Tuesday 26 March 2024

युगों का सार

 


 

चाह ये है एक दिन मैं क्षितिज के उस पार देखूँ

चक्षु ऐसे दो विधाता, युग-युगों का सार देखूँ

इस धरा के गोद मे प्रकृति संग कुछ पल गुज़ारूँ

पर्वतों को चाँदनी के वृंत पलकों से निहारू


लाल-पीले दूर नभ मे हो बिखेरे सविता गुलाल

दूर पथ पर है खड़ा, अविचल बड़ा यह वट विशाल

शाम होते लौट आते सैंकड़ों पंछी घरों मे

है इनका ये ही सहारा, धूप मे, झंझावातों मे


सागरों के मौज में जल तरंग संगीत देखूँ

सर्पों के बांबियों मे जीवनयुक्त अंधकार देखूँ

देख पाऊँ सागरों के अनंत गहराई का सार

बर्फ के चादर से ढँकी ध्रुवों के सीमा के पार

 

घुप अंधेरे मे सुनू मैं रात्रि सन्नाटे का राग

पुष्प, पल्लव, जीव, पादप संग हो खेलूँ मैं फाग

बादलों के पंख चढ़कर भर लूँ स्वप्नों के उड़ान

पथिक यूं फिरता रहूँ मैं समय की सीमा को लांघ 

- 26.03.2024

Sunday 24 March 2024

चक्रफाँस

चक्रफाँस (मैथिली कहानी )

लेखक एवं अनुवादक: प्रणव झा

दीपक बीसीए कर के पूना की एक कंपनी में डाटा प्रोसेसर के पद पर कार्य कर रहे थे । बीसीए करने के बाद  यह नौकरी उनको ऐसे ही मिल गया हो ऐसी बात नहीं थी, किन्तु उनके लगन, प्रतिभा और भाग्य उनको यह नौकरी मिल गया था अन्यथा उन्हीं के कई मित्र लोग इधर उधर ही भटक रहे थे। वैसे यदि लंगोटिया मित्रों की बात करें तो वो लोग इनसे बढ़िया स्थान पर पहुँच गए थे। रूपेश इलेक्ट्रोनिक इंजिनियरिंग कर के इन्फ़ोसिस में थे तो नंदन मैकेनिकल इंजिनियरिंग कर के रिलायंस में । आषीश भी सरकारी बैंक में क्लर्क हो गए थे । तब यह था कि दीपक भी ठीक-ठाक स्थिति पकड़ लिए थे । इसी बीच में देश के युवा वर्ग में राष्ट्र्भक्ति का नया शोर उठ गया था । इलेक्ट्रोनिक मिडिया से लेकर के  सोशल मिडिया तक में विविध प्रकार के उत्तेजक फ़ोटो, विडियो और लिंक साझा किया जाने लगा था। कालेज के कैंटीन से लेकर आफ़िस के कैंटीन तक बस इतनी ही बहस। सेना क्या कर रही है , पाकिस्तान क्या कर रहा है, अमुक ग्रुप के छात्र सब देशद्रोही हैं, अमुक क्षेत्र के लोग सब देशद्रोही हैं, बस यही सब चर्चा। दीपक जैसे भावुक लोगों को कभी कभी यह अतिश्योक्ति देखकर मन ऊब जाता था तो कभी कभी वो भावुक होकर अपने आप को कोसने लगता था। इंटर उत्तीर्ण करने के बाद दीपक एनडीए की परीक्षा में बैठे थे। पहले प्रयास में तो नहीं हुआ किन्तु दूसरे प्रयास में वो लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर लिए थे। किन्तु  जब एसएसबी के लिए भोपाल गए थे तो वहाँ घोर निराशा हाथ लगा था। गा̐व और दरभंगा में पढ़ा लडका, न अंग्रेजी बोलने में फ़र्राटेदार और न हिन्दी बोलने में वो द̨ढता और आत्मविश्वास! लिखित परीक्षा और रिज्निंग राउंड तक त ठीक रहा था किन्तु जब स्टोरी राईटिंग और ग्रुप डिस्कसन राउंड आया तो इंका हाथ-पैर फ़ुलने लगा । अंततः वो अगले चरण मे नहीं  पहुंच सके।

 

ऐसे ही एक बार बिहार मे प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षकों की भर्ती निकली । इनके भी कई मित्रों ने और गाँव वालों ने फॉर्म भरा था। उन लोगों ने इनको भी उकसाया की तुम भी भर लो मित्र, हो गया तो समझो आराम की नौकरी हो जाएगा अपने प्रदेश में । पिताजी भी यही राग अलाप रहे थे । पिताजी बोले थे कि जितने पैसे वहाँ दे रहा है लगभग उतने पैसे तो यहाँ भी मिल जाएगा । दीपक उत्तर में बोले थे कि पिताजी यह तो ठीक है किन्तु यहाँ मुझे आगे तीव्रता से उन्नति मिलेगी वहाँ वो बात नहीं होगी। इसपर पिताजी बोले थे कि देखो वहाँ जितना खर्च है गाँव-घर मे उसकी अपेक्षा खर्च कितना कम होगा यह भी तो सोचो। इसीलिए एकबार प्रयास करने मे कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार के वाद-प्रतिवाद के बीच दीपक के मन मे अचानक से एक सोच जागा। वह सोचने लगे कि यदि मुझे मास्टरी में हो जाए तो मेरे लिए यह एक अवसर होगा अपने गाँव-घर के तरफ के बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का। यदि मैं अपने प्राप्त ज्ञान और अनुभव का उपयोग कर के मेहनत से कुछ बच्चों को पढ़ाने का प्रयास करूंगा तो निश्चित ही प्राथमिक-माध्यमिक स्तर पर कुछ बच्चे मे वो ज्ञान और आत्मविश्वास भर सकूँगा जिससे वो आगे दुनिया में स्पर्धा कर सकते हैं। फिर पिताजी भी ठीक ही कहते हैं कि हो सकता है कि वापस गाँव का रास्ता पकड़ने से मेरा करियाय वो मुकाम हासिल नहीं कर पाए जो पूना में रह कर अगले 10-15 मे मैं प्राप्त कर सकता हूँ किन्तु गाँव-घर मे उस अनुसार खर्च भी कम होगा और अपने क्षेत्र में रहने का आनन्द भी मिलेगा । यही सब सोच कर दीपक ने आवेदन कर दिया था। भगवती की इच्छा ऐसी हुई की दीपक उस परीक्षा में चूल लिए गए थे और उनको प्रशिक्षण के लिए सरकारी पत्र प्राप्त हो गया था ।

