नमस्कार दोस्तों। क्या आपको पता है की डबल्यूएचओ के द्वारा सान 2018 मे
जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत मे करीब 6.3% लोग श्रवण संबंधी अक्षमताओं से
ग्रसित हैं। पिछले जनगणना के अनुसार देश मे श्रवण अक्षमता(हियरिंग डिसाइबिलिटी) मे
5.8% की दर से एवं वाक अक्षमता (स्पीच डिसेबिलिटी) मे 7.5% की दर से वृद्धि हो रही
है। देश के विभिन्न क्षेत्रों मे जिस प्रकार से ध्वनि प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा
है, और जिस प्रकार की जीवनचर्या(लाइफ स्टाइल) लोग अपना रहे हैं(उच्च शोर वाले
संगीत सुनना, ईयर फोन का अत्यधिक उपयोग आदि), निकट भविष्य
मे श्रवण संबंधी समस्याओं के और अधिक बढ़ने की संभावना भी है। उपरोक्त आँकड़े यह
इंगित करते हैं की देश मे वर्तमान और भविष्य मे औडियोलोजिस्ट एवं स्पीच लैंगवेज़
पैथोलोजिस्ट की जरूरत अच्छी ख़ासी होगी, अतः इस
क्षेत्र मे करियर की अच्छी संभावना दिखती है। खासकर उन छत्रों के लिए जिनमे मानव
सेवा को करियर के रूप मे चुनने की प्रबल इच्छा हो और जो किसी कारण वश मॉडर्न
मेडिसिन या आल्टर्नेट मेडिसिन के किसी अन्य विधा मे प्रवेश नहीं पा रहे हों।
यद्यपि वर्तमान मे लोगों मे इस तरह के विकारों के प्रति बहुत अधिक जागरूकता नहीं
है, पर क्योंकि मामला व्यक्ति के संवाद कौशल से जुड़ा है, इसपर जागरूकता की आवश्यकता तो है ही। इस विषय पर मेरे पहले के लेख का भी
संदर्भ ले सकते हैं। (ऑडियोलॉजी एवं स्पीच लेंग्वेज पैथोलॉजी: बारहवीं के बाद जीवविज्ञान के छात्रों के लिए करियर विकल्प )।
आज हम एआईआईएसएच मैसूर के विषय मे कुछ चर्चा करेंगे, जो वाक एवं श्रवण संबंधी विकारो के निदान के लिए दक्षिण एशिया की नंबर 1
एवं विश्व के शीर्षस्थ 10 संस्थानों मे शामिल है। भारत सरकार की यह संस्थान, सांसकृतिक महत्ता वाले शहर मैसूर मे स्थित है।
संचार विकारों के क्षेत्र में प्रमुखता रकनेवाले इस संस्थान की स्थापना 9
अगस्त, 1965 को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के रूप में की गई थी।
डॉ. मार्टिन एफ. पामर, निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ लोगोपेडिक्स, विचिटा, कंसास,
यूएसए ने 1963 में भारत का दौरा किया था और मैसूर में
लॉगोपेडिक्स का एक संस्थान स्थापित करने की सिफारिश की थी।
ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ लोगोपेडिक्स की शुरुआत 9 अगस्त, 1965 को हुआ था और यह पहले कर्मचारी के रूप में डॉ एन रथना के साथ राम
मंदिर (एक किराए की इमारत) में काम करना शुरू किया था। डॉ. बी.एम. राव को बाद में
इसके पहले निर्देशक के रूप में नियुक्त किया गया था।
भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० एस० राधाकृष्णन ने 25 जुलाई, 1966 को मैसूर के महाराजा द्वारा दान मे लिए गए २२ एकड़ भूमि पर संस्थान के
भवन का शिलान्यास किया था।
मैसूर विश्वविद्यालय से संबद्धता प्राप्त करने के बाद, संस्थान ने एम.एससी (वाक एवं श्रवण) पाठ्यक्रम 2 अक्टूबर, 1966 को शुरू किया जो देश में अपनी तरह का पहला पाठ्यक्रम था। इस संस्थान
को 10 अक्टूबर,
1966 को "ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड
हियरिंग" नाम से पंजीकृत किया गया था।
संस्थान मे डिप्लोमा, स्नातक, स्नातकोत्तर एवं पीएचडी स्तर के कुल 16 पाठ्यक्रम
संचालित किए जाते हैं जो वाक(स्पीच), श्रवण(हियरिंग)
