Wednesday 15 November 2023

सूखता तालाब प्यासा गाँव! (लेखक एवं अनुवादक: प्रणव झा)

इस बार गांव में एक भतीजे का उपनयन था और ऑफिस में भी तीन चार दिनों की छुट्टियां लगातार मिल रही थी। बस, फिर क्या एकाएक गांव जाने की योजना बन गई।  योजना भी ऐसी कि जूड़-शीतल के दिन संध्या तक गांव पहुंचता। मगध एक्सप्रेस अपनी आदत अनुसार 4 घंटे विलंब से पटना पहुंची। अब वहां से बरौनी की ट्रेन पकड़नी थी।  गर्मी के दिन में सूर्यास्त कुछ देर से ही होता है। यही कारण था कि राजेंद्र पुल पर जब लगभग 6:30 पहुंचा तो सूर्यास्त का मनोरम दृश्य दृष्टिगोचर हुआ था। उस मनोरम छटा में तीन चार लड़के गंगा जी की बीच धार में गोता लगा रहे थे। यह दृश्य देखने योग्य था। किंतु यह क्या! अचानक से ध्यान गया गंगा जी तो सुख कर आधा हो गई है और पानी की धाराएं केवल उनके उदर तक में बचा हुआ है। अब यह स्थिति भयावह दिख रहा था। तो क्या इसका मतलब सूखा अपने गांव घरों की तरफ भी दस्तक देने लगी है! जब गांव पहुंचा तो जुड़ शीतल का कोई नाम निशान भी नहीं दिखा। यद्यपि मैं अंधेरा होने के बाद ही पहुंचा था।

अगले दिन सुबह सुबह गांव की और विदा हुआ। रास्ते में मिलने वाले लोगों से दुआ सलामी करते हुए नदी किनारे पहुंचा। किंतु देखता हूं तो यह क्या? नदी तो है ही नहीं! गांव का बलान नदी सूखकर पिच रोड बना हुआ है, और साइकिल, मोटरसाइकिल, उस रास्ते से सरसराते हुए इस पर से उसे पर हो रहे हैं। ध्यान गया गांव के मुखिया (जिसके जनेर-ढाईचा के फसल नदी किनारे में लहराता था) के अतिक्रमण की सीमा और अधिक बढ़ गई है और जहां हमेशा नदी की धारा बहती थी वहां मुखिया के फसल लगे हुए हैं। वैसे उनकी हालत भी पिलपिली सी हो गई थी। गांव से नदी विलुप्त हो जाना मतलब की जैसे मानिए किसी सौभाग्यवती के मांग से सिंदूर मिटा देना हो!

 

मानता हूं कि मैं ज्यादा दिन गांव में नहीं रहा हूं, किन्तु जितना दिन भी रहा हूं नदी से एक लगाव रहा है। बाल्यावस्था में नदी नहाने का अपना उत्साह होता था। मां के मना करने पर भी कहां मानता था, और गर्मी के महीना में तो समझिए कि जब मन होता तभी चल देते थे नहाने। कोई कमीज बनियान का काम नहीं बस किसी से गमछा मांगो और कूद जाओ। जब तक थोड़ी देर नदी में गोता लगाते तब तक इतनी देर में नदी किनारे भाइंट के पौधे पर फैला बनियान कच्छा सब सुख जाता था। हां, इस बात का अफसोस रहेगा की मैं तैरना नहीं सीख पाया। यद्यपि गांव के भाई लोगों ने से थोड़ा बहुत सीखा था किंतु कालांतर में वह भी भूल गया। वैसे गांव घर में बच्चों को दोपहर के समय में नदी किनारे जाने से मना किया जाता था जिसके लिए भूत से लेकर पनडुब्बी तक का डर दिखाया जाता था। नदी किनारे में मछली और घोंघा पकड़ने का भी अनुभव रहा है। इस मामले में मीता भाई जी बहुत तेज थे। समझिए की कांटे और चारे के असली खिलाड़ी तो वही थे और हम लोग तो बस स्टेपनी टाइप में साथ लगे रहते थे।

 