 

 अब इस विषय पर लंगोटिया सब में ह्वाट्सएप ग्रुप में वाद-प्रतिवाद शुरू हो गया । नंदन बोले कि  बहुत बढ़िया मित्र जाओ जी लो अपनी जिंदगी …. कर लो मजे । इस पर रूपेश बोले थे कि ऐसी कौन सी बड़ी नौकरी लगी है! मेरे अनुसार तो इसमे ज्वाइन करने से करियर वृद्धि पर ब्रेक लग जाएगा । दीपक साथ देते हुए बोले कि मेरी भी यही चिंता है। उत्तर में नंदन फिर बोले " अरे भाई यह क्यों नहीं समझते हैं कि कुछ भी है तो है तो यह सरकारी नौकरी ही न! इसमे  वेतन से अधिक उपरी कमाई देखा जाता है । अब देखिए न आशीष भाई को, है तो क्लर्क ही की नौकरी न किन्तु उनको मेरे आपसे अधिक दहेज मिला है वो कुछ देख कर ही मिला होगा न! अरे मित्र दीपक आपको जमकर दहेज मिलेगा, ज्वाई करिए मास्टरी ।"

"मुझे तिलक-दहेज का कोई लालच नहीं है किन्तु आशीष ऐसी कौन सी कमाई करते हैं बैंक में !" दीपक बोले।

 

इस पर आशीष दार्शनिक के मुद्रा मे बोले कि बैंक लोगों को बकरी खरीदने से लेकर बकरी फ़ार्म खोलने तक के लिए और इंजिनियरिंग में नाम लिखवाने से लेकर इंजिनियरिंग कालेज खोलने तक के लिए लोन देती है । और इन सभी प्रकार के लोन में बैंक अधिकारी-कर्मचारी सब का कटफ़िक्स रहता है। ऐसे ही आपको भी सलाह दे देता हूँ कि विद्यालय में मिड डे मिल से लेकर के भवन के रख-रखाव और साईकिल वितरण से लेकर के स्कोलर्शिप वितरण तक में कटका जुगार रहता है और ज्यादा हाथ-पैर मारोगे तो वोटर कार्ड से लेकर के राशन कार्ड और स्वच्छ भारत से लेकर के इंदिरा आवास तक में कटमिलने का गुंजाइस रहता है। और मास्टरी के साथ तो आप साईड बिजने भी कर सकते हैं। एलआईसी एजेंट बन जाइए, या लोन एजेंट या कोई अन्य धंधा कर लीजिए । बीच-बीच में विद्यालय जाकर हाजिरी बना लीजिए और खोज-खबर ले आइए।

 

यह सब सुन कर दीपक व्यथित भाव से बोले कि मैं इस पेशे मे यह सब गोरख-धंधा करने के लिए नहीं जाना चाहता हूँ । मेरा उद्देश्य है अपने क्षेत्र के बबच्चों को अच्छी शिक्षा मिले उसमे मेरा योगदान हो। इसीलिए मैं बस अपने आर्थिक भविष्य और करियर ग्रोथ  को लेकर आशंकित हूँ।

 

"तब आप बेवकूफ हो" इस बार नंदन ने  टोका । अरे भाई लोग एक काम को छोड़कर दूसरा पकड़ता है अपनी प्रगति के लिए, दो पैसे ज्यादा कमाने के लिए या कि बस यूं ही ………

बीच में बात काटते हुए दीपक दृढ़ता से बोले कि नंदन भाई, आप जो व्हट्सएप से लेकर के फ़ेसबुक तक पर भर दिन राष्ट्रभक्ति का राग अलापते रहते हैं वो केवल दूसरों को ज्ञान ठेलने के लिए या कि कुछ स्वयं के अमल में लाने के लिए या कि बस अपनी कुंठा मिटाने के लिए!

नंदन का समर्थन करते हुए रूपेश बोले कि दीपक भाई आप बेवजह ही भावुक हो रहे हैं । वास्तव में यह देशभक्ति, राष्ट्रवाद, ईमानदारी आदि शब्द नेता सब को गलियाने हेतु, अथवा समर्थन हेतु या कि अपनी  कुंठा मिटाने हेतु, हवाबाजी हेतु, दूसरे को आग्रहित करने हेतु प्रयुक्त होता है, किन्तु वास्तविकता के धरातल पर आप कैसे करके अर्थ (धन) कमाएं यही सबसे बड़ी सोच होती है। आपको समाज में इज्जत इसलिए नहीं मिलता है कि आप कितना शुद्ध और समाजवादी आचरण रखते हैं बल्कि इससे मिलता है कि आप धन संचय करने में कितना काबिल हैं (चाहे उसके लिए जो भी तरीका अपनाएं)। और देखिए आप भी जो दुविधा में हैं उसका कारण करियर ग्रोथ ही तो है।

 

