शास्त्रार्थ
लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा
एक बार रेलगाड़ी मे जो मनोरंजक दृश्य देखा था वो आज की तिथि तक नहीं भूला हूँ। मैं काशी से पटना आ रहा था। सामने एक भारी भरकम पंडित अच्छाखासा भड़कदार मुरेठा बांधकर बैठे थे।उनको देखकर एक व्यक्ति बोला - प्रणाम, नैयायिक जी!
नैयायिक जी बोले-अशुद्ध हुआ। प्र उपसर्गपूर्वक नम् धातुमे घञ् प्रत्यय लगाने के बाद 'प्रणाम' बनता है। प्रकर्षेण नमन अर्थात् सर झुकाने का व्यवहार होना चाहिए। इस तरह से सीधे गर्दन से प्रणाम करने से वदतोव्याघात दोष हुआ।
वो सज्जन संकुचित हो गए। नम्रतापूर्वक पूछे – आप अच्छे से हैं न? नैयायिकजी तड़ाक से जवाब दिए-हाँ, गद्दा पर पालथी लगाकर बैठा हूँ। रुइदार चपकन पहना हूँ। ऊपर से दुसाला ओढा हूँ। अच्छे से तो हूँ ही।
वो सज्जन अप्रतिभ होते हुए बोले - मेरा अभिप्राय है कि आनंद तो है?
नैयायिकजी बोले -देखिए सत्यदेवजी, आनन्द की वृत्ति स्थायी नहीं होता है। अभी ही एक घंटा पहले फुल्का-मिठाई नाश्ता करते हुए आनंद हुआ। फिर दौड़ कर गाड़ी पकड़ने मे कष्ट हुआ। जगह मिल जाने से आनंद हुआ । सोने का स्थान नहीं मिला, कष्ट हुआ। आपको देखकर आनंद हुआ। आपके मोटे बुद्धि से कष्ट हो रहा है। इस प्रकार से सुख-दु:ख की वृत्ति क्षण-क्षण बदलती रहती है। आप किस क्षण की बात पूछ रहे हैं?
सत्यदेव सशंकित भाव से बोले-वर्तमान का।
नैयायिकजी बोले -देखिए, 'वर्तमान' नाम का कोई वस्तु नहीं होता है। जभी आप बोले कि वर्तमान चला गया। वो भूत बन गया।
सत्यदेव चुप हो गए। इस वितंडावाद से सहयात्री लोगों को आनंद मिलने लगा।
एक व्यक्ति सत्यदेव का पक्ष लेते हुए बोले-पंडितजी, इनका आशय है कि आज-कल कुशलपूर्वक हैं न?
नैयायिकजी एक चुटकी तंबाकू चूर्ण लेते हुएबोले - अच्छा, तो अब आप अखाड़े मे आए हैं? तो लीजिए – ‘आज’ और ‘कल’ मे बहुत अंतर हो जाता है। कल मेरे सर मे दर्द था। आज आराम है। अब कौन सा शब्द बोलूँ जो आज और कल दोनों पर लागू हो?
वो उत्तर सोचने लगा। तब तक दूसरा व्यक्ति बोला – नैयायिक जी, इनका तात्पर्य है कि साधारणतः कैसा समाचार है?
नैयायिकजी बोले-देखिए, 'समाचार का अर्थ है 'सम्यक आचार'। जैसे, मैंने स्नान कर ली है, पूजा कर ली है, जलपान कर ली है, भोजन करना शेष है। और कौन सा सम्यक आचार जानना चाहते हैं?
तीसरा बोला-पंडितजी, ये आज की बात नहीं पूछ रहे हैं। इस बीच का हाल-बात कैसा है वो कहिए।
नैयायिक जी ने कहा-इस बीच का क्या अर्थ? कितने दिनों के बीच?