खैर छोड़िए, मैं भी कहां पहुंच गया। हनुमान चौक पर पहुंचा तो देखता हूं कि लड़के लोगों की चौकड़ी जमी हुई है। मीता भाई जी वहां थे। मैंने कहा अरे मीता भाई जी यह तो जुलुम हो गया। वह आशंकित होते हुए बोले - सो क्या? क्या हुआ? मैंने प्रति उत्तर में बोलामहाराज गाँव की नदी विलुप्त हो गई और आप पूछते हैं क्या हुआ!” किंतु उनकी प्रतिकृया बहुत सर्द थी। वह बोले यह सब भगवान की माया है। देश दुनिया में पाप बढ़ रहा है। इसका दुष्परिणाम तो ऐसा ही होगा ना जी। मैंने कहा कि भाईजी, फिर भी गांव के लोगों को तो अपना कर्तव्य करना चाहिए ना नदी को बचाने के लिए। सालों साल नदी के तहत गाद से भर कर ऊपर जा रहा है, उसपर से नदी तट पर मुखिया का अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है  आज नदी सूख गई, सोचिए कि इसके साथ कितने ही जलीय जीव सबका तो समूल ही नष्ट हो गया होगा। क्षेत्र की जमीन में पानी का लेवल भी नीचे गिर गया होगा।.....हां वह तो सच सच में ही। पहले 50 फीट पर ही चापाकल गड़ा जाया करता था किन्तु अब 100 फीट से कम मे अच्छा पानी नहीं आता है -  बीच में बात काटते हुए कनकीड़बा बोला। मैंने बात को आगे बढ़ते हुए बोला - इस नदी में लोग सब नहाते थे, मवेशी को नहाना और पानी पिलाने के लिए नदी ले जाया करते थे, महिलाएं कपड़ा-वपड़ा तो सब नदी में ही करती थी ना जी। तो जिस नदी से इतना उपकार मिला है उसके लिए कुछ तो चिंतित होना चाहिए ना ऐसे जो नदी की भूमि का अतिक्रमण होता रहेगा तो निश्चित ही नदी विलुप्त हो जाएगी ना।

 

अजी आप शहर से आए हैं वहाँ मौज में रहते हैं। इसीलिए यह आदर्शवादी बातें सब मन में रहा है। दिल्ली से आए लोगों को ऐसे ही गोल गोल बातें मन में आती रहती है। इस बार बीच में बात काटते हुए बंठाबाबाजी बोला।

 

मैं जरा व्यथित होते हुए कहा - हां शायद आप ठीक कहते हैं। मैं पतित हुआ कि गाँव की चिंता की। यह गांव तो जैसे मेरा है ही नहीं! और आप क्या जानते हैं शहर की जिंदगी के विषय में? पानी की किल्लत और उसका मूल क्या होता है यह कोई दिल्ली मुंबई वाला से बढ़िया कौन समझ सकता है? कालोनी सब में पानी को लेकर झगड़ा झंझट प्रतिदिन का किस्सा रहता है। बात तो मरने मारने तक पहुंच जाती है।  बड़ी बड़ी कोठियों और फ्लैट में रहने वालों लोगों को सभी सुविधाएं तो मिलती है किंतु पानी उनको भी नाप जोख कर मिलता है, और उसका बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है। जो स्थिति अभी मैं गांव की तरफ देख रहा हूं, यदि लोग नहीं चेते तो भविष्य में यहां की स्थिति भी वही होने वाला है।

 

 

खैर थोड़ी देर बतकही करने के बाद मैं घर पर पहुंचा और नहाने के लिए बौआजी के कुएं की ओर विदा होने ही वाला था की मां ने टोका - चापाकल पर ही नहा लो, बौआजी के कुएं का पानी मटमैला हो गया है। ओह! एक और अफसोस की बात। जिस दिन से मेरा नदी नहाना छूटा था, गांव में मैं बौआजी के कुएं पर ही नहाता आया हूं। बहुत पवित्र और शीतल पानी होता था उस कुएं का। गर्मी के दो बजे  दोपहर में एकदम शीतल पानी। मुझे याद है बचपन में देखता था की जूड़ शीतल के दिन गांव वाले लोग सब इस कुएं की सफाई करते थे, ढेकुल कसा जाता था, नया रस्सी बांधा जाता था।रामनंदन पंडित जी यजमानी में मिले एक नए बाल्टी को बांधते थे। बच्चों सबके लिए यह उत्सव का माहौल होता था। किंतु अब...!

 

गांव दुकान में अब कोल्ड ड्रिंक के साथ मिनरल वाटर की बोतल भी बिकने लगा था। कुछ समृद्ध लोगों के घर में 20 लीटर वाले आरो पानी का बोतल भी खरीदा जाने लगा था।

 

भोज भारत में अक्सर किसी छोटे बच्चे जिसको परोसने का शौक होता है किन्तु उसको कुशल नहीं समझा जाता है, को पानी परोसने के लिए दे दिया जाता है। कुम्हरम के भोज के समय में गुरकेलवा पानी परोस रहा था। मैंने टोन देते हुए बोला - क्या रे गुरकेलवा! तुम पानी ही परोस रहे हो? वो बोला - अरे भाई जी! सबसे महंगी चीज तो मैं ही परोस रहा हूं।  