इस वाद-प्रतिवाद के बीच दीपक के मन की दुविधा मिट गया था उसने उत्तर देते हुए बोला "हो सकता है कि लोग मुझे पागल कर के ही समझ लें किन्तु मैं अब यह नौकरी ज्वाइन करूंगा और उसी उद्देश्य के लिए करूंगा जो मेरे मन मे हैं। रही बात अर्थोपार्जन की तो कुछ और तरीका भी अपनाऊंगा जैसे  विद्यालय के बाद के समय में ट्युशन, छोटे-मोटे सोफ़्टवेयर/वेबसाईट/प्रोजेक्ट/डाटा-एन्ट्री वर्क आदि का कार्य करने का प्रयत्न भी रहेगा। यदि भगवति का आशिर्वाद बना रहा तो जिंदगी ठीक-ठाक कट जाएगी ।"

 

दीपक की पोस्टिंग अपने जिला के एक अन्य प्रखंड के एकट माध्यमिक विद्यालय में हो गया था।  दीपक उतने उत्साह और आशा के साथ विद्यालय ज्वाईन किए जितने उत्साह और आशा से कोई सास अपनी नई बहू का गौना के समय परीक्षण करती है। किन्तु कुछ ही दिनों मे दीपक को विद्यालय में फैले  अव्यवस्था का भान हो गया। विद्यालय में अनुपस्थिति के मामला मेंशिक्षक और विद्यार्थी में जैसे कोई  अघोषित शर्त लगी हो! मतलब पचास प्रतिशत से ज्यादा न शिक्षक की उपस्थिति रहती और न विद्यार्थी की । विद्यालय भवन का हाल कुछ इस प्रकार हुआ पड़ा था जैसे किसी स्त्री का, जिनका पति   बहुत दिनो से बाहर कमाने गए हों और ससुराल मे कोई मानदान करने वाला कोई न हो । शौचालय के नाम पर  2 शौचालय टूटा-फूटा दुर्गंध देता जिसमे नाकनहीं दिया जा सकता है, और दो अन्य शिक्षकों के लिए थोरे ठीक-ठाक अवस्था मे जिसमे ताला लगा हुआ रहता था। क्योंकि आधे शिक्षक तो हमेशा ही अनुपस्थित रहते थे इसलिए कुछ कक्षाएँ या ठो खाली ही रहते थे अथवा दो-तीन कक्षाओं के छत्रों को एक साथ बैठा दिया जाता था। इस अव्यवस्था को देखकर दीपक का मन चिढ़ गया था। उसने इस विषय मे बीईओ साहब को विस्तार से लिखा और उनसे इस विषय मे उचित कार्यवाई करने का निवेदन किया। कुछ दिन बान बिईओ साहब आए और विद्यालय का निरिक्षण  किया। सारे समय हेडमास्टर, किरानी और लगुआ-भगुआ शिक्षक लोग उनको घेरे रहे और विद्यालय की अव्यवस्थाओं को ढंकने का पूर्ण प्रयास किया ।

 

अब दीपक उम्मीद कर रहे थे कि प्रखंड से कुछ कार्यवाही होगा। किन्तु ऐसा तो कुछ नहीं हुआ लेकिन एक दिन मुखिया और सरपंच पहुंचे स्कूल पर। पंहुचते ही दीपक की खोज हुई। दीपक आ कर उन सब को प्रणाम-अभिवादन किए। किन्तु प्रणाम का उत्तर दिए बिना उन पर प्रश्न दाग दिया गया कि अजी दीपक बाबू! आप यहाँ नौकरी करने आए हैं या कि राजनीति करने के लिए ? यदि राजनीति करनी है तो खुल कर बोलिए और नहीं तो इधर-उधर की बातें नहीं किया कीजिए । चुपचाप विद्यालय में आइए , समय बिताइए और आराम से वेतन लिया कीजिए बस।

"और यदि वेतन कम लगे तो टोली बना कर सरकार के आगे धरना-प्रदर्शन करिए" किरानी बाबू बीच में बात पकड़ते हुए व्यंगात्मक लहजा में बोले ।

दीपक उत्तर में कुछ नहीं बोले। उनका  मन बहुत कुंठित और व्यथित हो गया था ।

 

दीपक का उतारा हुआ मु̐ह देख के एक दिन मंडल सर पूछा कि अरे दीपक, ऐसेक्यो मन मलिन किए  हुए हो? स्नेह की छाँव मिलने से दीपक का मन द्रवित हो गया। वो बोले कि सर , मैंने अपना करियर और महानगर का जीवन छोड के यह नौकरी पकड़ी थी यह सोचकर की अपने गाँव-घर के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने मे अपना योगदान करूंगा । किन्तु यहाँ उसके लिए जो माहौल मिलना चाहिए वो तो है ही नहीं , उल्टे धमकी मिलता है।

 

इस पर मंडल सर बोले "अरे क्या करोगे , यह समाज ही ऐसा है। यह हेडमास्टर, किरानी, मुखिया, चपरासी, ये सभी इसी समाज के हैं न जी, कोई लंदन से तो आए नहीं हैं ! तुम्हें क्या लगता है, कि ये जितने भी गोरखधंधा होते हैं क्या वो मुखिया-सरपंच के जानकारी मे नहीं रहता है। अरे, इन सभी मे उन सब का हिस्सा रखा रहता है।"

 

