहुँ जे जेलक घंटा बजला उत्तर चैतन्य भेल दस बजे राति कऽ डेरा पर अबैत गेलहुँ

प्रात भेने मंजुला कल्पनाक संग एक हृष्टपुष्ट ओजस्वी महिला ऎलीह। वेश चाकर-चौरस, भरल-पूरल चेहरा, गठन शरीर।

मंजुला हुनक परिचय दैत बजलीह- छथि पुरुषार्थवती देवी। 'आर्य महिला पीठ' व्यायाम-विशारद। अपन व्यायाम प्रदर्शन करबाक हेतु एतय 'कन्या-विद्यालय' मे आइलि छथि। हिनका लाठी तरुआरि भजबाक हेतु कतेको 'मेडल' भेटि चुकल छैन्हि। सभ प्रकारक आसन जनैत छथि। एखन बाइसे वर्षक अवस्था छैन्ह, किन्तु शारीरिक बल मे कोनो पुरुष सॅं कम नहि छथि। बल्कि बहुत कम मर्द हिनका सॅं पंजा भिड़ा सकैत छथिन्ह।

पुरुषार्थवती देवी अपन पुरुषार्थक वर्णन सुनि गर्व सॅं हमरा दिशि ताकय लगलीह। हमरा इच्छा भेल जे एक बेर बलक परीक्षा भऽ जाय। परन्तु पुरुषार्थवतीक मांसल बाँहि और पुष्ट पहुँचा देखि पंजा लड़ाबक साहस नहि पड़ल। कदाचित हारि गेलहुँ केहन भारी लज्जाक बात हैत! सेहो सुन्दरी सभक बीच मे!

मंजुला बजलीह - आइ 'गर्ल स्कूल' मे 'मीटिंग' छैक। अपन 'मस्ल' देखौतीह और कइएक तरहक 'जिमनैस्टिक' करतीह। ओहिठाम 'प्रेसिडेंट' अहीं कैं बनय पड़त। ताही खातिर हमरा लोकनि आएल छी।

सभा मे जा कऽ पुरुषार्थवतीक पुरुषार्थ देखल। पहिने भिन्न-भिन्न भागक मांसपेशी देखौलन्हि। तदुत्तर शीर्षासन, उत्तानासन आदि नाना प्रकारक आसन करैत अपना सीना पर दू गोटा कैं चढा लेलन्हि, और एके बेर दूनू कैं जोर सॅं झाड़ि कऽ उठि गेलीह। एवं प्रकार रंगबिरंगक खेल देखाय अपन नाम सार्थक करय लगलीह और सभामंडप करतल ध्वनि सॅं गूँजय लागल।

हम अपना भाषण मे कहलिऎन्ह जे प्रत्येक स्त्री कैं एहने पुरुषार्थवती बनक चाही परन्तु मनहि मन भगवान कैं धन्यवादो देलिऎन्ह जे एहन पुरुषार्थवती अपना माथ पर नहि पड़लीह अन्यथा कठिनाह समस्या उपस्थित होइत।

एक दिन मंजुला हमरा सँ 'सिलाजिज्म'(अनुमानखंड) पढैत रहथि हठात बाजि उठलीह - आइ सिनेमा चलब? बहुत बढिया 'शो' छैक

हम कहलिऎन्ह - देखल जैतैक तावत 'आर्ग्युमेन्ट' (तर्क) 'टेस्ट'(जाँच) करु परन्तु तकरा बाद जे अभिनेता-अभिनेत्रीक अलोचना छिड़ल से कहाँ सँ कहाँ पहुँचि गेल

मंजुला 'लाॅजिक' बन्द करैत बजलीह - अहाँ कैं ककर 'ऎक्टिंग' बेशी पसन्द पड़ैत अछि?

हमरा मुँह सँ 'देविकारानी' नाम सुनैत देरी मंजुला तिनुकि उठलीह बजलीह - 'दुर्गा खोटे'किऎक नहि?

