Friday 29 December 2023

दिसंबर 2023 माह के कुछ मुक्तक



तुम्हारा प्रेम आलिंगन समर के बीच कैसा है

सृजन के मध्य मे बोए प्रलय के बीज जैसा है

न् जाने कौन सा पल था तुम्हे दिल हार बैठा मैं

विजय को छू के भी खुद को ही अब संहार बैठा मैं।


भटकता हूँ कभी दर दर, कभी बुत बन के बैठा हूँ

समर की आग के लपटों मे मैं तपकर के ऐंठा हूँ

तुम्हारे राह मे उड़ते हुए धूलों को बैठा दूँ

वरुण के तीर मे बैठे हुए मैं नीर जैसा हूँ ।


बहुत दुर्धर्ष है संग्राम, बता अंजाम क्या होगा

हमारे और तेरे प्रेम का परिणाम क्या होगा

की घर आओगी तुम मेरे कभी रुक्मिणी बनकर

पुकारेंगे मुझे मोहन, तेरा  राधा  नाम या होगा।


प्रणय की वेदना के स्वर का झंकार कैसा हो

प्रलय गाण्डीव से निकले हुए टंकार जैसा हो 

करुण उर के स्पंदन से निकलती राग की लहरें

स्वयं वागीश्वरी वीणा के कंपित तार जैसा हो


नवल होकर उदित होंगे रवि, संसार कहता है

समेटो खुशियाँ पैसों से यही बाज़ार कहता है

नए इस वर्ष मे कुछ भी नया होगा सही मे क्या ?

मगज़ फिर से क्यूँ ऐसे प्रश्न के बौछार करता है!

"रेल का झगड़ा" लेखक : हरिमोहन झा अनुवाद : प्रणव झा

 

पहला दृश्य

[स्थान: स्टेशन का प्लैटफार्म, एक प्रौढ़ा महिला सेकेंड क्लासक महिला डब्बामे चढ़ना चाहती है, उधर रेल के भीतर से एक नवयुवती दरवाजा घेर कर खड़ी हो जाती है, प्रौढा के पीछे पीछे कुली सर पर बक्सा, बिछावन लिए लिए किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है तबतक घंटी बज जाती है। ]

नवयुवती-इसमे जगह नहीं है। आगे बढ़िए

प्रौढाआगे कहाँ बढ़े ? गाड़ी छूट रही है (कुली से) सामान भीतर रखो। [कुली फुर्त्तीसे भीतर सामान रख देता है। महिला किसी प्रकार से चढ़ जाती है तबतक गाड़ी चलाने लगती है अब प्रौढा और तरुणीमे झगड़ा फंस जाता है। ]

प्रौढा-थोड़ा सरक कर बैठिए।

तरुणी-मैं जरा भी नहीं हिलुंगी

प्रौ०-तो आप ऐसे फैल के क्यूँ बैठे हो ?

त०- हाँ, मैं चार धूर मे फैल कर बैठूँगी। आप कौन रोकनेवाले हैं। माँ आप भी ऐसे ही अटक कर बैठे रहो।

वृद्धा मां- अरी! जरा इनको भी बैठने दो थोड़ा कसमकस ही होगा तो क्या होगा ?

त०-ये तो नहीं होगा। मैंने पहले ही मना कर दिया था। अब खड़े खड़े ही जाएंगी।

प्रौ०-सो क्या मेरे पास टिकट नहीं है? ये गाड़ी कहीं आपका खरीदा तो नहीं है

त०-इस बर्थ पर : लोगों के बैठने की जगह है और छः लोग पहले से ही बैठे हैं। अब एक और आपको बैठकर मैं अपना बदन नहीं छिलवाउंगी।

प्रौ०-इतना ही सुकमारि थी तो रिजर्व क्यूँ नहीं करावा ली !

त०-ये पुछने वाली आप कौन? मैं आपको बैठने नहीं दूँगी।

प्रौ०-आपका चश्मा-घड़ी देखनकर तो लोग डर नहीं जाएंगे।

त०-तो फिर आपका मटरदना और बघमूहाँ देख  कर लोग  जगह नहीं दे देंगे। बहुत अमीर हैं तो अपने घर।

वृ०-अरे! झगड़ा क्यों करती हो ? थोड़ा बैठने दोगी तो क्या होगा ?

त०-ये तो  हर्गिज नहीं हो सकता है ये इसपर बैठ नहीं सकती है

प्रौ०-आप मुझे बैठने नहीं दोगी? तब मैं देखती हूँ आप कैसे रोकती हैं?

