Tuesday 6 February 2024

शहर के सभ्य लोग


 

ये शहर है या धूल का गुब्बारा है
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।
कहीं पेड़ को काटकर, कहीं तालाब को ढांक कर
खड़े किए हैं यहाँ सभ्यता की अट्टालिकाएं

बना लिए हैं निगम और नगरपालिकाएं ।

 

धूप में सिमटी राहों पर, भागमभाग रहते हैं सब

एक दूसरे को कुचलते भागते सबके कदम।

धन की मद में बढ़ रहा है अनवरत अनाचार,

लोक लज्जा का यहाँ, रहा नही कोई विचार

ये नगर है या सपनों का आँधियारा है,

यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं ।

 

कभी सागर की लहरों के मध्य, कभी पहाड़ों पर जाकर

स्वांग रचते हैं प्रकृति-प्रेमी होने का तस्वीरें खिंचाकर

आबाद रहे इनका ढकोसला, हर कीमत इनको गवारा है

यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।

 

जिस मिट्टी से सबकुछ पाया उसको ये कहते हैं धूल

पूर्वजों की सभ्यता संस्कृति को ये अब गए हैं भूल

जानते नहीं कि अंत मे इसी मिट्टी मे मिल जाना है

यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।

 

रही नहीं यहाँ की मिट्टी भी सुरक्षित

कर दिया इन्होने इसे भी प्रदूषित

क्या नदियां क्या तालों की कथाएँ

भर रही है ये सभी आज आहें

चैन पाओगे क्या तुम मरने के बाद मिलकर इसमे

आप सभी से यह सवाल फिर दुबारा है

यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।

 

Saturday 3 February 2024

महारानी का रहस्य

 


महारानी का रहस्य

लेखक : हरिमोहन झा  अनुवादक: प्रणव झा

 

उस दिन बरसात झमाझम हो रही थी। मैं क्लब मे बैठकर चाय पी रहा था। मित्र लोग ताश-सतरंज खेल कर अपने अपने घर चले गए थे। अकेले मे समय काटना बोरियत भरा जान पड़ता था। तबतक देखता हूँ कि मधुकर जी तेज कदमों से चलते हुए आ रहे हैं।

मधुकरजी रंगीन व्यक्ति हैं। ऐसे ऐसे गुलाबी गप्प छोड़ते हैं कि सुनने वालों को रस मिल जाता है। इसलिए आज इतने दिनों के बाद मधुकर जी को देखकर मन उल्लासित हो उठा । बोला – आइए, आइए मधुकर जी। अच्छे समय पर आए हैं। चाय पीजिए।

मधुकरजी अपने टोप और बरसाती खूटी पर टाँग कर, चाय के मेज पर बैठे। मैंने कहा – अहा! आज कितने दिनों पर आपको देखा है! आप तो आसाम मे रहते थे? देश कब आए?

मधुकरजी अपना रेशमी रूमाल निकालकर सुनहले चश्मा  का सीसा साफ करते हुए बोले  - यही महीना-दो महीना हुआ है। अब फिर वहाँ जाऊंगा भी नहीं।

मैंने कहा – ऐसा क्यूँ? आपको तो सुना था कि राजा साहब हद से ज्यादा चाहते हैं। शरीर भी पहले लाल बूंद था अब एकदम से सधा हुआ लग रहा है। बात क्या है?

मधुकरजी मेरे हमउम्र साथी जैसे थे। उम्र मे दो-चार वर्ष बड़े थे , तथापि मित्रवत ही बातें होती थी। उतना धाख नहीं रहता था।

मधुकरजी इधर-उधर देखे, फिर धीमे-धीमे बोले – मेरे शरीर को समझो की वहाँ महारानी जी बर्बाद कर दी।

मैं भी कुछ-कुछ रसिक व्यक्ति। उस समय का नवयुवक। यह बात सुनकर ऐसा कौतूहल जागा कि चाय की प्याली हाथ ही मे रह गई । पूछा, वो क्या मधुकर जी? जरा खुल कर बताइए।

मधुकरजी चाय की चुसकी लेते हुए बोले केवल चाय ही है या और भी कुछ मंगवाओगे?

मैंने कहा – तुरंत मँगवाता हूँ। घंटी बजाते ही बैरा आया। मैंने कहा - चौप, कटलेट, आमलेट वगैरह जो कुछ हो , ले आओ

मधुकरजी अब सुभ्यस्त होकर बैठ गए तुम तो जानते ही हो कि मैं राजा साहब के खास मोसाहेब मे से था शिकार खेलने मे मेरा ही बन्दुक सबसे आगे रहता था परन्तु `` ` ` `परन्तु क्या कहूँ ? सब कर्म की बात होती है। वहाँ पर महारानी मुझे परेशान कर दी।

मेरे मन मे गुदगुदी उठने लगा। बोला – जरा स्पष्टता से कहिए ना? वहाँ की महारानी को आपसे क्या कार्य?

