Friday 29 December 2023

"इसी रास्ते आती है सरसरी धार" लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा

 

(1)

आज से पचास वर्ष बाद। सौराष्ट्र मे सामुदायिक विवाह यज्ञ हो रहा है समावर्त्तन भोज्य के अनन्तर पंचमन्दिर के प्रांगण मे सभा बैठी है। असंख्य नरनारी एकत्रित हैं। एक वृद्ध सौराष्ट्र का इतिहास सुना रहे हैं- '''' इसी प्रकार से 50 वर्ष पूर्व इस सभा बगान मे वरों का बाजार लगता था। हजारों की बोली लगती थी।कन्यादान का अर्थ हो गया था 'बलिदान', जिसमे बकरा बनते थे कन्या के पिता। ....परन्तु एक दिन रक्त का घड़ा भर गया और अभिनव सीता प्रकट हुईं मिथिला के  नारी-समाज मे नव चेतना आ गईवो गंगा की लहर जैसे बढ़ी और उस लहर मे समस्त दलाल, पंजियार और तिलकधारी वर अपने पिता सहित बह कर विलीन हो गए। और उस कलंक को धो पोंछकर सौराष्ट्र की यह पुण्यभूमि यज्ञस्थली बन गई है, जहां प्रतिवर्ष विवाह का यज्ञसमारोह हो रहा है। इस तीर्थस्थान मे यह जो पाँच स्वर्णमंदिर चमक रहे हैं उनमे प्रत्येक का अपना इतिहास है। “ ...

यह सब परिवर्तन कैसे हुआ? देखिए, अतीत का चलचित्र दिखाया जा रहा है।

(2)

पहला रील चला। 1961। सौराठ सभा जमा हुआ हैवटवृक्ष के नीचे वरों का मेला लगा हुआ है। हजारों दरियाँ बिछी हुई हैं, जिसपर हजारों पिता अपने-अपने पुत्र को पहना-ओढा कर बिठाए हुए हैं। लाल-पीला धोती, रेशमी चादर और कुर्ता, सूट और टाई, सभी प्रकार के वेश भूषा से सुसज्जित माल बिक्री हेतु प्रस्तुत हैं। सभी जगह एक ही बात चल रही है। कितने हजार?’ गन्ने के पर्ची की भांति सिद्धान्त की पर्ची काटी जा रही हैं। कन्यागत लोग वैसे ही ग्राहक की भांति तजवीज कर रहे हैं जैसे सीतामढ़ी के हाट मे आए हों। घटक लोग घट की भांति मुँह खोले हुए हैं।

इसी बीच एक बड़ा सीटियों सा शोर उठा। क्या बात है? एक अच्छे घर की स्त्री अपने पति के साथ इस सभा मे पदार्पण की है। चारो ओर से टीका-टिप्पणी की बौछार हो रही थी – बाप रे बाप! ऐसी आश्चर्यजनक बात ? जो कभी नहीं हुआ था। आज तक सौराष्ट्र सभा मे स्त्री के पैर नहीं पड़े थे। ये कौन हैं? क्या करने आई है? यहाँ क्या कोई तमाशा चल रहा है? ... क्या बोल रही है? – बंधुगण ! मैं आप सभी से आँचल फैलाकर भिक्षा मांग रही हूँ ।

.... अरे! यह तो तिलक दहेज पर लेक्चर झाड़ने आई हैऊँह। इनका मुँह देखकर लोग रुपए छोड़ देंगे। बजाओ कस के सिटी! हा हा हा हा.... ही ही ही...हू हू हू...

महिला की आँखों मे आँसू आ गए। एक बूंद टप्प से पृथ्वीपर गिरा। रील खत्म

वृद्ध बोले-गर्म आँसू की वो प्रथम विन्दु क्रान्ति की प्रथम चिंगारी थी! जहां वो गिरि वहाँ एक मंदिर बन गया। ये जो 'अश्रुमोचिनी' भगवती का मन्दिर देख रहे हो वो उन्ही का स्मारक है

(3)

दूसरा रील चला। 1962। इस बार सौराष्ट्र के सभा मे एक झुंड प्रगतिशील महिलाएं आंदोलन करने हेतु तैयार होकर आई थी। वो लोग नारा लगा रही हैं – बिक्री वाले वर, जाएँ अपने घर। जो मांगेंगे हजार वो रहेंगे कुमार। ... जो गिनेंगे, वो रोएँगे। घटक, पंजियार, होएँ होशियार। अब नहीं चलेगा यह रोजगार। 

उधर पंडित समाज मे बहस शुरू होता है – इस जगह पर महिलाओं का क्या काम? ये लोग अपना-अपना चमक दिखाने आई हैं। भला, महिलाओं को पुरुषों की बात मे दखल देने का क्या प्रयोजन? जाएँ, अपने घर का काम देखें। छिनवार लिपें। चूल्हा फूँकें। गोसाउन की पूजा करें। बच्चों को दुग्धपान कराएं। कोकिल कंठ हो तो मल्हार गाएँ। ऐसे चिल्ला क्यूँ रही हैं?’