त०-तब मैं भी देखती हूँ कि आप कैसे बैठती हैं।

प्रौ०-(बैठते हुए )-तो लीजिए मैं बैठ गई

त०-(तमक कर धक्का मारते हुये) खबरदार! आप मेरे गोद मे बैठोगे?

प्रौ०-(पुनः बैठते हुए)-मैं आपके गोद मे क्यूँ बैठूँगी? आप मेरे गोद मे बैठने योग्य हैं।

त०-शट्प! आप जानती हो मैं कौन हूँ ?

प्रौ०-कोई भी हो ? बहुत रुआब हो तो अपने नौकर पर झाड़ना दो अक्षर अङ्ग्रेज़ी बोलना गया है तो आदमी को आदमी नहीं समझ रही हो?

त०-तब मैं अङ्ग्रेज़ी से भेंट करवा दूँ। उठिए यहाँ से गेट्प। (हाथ पकड़ कर  उठाने लगती है)

प्रौ०-आप एक बाप की बेटी हैं तो उठाओ मुझे यहाँ से

(दोनों मे हाथापाई हो जाता हैछरहरी बदन की तरुणी बारंबार हटाने का प्रयत्न करती है , परंतु स्थूलकाय प्रौढ़ा जबर्दस्ती बैठी रह जाती है। इस संघर्षमे प्रौढा का मटरदाना टूट जाता है  और तरुणी की चोली मसक जाती है। दोनों क्रोध से हाँफ रही है)

[अचानक से तरुणी की  वृद्धा माता बेटी का  पक्ष लेकर लड़ाइ मे सम्मिलित होती है। ]

वृ०-(प्रौढ से) अरी ससुरी। तुम मेरी बेटी से मल्लयुद्ध करोगी? लोटा मारकर सर फोड़ दूँगी।

[यह कहते हुए बूढ़ी लोटा लेकर प्रौढा पर छुटती है सभी लोग 'हाँ हाँ' करते है। प्रौढा उठाकर खड़ी हो जाती है और  एक किनारे मुँह करके खिड़की पर नजरे टिकाई रहती है तरुणी दूसरे ओर मुँह फेरे बैठी है   गाड़ी स्पीड मे जा रही है।]

दूसरा दृश्य

[स्थान - पहलेजा घाट का प्लेटफार्म - गाड़ी खड़ी है ]

(एक युवक का प्रवेश)

युवक - माँ, उतारो घाट गया

प्रौ०हाँ कुली को बोलो सामान उतारेगा

(कुली के साथ दोनों लोगों का प्रस्थान)

प्रौ० - अरे बाबू, तुमने ऐसे महिला डब्बा मे मुझे चढ़ा दिया था कि सब दशा हो गया।

यु०- वो क्या माँ ?

प्रौ०अरे, ऐसी हड़ाशंखनी औरत एक उसमे थी जो किसी भी प्रकार से चढ़ने ही नहीं दे रही थी। आखिर नहीं ही बैठने दी

युवककोई हुक्का वाली देहाती औरत होगी। कोई कोई भारी बदजात होती है।

प्रौ०नहीं, सो तो पढ़ी-लिखी लड़की थी। गोरी-चिट्टी रेशमी साड़ी मे दमकती हुई। किन्तु आखिरी श्रेणी की बदमाश। एक-एक अंग चमक रहा था। लगी मेरे पर ऐस-तैश झाड़ने। अङ्ग्रेज़ी जानती थी।

यु०कोई-कोई अङ्ग्रेज़ी वाली नंबरी शैतान होती है। लेकिन उनके गीदड़भभकी से नहीं डरना चाहिए। अरे! ये मटरदाना कैसे टूट गया?

प्रौ० - अरे ! वही खींचातानी करने लगी उसी मे टूट गया।

यु०तो फिर तुमने भी दो मुक्का ऊपर से क्यूँ नहीं लगाया?

प्रौ०वो तो मैंने भी दो चार  घुरमेच ऐसा दिया कि लड़किया को बुझाया होगा। वो तिलमिला कर मेरा जूड़ा पकड़ लिया। फिर मैंने भी कस के पकड़ी उसकी चोटी। जौं बुढ़िया बीच मे नहीं पड़ती तो मैं लड़किया को पानी पिला कर छोड़ती। सारा अङ्ग्रेज़ी निकाल जाता। किन्तु वृद्धा के आगे मैं क्या कहती। चुपचाप उठ गई।

यु०-(रोषा करते हुए) कहाँ है लड़की? जरा देखूँ कि कितना शान है ?

