मेरे सबसे ज्यादा पसंदीदा फिल्में अस्सी
के दशक के, गाने 90 के दशक के और न्यूज शो 2000 के दशक के
रहे हैं, इसके लिए आप चाहें तो मुझपर ओल्ड
फैशन्ड होने का आरोप लगा सकते हैं और
मेरे टेस्ट पर कर सकते हैं सवाल
नमस्कार मैं
प्रणव कुमार
कुछ दिन
पहले Gaurav
Jha ने अपने
मामा यानी कि Manjit
Thakur सर के आज्ञा
को पुरा करते हुए अपनी तीन पसंदीदा फ़िल्म की कहानी सुना गए और जाते जाते इस
भीड़तंत्र में मुझे भी टैगीत कर दिया। अब वैसे तो बहुत से ऐसे फ़िल्म हैं, जिसे मैं अपनी पसंदीदा फ़िल्म कहकर आपके सामने पेश कर सकूं, पर फिलहाल 80,90 और 2000 के दशक से तीन फिल्मों की
बात करूंगा।
पसंदीदा
फ़िल्म:01
गोलमाल, ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म रही है, जिसने कई पुरस्कार भी जीते हैं। यह फ़िल्म सर्वप्रथम मैंने दूरदर्शन पर देखी थी जो उत्पल दत्त साहब के देहांत के अवसर पर दिखाई गई थी। इसके बाद सीडी पर देखी फिर कम्प्यूटर और लैपटॉप पर।आज भी मेरे लैपटॉप में ये
फ़िल्म मिल जाएगी।आज के युग मे
जब कि लोगों में सेंस ऑफ ह्यूमर की भारी कमी हो गयी है या फिर इसके नाम पर बस फूहड़ता और अश्लीलता ही परोसी जा रही
है, यह फ़िल्म लोगों के मनको गुदगुदाने के लिए आज भी प्रासंगिक है। इस फ़िल्म
के सभी पहलू(अभिनय,निर्देशन,गीत,संगीत,डायलॉग) ने मुझे छुआ। अमोल पालेकर और उत्पल दत्त मेरे पसंदीदा अभिनेता बन गए और ऋषिकेश दा पसंदीदा निदेशक। और फिर मैंने चुन चुन के
इन तीनो की फिल्में देखी।
नरम-गरम, बातों बातों में, छोटी सी बात, रंग-बिरंगी,रजनीगंधा,शौकीन,चुपके चुपके,मिली,गुड्डी आदि भी इसी श्रेणी की कुछ फिल्में हैं।
फ़िल्म की
शुरुआत इसके टायटल सॉंग से होती है जो अमोल पालेकर(जो उस वक्त सीए के छात्र होते हैं और फायनल रिजल्ट की प्रतीक्षा
में होते हैं) अपने मित्र के
यहाँ एक पार्टी में मित्रों के संग गया रहे होते हैं। इस गीत के बारे में दो बातें कहना चाहूँगा, अव्वल तो ये की इस गीत में एक लाइन है 'भूख रोटी की हो तो पैसा कमाइए... पैसा कमाने के लिये
भी पैसा चाहिए', इस लाइन के मुखरे में जहाँ आलसी वामपंथ के दर्शन की
भर्त्सना करते हुए रोटी के लिए काम करने की बात कही गई है वहीं अंतरे में पूँजीवाद के दर्शन की झलक मिल जाती है। दूसरी बात ये की अब ऐसी निश्छल और जीवंत
पार्टियां बहुत सीमित रह गयी है, हाँ सिविल,सीए,इंजीनियरिंग आदि की तैयारीमे जुटे
यूपी-बिहार के कुछ सिंगल लौंडे आज भी ऐसी गीत-नाद
वाली पार्टी करते दिख जाते हैं, वर्ना तो सिंगल से कपल हुए नहीं कि दारू और डीजे के धुन में
ढिंचिक-ढिंचिक करने लग जाते
हैं।
फ़िल्म की
अभिनेत्री बिंदिया गोस्वामी भी फ़िल्म में बला की खूबसूरत दिखती हैं, और उनकी
ड्रेसेज भी कमाल की हैं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, आवाज और अभिनय सभी आकर्षित
करनेवाली हैं। उनकी ड्रेस के साथ स्कार्फ और बड़ी सी मोतियों की माला। जिस तरह से वो राम प्रसाद की जगह लक्ष्मण प्रसाद को चुनती हैं वो लड़कियों के कॉमन सेंस को बहुत