किन्तु सर इस विद्यालय में बच्चे तो ग्रामीण के ही न पढते हैं। तब लोग सब ऐसे चोर मुखिया-सरपंच को क्यों चुनते हैं! "अरे यह एक जटिल सिस्टम चक्र है जिसमे सभी के भागिदारी की तीली देखोगे।" मंडल सर प्रतिउत्तर में बोले। "देखो, इस विद्यालय में समाज के कुछ ऐसे सक्षम वर्ग के बच्चों का भी नामांकन हुआ है जिनके बच्चे वास्तव मे किसी पब्लिक स्कूल में पढ रहे हैं । किन्तु सरकारी योजनाओ का लाभ लेने हेतु उन सभी ने यहाँ भी नामांकन कराया है। विद्यालय प्रशासन से उनको यह लाभ मिलता है कि  बिना विद्यालय आए ही उन सभी की उपस्थिती बन जाती है और सरकारी योजनाओ का लाभ मिल जाता है । इसी के बदले मे वो सब ऐसे चोर मुखिया-सरपंच को चुनते हैं। "

 

"किन्तु ऐसे करने के बजाय यदि वो सक्षम लोग यदि यही पर अच्छी पढ़ाई के लिए जो दवाब बनाएँ तो  कदाचित यहाँ भी अच्छी पढाई मिल सकती है जिससे वो लोग पब्लिक स्कूल के महंगी फ़ीस के चक्कर से भी बच सकते हैं!" दीपक बोले।

 

मंडल सर एक गहरी सा̐स छोडते हुए बोले  "ह̐। किन्तु इसमे उन सभी को एक दिक्कत नज़र आती है कि फ़ंड की कमी से सरकारी विद्यालय में वो इंफ़्रास्ट्रक्चर और सुविधा ननहीं है जिसकी आवश्यकता है और दूसरा कि कदाचित यह मनोविचारधारा भी काम करता है कि फिर तो उनके बच्चों के साथ दूसरे लोगों  (आर्थिक अक्षम) के बच्चे भी आगे बढ़ जाएंगे जो कदाचित इस वर्ग कको पसंद नहीं है ।"

 

किन्तु ऐसे लोगों की भी तो समाज मे कमी नहीं है जिनको सरकारी विद्यालय में अच्छी शिक्षा मिलने  से लाभ हो। वो लोग क्यों नहीं ऐसे मुखिया-सरपंच सब कका विरोध करते हैं? – दीपक ने पूछा।

"नाना प्रकार के दबाव, जागरूकता की कमी, रोटी-पानी में फंसे रहने के कारणे और भ्रामक प्रचारतंत्र इसका कारण है" मंडल सर बजलाह ।

 

इस  प्रकार से कुछ ही महीने मे दीपक कको उस कुचक्रव्युह की जानकारी हो गई थी जिसमे शिक्षा व्यवस्था(सिस्टम) फँसी हुई थी । किन्तु इस चक्रव्युह को तोड़े कैसे उसका कोई मार्ग नहीं मिल रहा था।  किसी अन्य  सक्षम व्यक्ति की सहायता की उम्मिद भी लगाते तो मार्ग रोकने हेतु कितने ही जयद्रथ खड़े हुए थे। छुट्टी में जब वो गांग गए तो अपने मन की व्यथा बाबा को सुनाए । बाबा बोले कि बौआ जब ओखली मे मु̐ह दे ही दिए हो तो मूसल से क्यों घबरा रहे हो! तुम तो बस अपना कर्तव्य करो, बा̐कि विधाता पर छोडदो। मन लगाकर बच्चों को पढ़ाओ -लिखाओ। ऐसा तो है नहीं कि तुम कुछ आश्चर्यजनक देख रहे हो । मेरे पीढ़ी से लेकर तुम्हारी पीढ़ी तक के लोगों ने सीमित साधन मे ही पढ़ाई की है जी।

दीपक को बाबा की बात ज̐च गई । बस फिर क्या इधर-उधर की  कुव्यवस्था को देखना छोड़के बच्चों को पढ़ाने पर ध्यान देने लगे। अतिरिक्त कक्षाएँ भी लेने लगे। जल्दि ही वो छत्रों और कुछ अभिभावकों के बीच लोकप्रिय हो गए। इधर वो  15 अगस्त के अवसर पर छात्रों  के बीच छोटी-मोटी प्रतियोगिताओ के आयोजन की योजना बना रहे थे और उधर करमनेढ स्टाफ़ सब में खुसर-फ़ुसर चालु हो गया था। फिर एकदिन दीपक जब अपनी योजना लेकर के हेडमास्टर के पास पहु̐चे तो हेडमास्टर बात काटते हुए बोले कि पहले ये कहिए कि आप विद्यालय के बाद ट्यूशन करते हैं ? जी ह̐।-दीपक उत्तर में बोले। तो क्या आपको नियमावली नहीं पता है ?-हेडमास्टर बोले।

जी पता है किन्तु यह मैं विद्यालय समय के बाद करता हूँ और इससे विद्यालय में मेरे शिक्षण पर कोई प्रभाव नही पड़ता है । विद्यालय में सबीएसई ज्यादा कक्षाएँ मैं ही लेता हूँ यह विद्यालय का बच्चा-बच्चा जानता है। और अन्य शिक्षक लोग भी तो न जाने कितने तरह के व्यवसाय करते हैं और वो भी विद्यालय के समय में, आधे समय गायब ही रहते हैं। - दीपक आवेश में एक ही सुर में बोल गए।

" आप ज्यादा काबिल बनते हैं क्या? लोग क्या कर रहे हैं वह देखने वाले आप कौन? अपना काम करिए , मुझे क्या करना चाहिए वो मत बताइए। ज्यादा उड़ोगे तो लिखित मे ज्ञापन पकड़ा दिया जाएगा आपको।“ – हेडमास्टर साहिबा झिडकी देते हुए बोली।

 

दीपक उखड़े मन से वहाँ से लौटे। उनको हेडमास्टर का भी गोरखधंधा पता था। उसका पति ठेकेदार है, और विद्यालय के अधिकांश कार्य/आपूर्ति के ठेके उसी को मिलते हैं। मुखिया-नेता सब से भी संबंध हैं। और जो लोग समाज के लिए कुछ काम करना चाहते हैं उनको ज्ञान देने चली है!