प्रौ०-नहीं,नहीं जाने दो। जो हो गया सो हो गया  जाय दहौक। जे भऽ गेलैक से भऽ गेलैक। रेलमे एहिना भऽ जाइ छैक।

तीसरा दृश्य

[स्थान : घाट का प्लैटफार्म-महिला डब्बा के सामने एक युवक का प्रवेश ]

युवक-नीलम! अब उतरती क्यूँ नहीं हो?

नीलम-उतरती हूँ भैया ! (अटैची हाथमे लिए, चोटी ठीक करते, चश्मा उतार कर पोछते हुए  ओह! आज गाड़ीमे ऐसा महाभारत मच गया कि अभी तक हाँफ रही हूँ।)

यु०-सो क्या?

नी०-हाजीपुरमे एक ऐसी बदमाश औरत चढ़ गई जो सीट के लिए मेरे से झोंटाझोंटी करने लगी। देखिए , मेरा केश पर्यन्त नोच ली है।

यु०-मुझे क्यूँ नहीं पुकारा?

नी०-तबतक गाड़ी चलाने लगी थी

यु०-तो चेन खींच लेती।

नी०-उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। उसके गले का चेन खींचने से ही काम चल गया

यु०- तुमको तो कुछ नहीं की?

नी०-मोटी  भारी गब्बर थी। ऐसी हाथापाई की कि मेरे रेशमी कपड़े को मसका दी

यु०- लगाई क्यूँ नहीं दो घूंसा?

नी०- सो तो गरदन और छाती मे ऐसा खरोंचे हैं कि औरतिया को अभी तक भभक रहा होगा।

वृद्धा माता-क्या?  उस छुच्छी के बारे मे कह रही हो? अरे वो धोंछी तो ऐसे इसकी गर्दन दबोची थी कि बाबू हक्कबक हो गई थी जब मैं लोटा लेकर मारने दौड़ी तब औरतिया इसकी जान छोड़ी।

यु०-(आस्तीन चढ़ाते हुए) कहाँ गई वो? जरा दिखा तो दो।

वृ०-क्या करोगे? जाने दो गाड़ीमे ऐसे ही हो जाता है। और समझो तो लगाया इसी दैया का है। जरा बैठने ही देती तो क्या हो जाता ? सो ये ततैया की तरह नाचने लगी।

नी०-मुझे तो उसपर इतना क्रोध है कि कहीं पाई तो मुँह नोच लूँ।

वृ०- उससे नहीं जीतोगी। तुमसे दोगुना है। उससे बच के रहना। कहीं फिर गंगा किनारे मुठभेड़ हो जाए। वो भी ग्रहण-स्नान करने आई होगी।

नी०-माय! सो मत समझो। मैं एन० सी० सी० वाली लड़की हूँ। खुलता मैदानमे लड़ने का हाल जानती हूँ। अब मेरे से लगी तो सारा मोटापा सिकोर दूँगी।

चौथा दृश्य

[स्थान : गंगा किनारा। युवक, वृद्धा और तरुणी का प्रवेश ]

युवक-माय, जुलुम हो गया।

वृ०-सो क्या? बौआ!

यु०-अब कुछ मत  पूछ। यहाँ आना  व्यर्थ हो गया। अब सीधे लौट चलो।

वृ०-अरे बाबू, जरा समझा कर कहो।

यु०- तब सुन लो। जिस औरत को आपलोग मिल कर मारे हैं वो मिसर की माँ हैं।

वृ०-हे माता हे माता! अब क्या उपाय हो?

यु०- यह तो पहले ही विचार करना चाहिए था! जब  मिसर की माँ को कन्या निरीक्षण हेतु  बुलाई थी तो यह ध्यान रखना था कि किसी अनजाने महिला से झगड़ा नहीं ठानना।

वृ०-हे दैव! मिसर की माँ हैं! अब क्या उपाय होगा?

यु०-अब उपाय क्या होगा? जब वो देखेंगी कि यही लड़ाकू लड़की वधू है और वर जानेंगे कि यही वधू मेरी माँ से इतना झोंटाझोटी की....

वृ०-(रोती-विलपती) हे दैव! किस यात्रा मे चली थी सो नहीं जाने।

नी०-तुम ऐसे रोती हो? संसार मे दूसरा घर-वर नहीं मिलेगा क्या? जाओ, मैं विवाह ही नहीं करूंगी।

वृ०-सुनो इसकी बात। लड़की, ज्यादा पटर-पटर मत करो, तुम जैसी सुलच्छीनी जिस घर मे ....

यु०-माँ! इसी को क्यूँ ताने दे रही हो? तुम भी तो लोटा लेकर सर फोड़ने लगी थी पहले ही समधी-मिलान कर ली

वृ०- अरे, कर्म बिगड़ता है तो ऐसा ही होता है। कितने ही जुगाड़ से तो ये रिस्ता पटा था, और जिसका ही खुशामद-विनती करने आए थे उसी को लोहा दाग दिए। अब कौन सा मुँह दिखाएंगे?

