दालान पर की बतकही
लेखक : हरिमोहन झा ॥ अनुवादक : प्रणव झा
उस दिन लाल चाचा के दालान पर बतकही जम गया। लोग उनके यहाँ चतुर्थी के आमंत्रण पूरा करने आए थे। चंदन-काजल हो रहा था। इन्हीसब के बीच पहुँच गए भोलबाबा। पंडित जी पान-सुपाड़ी आए बढ़ते हुए बोले – लिया जाए। भोलबाबा बोले – आप विद्वान हैं, पहले आप ही लीजिए। पंडित जी बोले – भला ये कैसे हो सकता है?
दीर्घनारायण बोले – इसी तिरहुताम से रेल छुट जाती है।
इतना सुनते ही भोलबाबा अपने गप्पबाजी का बटुआ खोला – तुम लोग तो बस सुनते ही हो , किन्तु मेरी तो सच मे गाड़ी छुट गई थी। एकबार तारसराय मे देखा कि मेरे फुफेरे ससुरजी गाड़ी पर चढ़ रहे थे। गाड़ी सिटी दे चुकी थी। मैं चाहता तो गाड़ी के अंदर से उनको हाथ पकड़ के चढ़ा लेता। किन्तु बिना पैर छूए हाथ कैसे पकड़ता? इसीलिए प्रणाम करने के लिए मुझे नीचे उतरना ही पड़ा। अब वो आशीर्वाद दिए बिना कैसे चढ़ते और बिना प्रणाम करने के लिए दिए जाने वाले पैसे के आशीर्वाद कैसे देते? जबतक वो अपने गेठरी से बटुआ निकाल कर खोले, तबतक गाड़ी सरकने लगी। मैंने कहा ‘आप चढ़ो।’ वो बोले - ये कैसे हो सकता है ?ओझा पहले आप चढ़िए।’ तबतक गाड़ी निकाल चुकी थी।
मधुकान्त बोले – बाप रे बाप! ऐसा तिरहुताम !
भोलबाबा डांटते हुए बोले – तुमलोगों ने तिरहुताम देखा कब? इसी तिरहुताम के कारण पिलखवार के सामवेदी जी को कभी संतान नहीं हुआ।
श्रोतागण उत्सुक होकर पूछे– वो कैसे, बाबा ?
भोलबाबा सुपाड़ी कतरते हुए बोले – सामवेदी जी की पत्नी जाति मे बड़ी थी। दोनों व्यक्ति शयनगार मे जाते तो उचती होने लगता – आप पूज्य तो आप पूज्य। ये कहते – पहले आप खटिया पर चढ़िए। वो कहती - – पहले आप खटिया पर चढ़िए। इस प्रकार से दोनों व्यक्ति रातभर वैसे ही खड़े रह जाते। ऐसी स्थिति मे संतान होता तो कैसे ?
रतिकान्त बोले – हद्द हो गया बाबा!
भोलबाबा एक चुटकी कतरा मुंह मे लेते हुए बोले – अरे, उन दिनों लोग व्यवहारी होते थे। वैसा मर्यादा क्या अब देखने को मिल सकता है ? उसी मर्यादा के कारण कभी झलबा झा – मलबा झा कभी एक साथ बैठकर भोजन नहीं किए ।
श्रोतागण पूछे – वो क्यूँ?
भोलबाबा बोले – अरे, दोनों पंजीबद्ध ही थे। कौन बड़ा, कौन छोटा इसका निर्णय नहीं हो पाता था। तब कौन सिरे पर बैठे और कौन पीछे? इसलिए दोनों कभी एक पंक्ति मे नहीं बैठे। कहीं निमंत्रण पूरा करने जाते तो एक ओसारा पर झलबा झा का आसन लगता, दूसरे ओसारा पर मलबा झा का ।
काशीनाथ बोले – उन दिनों ऐसे ऐसे भी लोग थे !