चौथे व्यक्ति ने कहा-मान लिया जाए, एक महिना।
नैयायिक जी बोले-एक महीने के दौरान दोनों प्रकार की बातें हुई हैं। गाय बच्चा दी, खुशी हुई। भैंस दूध देना बंद कर दी, दुख हुआ। करैले का अचार खाया, खुशी हुई। आंत उखड़ गया, कष्ट हुआ। विदाई मे धोती मिला, लाभ हुआ। चश्मा खो गया, हानी हुआ। एक जगह से दही-केले का उपहार आया, हर्ष हुआ। उपहार लाने वाले को विदाई देना पड़ा, कष्ट हुआ। इस प्रकार से हर्ष और विषाद की माला तो नित्या ही गूँथती रहती है। एक शब्द में कैसे कहूँ?
प्रश्नकर्त्ता निरुत्तर हो गए। तब पाँचवे सज्जन बोले-पंडितजी, इनका आशय है कि घरपर सभी लोग प्रसन्न हैं न?
किन्तु नैयायिक जी सहजमे छोड़ने वाले जीव नहीं थे। कहा- तब सुनिए। प्रसन्नता अभीष्ट वस्तु के प्राप्ति से होता है। मैं चाहता हूँ कि बच्चा फक्किका पढे। बच्चा चाहता है कि फाँकि देता रहे। मेरी इच्छा है कि जेवर बेच कर और खेत खरीदा जाए। पत्नी की इच्छा है कि खेत बेच कर और जेवर खरीदा जाए। मैं चाहता हूँ कि बेटियाँ मिट्टी का महादेव बनाएँ। वो लोग चाहती हैं कि महादेव को मिट्टी बना दें। मैं चाहता हूँ कि नौकर अल्प-भोजी बने। वो चाहता है कि भोजन शक्ति मे और वृद्धि हो। मैं घर के लोगों को पागल जैसा समझता हूँ जो तर्क विरुद्ध बातें क्यों करते हैं। अब आप ही बताएं कि सभी लोग एक साथ प्रसन्न कैसे रह सकते हैं ?
इसी प्रकार से सभी मिलकर पंडितजी को चारों ओर से घेरने का प्रयत्न करने लगे और वो चतुर खिलाड़ी जैसे हर बार कन्नी काट कर निकलते चले गए। किसी भी तरह से धराने नहीं दिए। अंत मे हार मानकर प्रश्नकर्ता लोगों ने कहा - पंडित जी, हम सभी अपना प्रश्न वापस लेते हैं। आपसे कुशल पूछने मे कुशल नहीं।
पंडितजी अपने विजय पर मुस्कुराने लगे।
एक व्यक्ति ने पूछा - पंडितजी, आप करते क्या हैं?
नैयायिक जी ने कहा-कृ का धात्वर्थ है क्रियामात्र। मैं बहुत कुछ करता हूँ। चलता हूँ, फिरता हूँ, उठता हूँ, बैठता हूँ। अभी बोल रहा हूँ।
दूसरे व्यक्ति ने कहा - जीवन यापन हेतु क्या करते हैं ?
नैयायिकजी उत्तर दिए – खाता हूँ, पीता हूँ, सांस लेता हूँ।
तीसरे ने पूछा - आपका व्यवसाय ?
नैयायिकजी ने कहा - मेरा व्यवसाय है शास्त्रार्थ करना । मैं जो चाहूँ सिद्ध कर सकता हूँ ।
एक सज्जन भोजन कर रहे थे । उन्होंने कहा - तो सिद्ध करिए कि मैं भोजन हूँ।
नैयायिकजी ने कहा - यह कौन सी भारी बात है ? चुटकी बजाते ही सिद्ध कर दूंगा । आप ही नहीं, जितने लोग यहाँ हैं , सब भोजन हैं ।
श्रोतागण की उत्सुकता चरम विन्दु पर पहुँच गई थी । पूछने लगे – वह कैसे?
पंडितजी कुशल धनुर्धर जैसे तरकश से चुन चुन कर तर्क का वाण बाहर करने लगे। प्रथम तीर छोड़े- देखिए, आप लोगों का शरीर जैसा अभी है वैसा ही सर्वदा से है?
श्रोता-नहीं
नैयायिकजी-गर्भावस्थामे छोटा सा मांसपिंड था। था न?
श्रोता-जी।
नैयायिक जी- वो मांसपिंड कहाँ से आया? एक बुन्द धातु का विकसित रूप है। है ने?
श्रोता-जी।
नैयायिक जी-वो धातु क्या है? भोजन के रस का परिणाम है। है ने?