यु०-अंधेरे मे क्या तुम लोगों को अच्छे से देखी होगी? हो सकता है कि नहीं भी पहचाने।

वृ०-भला कहो तो। इतना सारा गुत्थीमगुत्थी हुआ, और मुँह नहि देखी होगी! वो कहते हैं कि सारा प्रयोग हो गया, और बहुरिया का पद रखा ही है!

यु०- तब तो इतने दिनों का कियाधरा सब व्यर्थ!

वृ०-बाबू, बहन को और अङ्ग्रेज़ी पढ़ाओ। दो अक्षर और पढ़ लेती तो अब दूसरी बार वर की चुटिया पकड़ कर गाड़ी से बाहर धक्का दे देती।

नी०- माँ, तुम ऐसे मत बोलो। मैंने क्या जानबूझकर ऐसा किया था?

यु०- मेरे ध्यान मे भी नहीं आया कि मिसर पटोरी लाइन से आकार इस ट्रेनमे चढ सकते हैं। जौं गाड़ी से  उतर कर देख लेता तो यह अनर्थ नहीं होता

वृ०-ऐसा आज तक कहीं नहीं हुआ होगा। अरे बाबू, मुझे तो फूट-फूट कर रोने का मन कर रहा है।

यु०-अब रोने का कोई फल नहीं। वो लोग जबतक आएंगे उससे पहले ही डेरा-डंडा कूच कर बिदा हो जाना चाहिए। यह बात ढंका हुआ ही रह जाए सो अच्छा। मोटा-चोटा तैयार करो।

पञ्चम दृश्य

[मधुकान्त एवं उनके माँ का  प्रवेश ]

मधुकान्त-माँ! गंगामाइ बहुत रक्ष रखीं।

माय-सो क्या?

म०-वही तिलबिखनी लड़की आपके घरमे वधू बन आती सो भगवान पहले ही परिचय करा दिए।

मा०-दैया रे दैया! तुम्हें कैसे पता चला?

म०-काशीनाथ को मैंने अलग से ही देख लिया। साथ मे एक चश्मावाली लड़की, और पीछे-पीछे बूढि माँ। वही दोनों तुम्हारी उतनी दुर्दशा की

मा०-अरे, सत्य ही कह रहे हो ?

म०-मैंने अपनी आँखों से देखा है। जैसा तुम कह रही हो वैसा ही सारा हुलिया मिल रहा है।

मा०- मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। हो सकता है वैसी ही कोई दूसरी होगी।

म०-ठीक है, फिर अपनी आँखों दे देख लो वो काशीनाथ के पीछे-पीछे स्टेशन की ओर  जा रही है।

मा०-तब देखो! सही मे। वही है। अब क्या करना चाहिए?

क०-करेंगे क्या? लौट चलो (कुली से) अरे, सामान उठाओ।

मा०-हे भगवान्! मैं कितने उमंग से आई थी। ऐसे बैरंग वापस जाने का मन नहीं करता है

म०-तब क्या अब उसके हाथ से मार खाने का मन करता है?

मा०-अरे, जानबूझ कर तो नहीं ही की होगी। वो लोग तो खुद ही शर्म से मरी जा रही होगी। रेल का झगड़ा पराली का आग है।

क०- यह सब कुछ नहीं। अब एक मिनट भी इस जगह ठहरने का प्रयोजन नहीं है। घर जाकर काशीनाथ को सारी बातें लिख देंगेई सभ किच्छु नहि। आब एको मिनट एहिठाम ठहरबाक प्रयोजन नहि। घर जा कऽ हम काशीनाथ कें सब टा बात लिखि देबैन्ह।

(माँ को गाड़ी मे बिठाते हैं)

[उधर से काशीनाथ, नीलम और उनकी माँ भी दूसरे दरवाजे से उसी डब्बे मे चढ़ते हैं। दोनों दल एक दूसरे को देखकर अवाक रह जाते हैं। तरुणी एक तरफ देखने लगती है, प्रौढ़ा उसारी ओर। वृदधा कभी एक तरफ देखती है, कभी दूसरी तरफ। मुँह से कोई शब्द नहीं बाहर हो पता है। मधुकांत इस मौन को भंग करते हैं। ]

मधुकान्त (काशीनाथ से)- आप मेरी माँ को इस प्रकार से बेइज्जत करने हेतु बुलाए थे?