भोलबाबा बोले – तुमने देखा कब ? इसी व्यवहार मे थोड़ी सी त्रुटि रह जाने के कारण सोनमणि झा अपने बेटे का दूसरा ब्याह करवाए ।
श्रोतागण को उत्सुक होते हुए देख भोलबाबा दूसरी चुटकी तंबाकूचूर्ण लेते हुए कथा फैलाया –सोनमणि झा बेटा का गौना करवाने गए थे। रात मे भोजन के समय जब दही परोसा जाने लगा तो बोले – बस, बस, बस। अब पूर्ण हो गया। घरवाले बोले – थोड़ा और लिया जाए ।
सोनमणि झा बोले – ना,ना, मैं रात मे दही कम खाता हूँ ।
घरवाले पुनः औपचारिकता किए – तो कोई नहीं, बस दो ही कलछुल ।
सोनमणि झा बोले – नहीं , एक कलछुल भी नहीं। मुझे वातरस हो रखा है। कोई नहीं, थोड़ा सा ही। केवल कहा मान लिया जाए – ये कहते हुए घरवाला दही देने हेतु झुका । सोनमणि झा हाँ हाँ करते हुए दोनों हाथों से थाली को ढँक लिया। घरवाले ने बहुत प्रयत्न किया किन्तु सोनमणि झा ने फिर भी दही नहीं देने दिया। अंततः थक-हार कर घरवाले शेष दही लौटा कर ले गए। यह देखते ही सोनमणि झा को क्रोध आ गया। जब हाथ धोया हो गया तब बेटा को बुलाकर बोले – चलो यहाँ से । दूसरा ब्याह करावा देंगे। यहाँ लोगों मे आपकाता नहीं है। औपचारिकता हेतु मना तो लोग करते ही हैं, तब आगे से मटका उठाकर कैसे ले गए ? पीछे कितना ही लोगों ने खुशामद किया, किन्तु सोनमणि झा टस से मस नहीं हुए। बेटा का दूसरा विवाह करा कर ही छोड़ा।
श्रोतागण स्तब्ध रह गए । मुकुन्द बोले – धन्य थे सोनमणि झा ! उनको भोजन के वक्त पटक कर मुंह मे दही ठूंस दिया जाता तब आपकाता समझ मे आता ! ऐसे अड़ियल लोग ! बाप रे बाप !!
भोलाबाबा उनको डांटते हुए बोले – तुम इतने मे ही बाप बाप करने लगे?इसी मर्यादा के कारण फेटकटाइ झा का कमर टूट गया था ।
श्रोतागण – वो कैसे, वो कैसे?
भोलबाबा पुनः थोड़ा सा सुपारी का कतरा मुंह मे डालते हुए बोले – फेटकटाइ झा समधी के यहाँ गए थे। लौटते समय लाल धोती विदाई मे दिया। फेटकटाई झा नौकर को बोले – अरे गठरी मे बांध लो। । किन्तु फेटकटाई झा के समधी थे बोच बाबू। वो अड़ गए कि धोती पहन ही लीजिए। फेटकटाई झा बोले – अच्छा है। मैंने ले लिया। बोच बाबू बोले – भला ये कैसे हो सकता है? यहाँ से लेकर आपके गाँव तक लोग सफ़ेद धोती देखेंगे तो क्या कहेंगे? यह कहते हुए बोच बाबू इनके कमर मे धोती लपेटने लगे। फेटकटाई झा स्वयं को छुड़ाने लगे। अब दोनों समधी मे हाथापाई जैसा होने लगा। किन्तु बोच बाबू जबर्दस्त थे। एकबार लपेट कर जो पकड़े तो फेटकटाई झा नीचे आ गए। ऊपर से बोच बाबू का तीन मन का शरीर । फेटकटाई झा का कमर टूट गया। वो गाड़ी मे लड़ा कर गाँव गए। परंतु वाह रे बोच बाबू! अपने वंश की परंपरा नहीं छोड़ी । समधी को धोती पहना कर ही विदा किए। उन दिनों मे मर्यादा का इनता विचार था ।
पंडित जी अनुमोदन करते हुए बोले – इसमे क्या संदेह ?
भोलबाबा प्रोत्साहन पाकर बोले – अब जो कोई बुद्धिनाथ पाठक जैसा करे तो क्या चल पाएगा? पाठक जी पूरी गए थे। वहाँ जगन्नाथ जी के अटका का महाप्रसाद मिला। परंतु वो अड़ गए कि जगन्नाथ जी भगवान ही हैं तो क्या हुआ? बिना सौजन्य किए चावल नहीं खा सकते हैं। यदि दो जोड़ी धोती देंगे तो प्रसाद खाएँगे, अन्यथा वो अपने घर मे रहें। अंत मे उनके जिद को माना गया। जगन्नाथ जी की ओर से दो जोड़ी धोती विदाई मे मिला, तब जाकर प्रसाद मुँह मे दिए। अब लोगों मे क्या इतना विचार हो सकता है?
यार चाचा बोले – कभी भी नहीं । कभी भी नहीं।
भोलबाबा और भी अधिक उत्तेजित होते हुए बोले – अरे अब जो कोई नैया चौधरी की देखादेखी करेगा तो क्या निभा पाएगा?
श्रोतागण – वो क्या बाबा?