बढ़िया से दर्शाता है।
अमोल पालेकर
शालीन अभिनय तो करते ही हैं, इस फ़िल्म
में लकी शर्मा के रोल में गजब का
है हैंडसम भी लगते हैं। उत्पल दत्त का अपमान करने के लिए जब वो कहते है कि अरे माली जिसका नाम भवानीशंकर हो वो तो
समझो पैदा होते ही बुड्ढा हो गया बहुत मजेदार है
उत्पल दत्त
जी का चरित्र फ़िल्म की जान तो है ही, उन्होंने भवानीशंकर के चरित्र में
सचमुच में जान डाल दिया है। फ़िल्म का सबसे छोटा पर सबसे पसंदीदा डायलॉग 'इश्शश' उनका ही है।
इस फ़िल्म के
लिए उत्पल दत्त साहब और अमोल पालेकर दोनो को ही फिल्मफेयर और अन्य कई पुरस्कार
मिले हैं।
फ़िल्म में
अन्य कलाकार जैसे डेविड (केदार मामा)हो, दीना पाठक जी(मिसिज कमला), मंजू सिंह(रत्ना), यूनुस परवेज(बड़े बाबू) राम प्रसाद के दोस्त सभी ने अपने अभिनय से अपने किरदार को जीवंत किया है।
डॉक्टर राही मासूम राजा ने बहुत ही शानदार डायलॉग्स लिखे हैं, खासकर रामप्रसाद द्वारा बोली जानेवाली हिंदी डायलॉग्स। एक जगह भवानीप्रसाद के
नौकड़ी के आवेदन बारे में
पुछेजाने पर बड़ेबाबू कहते हैं कि '30 नौसिखिये है बाँकि के सब तजुर्बेकार हैं'। एक और मस्त डायलॉग है जब उर्मिला
को उसकी दोस्त कहती है 'जब लड़की दहीबड़ा खाने से मना कर दे
तो समझ जाना चाहिए उसे प्यार हो गया है'।
पंचम दा के
संगीत के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है।'आनेवाला
पल...' शायद ही कोई संगीत प्रेमी होगा
जिसका पसंदीदा न हो। इसके अलावा 'इक बात कहूँ गर मानो तुम, सपनो में न आना जानो तुम' भी मुझे बहुत पसंद है और इस गीत के बीच मे लता दी का हँस देना बहुत ही।
इस फ़िल्म से लगाव का एक कारण यह भी है कि मैं खुद के
अंदर भी दो शख्स, राम प्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद पाता हूँ, एक जो वास्तविक जीवन मे स्मार्ट दिमाग वाला पर सीधा-सादा बनकर नौकड़ी करनेवाला और परिवार की
जिम्मेदारी निभानेवाला है और दूसरा
शख्शियत फेसबुक पर आता है, शायरी और कविता करता है, कहानियां बनाता है, लोगों को प्रभावित करता है, विभिन्न राजनैतिक-सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखता है।
कुल मिलाकर
यह एक बार बार देखी जाने वाली फिल्म है
पसंदीदा फ़िल्म :02
#DDLJ
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सौ,दो सौ,पाँच सौ करोड़ कमाने का रिकॉर्ड चाहे जो कोई भी बना रहा हो, पर बात यदि लंबी
पारी खेलने का हो तो बॉक्स ऑफिस का द्रविड़ और लक्ष्मण यही फ़िल्म है जिसने
मराठा मंदिर में 1000 सप्ताह पूरे कर दिए। रिकॉर्ड बनाने के मामले में ये
फ़िल्म तेंदुलकर से कम नहीं है। उस वक्त सारेगामा एचएमवी पर आए इसके कैसेट्स
ने अपने समय मे सर्वाधिक कैसेट्स बिकने वाले एलबम का रिकॉर्ड बनाया। राष्ट्रीय
पुरस्कार और फिल्मफेयर सहित अनेको पुरस्कारों से इस फ़िल्म और उसके प्रमुख किरदारों