वो बोले - अरे ! यह मत पूछो। वो किसे छोड़ती हैं? मेरे जैसे कितने ही मोसाहेब वहाँ से भाग आए हैं।

मैं चकित होते हुए पूछा – आपको कैसे भागा हुआ ?

मधुकर जी कहने लगे अरे बाबू, एक रात मैं अपने डेरा पर सोया हुआ था। गर्मी का समय था। दरवाजा खुला ही छोड़ दिया। सनसन हवा चल रही थी वो खुले बदन मे अच्छा लग रहा था। पुरबइया के लहर मे जो आँख लगा सो बेसुध होकर सो गया। जब आधी रात को नींद खुला तो देखता हूँ कि महारानी जी छाती पर सवार हैं।

तबतक बेयरा आकर मेज पर ढेर लगा दिया। जब वो चला गया तब मधुकर जी चौप मे काँटा गड़ाते हुए बोले – अरे जी, मैं तो थरथर काँपने लगा । छाती धकधक करने लगा । मुँह से आवाज नहीं निकाल रहा था। पहले कभी ऐसा अनुभव था नहीं। मैं डर से सकदम हो गया था। देखा कि दरवाजा खुला रहने देना उचित नहीं था । अंदर से बंद कर दिया। बल्कि सारी खिड़कियाँ भी बंद कर दिया।

शर्म से मेरा शरीर कंपित होने लगा। तथापि चिपक कर पूछा – वो कितने देर तक रही ?

मधुकरजी नमक-काली मिर्च का चूर्ण मिलाते हुए धीमे-धीमे बोले – वो रात भर रहीं। उषा पहर मे जाकर जान छोड़ी। वो गई तब जाकर मुझे होश आया। तब तक तो मैं पसीना पसीना हो गया था। रात भर का टूटा हुआ शरीर। इतनी शक्ति भी नहीं जान पड़ रहा था कि उठकर धोती भी पहन सकूँ। प्यास से गला सूख रहा था, परंतु इतना पस्त था कि पानी लेकर पी नहीं हो रहा था। दर्पण मे देखा तो होठ ऐसा लग रहा था जैसे सारा रस किसी ने चूस लिया हो। उस दिन मैं घर से बाहर भी नहीं निकाला।

मेरे मुँह से निकाला - बाप रे बाप ! ऐसी जबरदस्त......

मधुकरजी प्याज के कतरे मे सिरका मिलाते हुए बोले अरे , जबरदस्त क्या जबरदस्त जैसा! लोगों को खिलवा-खिलवा कर मारती हैं।

मैंने पूछा – उनको पछाड़ने वाला कोई नहीं है?

मधुकर जी बोले किससे बाप मे दम है? वो जिसपर लगती हैं उसे पानी पिलाकर छोड़ती हैं। शरीर का सारा सत्व खींचकर लुग्दी बना देती है।

मैंने कहा - परन्तु राजा साहेब ` ` `

मधुकरजी बोले - राजा साहेब तो स्वयं ही उनके डर से बचे फिरते हैं। जहाँ एकबार महारानी पकड़ती हैं तो 'बाप-बाप' करने लगते हैं। ऐसे न पटकती हैं कि उठा नहीं जाता है।

मैं खामोश हो गया। मधुकरजी कटलेट काटते हुए बोले तुम्हें आश्चर्य होता है। तब उस देश मे जाकर स्वयं देख आओ। यदि वो महारानी पीछे लगी तो फिर जल्दी छुटकारा नहीं मिलेगा। वो बड़े बड़े पहलवानों का तोंद पिघला देती हैं।

मैं क्षुब्ध होते हुए बोला – फिर तो उनको राक्षसी समझना चाहिए। नहीं , ऐसे देश मे नहीं जाना चाहिए।

मधुकरजी आमलेट कुतरते हुए बोले इसीलिए तो मैं वहाँ से भाग आया हूँ। नहीं तो मुझे किस बात की कमी थी? दूध, दही, घी, मलाइ जितना जो खाए, सबकुछ दरबार से मिल जाता था। किन्तु वो सारा सोंख लिया जाता था। क्योंकि महारानी प्रतिदिन रात को पहुँच जाती थी।

मैंने पूछा – आप दरवाजा क्यों नहीं बंद कर लेते थे?