भोलबाबा बोले – नैया चौधरी सिमरियाघाट जा रहे थे। साथ मे पत्नी, भाभो लोग भी साथ मे थे। जब सबको गाड़ी मे चढ़ाया हो गया तो स्वयं वहीं रह गए। एक आदमी पूछा तो बोले – जिस गाड़ी पर मेरी भाभो चढ़ी है उसपर मैं कैसे पैर रख सकता हूँ। मैं दूसरे ट्रेन से जाऊंगा। अब इतना विचार किसमे है?
यार चाचा बोले – आहा ! उन दिनों मे क्या अपूर्व मर्यादा था?
भोलबाबा बोले – मर्यादा तो ऐसा था कि बुद्धिनाथ पाठक अपने पत्नी का पालकी पर गौना नहीं होने दिया कि चार पुरुष के कंधे पर कैसे जाएगी? अब तो लोग पत्नी को लौरी पर चढ़ाकर विदा कराते हैं!
काशीनाथ बोले – बाबा उन दिनों मे मर्यादा का बहुत विचार था ।
भोलबाबा बोले – विचार तो इतना था कि मुंशी सोखतार लाल दास के ससुर कुएँ मे गिर गए थे तथापि सर से मौर नहीं उतारे थे। उन दिनों के दामाद इतने संकोची होते थे कि तिलौड़ी नहीं खाते थे कि कुड़कुड़ कर उठेगा। पापड़ खाना होता था तो पहले दाल मे भिगो लेते थे। जब सास आती थी तो तौलिए से सर ढँक लेते थे। कभी भी स्त्री लोगों के सामने खुली छाती नहीं रखते थे। अब के पुरुष मे क्या इतना विचार होगा?
शोभाकांत बोले – पुरुष की क्या कहें, अब तो स्त्री लोगों मे भी यह विचार खत्म होता जा रहा है।
पंडित जी बोले – उन दिनों के स्त्री लोगों मे दूसरा ही विचार था ।
भोलबाबा बोले – विचार तो ऐसा था कि मेरी समधिनी अपनी साड़ी कभी भी धोबी को नहीं दी, कि चोली दूसरे पुरुष के मुट्ठी मे चला जाएगा। अब के स्त्री मे क्या इतना विचार होगा ?
शोभाकांत बोले – अब तो चोली की क्या कहा जाए जब .....
फोंचाइ पाठक बोले – उन दिनों के स्त्री मे विचार अधिक था।
भोलबाबा बोले – ऐसा विचार था कि मेरी बुआ कभी खड़ाऊँ को पैर नहीं लगाई।
कमलकान्त पूछे – वो क्यूँ बाबा ?
भोलबाबा बोले – मेरे फूफा का नाम था रामगुलम खाँ। इसलिए बुआ खड़ाऊँ को कभी पैर नहीं लगाई कि इसके अंत मे पति का नाम पड़ता है। इसलिए वो ‘रामझींगनी’ को ‘श्यामझींगनी’ कहती थी।
यार चाचा बोले – आहा! उन दिनों मे धर्म कर्म मे कैसी निष्ठा थी!
भोलबाबा नाशिका मे तंबाकू चूर्ण देते हुए बोले – अरे, धर्म-कर्म मे तो ऐसी निष्ठा थी कि मेरी दादी भगवान की स्थापना की थी। स्वयं को पसीना चूए तो भगवान को पंखा झेलती थी। ठंढ लगे तो भगवान को रज़ाई ओढ़ाती थी। गाँव मे हैजा होता था तो सबसे पहले भगवान के बाजू मे सुई लगवाती थी। अब के लोग तो भगवान से ही चालाकी करते हैं। डालडा लेकर आरती कर देते हैं। नवयुवा लोग तो वो भी नहीं करेंगे। नए बच्चे तो शालिग्राम लेकर मिश्री पीसेंगे।
लंबोदर चौधरी बोले – अब तो भक्ति का लोप होते जा रहा है। किन्तु उन दिनों तो ऐसे – ऐसे भक्त होते थे कि ....
भोलबाबा बोले – भक्त तो ऐसे ऐसे होते थे कि भगवान उनसे हार मानते थे। ढोंढाई पाठक ऐसे विष्णु भक्त थे कि कभी कंठी नहीं बांधे।
अजगैबीनाथ पूछे – वो क्यूँ?
भोलबाबा बोले – उनका कहना था कि तुलसी विष्णुप्रिया हैं। उनको मैं अपने गले मे कैसे लगाऊँगा? माँ-चाची को क्या कोई गले लगाता है?
पंडित जी बोले – आहा! क्या उच्च विचार था?