काशीनाथ (अप्रतिभ होते हुए) – अनजानेमे गलती हो गई। हमलोग इसके लिए परम लज्जित हैं।

म०-केवल मैं कहिए। हमलोग क्यों कहते हैं?

वृद्धा-(प्रौढा के पास आकार)-  तो फिर मेरा अपराध भी माफ हो मैं नहीं पहचानी

म०-(प्रोढ़ा से) माँ ! जो असली कसूरवार है वो आप से माफ़ी नहीं मांगेगी। मुझे तो डर है कि फिर कहीं झगड़ा फंस जाए। चलो दूसरे डब्बे मे

तरुणी (वृद्धा से )-माँ! चलो, हमलोग ही दूसरे डब्बे मे चलते हैं। इसमे पूरे रास्ते बकझक होता रहेगा।

वृ०-(तरुणी से)-चुप्प अलगटेंटी यह रिस्ता तो बिगड़ ही गया, अब दूसरे जगह सुनेंगे तो वो भी हड़क जाएंगे। अब रहो जन्म भर कुंवारी!

तरुणी (तमक कर )- माँ ! कुंवारी रहना पाप नहीं है। किन्तु स्वयं को हीन समझना पाप है। मैं अपने अधिकार के लिए लड़ी तो कौन सा अन्याय की? दोनों तरफ से झगड़ा हुआ – हिसाब बराबर हो गयाबात खतम।

तब अब हमही लोग क्यों माफ़ी मांगे? इस लिए शादी हो या हो !

वृ०-(प्रौढा से)- क्या कहें? आजकल की बातें देख कर तो कुछ समझ ही नहीं आता है। अब समधिन कहने का मुँह तो नहीं रहा मैं अपनी बेटी की ओर से माफ़ी मांगती हूँ

[एकाएक प्रौढा के  नेत्रमे एक दूसरे प्रकारक की चमक जाती है जैसे कोई  दिव्यज्योति गई हो ]

प्रौढा(बूढी से)-परन्तु मुझे तो इच्छा है कि आप मुझे समधिन कहें।

बूढी(आश्चर्य से)-ऎं!

प्रौढा-जी। मेरी भी एक ऐसी ही तेजस्वी कन्या थी। जीवित होती तो इतनी ही बड़ी हुई होती। मुझे इस कन्या की आँखों मे उसी का प्रतिबिंब दिख पड़ता है यह बेटी हमे दे दीजिए।

म०- माँ ! आप क्या बोल रहीं हैं?

प्रौ०-बौआ, मैं सही कह रही हूँ। ऐसी तेजस्विनी बेटी मेरे घर मे जाएगी तो समझुंगी कि  साक्षात् दुर्गा गई

त०-(तमक कर) आपको ऐसे व्यंग द्वारा मुझे अपमानित करने का कौन अधिकार है ?

प्रौ०-सास वाला अधिकार। आप बैठने के लिए इनता झगड़ा की थी। अब लो। मैं अपनी गोद मे बैठा लेती हूँ

(वो तरुणी को बाहों मे भर कर अपने गोद मे बैठा लेती है। तरुणी फफक-फफक कर रोने लगती है)

बूढी-धन्य भगवान! आप बहुत बड़े हैं।

म०-माँ!

प्रौ०-हाँ, बौआ! मुझे यह वधू पसंद है बहुत भाग्य से आपको ऐसी रत्न मिल गई है।

म०-परन्तु....

प्रौ०-परन्तु-फरन्तु कुछ नहीं। ऐसी वीरांगना बहू मुझे चाहिए।

म०-ये कौन चक्र घूम गया?

प्रौ०-भगवान का चक्र।

त०-माँ, मेरा अपराध माफ कीजिए।

म०-अब जाकर मुझे संतोष हुआ।

बूढी-धन्य भगवान्! धन्य भगवती! मुझे भरोसा नहीं था। भगवान इसी तरह सबका बिगड़ा बनाएँ। समधिन! मेरा मन हो रहा है कि आपका मुँह अमृत से भर दूँ। मेरा आशीर्वादी लीजिए।

(यह कहते हुए डाली से लड्डू बाहर करते हुए प्रोधा के मुँह मे दे देती है। प्रोढ़ा भी अपने टिफिनबॉक्स मे से रसगुल्ला बाहर करती है।)

प्रौढा(तरुणी के  मुँहमे रसगुल्ला देती हुई)- क्यूँ री? अब तो नहीं मेरे से झगड़ा करेगी। करोगी तो ये होठ मसल दूँगी। (यह कहते हुए तरुणी को होठ से चूम लेती है तरुणी मुस्कुरा कर रह जाती है। )

[गाड़ी सीटी देते हुए विदा हो जाती है]