एवं विशिष्ट शिक्षा (स्पेशल एडुकेशन) के डोमैन के पाठ्यक्रम हैं।
भारत मे वाक एवं श्रवण संबंधी मरीजों के पुनर्वास मे इस संस्थान का योगदान
अग्रणी रहा है। यहाँ से प्रशिक्षित विशेषज्ञों (अलूमनाई) आज देश के विभिन्न भाग मे
क्लीनिक्स और अस्पतालों मे अपनी सेवा दे रहे हैं। देश के विभिन्न भागों मे वाक एवं
श्रवण निदान के लिए कई शिक्षण एवं चिकित्सा संस्थान यहाँ से प्रशिक्षित छत्रों
द्वारा स्थापित किए गए हैं तथा वहाँ पर यहा के अलूमनाई प्रशिक्षण एवं चिकित्सा का
कार्य कर रहे हैं।
संस्थान मे अकादमिक विंग एवं नैदानिक(क्लीनिकल) विंग दो अलग अलग खंडों, क्रमाश: नैमिषम खंड एवं जयचामराजा खंड मे स्थापित हैं। पूरा कैंपस
साफ़सुथरा, एवं पेड़ पौधों से भरा है जो यहा आनेवाले आगंतुकों को एक सुखद वातावरण का
अनुभव देता है। लाल लेटेराइट मिट्टी पर संस्थान के मालियों ने अच्छा प्रयोग किया
है और सुंदर सुंदर फूलों और सजावटी पौधो के अलावा आपको यहाँ विभिन्न फलों और औषधीय
गुणो वाले पेड़-पौधे जैसे कटहल, नींबू, डाभ, चीकू, कालीमिर्च, शंखपुष्पी आदि देखने को मिल जाएंगे। कलम विधि द्वारा कटहल और चीकू के
छोटे-छोटे पौधों मे भी फल देखने को मिल जाएगा।
क्लीनिकल विंग बहुत ही बेहतर तरीके से स्थापित हैं एवं मरीजों, खसकर छोटे बच्चों के सुविधाओं एवं उन्हे खुशनुमा माहौल देने को ध्यान मे
रखकर बनाया गया है। क्लीनिकल वार्ड मे एक बोर्ड पर नजर परने पर हमारा ध्यान ठिठका
था जिसमे बेस्ट मदर के नाम अंकित थे। डॉ० प्रवीण ने हमारी जिज्ञासा को शांत करते
हुये बताया कि बच्चो मे वाक एवं श्रवण संबंधी
विकार को दूर करने के लिए एक लंबा ट्रीटमेंट देना होता है जिसमे चिकित्सक एवं
अभिभावक दोनों को ही धैर्य, सूझबूझ और आत्मविश्वास दिखाने कि जरूरत होती है। मरीजों के ठीक होने मे
उनके अभिभावकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अत: संस्थान हर वर्ष अपने बच्चे को
सबसे बेहतर तरीके से देखभाल करनेवाली माँ को बेस्ट मदर का इनाम देती है जिससे
अभिभावकों मे मरीज के देखभाल के प्रति प्रेरणा एवं सकारात्मकता जागृत हो। यह
प्रयोग हमे बहुत ही अनूठा और अच्छा लगा था।
औडियोलोजी विभाग मे विचरते हुए हमे कई अनुभव हुए। श्रवण संबंधी दिक्कतों को
डायगनोज करने के कई टेस्ट एवं मशीनों की जानकारी मिली साथ ही इन विकारों को दूर
करने हेतु लगाए जानेवाले छोटे छोटे यंत्र भी देखने को मिला। प्रो० नागरकर सर ने
बताया की ये डिवाइस काफी महंगे हैं और इसलिए बहुत से गरीब
मरीज इन्हे नहीं खरीद पाते। अत: कुछ सरकारें(उदाहरण के लिए केरल सरकार) गरीब
मरीजों को यह उपलब्ध करवा रहे हैं, पर फिर भी
दिक्कत यह है की ऐसे मरीज से यदि ये गलती से गुम हो जाए, या इसमे कुछ खराबी आ जाए तो फिर मरीज इनका उपयोग छोड़ देते हैं और उनकी
समस्या पुनः यथावत हो जाती है। सर ने यह भी बताया की डीआरडीओ ने इन डिवाइस के
सस्ते विकल्प बनाए हैं पर उनकी तकनीकी पुरानी होने की वजह से वो इतना रेलेवेंट
नहीं हो पाए हैं।
स्पीच पैथोलॉजी विभाग मे कई चिकित्सकों और मरीजों से मुलाक़ात हुई।
चिकित्सकों ने प्रो० नागरकर सर को ट्रीटमेंट मैथोडोलोजी एवं मरीजो मे होनेवाले
सुधार के बारे मे ब्रीफ़ किया। संस्थान मे छोटा सा ईएनटी विभाग भी है ताकि ईएनटी
विशेषज्ञ से मरीजों के लिए संबन्धित परामर्श लिया जा सके। यद्यपि यहा पर सर्जरी की