भोलबाबा बोले – ऐसा ही उच्च विचार उनकी पत्नी का भी था। उन्होने कभी शिवलिंग पर जल नहीं चढ़ाया।
दीर्घनारायण पूछे – वो क्यूँ ?
भोलबाबा बोले – उनका कहना था कि महादेव कितने भी बड़े हों, हैं तो परपुरुष ही !
यार चाचा बोले – अहा! उन दिनों की महिलाएं कितनी पतिव्रता होती थी ?
भोलबाबा बोले – पतिव्रता तो ऐसी होती थी कि नागदह वाली के पति को साँप काट लिया। पति बोले आप यहाँ कस के बांध दो और ऊपर से मुक्का मारो। परंतु पत्नी अड़ गई कि ऐसा नहीं हो सकता है कि मैं अपने पति को बांध कर मारूँ। स्वामी अचेत होकर गिर पड़े , परंतु ये अपने टेक से विचलित नहीं हुई।
फोंचाइ ठाकुर बोले – वाह रे टेक!
भोलबाबा बोले – तनौती वाली उनसे कम नहीं थी। एक रात उनके पति को चोर पटक कर मारने लगा। पति बोले – इसका एक हाथ आप पकड़ो, दूसरा मैं पकड़ता हूँ। किन्तु वो आगे नहीं बढ़ी। उत्तर दी – स्त्री एक ही व्यक्ति का हाथ पकड़ सकती है। इस शरीर से मैं परपुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती हूँ। पति को मार मार कर अधमरा कर दिया, परंतु ये टस से मस नहीं हुई। उन दिनों मे पतिव्रत की ऐसी मर्यादा थी।
काशीनाथ बोले – धन्य!धन्य! उन दिनों के लोग कैसे मनस्वी होते थे? वो टेक, वो स्वाभिमान, अब कहाँ मिलेगा?
भोलबाबा नाशिका मे तंबाकू चूर्ण ठूँसते हुए बोले – इसी स्वाभिमान के लिए ढाला झ खिसकते खिसकते चौमथ घाट पहुँच गए।
श्रोतागण उत्सुक होते हुए पूछे – वो कैसे?
भोलाबा कहने लगे – ढाला झा घर मे सोये थे। गर्मी का समय था। पत्नी बोली – थोड़ा खिसक जाइए। यह कहकर पत्नी तो सो गई। उधर ढाला झा खिसकने लगे। पहले खिसकते-खिसकते खाट के चौखट तक आ गए । फिर फिसल कर नीचे उतर गए। तत्पश्चात दरवाजा खोलकर बाहर हो गए। तत्पश्चात रात भर खिसकते-खिसकते सीधे चौमथ घाट तक पहुँच गए। घर से चौदह कोस दूर। वहाँ से पत्र लिखे कि, क्या अभी और अधिक खिसकूँ कि इतने से काम चल जाएगा?
दीर्घनारायण बोले – वो भी प्रणम्य देवता थे। थोड़ा सा खिसकने बोले तो इतना दूर चले गए। यदि कहीं नजदीक आने बोलती तो पता नहीं क्या करते!
पंडित जी बोले – उन दिनों के लोग मनस्वी होते थे।
भोलबाबा कतरा काटते हुए बोले – इसी मनस्विता के कारण लगमा वाले पंडित जी अपने घर मे आग लगा लिए।
पंडित जी के घर पर एक एक मेहमान आए थे। पत्नी से पूछे – अजी! चूड़ा है? पत्नी बोली – नहीं। ये पूछे – आटा है ? पत्नी बोली – नहीं। पूछे – सत्तू है? पत्नी बोली – नहीं। पूछे दियासलाई है? पत्नी बोली – हाँ। बस, ये दियासलाई रगड़ कर छप्पड़ मे लगा दिए। जिस घर मे कुछ नहीं, वो घर रह कर क्या होगा? सारा घर जल गया । अपने घर के साथ साथ सारा गाँव भी जल कर स्वाहा हो गया।
काशीनाथ बोले – उन दिनों मर्यादा का ऐसा महत्व था ।
भोलबाबा बोले – मर्यादा का ऐसा महत्व था कि नैया चौधरी के घर मे आग लगा तो आग लगने के जिज्ञासा मे उनचास सगे-संबंधी पहुँच गए। दूर-दूर के संबंधी। जैसे ही सुने कि खाली हाथ ही, धूल से सने पैर ही पहुँच गए। जेठ महीने का प्रचंड धूप। ऊपर एक छप्पड़ नहीं। पेड़ के नीचे भोजन पकता था। तथापि कितने ही लोग छः महीने तक उस पेड़ के नीचे रह गए, कि ऐसे विपत्ति के समय मे कैसे छोड़ कर जाएंगे? नैया चौधरी के यहाँ इतने लोग हालचाल पुछने आए कि सबके सत्कार मे आवास की जमीन पर्यंत बिक गया। तब दूसरे गाँव मे जाकर बसे।
कमलकान्त बोले – धन्य थे ऐसे-ऐसे लोग।
भोलबाबा बोले – अरे, उन दिनों के लोग अलौकिक होते थे। बुद्धिनाथ बाबू कभी ‘ब’ अक्षर का पेट नहीं काटे। उनका कहना था कि जब कभी किसी नौकर-चकार का पेट नहीं काटा तो ‘ब’ अक्षर ने क्या अपराध किया है कि उसका पेट काटूँ? इसीलिए बुद्धि को वुद्धि लिखते थे!