 

अगले दिन किरानी इनके हाथ में एक आर्डर थम्हा दिए जिसके अनुसार इनको  प्रखंड के किसी योजना के कार्यान्वयन के लिए सर्वेक्षण के कार्य में लगा दिया गया था। मतलब कि इनको विद्यालय में छात्र के पढाने के कार्य से हटाने का नया षडयंत्र रच दिया गया था। दीपक हाथ में आर्डर लिए इस नव-संघर्ष के विषय में सोचने लगे।

 

अब तो यह समय ही बता सकता कि दीपक व्यवस्था(सिस्टम) के इस चक्रफ़ा̐स से बच कर निकल पाते हैं कि नहीं?

 

- 27.07.2017

Friday 1 March 2024

बसंती सवेरा



बसंती पवन का लिए फिर थपेरा

भुवन फिर से निकले, हुआ फिर सवेरा।


फसल गा रही हैं, खड़ी खेत झूमे

उषा की किरण फिर, नदी तट को चूमे।


खड़ी खेत सरसों और गेहूँ की बाली

कहीं दूर फैली है टेसुओं की लाली।


चटख रंग बिखेरे कहीं पर कुसुम है

खड़ी मेढ पर अलसी जाने क्यूँ गुम है।


ली सबने अंगड़ाई, हटाकर रजाई 

कहीं बज रही है मानस की चौपाई।


कोयल गा रही थी, कहीं आम चढ़ कर

किया कान में कू, न जाने क्या पढ़ कर।


टना टन घंटी स्वर का खोले पिटारा

बड़े चाव से गैया खा रही थी चारा।


सुशोभित हुआ है, लिए आम मंजर

हुआ वो भी उर्वर, जमीं जो थी बंजर।


कहीं फाग़ गा रहे युवाओं की टोली

प्रकृति जैसे मनुज संग खेले हैं होली।


बसंती सवेरा है किसको न भाए

जो सोए रहे, वो पीछे पछताए।


प्रफुल्लित है मन, प्रफुल्लित दिशाएं

चलो साथ मिलकर सृजन गीत गाएं।

 - 01.03.2024


शास्त्रार्थ


 

शास्त्रार्थ

लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा

 

एक बार रेलगाड़ी मे जो मनोरंजक दृश्य देखा था वो आज की तिथि तक नहीं भूला हूँ। मैं काशी से पटना रहा था। सामने एक भारी भरकम पंडित अच्छाखासा भड़कदार मुरेठा बांधकर बैठे थे।उनको देखकर एक व्यक्ति बोला - प्रणाम, नैयायिक जी!

नैयायिक जी बोले-अशुद्ध हुआ। प्र उपसर्गपूर्वक नम् धातुमे घञ् प्रत्यय लगाने के बाद 'प्रणाम' बनता है। प्रकर्षेण नमन अर्थात् सर झुकाने का व्यवहार होना चाहिए। इस तरह से सीधे गर्दन से प्रणाम करने से वदतोव्याघात दोष हुआ।

वो सज्जन संकुचित हो गए। नम्रतापूर्वक पूछे आप अच्छे से हैं ? नैयायिकजी तड़ाक से जवाब दिए-हाँ, गद्दा पर पालथी लगाकर बैठा हूँ। रुइदार चपकन पहना हूँ। ऊपर से दुसाला ओढा हूँ। अच्छे से तो हूँ ही।

 

वो सज्जन अप्रतिभ होते हुए बोले - मेरा अभिप्राय है कि आनंद तो है?

नैयायिकजी बोले -देखिए सत्यदेवजी, आनन्द की वृत्ति स्थायी नहीं होता है। अभी ही एक घंटा पहले फुल्का-मिठाई नाश्ता करते हुए आनंद हुआ। फिर दौड़ कर गाड़ी पकड़ने मे कष्ट हुआ। जगह मिल जाने से आनंद हुआ सोने का स्थान नहीं मिला, कष्ट हुआ। आपको देखकर आनंद हुआ। आपके मोटे बुद्धि से कष्ट हो रहा है। इस प्रकार से सुख-दु: की वृत्ति क्षण-क्षण बदलती रहती है। आप किस क्षण की बात पूछ रहे हैं?

 

सत्यदेव सशंकित भाव से बोले-वर्तमान का।

नैयायिकजी बोले -देखिए, 'वर्तमान' नाम का कोई वस्तु नहीं होता है। जभी आप बोले कि वर्तमान चला गया। वो भूत बन गया।

सत्यदेव चुप हो गए। इस वितंडावाद से सहयात्री लोगों को आनंद मिलने लगा।

एक व्यक्ति सत्यदेव का पक्ष लेते हुए बोले-पंडितजी, इनका आशय है कि आज-कल  कुशलपूर्वक हैं ?

नैयायिकजी एक चुटकी तंबाकू चूर्ण लेते हुएबोले - अच्छा, तो अब आप अखाड़े मे आए हैं? तो लीजिएआज और कल मे बहुत अंतर हो जाता है। कल मेरे सर मे दर्द था। आज आराम है। अब कौन सा शब्द बोलूँ जो आज और कल दोनों पर लागू हो?

 

वो उत्तर सोचने लगा। तब तक दूसरा व्यक्ति बोलानैयायिक जी, इनका तात्पर्य है कि साधारणतः कैसा समाचार है?

नैयायिकजी बोले-देखिए, 'समाचार का अर्थ है 'सम्यक आचार' जैसे, मैंने स्नान कर ली है, पूजा कर ली है, जलपान कर ली है, भोजन करना शेष है। और कौन सा सम्यक आचार जानना चाहते हैं?