की झोलियां भर गई थी।
पहली बार जब मैंने ये फ़िल्म वीसीपी पर
देखी थी उसवक्त मुझे यह निहायत ही बकवास फ़िल्म लगी थी(फ़िल्म के अंत के फाइटिंग सीन को छोड़कर)। दूसरी
बार कहीं सीडी पर देखी तब मुझे ये फ़िल्म हर तरह से लाजवाब लगी। और तब मुझे ये
भान हुआ कि 'फिल्मों का अच्छा या बुरा लगना कदाचित उम्र के सापेक्ष होता है।' औऱ फिर मैंने ये
फ़िल्म सिनेमा हॉल में देखा जब ये करीब 10 वर्ष पुरानी हो चुकी थी।
शाहरुख मुझे बचपन से लुभाते थे, उनका हेयरस्टाइल
और स्टीरियो टाइप बॉडी लैंग्वेज जो टीवी पर आनेवाले उनके गाने में देखता
था। कोई ना कोई चाहिए...हमेशा से मेरा फेवरेट रहा है, और उसमें किया
गया बाइक स्टंट मेरी फैंटसी। शाहरुख-काजोल मेरी सबसे पसंदीदा ऑनस्क्रीन जोड़ी
रही है और इनकी केमिस्ट्री वैसे ही रोमांचित करती है जैसे सोडियम के जल में
घुलने की केमिस्ट्री। इन दोनों की खासियत ये भी रही है कि जहाँ इन दोनों ने स्क्रीन
पर बेहतरीन रोमांस किया है वहीं डर और गुप्त जैसे फ़िल्म में खतरनाक प्रेमी
विलेन का भी और बाजीगर तथा दुश्मन में बदले की भावना वाले शख्त इंसान
का भी।
राज मल्होत्रा का किरदार मुझे आदर्श
किरदार नाजर आता है जैसे लड़के के बारे में लड़कियां सपना देखती होगी। वो पढ़ाई-लिखाई से
दूर है,लापरवाह है,अमीर बाप का बेटा इसीलिए करियर की भी चिंता नहीं।पर इतनी बेपरवाही
के बाद भी वो अपने सामाजिक मूल्यों को जानता,लड़कियों से हर
हद तक का मजाक करता है पर फिर भी लड़कियों की इज्जत करना जानता है,उनकी हिफाजत करना
जानता है,लोगों का दिल जीतना जानता है,रूठों को मनाना
जानता है। पढ़ाई में फिसड्डी है पर खेलकूद में अव्वल है। बाप से हमेशा दूर रहकर
फुटानी करता है पर बाप से हर पल भावनात्मकता से जुड़ा भी रहता है। डेयरिंग है,पर समाज से
टकरा जाने के बजाय समाज को कन्विंस करने की हिम्मत करता है।
अनुपम खेर राज के पिता के रूप में
लाजवाब हैं। अनुपम खेर साहब मुझे ऑनस्क्रीन सबसे अच्छे पिता लगते हैं,चाहे वो
आरएचटीडीएम,दिल है कि मानता नही, डैडी,चाहत या डीडीएलजे हो। मुझे यकीन है कि उनके जैसा पिता कोई बनना चाहता
हो या न हो पर ऐसा पिता हर कोई पाना चाहता होगा।
अमरीश पुरी साहब
बाऊजी की भूमिका को जीवंत किया हुआ है,ऐसा काजोल ने भी कई दफे कहा है।
इससे पहले मैंने उन्हें खलनायक की भूमिका में ही देखा है,यद्यपि इस भूमिका
में भी कई लोगों को खलनायिकी ही दिखती है,पर मुझे बाऊजी
की भूमिका देखकर महानगरों में बसे कुछ मैथिल कन्याओं के पिता याद आ जाते हैं।
अपनी छोटी सी भूमिका को मंदिरा बेदी और
लिट्ल गर्ल मिस राजेश्वरी सिंह उर्फ चुटकी भी यादगार बनाती है।
फ़िल्म में सबसे बेहतरीन संवाद
शाहरुख-काजोल का लगता है जब आखिरी सीन से पहले
के सीन में शाहरुख सबसे विदाई ले रहे होते हैं और माफी मांग रहे होते हैं।
आज जबकि लगभग हर योरोपीय देश मे भारतीय
और मैथिल मध्यमवर्ग रह रहे हैं और रोजगार कर रहे हैं,उसवक्त आदित्य
