Friday 25 November 2022

"कजोमा घाट" पुस्तक समीक्षा

 

महेश भारती के उपन्यास “कजोमा घाट” की सबसे पहले ध्यान आकृष्ट कर प्रभावित करनेवाली दो चीजें हैं किताब का शीर्षक एवं इसका कवर पेज। ये दोनों प्रथमद्रष्टाया ही पाठक का ध्यान खींचने मे कामयाब होती है और पाठक को पुस्तक पढ़ने की ओर प्रेरित करने वाली है। “कजोमा” उत्तर बिहार का एक आंचलिक शब्द है जिसका अर्थ है सुंदर कन्या। शीर्षक से ही मेल खाता किताब का कवर पेज है जो पाठक मे एक रहस्यमय जिज्ञासा पैदा करता है। यद्यपि किताब मे कवर पेज बननेवाले का नाम नहीं दिया गया है पर मुझे लगता है कि उस कुचीकार का नाम भी पुस्तक मे होना चाहिए।

 

“कजोमा घाट” गंडक के कछार मे बसे उत्तर बिहार के इसी भूभाग की डेढ़ सौ साल पुरानी एक कहानी है जिसमे तत्कालीन ग्रामीण, सामाजिक, आर्थिक और मानवीय व्यवस्थाओं को बहुत प्रभावी ढंग से दिखाया गया है और पाठक को स्वतः ही भूतकाल के परिवेश की सैर करवाता है। कथानक एवं पात्रों को गढ़ने मे महेश जी ने निश्चय ही अपने कल्पनाशीलता के साथ साथ अपने बुजुर्गों और पूर्वजों से सुने अनुभवों और दंत कथाओं का बहुत ही समावेशी संयोजन किया है।

यद्यपि कथा अंग्रेजों के जमाने का है किन्तु इसे कहीं से भी स्वतन्त्रता आंदोलन या राष्ट्रवाद आदि के चश्मे मे नहीं फिट किया जा सकता है। यह कहानी पूर्ण रुपेन तत्कालीन आम लोगों के जीवन और जद्दोजहद को दिखाता है। यह तत्कालीन समाज के जातिगत व्यवस्था और उससे जुड़े रोजगार और अर्थवयवस्था के ढांचा को भी बखूबी उकेड़ता है। कहानी मे अंग्रेजों के नील कोठी विकसित करने और जमींदारों से संघर्ष और संधि कथा की भी झलक मिलती है।

कहानी के केंद्र मे चार-पाँच पात्र हैं – कजोमा, उसकी बहन अरहुलिया, युवा अंग्रेज़ अधिकारी मैकफर्सन,कजोमा की माँ पंसारन और राजा से साधू बने धर्म सिंह।

कहानी मे लेखक ने मानवीय संवेदनाओं, प्रेम खासकर यौवन के दहलीज पर हो जानेवाले निश्चच्छल प्रेम को भी खूब दर्शाया है। कजोमा और अरहुलिया को यह जानते हुए भी की मैक एक विधर्मी है एक शासक देश का आला अफसर है और उन दोनों का कहीं मेल नहीं है तथापि वो उससे प्यार कर बैठती है, इतना ही नहीं बल्कि अपनी माँ के सामने इसकी स्वीकारोक्ति मे भी उन्हे कोई झिझक नहीं होता। यद्यपि ये प्रेम भावना लगभग 70-75% कहानी तक बस नैनों और इशारों की भाषाओं मे ही होती है और कहानी के 3 चौथाई बीत जाने के बाद ही उनका पहला संवाद होता है। उधर मैक का उन बहनों के प्रति प्रेम और झुकाव एक सामान्य पाठक को इस ओर सोचने को प्रेरित करता है कि उस वक्त के किसी अंग्रेज़ अफसर की ऐसी भी कहानी हो सकती है जिसमे उसका भावनात्मक जुड़ाव किसी गाँव के एक साधारण हिंदुस्तानी से भी हो सकता है और वो उसके प्रेमपाश मे भी बांध सकता है! क्योंकि एक आम पाठक तो अपने अकादमिक या अन्य पुस्तकों द्वारा गुलामी काल मे बस अंग्रेजों के साथ हिंदुस्तानियों के संघर्ष अथवा गुलामी के ही प्रसंग पढ़ा सुना है।