तीसरा बोला-पंडितजी, ये आज की बात नहीं पूछ रहे हैं। इस  बीच का हाल-बात कैसा है वो कहिए।

नैयायिक जी ने कहा-इस बीच का क्या  अर्थ? कितने दिनों के बीच?

चौथे व्यक्ति ने कहा-मान लिया जाए, एक महिना।

नैयायिक जी बोले-एक महीने के दौरान दोनों प्रकार की बातें हुई हैं। गाय बच्चा दी, खुशी हुई। भैंस दूध देना बंद कर दी, दुख हुआ। करैले का अचार खाया, खुशी हुई। आंत उखड़ गया, कष्ट हुआ। विदाई मे धोती मिला, लाभ हुआ। चश्मा खो गया, हानी हुआ। एक जगह से दही-केले का उपहार आया, हर्ष हुआ।  उपहार लाने वाले को विदाई देना पड़ा, कष्ट हुआ। इस प्रकार से हर्ष और विषाद की माला तो नित्या ही गूँथती रहती  है। एक शब्द में कैसे कहूँ?

प्रश्नकर्त्ता निरुत्तर हो गए। तब पाँचवे सज्जन बोले-पंडितजी, इनका आशय है कि घरपर सभी लोग प्रसन्न हैं ?

किन्तु नैयायिक जी सहजमे छोड़ने वाले जीव नहीं थे। कहा- तब सुनिए। प्रसन्नता अभीष्ट वस्तु के प्राप्ति से होता है। मैं चाहता हूँ कि बच्चा फक्किका पढे। बच्चा चाहता है कि  फाँकि देता रहे। मेरी इच्छा है कि जेवर बेच कर और खेत खरीदा जाए। पत्नी की इच्छा है कि  खेत बेच कर और जेवर खरीदा जाए। मैं चाहता हूँ कि बेटियाँ मिट्टी का महादेव बनाएँ। वो लोग चाहती हैं कि महादेव को मिट्टी बना दें। मैं चाहता हूँ कि नौकर अल्प-भोजी बने। वो चाहता है कि भोजन शक्ति मे और वृद्धि हो। मैं घर के लोगों को पागल जैसा समझता हूँ जो तर्क विरुद्ध बातें क्यों करते हैं। अब आप ही बताएं कि सभी लोग एक साथ प्रसन्न कैसे रह सकते हैं ?

इसी प्रकार से सभी मिलकर पंडितजी को चारों ओर से घेरने का प्रयत्न करने लगे और वो चतुर खिलाड़ी जैसे हर बार कन्नी काट कर निकलते चले गए। किसी भी तरह से धराने नहीं दिए। अंत मे हार मानकर प्रश्नकर्ता लोगों ने कहा - पंडित जी, हम सभी अपना प्रश्न वापस लेते हैं। आपसे कुशल पूछने मे कुशल नहीं।

पंडितजी अपने विजय पर मुस्कुराने लगे।

एक व्यक्ति ने पूछा - पंडितजी, आप करते क्या हैं?

नैयायिक जी ने कहा-कृ का धात्वर्थ है क्रियामात्र। मैं बहुत कुछ करता हूँ। चलता हूँ, फिरता हूँ, उठता हूँ, बैठता हूँ। अभी बोल रहा हूँ।

दूसरे व्यक्ति ने कहा - जीवन यापन हेतु क्या करते हैं ?

नैयायिकजी उत्तर दिएखाता हूँ, पीता हूँ, सांस लेता हूँ।

तीसरे ने पूछा - आपका व्यवसाय ?

नैयायिकजी ने कहा - मेरा व्यवसाय है शास्त्रार्थ करना मैं जो चाहूँ सिद्ध कर सकता हूँ

एक सज्जन भोजन कर रहे थे उन्होंने कहा - तो सिद्ध करिए कि मैं भोजन हूँ।

नैयायिकजी ने कहा - यह कौन सी भारी बात है ? चुटकी बजाते ही सिद्ध कर दूंगा आप ही नहीं, जितने लोग यहाँ हैं , सब भोजन हैं

श्रोतागण की उत्सुकता चरम विन्दु पर पहुँच गई थी पूछने लगेवह कैसे?

पंडितजी कुशल धनुर्धर जैसे तरकश से चुन चुन कर तर्क का वाण बाहर करने लगे। प्रथम तीर छोड़े- देखिए, आप लोगों का शरीर जैसा अभी है वैसा ही सर्वदा से है?

श्रोता-नहीं

नैयायिकजी-गर्भावस्थामे छोटा सा मांसपिंड था। था  ?

श्रोता-जी।

नैयायिक जी- वो मांसपिंड कहाँ से आया? एक बुन्द धातु का विकसित रूप है। है ने?

श्रोता-जी।

नैयायिक जी-वो धातु क्या है? भोजन के रस का परिणाम है। है ने?