चोपड़ा के इस फ़िल्म के माध्यम से ही लोगों ने योरोप देखा और बहुतों के अंदर वहां जाने के
इच्छा का बीज भी अंकुरित हुआ होगा।
फ़िल्म का संगीत भी लाजवाब है,और पंडित जसराज
के घराने के जतिन-ललित बंधुओं ने भी यहाँ अपना कमाल दिखाया। "मेरे ख्वाबों
में जो आये","तूझे देखा तो ये जाना" और "न जाने मेरे दिल को क्या हो
गया" मेरा ऑल टाइम फेवरेट है, "जरा सा झूम लूँ" में आशा ताई और काजोल की मस्ती
कमाल की है खासकर बर्फ में जो काजोल पेंग्विन की तरह उछलती है।
ड्रेस डिजायनर के रूप में मनीष
मल्होत्रा भी इस फ़िल्म से उभर कर आये थे और कहानी
के हिसाब से फ़िल्म में वेस्टर्न और इंडियन ड्रेस की कमाल के कॉम्बिनेशन्स
बनाए हैं।
फ़िल्म के कई डायलॉग आज भी बहुत
लोकप्रिय हैं जैसे "जा सिमरन जा,जी ले अपनी
जिंदगी". मेरा सबसे प्रिय डायलॉग "बड़ेबड़े देशों
में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं सेनोरिटा", जो हमे सड़कों पर और
भीड़ में सहिष्णु बने रहने की पाठ भी पढ़ाता है। इसके अलावा अनुपम खेर का डायलॉग
"मैंने तुझे तुनतुना बजाने के लिए पैदा नहीं किया है" भी खासा पसंद है।
अंत मे Gaurav और Kabir Jha जैसे कुंवारे मित्रों को इस फ़िल्म से शाहरुख का ये डायलॉग डेडिकेट
करना चाहूंगा कि ''मेरी मां कहा करती थी, जो शादी वाले घर में हाथ बंटाता है, उसको बहुत सुंदर
दुल्हन
मिलती है।'' और कबीर ब्रो तो हैं भी एनआरआई और कथित तौर पर मिथिला के दूसरे सबसे अमीर
आदमी तो जाते जाते उनके लिए सलाह की वो बीयर की फैक्ट्री लगाने के बहाने
आए और इसी महीने राजनगर में होनेवाले Madhubani Literature Festival में डॉक्टर Savita Jha Khan मैम का हाथ बटाएँ तो उन्हें भी सविता मैम की तरह सुंदर,सुशील,गुणवान और
पढ़ीलिखी कन्या मिल जाएगी। 🙂
पसंदीदा फ़िल्म 03:
#दिल_चाहता_है
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दिल चाहता है, मेरे दिल के बहुत करीब होने का एक प्रमुख कारण यह है की यह फिल्म मैंने
अपने किशोरावस्था में देखी थी जब दोस्ती का जज्बा सर्वाधिक उफान पर होता है, उस वक्त में
अमूमन साधारण और सहृदय इंसान के लिए दोस्ती का रिस्ता सर्वोपरि होता है, यहाँ तक की माँ-बाप से भी ज्यादा प्यारा. 'दिल चाहता है' यद्यपि कुछ नए
तरह की प्रेम-कहानी कहने वाली एक फिल्म है पर मेरे जैसे अधिकांश लोग इसे तीन दोस्तों की कहानी के रूप में ही
देखते हैं जिसे उस वक्त फरहान अख्तर ने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के स्थापित
मानकों को तोड़ते हुए एक नए अंदाज में प्रस्तुत किया था. फिल्म में एक
सुपरहिट गाना भी है ..."हम हैं नए अंदाज क्यों हो पुराना". इस गाने में
तीन दोस्तों को क्लब में मस्ती करते हुए नाचते देखकर हमारी भी फैंटसी हुआ कराती थी
वैसे ही क्लब में नाचने की, यद्यपि उस वक्त हम में न वैसे नाचने की हिम्मत थी न क्लब
में जाने की. इस फिल्म ने फरहान अख्तर को भी बॉलीवुड में स्थापित कर दिया
था.