व्यवस्था नहीं हैं तथा यहाँ के ईएनटी विशेषज्ञों को ओटी के लिए मैसूर मेडिकल कॉलेज
से एमओयू हो रखा है।
स्पेशल एजुकेशन वार्ड मे जाकर हम सभी को एक सुखद और खुशनुमा अनुभव मिला।
पूरे वार्ड के फर्श पर यत्र तत्र अङ्ग्रेज़ी हिन्दी और कन्नड भाषा के अक्षरों और
शब्दों को उकेड़ा गया था, जिससे बच्चे उन अक्षरों को बोलना और पहचानना सीख सके। बच्चो के खेल कूद के
लिए खिलौने और झूलों आदि की अच्छी व्यवस्था थी।
वहाँ की शिक्षिका ने हमे बताया की बच्चो के साथ साथ ही अभिभावकों को भी यहाँ छोटे छोटे हस्तकलावाले काम सिखाए जाते हैं तथा उनसे यहा ठहरने के दौरान ये कार्य कराये जाते हैं। इस तरह के साकारात्मक प्रयोगों का काफी प्रभाव बच्चों के सुधार मे पड़ता है। उन्होने यह भी बताया की हमे भेंट मे दिये गए नोटबुक, कागज के पेन, कागज के गुलदस्ता आदि इन्ही बच्चो एवं अभिभावकों द्वारा बनाया गया था। उन्होने यह भी बताया की संस्थान पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर भी गंभीर है और एकबार प्रयोग मे आनेवाले प्लास्टिक के वस्तुओं का का प्रयोग यहाँ ना के बराबर होता है।
वहाँ की शिक्षिका ने हमे बताया की बच्चो के साथ साथ ही अभिभावकों को भी यहाँ छोटे छोटे हस्तकलावाले काम सिखाए जाते हैं तथा उनसे यहा ठहरने के दौरान ये कार्य कराये जाते हैं। इस तरह के साकारात्मक प्रयोगों का काफी प्रभाव बच्चों के सुधार मे पड़ता है। उन्होने यह भी बताया की हमे भेंट मे दिये गए नोटबुक, कागज के पेन, कागज के गुलदस्ता आदि इन्ही बच्चो एवं अभिभावकों द्वारा बनाया गया था। उन्होने यह भी बताया की संस्थान पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर भी गंभीर है और एकबार प्रयोग मे आनेवाले प्लास्टिक के वस्तुओं का का प्रयोग यहाँ ना के बराबर होता है।
संस्थान मे एक बड़ी सी लाइब्रेरी भी है जिसमे वाक एवं श्रवण विज्ञान सहित ईएनटी सर्जर, मनोविज्ञान आदि विषयों के बहुत से पुस्तक, पत्रिकाएँ एवं एजरनल आदि उपलब्ध हैं। बताया गया की इस लाइब्रेरी की शुरुआत अमेरिकन प्रोफेसर डॉ. मार्टिन एफ. पामर द्वारा दान मे दीगई किताबों से की गई थी।
संस्थान मे प्रवास के दौरान कर्नाटक के कई पारंपरिक भोजन को खाने का अवसर मिला ही साथ मे खाने के बाद दिया जानेवाला पान-खजूर तो अद्भुत था।
संस्थान मे प्रवास के दौरान कर्नाटक के कई पारंपरिक भोजन को खाने का अवसर मिला ही साथ मे खाने के बाद दिया जानेवाला पान-खजूर तो अद्भुत था।
इस संस्थान के बारे मे थोड़ा-बहुत लिखने का मेरा मूल उद्देश्य वाक एवं श्रवण
संबंधी परेशानियों के विषय मे थोड़ी-बहुत जागरूकता फैलाना तथा जीवविज्ञान पढ़नेवाले
बच्चे जो मानव सेवा/चिकित्सा के क्षेत्र मे अपना करियर बनाना चाहते हैं को करियर
विकल्प के रूप इस विधा के बारे मे जानकारी देना है। अतः आप के आस-पास यदि वाक या
श्रवण संबधि व्याधि से ग्रसित बच्चे हों जिनका कहीं इलाज चल रहा हो तो उन्हे ऐसे
संस्थान (और भी कई हैं) से इलाज के लिए प्रेरित कर सकते हैं, साथ ही जिन बच्चों का एडमिशन एमबीबीएस जैसे कोर्स मे किसी वजह से नहीं हो
पा रहा हो उन्हे करियर के इन विकल्पो के विषय मे बता सकते हैं। वैसे ये बताता चलूँ
की इस संस्थान मे विभिन्न पाठ्यक्रमों मे प्रवेश, प्रवेश
परीक्षा के आधार पर होता है जिसके लिए आवेदन फरवरी-मार्च मे महीने मे किया जाता
है।