हम कहलिऎन्ह - माफ करु अहाँक दुर्गा खोटे मर्दानी स्त्री जकाँ लगैत छथि, जेना पुरुषार्थवती देवी

मंजुला बजलीह - तखन अहूँक देविकारानी मे केवल हावे-भाव छैन्ह अहाँ 'सेक्स अपील' (यौन आकर्षण)पर जाइ छी

युवती शिष्याक मुँह सँ एहन दोषारोपण सुनि हम स्तम्भित रहि गेलहुँ

बजलीह - काननबाला अहाँ कैं केहन लगैत छथि ?

हम उत्तर देलिऎन्ह - हुनका कंठ मे अपूर्व माधुर्य छैन्ह जेना कल्पनाक स्वर मे

सूनि मंजुला देवी कैं ईर्ष्याक भाव मन मे आवि गेलैन्ह जे हमरा प्रत्यक्ष दृष्टगोचर भेल

तावत 'कल्पना' पुरुषार्थवती दुहू संगे-संग पहुचि गेलीह

मंजुला हॅंसैत-हॅंसैत स्वागत कैलथिन्ह - अबैत जाउ, काननबाला और दुर्गा खोटे ! अहाँ लोकनि कैं यैह 'टाइटिल' भेटल अछि

कल्पना देवी प्रायः हमरा लोकनिक वार्तालाप बाहर सॅं सुनैत छलीह विहुँसैत उत्तर देलथिन्ह - हॅं, परन्तु देविकारानी बनबाक सौभाग्य अहीं कैं प्राप्त अछि

मंजुलाक आभापूर्ण गाल पर लज्जाक लालिमा दौड़ि गेलैन्ह

ओहि राति सुन्दरी सभक अनुरोध सॅं हमरो सिनेमा जाय पड़ल

एवं प्रकार किछुए दिन मे मंजुला बहुत समीप आवि गेलीह एक दिन बजलीह - अहाँक 'वाइफ' एतय छथि नहि खैबा-पिउवा मे बहुत तकलीफ होइत हैत

हम कहलिऎन्ह - नहि ठगना अछि, से पूरी बना दैत अछि भात खैबाक मन होइत अछि अपने बना लैत छी

मंजुला बजलीह - ओह ! हमरा अछैत अहाँ कष्ट कऽ रहल छी ! एखन की बनबैत अछि ?

हम कहलिऎन्ह - माछ तरि रहल अछि

बजलीह - माछक हाल की जानय गेल ? हम अपने जा रहल छी

कहि चट्टी पर चटर-चटर करैत भानस घर मे पहुँचि गेलीह ओहिठाम ललका कोट खुट्टी पर टाँङि, स्टुल पर बैसि गेलीह

हमरा मन मे एक अपूर्व भाव उदित होमय लागल

थोड़ेक काल मे मंजुला एक 'प्लेट' मे तरल माछ भात नेने ऎलीह हम कहलिऎन्ह - ओह ! अहाँ आइ बहुत कष्ट कैलहुँ

बजलीह - कष्ट कोन ? हमर काजे अछि आब सॅं हम सभ दिन अपने हाथे बना कऽ खोआएल करब हॅं, तखन होउ ने

हम कहलिऎन्ह - कोना भऽ सकैत अछि ? अहूँ खाउ

लजाइत बजलीह - वेश, हमहूँ पाछाँ कऽ खायव पहिने आहाँ खा लियऽ

अन्त मे विशेष आग्रह कैला उत्तर ओहो हमरा संग बैसि गेलीह ठगना मुँह बनबैत ओहि ठाम सॅं चल गेल

छुट्टी पुरबा मे दुइए दिन बाँकी रहि गेल मंजुला कैं बहुत किछु पढ़वाक शेष रहि गेलैन्ह आब कोना पुर्ति हेतैन्ह ? हम चिन्ता मे पड़ि गेलहुँ सोचैत-सोचैत माथ भारी भऽ गेल

राति मे ओछाओन पर पड़ल एही भावना मे मग्न रही कि मंजुला आबि पहुँचलीह हमरा खाट लग कुर्सी खीचि कऽ बैसि गेलीह हमर हाथ अपना हाथ मे लय बजलीह - ज्वर नहि अछि माथ मे दर्द होइत अछि की ?