फोंचाइ पाठक बोले – अहा! क्या उच्च विचार!
भोलबाबा बोले – टटुआर मे कोई ब्राह्मण ब्राह्मण ईंट बनवाए तो पंडित लूटन मिश्र उनको गोवध का प्रायश्चित दे दिए ।
काशीनाथ पूछे – वो क्यूँ ,बाबा?
भोलबाबा बोले – पंडितजी बोले कि मिट्टी खोदने से गड्ढा हुआ ही होहा। वर्षा मे पानी होने से वो भरेगा ही। वो पानी पीने गाय आएगी ही। उसमे एकाध डूबेगी ही। यही विचार कर पहले ही गोहत्या का प्रयाश्चित करवा दिए।
कमलकान्त बोले – क्या अपूर्व पंडित वो लोग हुआ करते थे।
भोलबाबा बोले – पंडित तो ऐसे अपूर्व होते थे कि एकबार सतलखा मे सात मन भसमाती चावल का भात फेंक दिया गया।
लंबोदर चौधरी पूछे – वो कैसे?
भोलबाबा बोले – सातों टोले के लोग भोज खाने के लिए बैठे थे। महामहोपाध्याय नेनमणि पाठक भी उसमे सम्मिलित थे। जब वो खाने लगे तो सब्जी खाते समय पूछे- अरे, ये क्या है? कोई बोला – शलगम है। यह सुनते ही वो पत्ते पर ही उल्टियाँ करने लगे। सभ भाग गए ।
झाड़खंडी पूछे- वो क्यूँ, बाबा?
भोलबाबा बोले – महामहोपाध्याय बोले – शलगम पूर्व जन्म का मुसलमान होता है और अंग्रेज़ जब मरता है वो अँग्रेजी बैंगन (टमाटर) बनकर जन्म लेता है। तदनुसार सभी को सिमरियाघाट जाकर चारो चरण प्रायश्चित करना पड़ा।
काशीनाथ बोले – अहा! धर्मशास्त्र का क्या विचार उन लोगों मे था।
भोलबाबा बोले – धर्मशास्त्र का तो ऐसा विचार था कि भूसकौल के शास्त्री जी कन्याकुमारी से बिना स्नान किए ही लौट आए।
रतिकान्त पूछे- वो क्यूँ, बाबा ?
भोलबाबा नाक मे तंबाकू चूर्ण लेते हुए बोले – अरे, उनका तर्क था कि एक तो कुमारी, ऊपर से कन्या! उसमे प्रवेश करने पर तो गाली ही पड़ जाएगा! अतः उस जल से आचमन भी नहीं किए।
चुनचुन चौधरी बोले – वाह रे मर्यादा !
भोलबाबा बोले – इसी मर्यादा के कारण पूर्वी ड्योढ़ी के बाबू रुद्राणीपति सिंह कभी अपने टोपी पर स्त्री नहीं करवाए कि जब एक स्त्री(पत्नी) है ही तो दूसरे को क्यूँ सर पर चढ़ाएँगे। अब ऐसा विचार लोगों को होगा?
यार काका बोले – कभी भी नहीं।
भोलबाबा गंभीर सांस लेते हुए बोले – अब तो युग ही बादल गया है। हाथी को मोटर खाया, घोड़ा को साइकिल खयाम रामलीला को सिनेमा खाया, भोज को पार्टी खाया, भाँग को चाय खाया, संस्कृत को अँग्रेजी खाया, और मर्यादा को कम्युनिस्ट खाया। अब कुछ दिनों मे घासकट्टी और चंदन-काजल, सब खत्म हो जाएगा। किन्तु अब मेरे जीने के दिन ही कितने बचे हैं? जो रहेंगे वो सहेंगे।
यह कहते हुए भोलबाबा पान-सुपाड़ी लिए और लाठी टेकते हुए विदा हो गए ।