श्रोता-जी।
नैयायिक जी- बस, सिद्ध हो गया मेरी प्रतिज्ञा। सभी लोग मूलतः भोजन हैं। भोक्ता ओ भोज्य पदार्थ एकही वस्तु का भिन्न-भिन्न रूप है। कोई करेगा खंडन? नैयायिक जी ने व्याघ्रदृष्टि से चारो ओर देखा। किसी को विरोध करने का साहस नहीं हुआ। नैयायिकजी विजय सूचक तंबाकू चूर्ण लेने लगे। पुनः ललकारते हुए बोले- अब आप लोगों मे से जिनको आगे आना है, आ जाएँ और कोई बात सिद्ध करके दिखाएँ।
एक व्यक्ति साहस करके आगे बढ़े। बोले-ठीक, तो मैं कहता हूँ, अभी दिन है।
नैयायिक जी वीरासन लगाकर बैठ गए। बोले-ठीक है, फिर सिद्ध करिए। आप जो कहेंगे, मैं खंडन करता जाऊंगा।
वो-अभी प्रकाश है इसीलिए दिन।
नैयायिकजी-अशुद्ध। क्योंकि प्रकाश और दिनमे अव्यभिचरित संबंध नहीं है। कभी दिनोमे भी अंधकार रहता है। और कभी रात मे भी प्रकाश रहता है, चन्द्रमा, अग्नि या विद्युत के कारण।
दूसरा-परन्तु दिन का प्रकाश दूसरा होता है। जब दिन वाला प्रकाश होता है तब दिन समझना चाहिए।
नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। परिभाषामे परिभाषेय शब्द नहीं आना चाहिए, जब दिन का ही लक्षण निर्दिष्ट नहीं हुआ, तब 'दिनवाला' का अर्थ क्या? अन्योन्याश्रय दोष हो जाएगा।
तीसरा-ठीक है , तो दूसरा परिभाषा लीजिए। जब सूर्य का प्रकाश दिखाई पड़े तो दिन है।
नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। इस लक्षण के अनुसार तहखाना के भीतर कभी दिन होगा ही नहीं। इसमे अव्याप्ति दोष है।
चौथा-ठीक है, तो फिर मैदान मे देखने से जब सूर्य देखाइ पड़े, तब दिन है।
नैयायिक जी- यह भी अशुद्ध। मेघाच्छादित दिनमे मैदान से भी सूर्य दिखाई नहीं पड़ेंगे। सूर्यग्रहण काल मे भी सूर्य अदृश्य हो जाते हैं। क्या उस समय को रात कहेंगे?
पांचवा-ठीक है, तो यह लक्षण लीजिए। सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त के समय को दिन कहेंगे।
नैयायिकजी-यह भी अशुद्ध। सूर्य वस्तुतः न ही उदित होते हैं न अस्त होते हैं। हम लोगों के दृष्टि दोष से वो चलायमान प्रतीत होते हैं। अतएव उदय और अस्त प्रत्याक्षाभास मात्र है।
छठा-ठीक है, तो उदयाभास और अस्ताभास के बीच वाला समय दिन है।
नैयायिक जी-यह भी अशुद्ध। एक ही समयमे दो व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न आभास हो सकता है। जैसे देवदत्त नीचे मैदाने मे है। यज्ञदत्त पहाड़ पर खड़े हैं। देवदत्त का सूर्य अदृश्य हो जाते हैं। परन्तु यज्ञदत्त ऊँचाई पर रहने के कारण से सूर्य को देख रहे हैं। अब उस समय को दिन कहेंगे की रात? क्याएक ही समय एक के हेतु दिन और दूसरे हेतु रात है? तब तो अंधे के हेतु लगातार रात ही रात रहता है?
इसी प्रकार से नैयायिकजी तर्क के गड़ाँसे से सभी लक्षण को चारे के जैसे काटते चले गए। दिन को सिद्ध करने मे दोपहर से तीन बज गए। किन्तु वो दिन सिद्ध नहीं होने दिए।
क्रमशः सभी प्रतिपक्षी परास्त हो गए। सभी को निरुत्तर देख नैयायिकजी दिग्विजयी जैसे चारो ओर देखे और सिंह-गर्जन करते हुए बोले-क्या हैं और कोई मैदान मे? तो आ जाएँ अखाड़ामे।
श्रोतागण पुनः हाथ जोड़ते हुए कहा-नैयायिकजी, हमलोगों ने मान लिया। आप दिन को रात और रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं।
नैयायिकजी पुनः गर्व-पूर्वक मुस्कुराने लगे।
एक व्यक्ति ने पूछा-नैयायिकजी, आप कहाँ जा रहे हैं?
नैयायिकजी-एक शास्त्रार्थ मे जाना है।
दूसरे व्यक्ति ने कहा- आपके समक्ष कौन टिक सकता है?
नैयायिक जी गर्वपूर्वक बोले- मैं काशी का न्यायदिग्गज हूँ। जो लड़ने आएंगे वो चूड़ चूड़ हो जाएंगे।
तीसरे ने पूछा-आपके प्रतिद्वंदी कौन हैं?
नैयायिक जी ने कहा-वो भी कम धुरंधर नहीं हैं। नवद्वीप के तर्ककेसरी हैं। प्रतिपक्षि-भयंकर कहलाते हैं। हालमे पूना से शास्त्रार्थ मे हजार रुपए का बाजी मारकर आए हैं। अब देखते हैं, कैसी भिड़न्त होती है।
चौथे ने पूछा-शस्त्रार्थ का विषय क्या है?
नैयायिक जी ने कहा-विषय तो बहुत जटिल है। कितने ही महीने कितने ही वर्ष प्रत्युत जीवन पर्यन्त इस पर शास्त्रार्थ चल सकता है। तथापि अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचना असंभव।
पाँचवे ने पूछा-किस बातपर बहस होगा? थोड़ा हमलोगों को भी समझा दीजिए ।
नैयायिक जी ने कहा-देखिए विषय यह है कि घटमे घटत्व समवेत है। जब घट टूट गया तब घटत्व कहाँ गया?
एक व्यक्ति ने कहा-यह बात तो दिमाग मे घुसा नहीं।
नैयायिक जी ने कहा-घुसेगा कैसे? इसके लिए अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है। नव्यन्याय पढ़ना पड़ेगा। अनुयोगिता प्रतियोगिता का ज्ञान प्राप्त करना होगा। यह जानना पड़ेगा कि घटाभाव क्या वस्तु है।
दूसरे व्यक्ति ने कहा-घटाभाव का अर्थ हुआ घट का अभाव, अर्थात घड़ा नहीं रहना। इसमे समझने की क्या बात है?
नैयायिकजी ने कहा-केवल इतने से काम नहीं चलेगा। घटाभाव प्रतियोगितावच्छेद का है घटत्व। अतएव घटाभाव घटत्वनिष्ठ अवच्छेदकतानिरूपित प्रतियोगिता का आभाव है। समझे इसका अर्थ? है किसी व्यक्ति के दिमाग मे इतना गुदा?
यह कहना था कि एकाएक विस्फोट हो उठा। जैसे बारूदमे पलीता लग गया हो। एक भीमाकार मल्ल जो इतनी देर से खर्राटे मार रहा था, अकस्मात चोटिल अजगर जैसे फुफकार छोड़ते उठ बैठा। जैसे कोई ज्वालामुखी एकाएक धधक उठा हो वैसे ही उनके मुँह से अवच्छेदकता की फुलझड़ी छूटने लगा- घटाभावाभावक प्रतियोगी घटाभाव-प्रतियोगितावच्छेदक घटत्वनिष्ठ, अवच्छेदकता अतएव घटनिष्ठावच्छेदकता निरूपित प्रतियोगित्वनिष्ठ अवच्छेदकता......
अब जो दोनों ओर से अवच्छेदकता का बौछार चला तो 'छकार' का लच्छा छूटने लगा। दोनों दिग्गज एक साथ बोल रहे थे। कोई चुप होने वाला नहीं ठा। जोड़दार मुक़ाबला था। क्योंकि काशी के दिग्गज का नवद्वीपक केसरी से मुठभेड़ हो गया था।
शास्त्रार्थ क्रमशः मल्लयुद्ध के स्तरपर उतर आया। दोनों दिग्गज गर्वोक्ति के संग एक दूसरे को ललकारने लगे।
एक व्यक्ति ने कहा-आप 'जल्प' की कुश्ती चाहते हैं?
दूसरे ने जबाब दिया-आप 'वितंडा' का दंगल चाहते हैं?
वादी-तो फिर दिखाइए दाव?
प्रतिवादी-तो मैं भी लगाऊँ पेंच?
वादी-मैं अवच्छेदकता के जालमे फँसा दूंगा।
प्रतिवादी-मैं प्रकारता के रस्सा मे बांध दूंगा।
वादी-मैं हेत्वाभास चाबुक से बेदम कर दूंगा।
प्रतिवादी-मैं निग्रहस्थान के डंडा से होश ठंढा कर दूंगा।
वादी-ऐसा धोबियापाट लगाऊँगा कि चारो खाने चित कर दूंगा।
प्रतिवादी-ऐसा ढाक मारूँगा कि उठकर पानी पीने का होश नहीं रहेगा।
वादी-मैं ऐसे पछाडुंगा कि तोंद पिचका दूंगा।
प्रतिवादी-मैं ऐसे पटकुंगा कि छठी का दूध उल्टी करवा दूंगा।
वादी-तो फिर हो जाय।
प्रतिवादी-हो जाय।
वादी-जों हल्दी-चूना नहीं बजबा दिया तो मैं भट्ट नहीं।
प्रतिवादी-जौं कालिख-चूना नहीं पोत दिया तो मैं भट्टाचार्य नहीं।
वादी ने गरज कर हुंकार किया-कः समः करिवर्यस्य मालतीपुष्पमर्दने।
प्रतिवादी ने सिंह-गर्जन किया-पलायध्वं पलायध्वं भो भो तार्किक दिग्गजाः। सिंह भटः समायाति सिद्धान्त गजकेसरी।
तबतक गाड़ी एक स्टेशनपर आकार खड़ी हो गई। दोनों पुछने लगे – अब डुमराँव कितनी दूर है?
श्रोतागण ने कहा-डुमराँव तो पीछे छूट गया। यह रघुनाथपर है। आप लोग शास्त्रार्थ के प्रवाह मे पच्चीस किलोमीटर आगे बढ आए हैं।
एक दिग्गज सर पीटते हुए बोले-अनर्थ हो गया। अब क्या होगा?
दूसरे दिग्गज सर पीटते बोले-सर्वनाश। अब तो शास्त्रार्थ के समय पहुँच भी न सकेंगे।
एक व्यक्ति ने कहा-आपही के कारण डुमराँव छूट गया।
दूसरे व्यक्ति ने कहा-नहीं, आपही के कारण छूटा।
प्रथम बोले-तब इसी बातपर शास्त्रार्थ हो जाए।
द्वितीय बोले-हो जाए। मैं तैयार हूँ।
श्रोतागण ने कहा-महाराज। आप लोग दोनों ही धन्य हैं, अब गाड़ी खुलने वाली है। यह स्टेशन भी छूट जाएगा।
दोनों व्यक्ति आग्नेय नेत्र से एक दूसरे को देखते हुए प्लेटफार्म पर उतरे।
उसके बाद की घटना संक्षिप्त ही है । केवल एक झलक चलती गाड़ी से मिला। दोनों योद्धा एक ही तांगे पर वीरासन लगाए आमने-सामने बैठे थे। सड़कपर तांगा चल रहा था। दोनों व्यक्ति हाथ चमका-चमका कर अपने-अपने पक्ष का प्रतिपादन कर रहे थे । प्रतिपक्ष के खंडनमे बाँहे भी संग दे रहे थे। लग रहा था कि अब जो घड़ी गुत्थम-गुत्थी नहीं हुआ है। तांगा वाला जोशमे आ गया। उसने घोड़े को इतनी ज़ोर से चाबुक लगाया कि तांगा उलट गया। दोनों दिग्गज एक ही संग चित्त हो गए। तबतक ट्रेन आगे बढ़ गई।
'मिथिला मिहिर'से
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