फिल्म के सफलता का पूर्ण क्रेडिट
निर्देशक फरहान अख्तर को जाना चाहिए जिन्होंने तकनीकी रूप से परिपूर्ण और आनंददायक फिल्म
बनाने के लिए कई बॉलीवुड मानदंडों को तोड़ दिया था। सैफ
अली खान दिल चाहता है के आश्चर्यजनक पैकेट हैं और उनमें बहुत सारी अनपेक्षित प्रतिभा जो उस
वक्त तक छुपी हुई थी उभर कर आई थी, खासकर जहां कॉमेडी भूमिकाएं हैं। लेकिन मुझे लगता
है की फिल्म में अक्षय खन्ना से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन आया जो सिड के चरित्र
को जिवंत कर देते हैं. उनके व्यवहार, सोच, व्यवहार बहुत प्रामाणिक है। फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार, फिल्म फेयर सहित
अनेको पुरस्कार मिले हैं. फिल्म के लिए सैफ अली को सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता और अक्षय
खन्ना को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का फिल्मफेयर मिला था.
फ़िल्म तीन दोस्तों
की कहानी दर्शाती है के कैसे तीन युवक उम्र के साथ ज़िम्मेदारी समझते
हैं। फ़िल्म के मुख्य किरदार समीर (सैफ अली खान), सिद्धार्थ
(अक्षय खन्ना) व आकाश (आमिर खान) हैं। हम भी उस वक्त तीन पक्के दोस्त हुआ
करते थे, अपनी सीमित साधनो में खूब मस्ती किया करते थे. कभी भी मिलना हो तो
महफ़िल जम ही जाता था बिना दिन-रात समय-साल के परवाह के. फिल्म की कहानी जिस
तरह से चलती है है कुछ इसी तरह से हमारे जीवन की कहानी भी चल रही थी.
आकाश प्रेम की अवधारणा पर विश्वास नहीं
करता है। समीर बेहद रोमांटिक लेकिन भ्रमित लड़का है। जब भी वह किसी लड़की की ओर आकर्षित होता है तो वह
सोचता है कि उसे सच्चा प्यार मिल गया है। पेशे से कलाकार और तीनों में से
सबसे परिपक्व सिद्धार्थ, रोमांस में रूचि नहीं रखता और अपने काम के प्रति बहुत गंभीर, परिपक्व और
समर्पित हैं। आकाश, जो अपने निजी जीवन में बेअदब आदमी है, जल्दबाजी में
शालीनी (प्रीति जिंटा) नाम की एक लड़की से प्यार का इजहार करता
है। बिना ये जाने कि वह किसी रोहित नामक से सगाई कर चुकी है। वह समीर और
उसकी तत्कालीन प्रेमिका प्रिया (सुचित्रा पिल्लई) के बीच ब्रेकअप भी कराता
है और उनके प्यार/अफेयर का मजाक भी उडाता है, पर बाद में वही
आकाश सारी दुनिया से लड़कर और दुनिया के सामने अपने प्यार का इजहार करता है
तथा प्रेम-विवाह करता है। शुरुआत में अपने डैड के काम को हलके में
लेनेवाला आकाश बाद में अपने डैड का बिजनेश सम्हाल लेता है. हम दोस्तों के साथ
भी ऐसा कुछ हुआ की प्राइवेट जॉब को तुच्छ समझनेवाला और सरकारी बाबू/प्रोफेशर
बनने की हसरत रखनेवाला मेरा दोस्त एमएनसी में सॉफ्टवेयर इंजिनियर बन जाता
है और किसी एमएनसी में सॉफ्टवेयर इंजिनियर बनने की हसरत रखनेवाला मैं
सरकारी बाबू बन जाता हूँ, तो कोई और भी है जिसके करियर की नाव उसे बहाकर उसके मंजिल
को 'बैंकर' बनने तक पहुंचा देता है. फिल्म में डिम्पल कपाड़िया और प्रीति
जिंटा ने भी सराहनीय भूमिका निभाई है, खासकर छोटे से रोल में डिम्पल ने
अपने कद्रदानों को खासा प्रभावित किया था.