वरों के बाजार मे शोर मच गया – हमलोग दस हजार लें या बीस हजार लें । उससे इनको क्या मतलब। ग्राहक का गर्दन, सौदागर की तलवार! ये लोग भी तो बेटा जन्माएंगी ही। तब हँसोथ कर ले लें। अभी से ही अपने संतान का हिस्सा क्यों मार रही है? ये सभी गृहलक्ष्मी नहीं दरिद्रा हैं! ना खुद लेगी ना औरों को लेने देगी। हड़ाशंखिनी कहीं की!.... अरे देखिए। इधर ही बढ़ी चली आ रही हैं। ये सभी सत्याग्रह करेंगी क्या? देखो, धरना देने लगी। एक,दो,तीन,चार .... ये जो झुंड के झुंड गोह की तरह लेट गए। जैसे बाबाधाम मे दंडवत करने आए हों।

अब बोच बाबु रुपए की पोटली लेकर किधर से निकलेंगे? चारों ओर से रास्ता घेरा है, बोच बाबू भारी अवग्रह मे पड़े हैं। न ही लेते बन रहा है, न ही छोड़ते। ये लो। आश्चर्य! बोच बाबू रुपए लौटा रहे हैं। सत्याग्रह दल की नायिका उनके सर पर रोली तिलक लगा रही है। .....। परंतु यह क्या ? फटाक! दल नायिका के सर पर किसी ने ईंट फेंक दी। घुले हुए सिंदूर जैसे रक्त की धार टपकने लगी। यह, टप से एक बूंद भूमि पर गिरा। रील खत्म।

वृद्ध बोले – यह क्रान्ति की दूसरी चिंगारी थी। जिस जगह वो रक्तबिन्दु गिरी, वहाँ एक दूसरा मंदिर बन गया। यह जो  'छिन्नमस्ता' भगवती का मंदिर देख रहे हो वो उनही का  स्मारक है

सभागाछी मे खलबली मच गया । कुंवारी लोग लज्जा को घोल कर पी गई, विवाह के लिए उत्तेजित हैं। उन दिनों का अम्ल होता तो कोई राजा एक चुटकी सिंदूर छींटकर सभी को रानीवास मे बंद कर लेते। किन्तु अब तो कोई ऐसा पुरुष नहीं। हे हरिसिंह देव ! हे महादेव झा ! आप लोग कहाँ हैं ?

'अरे यार । तुम जो बोलो, किन्तु ये नवयौवनाओं की फौज खैर लग बहुत शानदार रही है। क्या कहते हो? नवयुवा लोग कंचन से बढ़कर कामिनी को समझते हैं। द्रव्य से अधिक गुण को महत्व देते हैं। कन्या लोगों के तेज से वरों के भाव मे मंदी आ गई है। वो बिना दाम के ही कन्या के गुलाम बन रहे हैं। ये देखो, एक वर अपने पगड़ी-माला तोड़कर उस स्वयंवर के दल मे जा मिला। ये लो दूसरा, तीसरा, चौथा.... कहाँ तक गिनोगे? अब बाप गज भर का थैला सिलवाकर रखे रहें । देखो, उस वर के गले मे एक कन्या माला डाल रही है। नवयौवना सब आरती कर रहीं हैं। तरुणी सब शंख बजा रही हैं।। रील खत्म ।

वृद्ध बोले - जहाँ वो शंख फूंका गया वहाँ तीसरा मंदिर बन गया। वहाँ जो  'तिलकासुरमर्दिनी' का मंदिर देख रहे हो वो उन्ही का स्मारक है

(5)

चौथा रील। 1964 । इस बार की क्रान्ति चिंगारी नहीं अपितु जंगल की आग है। सहसत्रों महिलाएं इस बार सौराठ सभा पर आक्रमण कर दी हैं। गाँव-गाँव से, घर-घर से स्त्रीगण जमा हुई हैं। जो लोग पहले भेड़नी थीं वो लोग भी भेरीनाद कर रही थीं। रणचण्डी दल की सदस्या अद्भुत साहस दिखा रही थी

एक दृश्य देखिए। वर के पिता कनयागत से पैसे गिनवा रहे हैं। चांदी पूरा करते करते कनयागत का चाँद उड़ा जा रहा था। उसी बीच मे चंडीदल से बिजली के समान कन्या आविर्भूत होकर कहती हैं- 'मेरे हेतु गनी, तो मेरा सारा खनी'तबतक कन्या और वर की माँ भी वहाँ आ जाती हैं। । वर की माँ थैली छीनकर  कन्या की माँ के  हाथमे देती हैं और वर का हाथ कन्या के हाथमे। दोनों समधन गले मिलती हैं और दोनों समधी अवाक होकर देखते हैं। नेपथ्य से  जयघोष होती है-'नेहरावालीक जय! दुलारपुरवालीक जय!'

