तुम्हारा प्रेम आलिंगन समर के बीच कैसा है
सृजन के मध्य मे बोए प्रलय के बीज जैसा है
न् जाने कौन सा पल था तुम्हे दिल हार बैठा मैं
विजय को छू के भी खुद को ही अब संहार बैठा मैं।
भटकता हूँ कभी दर दर, कभी बुत बन के बैठा हूँ
समर की आग के लपटों मे मैं तपकर के ऐंठा हूँ
तुम्हारे राह मे उड़ते हुए धूलों को बैठा दूँ
वरुण के तीर मे बैठे हुए मैं नीर जैसा हूँ ।
बहुत दुर्धर्ष है संग्राम, बता अंजाम क्या होगा
हमारे और तेरे प्रेम का परिणाम क्या होगा
की घर आओगी तुम मेरे कभी रुक्मिणी बनकर
पुकारेंगे मुझे मोहन, तेरा राधा नाम या होगा।
प्रणय की वेदना के स्वर का झंकार कैसा हो
प्रलय गाण्डीव से निकले हुए टंकार जैसा हो
करुण उर के स्पंदन से निकलती राग की लहरें
स्वयं वागीश्वरी वीणा के कंपित तार जैसा हो
नवल होकर उदित होंगे रवि, संसार कहता है
समेटो खुशियाँ पैसों से यही बाज़ार कहता है
नए इस वर्ष मे कुछ भी नया होगा सही मे क्या ?
मगज़ फिर से क्यूँ ऐसे प्रश्न के बौछार करता है!
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