हमर कपार टोएलन्हि और फुर्र दऽ उठलीह दस मिनट मे सॅं 'यु-डी-कोलोन' नेने एलीह लगबैत बजलीह - की, आब किछु 'रिलीफ' (शान्ति) बुझि पड़ैत अछि?

हम मुग्ध होइत कहलिऎन्ह - मंजुले ! अहाँ धन्य छी आदर्श देवी ! अहाँक उपकार हम आजन्म नहि बिसरब एहि ऋण सॅं हम कोना उऋण भऽ सकैत छी ?

मंजुला बजलीह - हम की पुरस्कार पाबक हेतु अहाँक सेवा कैलहुँ अछि ? हमर कर्तव्ये थिक किन्तु यदि अहाँ हमरा पर प्रशन्न छी एकटा सहायता कऽ सकैत छी

कहि मंजुला देवी एकटा 'फार्म' बाहर कैलन्हि बजलीह - हम एक 'इन्श्योरेंस' (बीमा) कम्पनीक 'एजेंसी' नेने छी यदि अहाँ एकटा 'पालिसी' लऽ ली हमर किछु उपकार भऽ जाय

हम मन मे कहलहुँ - हे भगवान ! धन्य अहाँक माया एहू ठाम बीमाक चक्र लगले आयल !

हम यंत्रवत फार्म कैं भरय लगलहुँ

सुन्दरीक प्रस्ताव कोना अस्वीकार कैल जाय ! हमरा हाथ मे फार्म धरा देलन्हि और कोटक भीतर सॅं 'फाउण्टेनपेन' बहार कय बजलीह - एकरा भरु

सभटा पढ़ि कऽ बजलीह - और सभ ठीक अछि केवल ५०००) जे अहाँ लिखने छी से ठीक नहि एहि मे एक अंक अपना दिस सॅं जोड़ि दैत छी

कहि सॅं पूर्व जोड़ि , १५०००) कऽ देलथिन्ह

हम मंजुलाक माथ मे सिन्दुरक सूक्ष्म विंदु देखि पुछलिऎन्ह - अहाँक स्वामी कतय छथि ? की करैत छथि ?

मंजुला बजलीह - हुनका कोनो सर्विस नहि छैन्ह 'बिजनेस' करैत छथि किन्तु हम हुनका पर 'बडेन' (भार) भऽ कऽ नहि रहय चाहैत छिऎन्ह बल्कि अमही अपना 'अर्निङ्ग' (कमाइ) सॅं हुनका 'हेल्प' कऽ दैत छिऎन्ह एहि 'पालिसी' मे हमरा ६००) कमीशन भेटत ताहि सॅं हुनकर बहुत काज चलि जैतैन्ह

कहि मंजुला देवी यत्नपूर्वक अपन सभटा कागत-पत्र समेटि, अटैची केस मे धैलन्हि और कृतज्ञता सूचक शब्द मे बजलीह - एहि कृपाक हेतु हम हार्दिक धन्यवाद दैत छी

हम जा किछु उत्तर दिऎन्ह-दिऎन्ह ता बाहर सॅं कर्कश आवाज आएल - प्रोफेसर साहेब !

स्वर चिन्हैत देरी नहि भेल वैह ध्रुवनन्दन प्रसाद ! आखिर एहूठाम धरि खेहारने ऎलाह ! जी अकच्छ भऽ गेल दालि भात मे मुसरचन्द ! एखन कहाँ सॅं आबि गेलाह !

हम लोहछि कऽ उत्तर देलिऎन्ह - हमरा एखन फुरसति नहि अछि काल्हि दिन मे आएब एखन एकटा भद्र महिला एहिठाम छथि

बाबू ध्रुवनन्दन प्रसाद भीतर अबैत बजलाह - प्रोफेसर साहब ! अपने प्रायः धोखा मे छी हमरे 'वाइफ' थिकीह।

मंजुला देवी शरारत भरल मुसकान सॅं हमरा दिशि ताकि बजलीह- यैह छथि हमर 'हसबैंड' मिस्टर डी. एन. प्रसाद। बेश, आब एखन आज्ञा भेटौ। नमस्ते।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें