चक्रफाँस
(मैथिली कहानी )
लेखक एवं
अनुवादक: प्रणव झा
दीपक बीसीए कर
के पूना की एक कंपनी में डाटा प्रोसेसर के पद पर कार्य कर रहे थे । बीसीए करने के
बाद यह नौकरी उनको ऐसे ही मिल गया हो ऐसी
बात नहीं थी, किन्तु उनके लगन, प्रतिभा
और भाग्य उनको यह नौकरी मिल गया था अन्यथा उन्हीं के कई मित्र लोग इधर उधर ही भटक
रहे थे। वैसे यदि लंगोटिया मित्रों की बात करें तो वो लोग इनसे बढ़िया स्थान पर
पहुँच गए थे। रूपेश इलेक्ट्रोनिक इंजिनियरिंग कर के इन्फ़ोसिस में थे तो नंदन
मैकेनिकल इंजिनियरिंग कर के रिलायंस में । आषीश भी सरकारी बैंक में क्लर्क हो गए
थे । तब यह था कि दीपक भी ठीक-ठाक स्थिति पकड़ लिए थे । इसी बीच में देश के युवा
वर्ग में राष्ट्र्भक्ति का नया शोर उठ गया था । इलेक्ट्रोनिक मिडिया से लेकर
के सोशल मिडिया तक में विविध प्रकार के
उत्तेजक फ़ोटो, विडियो और लिंक साझा किया जाने लगा था। कालेज
के कैंटीन से लेकर आफ़िस के कैंटीन तक बस इतनी ही बहस। सेना क्या कर रही है ,
पाकिस्तान क्या कर रहा है, अमुक ग्रुप के
छात्र सब देशद्रोही हैं, अमुक क्षेत्र के
लोग सब देशद्रोही हैं, बस यही सब चर्चा। दीपक जैसे भावुक लोगों को कभी
कभी यह अतिश्योक्ति देखकर मन ऊब जाता था तो कभी कभी वो भावुक होकर अपने आप को कोसने
लगता था। इंटर उत्तीर्ण करने के बाद दीपक एनडीए की परीक्षा में बैठे थे। पहले
प्रयास में तो नहीं हुआ किन्तु दूसरे प्रयास में वो लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर लिए
थे। किन्तु जब एसएसबी के लिए भोपाल गए थे
तो वहाँ घोर निराशा हाथ लगा था। गा̐व और दरभंगा में पढ़ा लड়का, न अंग्रेजी बोलने में फ़र्राटेदार और न हिन्दी
बोलने में वो द̨ढता और आत्मविश्वास! लिखित परीक्षा और रिज्निंग राउंड तक त ठीक रहा
था किन्तु जब स्टोरी राईटिंग और ग्रुप डिस्कसन राउंड आया तो इंका हाथ-पैर फ़ुलने
लगा । अंततः वो अगले चरण मे नहीं पहुंच
सके।
ऐसे ही एक बार
बिहार मे प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षकों की भर्ती निकली । इनके भी कई मित्रों ने और
गाँव वालों ने फॉर्म भरा था। उन लोगों ने इनको भी उकसाया की तुम भी भर लो मित्र,
हो गया तो समझो आराम की नौकरी हो जाएगा अपने प्रदेश में । पिताजी भी
यही राग अलाप रहे थे । पिताजी बोले थे कि जितने पैसे वहाँ दे रहा है लगभग उतने
पैसे तो यहाँ भी मिल जाएगा । दीपक उत्तर में बोले थे कि पिताजी यह तो ठीक है
किन्तु यहाँ मुझे आगे तीव्रता से उन्नति मिलेगी वहाँ वो बात नहीं होगी। इसपर
पिताजी बोले थे कि देखो वहाँ जितना खर्च है गाँव-घर मे उसकी अपेक्षा खर्च कितना कम
होगा यह भी तो सोचो। इसीलिए एकबार प्रयास करने मे कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार के
वाद-प्रतिवाद के बीच दीपक के मन मे अचानक से एक सोच जागा। वह सोचने लगे कि यदि
मुझे मास्टरी में हो जाए तो मेरे लिए यह एक अवसर होगा अपने गाँव-घर के तरफ के बच्चों
को पढ़ाने-लिखाने का। यदि मैं अपने प्राप्त ज्ञान और अनुभव का उपयोग कर के मेहनत से
कुछ बच्चों को पढ़ाने का प्रयास करूंगा तो निश्चित ही प्राथमिक-माध्यमिक स्तर पर
कुछ बच्चे मे वो ज्ञान और आत्मविश्वास भर सकूँगा जिससे वो आगे दुनिया में स्पर्धा
कर सकते हैं। फिर पिताजी भी ठीक ही कहते हैं कि हो सकता है कि वापस गाँव का रास्ता
पकड़ने से मेरा करियाय वो मुकाम हासिल नहीं कर पाए जो पूना में रह कर अगले 10-15 मे
मैं प्राप्त कर सकता हूँ किन्तु गाँव-घर मे उस अनुसार खर्च भी कम होगा और अपने
क्षेत्र में रहने का आनन्द भी मिलेगा । यही सब सोच कर दीपक ने आवेदन कर दिया था।
भगवती की इच्छा ऐसी हुई की दीपक उस परीक्षा में चूल लिए गए थे और उनको प्रशिक्षण
के लिए सरकारी पत्र प्राप्त हो गया था ।
अब इस विषय पर लंगोटिया सब में ह्वाट्सएप ग्रुप
में वाद-प्रतिवाद शुरू हो गया । नंदन बोले कि
बहुत बढ़िया मित्र जाओ जी लो अपनी जिंदगी …. कर
लो मजे । इस पर रूपेश बोले थे कि ऐसी कौन सी बड़ी नौकरी लगी है! मेरे अनुसार तो
इसमे ज्वाइन करने से करियर वृद्धि पर ब्रेक लग जाएगा । दीपक साथ देते हुए बोले कि
मेरी भी यही चिंता है। उत्तर में नंदन फिर बोले " अरे भाई यह क्यों नहीं
समझते हैं कि कुछ भी है तो है तो यह सरकारी नौकरी ही न! इसमे वेतन से अधिक उपरी कमाई देखा जाता है । अब
देखिए न आशीष भाई को, है तो क्लर्क ही की नौकरी न किन्तु उनको मेरे –
आपसे अधिक दहेज मिला है वो कुछ देख कर ही मिला होगा न! अरे मित्र
दीपक आपको जमकर दहेज मिलेगा, ज्वाई करिए
मास्टरी ।"
"मुझे
तिलक-दहेज का कोई लालच नहीं है किन्तु आशीष ऐसी कौन सी कमाई करते हैं बैंक में
!" – दीपक बोले।
इस पर आशीष
दार्शनिक के मुद्रा मे बोले कि बैंक लोगों को बकरी खरीदने से लेकर बकरी फ़ार्म
खोलने तक के लिए और इंजिनियरिंग में नाम लिखवाने से लेकर इंजिनियरिंग कालेज खोलने
तक के लिए लोन देती है । और इन सभी प्रकार के लोन में बैंक अधिकारी-कर्मचारी सब का
’कट’ फ़िक्स रहता है। ऐसे ही आपको भी सलाह दे देता
हूँ कि विद्यालय में मिड डे मिल से लेकर के भवन के रख-रखाव और साईकिल वितरण से
लेकर के स्कोलर्शिप वितरण तक में ’कट’
का जुगार रहता है और ज्यादा हाथ-पैर मारोगे तो वोटर कार्ड से लेकर के
राशन कार्ड और स्वच्छ भारत से लेकर के इंदिरा आवास तक में ’कट’
मिलने का गुंजाइस रहता है। और मास्टरी के साथ तो आप साईड बिजने भी कर
सकते हैं। एलआईसी एजेंट बन जाइए, या लोन एजेंट या
कोई अन्य धंधा कर लीजिए । बीच-बीच में विद्यालय जाकर हाजिरी बना लीजिए और खोज-खबर
ले आइए।
यह सब सुन कर
दीपक व्यथित भाव से बोले कि मैं इस पेशे मे यह सब गोरख-धंधा करने के लिए नहीं जाना
चाहता हूँ । मेरा उद्देश्य है अपने क्षेत्र के बबच्चों को अच्छी शिक्षा मिले उसमे
मेरा योगदान हो। इसीलिए मैं बस अपने आर्थिक भविष्य और करियर ग्रोथ को लेकर आशंकित हूँ।
"तब
आप बेवकूफ हो" इस बार नंदन ने टोका ।
अरे भाई लोग एक काम को छोड़कर दूसरा पकड़ता है अपनी प्रगति के लिए,
दो पैसे ज्यादा कमाने के लिए या कि बस यूं ही ………
बीच में बात
काटते हुए दीपक दृढ़ता से बोले कि नंदन भाई, आप
जो व्हट्सएप से लेकर के फ़ेसबुक तक पर भर दिन राष्ट्रभक्ति का राग अलापते रहते हैं
वो केवल दूसरों को ज्ञान ठेलने के लिए या कि कुछ स्वयं के अमल में लाने के लिए या
कि बस अपनी कुंठा मिटाने के लिए!
नंदन का समर्थन
करते हुए रूपेश बोले कि दीपक भाई आप बेवजह ही भावुक हो रहे हैं । वास्तव में यह
देशभक्ति, राष्ट्रवाद, ईमानदारी
आदि शब्द नेता सब को गलियाने हेतु, अथवा समर्थन
हेतु या कि अपनी कुंठा मिटाने हेतु,
हवाबाजी हेतु, दूसरे को
आग्रहित करने हेतु प्रयुक्त होता है, किन्तु
वास्तविकता के धरातल पर आप कैसे करके अर्थ (धन) कमाएं यही सबसे बड़ी सोच होती है।
आपको समाज में इज्जत इसलिए नहीं मिलता है कि आप कितना शुद्ध और समाजवादी आचरण रखते
हैं बल्कि इससे मिलता है कि आप धन संचय करने में कितना काबिल हैं (चाहे उसके लिए
जो भी तरीका अपनाएं)। और देखिए आप भी जो दुविधा में हैं उसका कारण करियर ग्रोथ ही
तो है।
इस वाद-प्रतिवाद
के बीच दीपक के मन की दुविधा मिट गया था उसने उत्तर देते हुए बोला "हो सकता
है कि लोग मुझे पागल कर के ही समझ लें किन्तु मैं अब यह नौकरी ज्वाइन करूंगा और
उसी उद्देश्य के लिए करूंगा जो मेरे मन मे हैं। रही बात अर्थोपार्जन की तो कुछ और
तरीका भी अपनाऊंगा जैसे विद्यालय के बाद
के समय में ट्युशन, छोटे-मोटे
सोफ़्टवेयर/वेबसाईट/प्रोजेक्ट/डाटा-एन्ट्री वर्क आदि का कार्य करने का प्रयत्न भी
रहेगा। यदि भगवति का आशिर्वाद बना रहा तो जिंदगी ठीक-ठाक कट जाएगी ।"
दीपक की
पोस्टिंग अपने जिला के एक अन्य प्रखंड के एकट माध्यमिक विद्यालय में हो गया
था। दीपक उतने उत्साह और आशा के साथ
विद्यालय ज्वाईन किए जितने उत्साह और आशा से कोई सास अपनी नई बहू का गौना के समय
परीक्षण करती है। किन्तु कुछ ही दिनों मे दीपक को विद्यालय में फैले अव्यवस्था का भान हो गया। विद्यालय में
अनुपस्थिति के मामला मेंशिक्षक और विद्यार्थी में जैसे कोई अघोषित शर्त लगी हो! मतलब पचास प्रतिशत से
ज्यादा न शिक्षक की उपस्थिति रहती और न विद्यार्थी की । विद्यालय भवन का हाल कुछ
इस प्रकार हुआ पड़ा था जैसे किसी स्त्री का, जिनका
पति बहुत दिनो से बाहर कमाने गए हों और
ससुराल मे कोई मानदान करने वाला कोई न हो । शौचालय के नाम पर 2 शौचालय
टूटा-फूटा दुर्गंध देता जिसमे नाकनहीं दिया जा सकता है, और
दो अन्य शिक्षकों के लिए थोरे ठीक-ठाक अवस्था मे जिसमे ताला लगा हुआ रहता था।
क्योंकि आधे शिक्षक तो हमेशा ही अनुपस्थित रहते थे इसलिए कुछ कक्षाएँ या ठो खाली
ही रहते थे अथवा दो-तीन कक्षाओं के छत्रों को एक साथ बैठा दिया जाता था। इस
अव्यवस्था को देखकर दीपक का मन चिढ़ गया था। उसने इस विषय मे बीईओ साहब को विस्तार से
लिखा और उनसे इस विषय मे उचित कार्यवाई करने का निवेदन किया। कुछ दिन बान बिईओ
साहब आए और विद्यालय का निरिक्षण किया।
सारे समय हेडमास्टर, किरानी और लगुआ-भगुआ शिक्षक लोग उनको घेरे रहे
और विद्यालय की अव्यवस्थाओं को ढंकने का पूर्ण प्रयास किया ।
अब दीपक उम्मीद कर
रहे थे कि प्रखंड से कुछ कार्यवाही होगा। किन्तु ऐसा तो कुछ नहीं हुआ लेकिन एक दिन
मुखिया और सरपंच पहुंचे स्कूल पर। पंहुचते ही दीपक की खोज हुई। दीपक आ कर उन सब को
प्रणाम-अभिवादन किए। किन्तु प्रणाम का उत्तर दिए बिना उन पर प्रश्न दाग दिया गया
कि अजी दीपक बाबू! आप यहाँ नौकरी करने आए हैं या कि राजनीति करने के लिए ?
यदि राजनीति करनी है तो खुल कर बोलिए और नहीं तो इधर-उधर की बातें
नहीं किया कीजिए । चुपचाप विद्यालय में आइए , समय
बिताइए और आराम से वेतन लिया कीजिए बस।
"और
यदि वेतन कम लगे तो टोली बना कर सरकार के आगे धरना-प्रदर्शन करिए" किरानी
बाबू बीच में बात पकड़ते हुए व्यंगात्मक लहजा में बोले ।
दीपक उत्तर में
कुछ नहीं बोले। उनका मन बहुत कुंठित और
व्यथित हो गया था ।
दीपक का उतारा
हुआ मु̐ह देख के एक दिन मंडल सर पूछा कि अरे दीपक, ऐसेक्यो
मन मलिन किए हुए हो?
स्नेह की छाँव मिलने से दीपक का मन द्रवित हो गया। वो बोले कि सर ,
मैंने अपना करियर और महानगर का जीवन छोड के यह नौकरी पकड़ी थी यह
सोचकर की अपने गाँव-घर के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने मे अपना योगदान करूंगा ।
किन्तु यहाँ उसके लिए जो माहौल मिलना चाहिए वो तो है ही नहीं ,
उल्टे धमकी मिलता है।
इस पर मंडल सर
बोले "अरे क्या करोगे , यह समाज ही ऐसा
है। यह हेडमास्टर, किरानी, मुखिया,
चपरासी, ये सभी इसी समाज के हैं न जी,
कोई लंदन से तो आए नहीं हैं ! तुम्हें क्या लगता है,
कि ये जितने भी गोरखधंधा होते हैं क्या वो मुखिया-सरपंच के जानकारी
मे नहीं रहता है। अरे, इन सभी मे उन सब का हिस्सा रखा रहता है।"
किन्तु सर इस
विद्यालय में बच्चे तो ग्रामीण के ही न पढते हैं। तब लोग सब ऐसे चोर मुखिया-सरपंच
को क्यों चुनते हैं! "अरे यह एक जटिल सिस्टम चक्र है जिसमे सभी के भागिदारी
की तीली देखोगे।" मंडल सर प्रतिउत्तर में बोले। "देखो,
इस विद्यालय में समाज के कुछ ऐसे सक्षम वर्ग के बच्चों का भी नामांकन
हुआ है जिनके बच्चे वास्तव मे किसी पब्लिक स्कूल में पढ रहे हैं । किन्तु सरकारी
योजनाओ का लाभ लेने हेतु उन सभी ने यहाँ भी नामांकन कराया है। विद्यालय प्रशासन से
उनको यह लाभ मिलता है कि बिना विद्यालय आए
ही उन सभी की उपस्थिती बन जाती है और सरकारी योजनाओ का लाभ मिल जाता है । इसी के
बदले मे वो सब ऐसे चोर मुखिया-सरपंच को चुनते हैं। "
"किन्तु
ऐसे करने के बजाय यदि वो सक्षम लोग यदि यही पर अच्छी पढ़ाई के लिए जो दवाब बनाएँ
तो कदाचित यहाँ भी अच्छी पढाई मिल सकती है
जिससे वो लोग पब्लिक स्कूल के महंगी फ़ीस के चक्कर से भी बच सकते हैं!" दीपक
बोले।
मंडल सर एक गहरी
सा̐स छोडते हुए बोले "ह̐। किन्तु इसमे
उन सभी को एक दिक्कत नज़र आती है कि फ़ंड की कमी से सरकारी विद्यालय में वो
इंफ़्रास्ट्रक्चर और सुविधा ननहीं है जिसकी आवश्यकता है और दूसरा कि कदाचित यह
मनोविचारधारा भी काम करता है कि फिर तो उनके बच्चों के साथ दूसरे लोगों (आर्थिक अक्षम) के बच्चे भी आगे बढ़ जाएंगे जो
कदाचित इस वर्ग कको पसंद नहीं है ।"
किन्तु ऐसे
लोगों की भी तो समाज मे कमी नहीं है जिनको सरकारी विद्यालय में अच्छी शिक्षा
मिलने से लाभ हो। वो लोग क्यों नहीं ऐसे
मुखिया-सरपंच सब कका विरोध करते हैं? – दीपक ने पूछा।
"नाना
प्रकार के दबाव, जागरूकता की कमी, रोटी-पानी
में फंसे रहने के कारणे और भ्रामक प्रचारतंत्र इसका कारण है" –
मंडल सर बजलाह ।