श्रोता-जी।

नैयायिक जी- बस, सिद्ध हो गया मेरी प्रतिज्ञा। सभी लोग मूलतः भोजन हैं। भोक्ता भोज्य पदार्थ एकही वस्तु का भिन्न-भिन्न रूप है। कोई करेगा खंडन? नैयायिक जी ने व्याघ्रदृष्टि से चारो ओर देखा। किसी को विरोध करने का साहस नहीं हुआ। नैयायिकजी विजय सूचक तंबाकू चूर्ण लेने लगे। पुनः ललकारते हुए बोले-  अब आप लोगों मे से जिनको आगे आना है, जाएँ और कोई बात सिद्ध करके दिखाएँ।

एक व्यक्ति साहस करके आगे बढ़े। बोले-ठीक, तो मैं कहता हूँ, अभी दिन है।

नैयायिक जी वीरासन लगाकर बैठ गए। बोले-ठीक है, फिर सिद्ध करिए। आप जो कहेंगे, मैं खंडन करता जाऊंगा।

वो-अभी प्रकाश है  इसीलिए दिन।

नैयायिकजी-अशुद्ध। क्योंकि प्रकाश और दिनमे अव्यभिचरित संबंध नहीं है। कभी दिनोमे भी अंधकार रहता है। और कभी रात मे भी प्रकाश रहता है, चन्द्रमा, अग्नि या विद्युत के कारण।

दूसरा-परन्तु दिन का प्रकाश दूसरा होता है। जब दिन वाला प्रकाश होता है तब दिन समझना चाहिए।

नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। परिभाषामे परिभाषेय शब्द नहीं आना चाहिए, जब दिन का ही लक्षण निर्दिष्ट नहीं हुआ, तब 'दिनवाला' का अर्थ क्या? अन्योन्याश्रय दोष हो जाएगा।

तीसरा-ठीक है , तो दूसरा परिभाषा लीजिए। जब सूर्य का प्रकाश दिखाई पड़े तो दिन है।

नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। इस लक्षण के अनुसार तहखाना के भीतर कभी दिन होगा ही नहीं। इसमे अव्याप्ति दोष है।

चौथा-ठीक है, तो फिर मैदान मे देखने से जब सूर्य देखाइ पड़े, तब दिन है।

नैयायिक जी- यह भी अशुद्ध। मेघाच्छादित दिनमे मैदान से भी सूर्य दिखाई नहीं पड़ेंगे। सूर्यग्रहण काल मे भी सूर्य अदृश्य हो जाते हैं। क्या उस समय को रात कहेंगे?

पांचवा-ठीक है, तो यह लक्षण लीजिए। सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त के  समय को दिन कहेंगे।

नैयायिकजी-यह भी अशुद्ध। सूर्य वस्तुतः ही उदित होते हैं अस्त होते हैं। हम लोगों के दृष्टि दोष से वो चलायमान प्रतीत होते हैं। अतएव उदय और अस्त प्रत्याक्षाभास मात्र है।

छठा-ठीक है, तो उदयाभास और अस्ताभास के बीच वाला समय दिन है।

नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। एक ही समयमे दो व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न आभास हो सकता है। जैसे देवदत्त नीचे मैदाने मे है। यज्ञदत्त पहाड़ पर खड़े हैं। देवदत्त का सूर्य अदृश्य हो जाते हैं। परन्तु यज्ञदत्त ऊँचाई पर रहने के कारण से सूर्य को देख रहे हैं। अब उस समय को दिन कहेंगे की रात? क्याएक ही समय एक के  हेतु दिन और दूसरे हेतु रात है? तब तो अंधे के हेतु लगातार रात ही रात रहता है?

इसी प्रकार से नैयायिकजी तर्क के गड़ाँसे से सभी लक्षण को चारे के जैसे काटते चले गए। दिन को सिद्ध करने मे दोपहर से तीन बज गए। किन्तु वो दिन सिद्ध नहीं होने दिए।

क्रमशः सभी प्रतिपक्षी परास्त हो गए। सभी को निरुत्तर देख नैयायिकजी दिग्विजयी जैसे चारो ओर देखे और सिंह-गर्जन करते हुए बोले-क्या हैं और कोई मैदान मे? तो जाएँ अखाड़ामे।

श्रोतागण पुनः हाथ जोड़ते हुए  कहा-नैयायिकजी, हमलोगों ने मान लिया। आप दिन को  रात और रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं।

नैयायिकजी पुनः गर्व-पूर्वक मुस्कुराने लगे।

एक व्यक्ति ने पूछा-नैयायिकजी, आप कहाँ जा रहे हैं?

नैयायिकजी-एक शास्त्रार्थ मे जाना है।

दूसरे व्यक्ति ने कहा- आपके समक्ष कौन टिक सकता है?

नैयायिक जी गर्वपूर्वक बोले- मैं काशी का न्यायदिग्गज हूँ। जो लड़ने आएंगे वो चूड़ चूड़ हो जाएंगे।

तीसरे ने पूछा-आपके प्रतिद्वंदी कौन हैं?

नैयायिक जी ने कहा-वो भी कम धुरंधर नहीं हैं। नवद्वीप के तर्ककेसरी हैं। प्रतिपक्षि-भयंकर कहलाते हैं। हालमे पूना से शास्त्रार्थ मे हजार रुपए का बाजी मारकर आए हैं। अब देखते हैं, कैसी भिड़न्त होती है।

चौथे ने पूछा-शस्त्रार्थ का विषय क्या है?

नैयायिक जी ने कहा-विषय तो बहुत जटिल है। कितने ही महीने कितने ही वर्ष प्रत्युत जीवन पर्यन्त इस पर शास्त्रार्थ चल सकता है। तथापि अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचना असंभव।

पाँचवे ने पूछा-किस  बातपर बहस होगा? थोड़ा हमलोगों को भी समझा दीजिए

नैयायिक जी ने कहा-देखिए विषय यह है कि घटमे घटत्व समवेत है। जब घट टूट गया तब घटत्व कहाँ गया?

एक व्यक्ति ने कहा-यह बात तो दिमाग मे घुसा नहीं।

नैयायिक जी ने कहा-घुसेगा कैसे? इसके लिए  अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है। नव्यन्याय पढ़ना पड़ेगा। अनुयोगिता प्रतियोगिता का ज्ञान प्राप्त करना होगा। यह जानना पड़ेगा कि घटाभाव क्या वस्तु है।

दूसरे व्यक्ति ने कहा-घटाभाव का अर्थ हुआ घट का अभाव, अर्थात घड़ा नहीं रहना। इसमे समझने की क्या बात है?