फिल्म में शंकर एहसान
लोय का संगीत और जावेद अख्तर साहब के गीत ने भी खूब धमाल मचाया है और पुरस्कारों
और रिकॉर्ड्स के कई मानक स्थापित किये. संकर महादेवन, शान और केके
हमेशा से मेरे प्रिय रहे हैं, फिल्म का टायटल गीत दिल चाहता है... और कोई
कहे....आज भी मेरे फेवरेट हैं. इस फिल्म के गाने को आर डी बर्मन अवार्ड एवं
उदित नारायण को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.
फिल्म में कई
हास्य और संवेदना से भरे सीन हैं जो दर्शकों को लम्बे समय तक याद रहनेवाला
है. उनमे से एक लाजवाब सीन है जब, आकाश और सिड रातोरात घबराये हुए समीर
के घर पहुँचते हैं और उसे तकिये पर बैठा देख उसका हाल पूछते हुए उसका मजाक
उड़ाते है, और समीर बड़े ही भोले अंदाज में कहता है "हँसलो सालों..तुमसे
अच्छा तो वो ट्रकवाला था जिसने मुझे लिफ्ट दिया" इसपर जब वो आश्चर्य
जताते बोलते हैं...तू गोआ से मुंबई ट्रक से आया... तो जवाब में समीर
उसी भोलेपन से कहता है की .....तो क्या मैं इस तकिये पर रोज-रोज बैठता हूँ!
यद्यपि भावनात्मक रूप से दिल चाहता है
समकालीन युवा के कहानी को बेहतरीन ढंग से कहने में सक्षम है चाहे वो किसी भी वर्ग से हों, पर कुछ क्रिटिक
का मानना है की फिल्म सब-अर्बन और ग्रामीण क्षेत्रो में ख़ास प्रभाव नहीं
जमा सका जिसका कारण था की फिल्म की कहानी उच्च वर्ग के लडको और परिवारों
की जीवन शैली को दिखते हुए थी जो निम्न-मध्यवर्गीय दर्शकों से कनेक्ट
नहीं कर पायी थी.
फिल्म में एक तरह से इंसानी जीवन के किशोरावस्था
से परिपक्वता आने तक के सफर की कहानी भी है कुछ फ़साना है तो जीवन
की कुछ सच्ची कहानी भी है. मुझे भी कभी एहसास होता था की हम भी कभी जीवन
की रेस में कूदने के बाद एक दूसरे से दूर हो जायेंगे, मेरे दोस्त कहते थे
ऐसा कुछ नहीं होगा, पर हुआ कुछ ऐसा ही की कभी भी मिल लेनेवाले दोस्त अब हम
कभी भी नहीं मिल पाते हैं. मेरी फैंटसी रहती है की फिल्म के अंत की तरह ही
कभी मेरे ये मित्र अपनी मर्सीडी(ना सही अपनी एसयूवी लेकर ही सही) मेरे घर
या ऑफिस आये और बोले "अरे भाय छोडो ये घर-ऑफिस-काम तो जिंदगी भर चलता ही रहेगा
चलो राजनगर चलते है....वहाँ Madhubani Literature Festival का मजा लेंगे.
संक्षिप्त में कहा जा सकता है की विनोद, भावना, ईमानदारी और
ज्ञान का मिश्रण "दिल चाहता है" को वास्तव में चिरस्थायी फिल्म
बनाता है.
(दिसंबर 2018)