इस प्रकार से कुछ ही महीने मे दीपक कको उस
कुचक्रव्युह की जानकारी हो गई थी जिसमे शिक्षा व्यवस्था(सिस्टम) फँसी हुई थी ।
किन्तु इस चक्रव्युह को तोड़े कैसे उसका कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। किसी अन्य
सक्षम व्यक्ति की सहायता की उम्मिद भी लगाते तो मार्ग रोकने हेतु कितने ही
जयद्रथ खड़े हुए थे। छुट्टी में जब वो गांग गए तो अपने मन की व्यथा बाबा को सुनाए ।
बाबा बोले कि बौआ जब ओखली मे मु̐ह दे ही दिए हो तो मूसल से क्यों घबरा रहे हो! तुम
तो बस अपना कर्तव्य करो, बा̐कि विधाता पर
छोड় दो। मन लगाकर बच्चों को पढ़ाओ -लिखाओ। ऐसा तो है
नहीं कि तुम कुछ आश्चर्यजनक देख रहे हो । मेरे पीढ़ी से लेकर तुम्हारी पीढ़ी तक के
लोगों ने सीमित साधन मे ही पढ़ाई की है जी।
दीपक को बाबा की
बात ज̐च गई । बस फिर क्या इधर-उधर की
कुव्यवस्था को देखना छोड़के बच्चों को पढ़ाने पर ध्यान देने लगे। अतिरिक्त
कक्षाएँ भी लेने लगे। जल्दि ही वो छत्रों और कुछ अभिभावकों के बीच लोकप्रिय हो गए।
इधर वो 15
अगस्त के अवसर पर छात्रों के बीच
छोटी-मोटी प्रतियोगिताओ के आयोजन की योजना बना रहे थे और उधर करमनेढ स्टाफ़ सब में
खुसर-फ़ुसर चालु हो गया था। फिर एकदिन दीपक जब अपनी योजना लेकर के हेडमास्टर के पास
पहु̐चे तो हेडमास्टर बात काटते हुए बोले कि पहले ये कहिए कि आप विद्यालय के बाद
ट्यूशन करते हैं ? जी ह̐।-दीपक उत्तर में बोले। तो क्या आपको
नियमावली नहीं पता है ?-हेडमास्टर बोले।
जी पता है
किन्तु यह मैं विद्यालय समय के बाद करता हूँ और इससे विद्यालय में मेरे शिक्षण पर
कोई प्रभाव नही पड़ता है । विद्यालय में सबीएसई ज्यादा कक्षाएँ मैं ही लेता हूँ यह
विद्यालय का बच्चा-बच्चा जानता है। और अन्य शिक्षक लोग भी तो न जाने कितने तरह के
व्यवसाय करते हैं और वो भी विद्यालय के समय में, आधे
समय गायब ही रहते हैं। - दीपक आवेश में एक ही सुर में बोल गए।
"
आप ज्यादा काबिल बनते हैं क्या? लोग
क्या कर रहे हैं वह देखने वाले आप कौन? अपना काम करिए ,
मुझे क्या करना चाहिए वो मत बताइए। ज्यादा उड़ोगे तो लिखित मे ज्ञापन
पकड़ा दिया जाएगा आपको।“ – हेडमास्टर
साहिबा झिड়की देते हुए बोली।
दीपक उखड़े मन से
वहाँ से लौटे। उनको हेडमास्टर का भी गोरखधंधा पता था। उसका पति ठेकेदार है,
और विद्यालय के अधिकांश कार्य/आपूर्ति के ठेके उसी को मिलते हैं। मुखिया-नेता
सब से भी संबंध हैं। और जो लोग समाज के लिए कुछ काम करना चाहते हैं उनको ज्ञान
देने चली है!
अगले दिन किरानी
इनके हाथ में एक आर्डर थम्हा दिए जिसके अनुसार इनको प्रखंड के किसी योजना के कार्यान्वयन के लिए
सर्वेक्षण के कार्य में लगा दिया गया था। मतलब कि इनको विद्यालय में छात्र के
पढाने के कार्य से हटाने का नया षडयंत्र रच दिया गया था। दीपक हाथ में आर्डर लिए
इस नव-संघर्ष के विषय में सोचने लगे।
अब तो यह समय ही
बता सकता कि दीपक व्यवस्था(सिस्टम) के इस चक्रफ़ा̐स से बच कर निकल पाते हैं कि नहीं?
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