नैयायिकजी ने कहा-केवल इतने से काम नहीं चलेगा। घटाभाव प्रतियोगितावच्छेद का  है घटत्व। अतएव घटाभाव घटत्वनिष्ठ अवच्छेदकतानिरूपित प्रतियोगिता का आभाव है। समझे इसका अर्थ? है किसी व्यक्ति के दिमाग मे इतना गुदा?

यह कहना था कि एकाएक विस्फोट हो उठा। जैसे बारूदमे पलीता लग गया हो। एक भीमाकार मल्ल जो इतनी देर से खर्राटे मार रहा था, अकस्मात चोटिल अजगर जैसे फुफकार छोड़ते उठ बैठा। जैसे कोई  ज्वालामुखी एकाएक धधक उठा हो वैसे ही उनके मुँह से अवच्छेदकता की फुलझड़ी छूटने लगा- घटाभावाभावक प्रतियोगी घटाभाव-प्रतियोगितावच्छेदक घटत्वनिष्ठ, अवच्छेदकता अतएव घटनिष्ठावच्छेदकता निरूपित प्रतियोगित्वनिष्ठ अवच्छेदकता......

अब जो दोनों ओर से अवच्छेदकता का बौछार चला तो  'छकार' का लच्छा छूटने लगा। दोनों दिग्गज एक साथ बोल रहे थे। कोई चुप होने वाला नहीं ठा। जोड़दार मुक़ाबला था। क्योंकि काशी के दिग्गज का नवद्वीपक केसरी से मुठभेड़ हो गया था।

शास्त्रार्थ क्रमशः मल्लयुद्ध के स्तरपर उतर आया। दोनों दिग्गज गर्वोक्ति के संग एक दूसरे को ललकारने लगे।

एक व्यक्ति ने कहा-आप 'जल्प' की कुश्ती चाहते हैं?

दूसरे ने जबाब दिया-आप 'वितंडा' का दंगल चाहते हैं?

वादी-तो फिर दिखाइए दाव?

प्रतिवादी-तो मैं भी लगाऊँ पेंच?

वादी-मैं अवच्छेदकता के जालमे फँसा दूंगा।

प्रतिवादी-मैं प्रकारता के रस्सा मे बांध दूंगा।

वादी-मैं हेत्वाभास चाबुक से बेदम कर दूंगा।

प्रतिवादी-मैं निग्रहस्थान के डंडा से होश ठंढा कर दूंगा।

वादी-ऐसा धोबियापाट लगाऊँगा कि चारो खाने चित कर दूंगा।

प्रतिवादी-ऐसा ढाक मारूँगा कि उठकर पानी पीने का होश नहीं रहेगा।

वादी-मैं ऐसे पछाडुंगा कि तोंद पिचका दूंगा।

प्रतिवादी-मैं ऐसे पटकुंगा कि छठी का दूध उल्टी करवा दूंगा।

वादी-तो फिर हो जाय।

प्रतिवादी-हो जाय।

वादी-जों हल्दी-चूना नहीं बजबा दिया तो मैं भट्ट नहीं।

प्रतिवादी-जौं कालिख-चूना नहीं पोत दिया तो मैं भट्टाचार्य नहीं।

वादी ने गरज कर हुंकार किया-कः समः करिवर्यस्य मालतीपुष्पमर्दने।

प्रतिवादी ने सिंह-गर्जन किया-पलायध्वं पलायध्वं भो भो तार्किक दिग्गजाः। सिंह भटः समायाति सिद्धान्त गजकेसरी।

तबतक गाड़ी एक स्टेशनपर आकार खड़ी हो गई। दोनों पुछने लगेअब डुमराँव कितनी दूर है?

श्रोतागण ने कहा-डुमराँव तो पीछे छूट गया। यह रघुनाथपर है। आप लोग शास्त्रार्थ के प्रवाह मे पच्चीस किलोमीटर आगे बढ आए हैं।

एक दिग्गज सर पीटते हुए  बोले-अनर्थ हो गया। अब क्या होगा?

दूसरे दिग्गज सर पीटते बोले-सर्वनाश। अब तो शास्त्रार्थ के समय पहुँच भी सकेंगे।

एक व्यक्ति ने कहा-आपही के कारण डुमराँव छूट गया।

दूसरे व्यक्ति ने कहा-नहीं, आपही के कारण छूटा।

प्रथम बोले-तब इसी बातपर शास्त्रार्थ हो जाए।

द्वितीय बोले-हो जाए। मैं तैयार हूँ।

श्रोतागण ने कहा-महाराज। आप लोग दोनों ही धन्य हैं, अब गाड़ी खुलने वाली है। यह स्टेशन भी छूट जाएगा।

दोनों व्यक्ति आग्नेय नेत्र से एक दूसरे को देखते हुए प्लेटफार्म पर उतरे।

उसके  बाद की घटना संक्षिप्त ही है केवल एक झलक चलती गाड़ी से मिला। दोनों योद्धा एक ही तांगे पर वीरासन लगाए आमने-सामने बैठे थे। सड़कपर तांगा चल रहा था। दोनों व्यक्ति हाथ चमका-चमका कर अपने-अपने पक्ष का प्रतिपादन कर रहे थे प्रतिपक्ष के खंडनमे बाँहे भी संग दे रहे थे। लग रहा था कि अब जो घड़ी गुत्थम-गुत्थी नहीं हुआ है। तांगा वाला  जोशमे गया। उसने घोड़े को इतनी ज़ोर से चाबुक लगाया कि तांगा उलट गया। दोनों दिग्गज एक ही संग चित्त हो गए। तबतक ट्रेन आगे बढ़ गई।

'मिथिला मिहिर'से