पंसारन के संघर्ष द्वारा लेखक ने तत्कालीन समाज मे एक विधवा स्त्री के संघर्ष गाथा को भी खूब उकेड़ा है, साथ ही तत्कालीन ग्रामीण समाज व्यवस्था के तानेबाने को भी साझा किया है जब किसी अबला के संघर्ष मे गाँव वाले उसके प्रति एक सहयोगात्मक रवैया अपनाते थे। किन्तु ऐसे स्थिति मे कई बार ऐसे परिवार को एक अनचाहा गरजियनशिप भी मिल जाता है यह कजोमा और अरहुलिया की स्थिति को लेकर पंसारन और कंटीर झा के बीच हुए संवाद से समझा जा सकता है। खुद कंटीर झा जो एक गार्जियन के रूप मे कजोमा और अरहुलिया को मैक से दूर रखने की बात करते हैं (उसके विधर्मी होने के कारण) वही समय आने पर गाँव की सुरक्षा के दृष्टिकोण से संधि हेतु उन्हे मैक और जमींदार के बीच संवाद के माध्यम के रूप मे तैयार करते हैं। वहीं अंग्रेजों के द्वारा परास्त बाबा धर्मसिंह दोनों बहनों को आशीर्वाद देते हुए सरस्वती और लक्ष्मी कहने से नहीं चूकते किन्तु अंतत: उनका मैक के साथ भी उन्हे गवारा नहीं लगता क्योंकि वो अंग्रेजों के साथ गाँववालों का संघर्ष चाहते हैं किन्तु इन बहनों के करण यह संघर्ष संधि मे बादल जाता है। और जिस कारण से अंततः कजोमा का दुखांत होता है।

कुल मिलाकर यह कहानी आपको कुछ डेढ़ सौ साल पहले के एक आंचलिक इतिहास मे झाँकने का अवसर देता है। यदि आप किसी ऐसे ही गाँव से जुड़े हैं तो आपको अपने गाँव के पूर्वजों की झलक सी भी इसमे मिल सकती है। जिस तरह से लेखक कहानी का अंत करते हैं, मेरे जैसे पाठकों के मन मे एक जिज्ञासा, एक सवाल भी छोड़ जाते हैं कि क्या इस कहानी के मुख्य पत्रों का किसी वास्तविक लोगों से संबंध था। क्या कहानी मे जिक्र गांवो, स्थानो और घटनाओं का सच मे किसी से संबंध था क्या। क्या सच मे कहीं गंडक किनारे आज भी कोई कजोमा घाट है क्या?  कहानी की पटकथा,पात्र और कथानक ऐसी है कि इसपर मैथिली या मोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषा मे एक बढ़िया फिल्म अथवा वेब सीरीज का निर्माण किया जा सकता है।  

किताब मे लेखक महेश भारती ने आंचलिक शब्दों का खूब प्रयोग किया है, जो यदि आप इस क्षेत्र से हैं तो आपको और अधिक जोड़ती है अन्यथा एक हिन्दी के पाठक के रूप मे आपको नए नए आंचलिक शब्दों से परिचय कराती है। इस प्रयोग ने किताब पढ़ते हुए मुझे बरबस ही बाबा नागार्जुन और फ़नीश्वरनाथ रेणु की याद दिला गया जो अपने आंचलिक कथाओं के लिए खूब जाने जाते हैं। यद्यपि कथा के बीच मे यह तार बहुत बार टूटता भी है जब पापा,पिताजी, मैडम ... जैसे आधुनिक शब्दों का प्रयोग कहानी के बीच देखने को मिल जाता है, जो कि एक संपादकीय त्रुटि है और मुझे लगता है कि ग्रामीणों के संवाद और कहानी को नैरेट करते समय इन शब्दों से बचना चाहिए था। इसी तरह कहीं कहीं कहानी अपनी निरंतरता खो बैठता है, जिसे जोड़ने की जरूरत है। मसलन कजोमा के पिता के मृत्यु के बाद पंसारन बहुत गरीब हो जाती है। फिर अचानक से ही कहीं कहानी के बीच उसे अमीर दिखाया जाने लगता है। निश्चय ही अपने संघर्ष से वो समय के साथ अपनी गरीबी से जीत गई होगी, किन्तु कहानी मे इसे चरणबद्ध अथवा नैरेशन के साथ अंकित करना चाहिए था।  मुझे लगता है कि अगले संस्करण मे इन कमियों को दूर किया जा सकता है।

महेश भारती बेगुसराय जिले के स्वतंत्र प्रत्रकार और पर्यावरणविद रहे हैं तथा इस प्रांत के इतिहास, वर्तमान, राजनीति एव पर्यावरण तथा वन्यजीवों के विषय मे लंबे समय से लिखते रहे हैं। लेखक से मेरा भी साक्षिप्त परिचय रहा है तथा यदा-कदा मिलना होता रहता है। महेश जी को उनके इस कृति के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।