ये शहर है या धूल का
गुब्बारा है
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।
कहीं पेड़ को काटकर, कहीं तालाब को ढांक कर
खड़े किए हैं यहाँ सभ्यता की अट्टालिकाएं
बना लिए हैं निगम और नगरपालिकाएं ।
धूप में सिमटी राहों पर, भागमभाग रहते हैं सब,
एक दूसरे को कुचलते भागते सबके कदम।
धन की मद में बढ़ रहा है अनवरत अनाचार,
लोक लज्जा का यहाँ, रहा नही कोई विचार
ये नगर है या सपनों का आँधियारा है,
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं ।
कभी सागर की लहरों के मध्य, कभी पहाड़ों पर जाकर
स्वांग रचते हैं प्रकृति-प्रेमी होने का तस्वीरें खिंचाकर
आबाद रहे इनका ढकोसला, हर कीमत इनको गवारा है
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।
जिस मिट्टी से सबकुछ पाया उसको ये कहते हैं धूल
पूर्वजों की सभ्यता संस्कृति को ये अब गए हैं भूल
जानते नहीं कि अंत मे इसी मिट्टी मे मिल जाना है
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।
रही नहीं यहाँ की मिट्टी भी सुरक्षित
कर दिया इन्होने इसे भी प्रदूषित
क्या नदियां क्या तालों की कथाएँ
भर रही है ये सभी आज आहें
चैन पाओगे क्या तुम मरने के बाद मिलकर इसमे
आप सभी से यह सवाल फिर दुबारा है
यहाँ के सभ्य लोग वास्तव में आवारा हैं।
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