वो बोले – धत्त पागल! वो महारानी दरवाजा बंद करने से मानने वाली थी? तुम बच्चे की तरह बात कर रहे हो।

मैं जरा सा संकुचित होते हुए पूछा – वो कितने दिनों तक आती रहीं ?

मधुकरजी आमलेट समाप्त करते हुए बोले – कोई मिठाई नहीं मंगाओगे

मैंने तुरन्त घंटी बजाया बेयरा आया मैंने कहा - बढ़ियाँ-बढ़ियाँ मिठाई ले आओ

मधुकरजी निर्विकार भाव से पुनः अपनी कहानी कहने लगे - करीब छः महीने तक वो आती रही। पहले तो ठीक बारह बजे आती थी। मैं घड़ी देखकर समझ जाता था कि अब वो आएंगी। किन्तु आगे चलकर कोई नियम नहीं रहा। एक ही दिन मे दो दो बार आने लगीं। मैंने लाख यत्न किए उन्होने मुझे नहीं छोड़ा। जब एकदम से घिसने लगा तब एक दिन अवसर पाकर चुपचाप खिसक लिया। अब कान पकड़ता हूँ कि फिर वहाँ जाने का नाम लूँगा।

तब तक मेज पर रसगुल्ला, क्रीम-चॉप , रसमलाइ और आइसक्रीम का ढेर लग गया। मधुकर जी उसी मे डूब गए!

मैं थोड़ा शर्माते हुए पूछा – मधुकर जी एक बात पूछूं? महारानी की उम्र क्या होगी?

मधुकरजी अन्तिम रसगुल्ला मुँह मे देते हुए विस्फारित नेत्र से मेरा चेहरा देखने लगे। बोले - इसका अर्थ नहीं समझ आया तुम्हारा आशय क्या है ?

मैंने कहा – यही पुछना चाहता हूँ कि रानी साहिबा कितने वर्ष की होंगी?

मधुकरजी अट्टहास करते हुए हँस पड़े। इतने जोड़ों से मेज पर हाथ पटके की प्लेट सब झनझना उठा। पुनः बोले – तुमने क्या से क्या समझ लिया ! रानी साहिबा को तो मैंने कभी देखा भी नहीं है। वो क्या साधारण लोगों के सामने आती हैं?

मैं विस्मित होते हुए पूछा – तब आप इतनी देर से जो महारानी के बारे मे कहते आए हैं ?

मधुकरजी पुनः अट्टहास करते हुए बोले - अरे बुद्धिनिधान! वो मलेरिया महारानी हैं। जैसी कमला-कोशी क्षेत्रमे, वैसी ही आसाम मे। अपितु उससे भी ज्यादा। इतना भी समझ मे नहीं आया?

मैं अवाक रह गया। बोला – तब आप इतनी सारी बातें बनाकर क्यों कही कि वो चुपचाप पहुँच जाती थी, पस्त कर देती थी, पानी पिलाकर छोड़ती थी, घाम-पसीने से तर कर देती थी।

मधुकरजी तौलिया से हाथ पोछते हुए बोले तो इसमे झूठ क्या कहा ? मलेरिया मे तो यह सब होता ही है।

मैंने कहा – किन्तु आपने तो और भी बहुत सारी बातें कही हैं।

मधुकरजी सौंफ चबाते हुए बोले मैंने एक भी बात ऐसी नहीं कही है जो मलेरिया महारानी के विषय मे न हो। तुम मिला कर देख लो।

मैंने कहा -धन्य हैं, मधुकरजी! आपने तो गोनूझा वाला काम किया। पहले ही सीधे सीधे मलेरिया का नाम क्यों नहीं कह दिए?

मधुकरजी बोले हमैं क्या जानता था कि तुम साहित्य का विद्यार्थी होकर इतना अलंकार भी नहीं समझोगे?  परन्तु जी! तुम  लक्ष्यार्थ नहीं समझे वह एक प्रकार से अच्छा ही हुआ।

मैं पुनः मुँह देखते हुए पूछा – वो क्यों?

मधुकरजी जरा मुसकुराते हुए बोले – देख रहे हो न? उन्ही महारानी की कृपा से इतने सारे प्लेटों का ढेर यहाँ लगा हुआ है । यदि सीधे सीधे मलेरिया कह दिए रहते तो क्या तुम इतनी सामग्री मँगवाते?

यह कहकर मधुकर जी एक बार तृप्तिसूचक डकार किए और तदुपरान्त अपना बरसाती और टोप उठाकर, मुझे धन्यवाद देते हुए विदा हो गए।