देखते देखते सभा की बागडोर महिलाओं के  हाथमे आ गई! वो लोग समस्त बटुआ, थैली और गज भर की थैली जमा कर होलिकादहन की। देखो, उस आग की लपट मे भर भर के पोथा धू-धू कर जल रही हैं। उस अग्नि को साक्षी माँ सहतरों वर-कन्या का विवाह हो रहा है। रील खत्म।

वृद्ध बोले – जिस स्थान मे ये होलिका दहन हुआ , वहाँ चौथा मंदिर बन गया। ये जो 'ज्वालामुखी' देवी का मंदिर देख रहे हो वो उसी का स्मारक है

(6)

पाँचवाँ रील। 1965। इस बार सभा का दूसरा दृश्य है। असंख्यों नर-नारी साथ हैं। विचार हो रहा है कि सौराठ का कायाकल्प कर सौराष्ट्र बनाया जाए। तिलक-दहेज की प्रथा तो अव उठ ही गया है। परंतु फिर भी समाज मे अनेकों व्यक्ति हैं जो बेटा-बेटी के विवाह के पीछे उजड़ जाते हैं। भार-उपहार और विधि-व्यवहार के हेतु खेत बेचना पड़ता है, इन लोगों के रक्षा हेतु इस जगह पर एक सामुदायिक विवाह यज्ञ की व्यवस्था की जाए। सार्वजनिक चन्दा के से पैसे इकट्ठे कर यह पुण्य कार्य हो ।

देखते-देखते यह प्रस्ताव कार्य रूप मे परिणत हो जाता है। अब सामुदायिक विवाह का दृश्य देखिए। सहसत्रों गाँव के वर-वधू यहाँ पर अपने माता-पिता के साथ उपस्थित हैं। इन लोगों का विवाह हो रहा है। वैदिक विधि से हवन पुरस्सर। परन्तु कोई आडम्बर नहीं। ब्राह्मी रीति से। विद्वान आचार्य पुरोहित बैठे हैं। ओ वेदीपर वर-कन्या से प्रतिज्ञा करवाते हैं – हम सभी मिथिला के आदर्श का पालन करेंगे। मिथिला भारत माता के हृदय स्वरूप हैं। हमलोग उनमे नवीन शक्ति का संचार कर देश को अनुप्राणित करेंगे। जय माँ मिथिले।

इस प्रकार से सहस्रो विवाह संपन्न हो रहे हैं। गीतवाद्य, भोजभात, सभी का प्रबन्ध सामूहिक रूप से है। यज्ञ की समाप्ती समदाउन से होता है वधू लोग माता-पिता का आशीर्वाद लेकर अपने अपने नए घर बसाने हेतु जा रही हैं। गीत गाया जा रहा है -

        "बड़े रे जतन से सियाजी को  पाला

        विद्या   विविध   पढाय ।

        गृह के    कार्यमे    निपुण   बनाया

        बहु-विधि कला सिखाय।

        सुन्दर    शील    स्वभाव   बनाया

        उच्चादर्श         दिखाय ।

        ऐसी   बेटी को विदा कर रही

        ससुराल    योग्य   बनाय ।

        जाओ बेटी निज सास-ससुर संग

        पति  से  प्रेम  लगाय ।

        रहो कुशल से,  सदा  प्रफुल्लित

        घर को    स्वर्ग   बनाय ।"

     

(रील खत्म।)

वृद्ध बोले- जिस जगह इस सामुदायिक विवाह का लाबा छींटा गया था वहाँ पाँचवां मन्दिर बन गयाये जो 'वरदा' देवी का मंदिर देखते हो वो उसी का स्मारक है

सभी रील समाप्त हो गया । वृद्ध बोलते गए-.... इस प्रकार आपने देखा कि सौराठ कैसे सौराष्ट्र बन गया। गत पचास वर्ष मे इस धर्मबागान मे लाखों धर्म-विवाह हुए हैं। मिथिला के इस विवाह – यज्ञ का अनुकरण अन्य अन्य प्रान्तों मे भी हो रहा है। .... पचास वर्ष पूर्व जो सौराठ का बागान कलंक स्वरूप लगता था, वो आज देश का पवित्र तीर्थ बन चुका है। जिस वेदी पर लाखों पिता का बलिदान पड़ता था , उसपर अब लाखों कन्या का उद्धार हो रहा है। पुराना बड़ा पेड़ मलीन होकर सूख गया, अब नए नए बरगद से कोंपले निकल रहे हैं।  

...यह सब कैसे हुआ? मिथिला के  नारी-समाजमे नव चेतना आ गया वो गंगा की लहरों की भांति बढ़ीं, और उस लहर से क्रान्ति गीत उठा-

           भागो, भागो, दूर घटक पॅंजियार ।

          होएं   वरागत      होशियार !

          ब नहि चलेगा तिलक रोजगार।

          नहि कोई रुपए गिनेगा   हजार !

          समेटो अपने     हाट-बजार ।

          इस रास्ते आती है सरसराती धार।

       

और, वो सरसराती धार सच मे ऐसी वेग से आई हैं जो सौराठ की सभी सड़ान्ध को धो-बहाकर साफ कर दिया और जो उस लहर मे पड़े वो ……

No comments:

Post a Comment