वह कैसे - मैंने पूछा।

वह बोला - भाई जी भोजन तो कहीं भी मिल जाएगा किंतु इस गर्मी में सबसे अभीष्ट वस्तु तो ठंडा पानी ही लगता है।  गांव का आधा चापाकल तो सूख गया है। कुआं-नदी सब का हाल तो आपने देखा ही होगा। आप ही कहिए कि मैं क्या गलत बोला हूं? इतना सा गुरकेलवा एक गंभीर बात को बड़ी विनोदी भाव में बोल गया था।

 

 

पता लगा था कि गांव का चौधरी सरकार से सस्ता लोन लेकर एक तालाब खुदवाया है। मुझे प्रसन्नता हुई कि चलो अच्छा है, तालाब होने से कुछ तो राहत है, और ताजी मछलियां खाने के लिए भी मिल जाएगी। परंतु माँ  से जब चर्चा किया तो वह बोली - अरे तालाब में कुछ है भी! वह तो पत्नी पंचायत सदस्य का चुनाव जीती तो जुगाड़ से लोन पास करवा लिए। बैंक को दिखाने के लिए गड्ढा खोदकर मिट्टी भी बेच लिए। लोन के पैसे को सूद पर चढ़ा कर सूद खा रहे हैं। मैंने कहा - देखिए तो धंधा! सही रास्ते पर चलकर कोई पैसा कमाना ही नहीं चाहता है, जिससे लोग के साथ समाज का भी भला हो।

 

 

बहन के यहां गया तो वहां भी वही हाल देखने को मिला। उनका गांव कभी इस बात के लिए नामी था कि उस गांव में 72 तालाब है। आगे-पीछे, इधर-उधर जिधर मुंडी घुमाओ उधर ही छोटा बड़ा तालाब-डाबर देखने मिलता था। किंतु देखा कि इस बार उसमें से कितने ही तालाब डाबर मटियामेट हो गए थे।  बचे हुए में से भी बहुत सारे जर्जर अवस्था में थे। भाईजी (बहन के जेठ जी) को पता था कि मैं मछली प्रेमी आदमी हूं। जिस बार बहन के यहां जाता था किसी किसी तालाब से मछली ले आते थे। दोपहर को जब भाईजी सकरी जाने के लिए विदा होने लगे तो मैंने पूछा कि भाई जी कहां जा रहे हैं? बोले कि आता हूं सकरी से मछली लेते हुए। मैंने बोला - क्यों इस बार गाँव मे उपलब्ध नहीं है क्या? वह बोले - गांव के तालाब सब सूखे जा रहे हैं। आजकल कहीं मछली नहीं मारा जा रहा है इसलिए इस बार आपको सकरी का मछली ही खिलाता हूँ।

 

मेरे एक मधुबनी के मित्र से सूचना मिली कि शहर के आसपास जो तालाब-डाबर सब था जिन में से कितने में ही शहर का नाला भी बहा करता था उन सब को ढक कर उस जगह पर मकान दुकान सब बनाया जा रहा है। इस कारण से भूजल स्तर में गिरावट के साथ ही शहर में जल के निकासी में भी समस्या हो रही है।

 

वापस लौटते समय ट्रेन में जब एक महिला को 15 रुपए एमआरपी वाले पानी की बोतल को 20 रुपए में बेचने वाले विक्रेता से इस बात को लेकर जिरह करते देखा तो ये बातें सब एक एक करके याद आने लगा।मैं सोचने लगा कि अपने देश में जो हजारों हजारों की संख्या में तालाब-डाबर-दिघी थे ये अचानक से तो नहीं प्रकट हुए होंगे। इनके पीछे निश्चित ही यदि बनवाने वालों की इकाई होगी तो बनाने वालों सब की दहाई भी होगी। और यह इकाई दहाई सब मिलकर के सैकड़ो हजारों बन गए होंगे। पिछले कुछ 10-20 साल में विकास का नया पाठ पढ़ गया समाज इस इकाई दहाई सैकड़ा हजार को सीधे शून्य में पहुंचाने का काम कर रहा है। इस विरासत को संभालने की चिंता ना समाज को हो रही है और नहीं सरकार को। और यदि कहीं हो भी रही है तो सरकार और समाज में सामंजस्य नहीं बैठ रहा है। मैं यह भी सोचने लगा कि यदि जिंदगी में भगवती अवसर और सामर्थ्य दी तो गांव में पांच कट्ठा जमीन खरीद कर वहां एक तालाब खुदवाऊंगा और उसमे मछली पालूँगा। अब ट्रेन की गति के साथ मैं यही सब योजना का खाका खींच रहा हूं।

बस इतना ही था यह किस्सा। (17 मई 2017)