अलाव के सामने की बतकही
लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा
उस दिन भयानक घटा छाई हुई थी। यार चाचा के यहाँ अलाव के पास बैठ कर लोग आग सेंक रहे थे। बीच बीच मे ऐसी पुरवाई हवा की लहर चल उठती की लोग कपकंपा उठते। काशीनाथ बोले – ऐसी ही ठंढ मे ब्राह्मण बछड़ा बेच कर कंबल खरीदे थे। भोलबाबा बोले – अरे तुम लोगों ने ठंढ देखी कब है? ठंढ आई थी उन्यासी ईसवी मे। एकबार जो हड्डियों मे जकड़ा तो छः महीने तक जकड़ा रहा। सबके दाँत से दंत संगीत बजने लगा था। दो दो रज़ाई ओढ़ कर लोग सोते थे फिर भी शरीर ‘द’ अक्षर की तरह बन जाता था ।
मधुकान्त पूछे – वो कैसे दादाजी ?
भोलबाबा बोले – दाढ़ी मे घुटना मिलने से ‘द’ अक्षर बन जाता है। ऐसे ही जाड़े मे मेरे फूफा से किसी ने पूछा की बछिया बेचोगे?तो इनहोने उत्तर दिया की मेरे पास बगिया नहीं है।
मुकुन्द बोले – बाबा, इसका अर्थ समझ मे नहीं आया।
भोलबाबा बोले – इसका अर्थ यह की बगिया नहीं रहने के कारण जलावन-लकड़ी का आभाव है । बछिया के गोबर से उपले होते हैं। यदि वह भी नहीं रहा तो अग्नि प्रज्वलन किससे करूंगा।
यार चाचा बोले – आहा ! उनदिनों बोलने का चमत्कार था।
भोलबाबा बोले – वाक्यचातुर्य तो ऐसा था की एक नाई कुसुमपुर डेउढ़ी के बहुरानी को छका दिया था।
श्रोतागण ने पूछा – वो कैसे बाबा
भोलाबाबा तंबाकू का चूर्ण नाक मे लेते हुए बोले – नाई को कहीं वर देखने हेतु भेजी थीं। वो आकार बोला –“सरकार! क्या बताएं आजतक पैदल नहीं चले हैं, कभी भी दूसरे की जमीन पर शौच नहीं किए हैं, किसी को कभी ‘ना’ नहीं बोले हैं, सभी को एक ही नजर से देखते हैं।“ ये सुनकर बहुरानी गदगद हो कर रिस्ता का शगुन भिजवा दिया। पीछे ज्ञात हुआ की दूल्हा काना, मूक और विकलांग है, आँगन मे ही शौच करता है ।
अजगैबीनाथ बोले – ओह! उन दिनों कैसे-कैसे धूर्त होते थे !
भोलबाबा बोले – अरे, धूर्त तो ऐसे ऐसे थे कि नमोनारायन सी अक्षर नहीं पढ़ा था । तथापि प्रत्येक दिन खीर खाकर आते थे ।
झारखंडी – वो कैसे बाबा ?
भोलबाबा बोले – अरे, उनको दो ही श्लोक के अंतिम पद आते थे । एक तस्मै श्री गुरवे नमः, दूसरा पयसामर्णव इव।यजमान सब को समझा देते थे कि ‘तस्मै’ अर्थात खीर भोजन कराकर,‘पयसा’ अर्थात रुपए दिया करो ।
मुकुन्द बोले – बाप रे ! ऐसा चार सौ बीस !
भोलबाबा सरौता निकालते हुए बोले – अरे, मकरंदा वाले ज्योतिषी पूरे आठ सौ चालीस थे। कोई स्त्री गर्भवती होती थी तो भोजपत्र पर ‘बेटा न बेटी’ लिख कर यंत्र मे गढ़ कर पहना देते थे। जौ बेटा होता था तो कहते थे कि – देखिए मैंने पहले ही लिख दिया था, ‘बेटा, न बेटी’ अर्थात कन्या नहीं होगी। बेटी होती थी तो कहते थे देखिए मैंने पहले ही लिख दिया था कि ‘बेटा न, बेटी’ अर्थात कन्या। जौ गर्भपात हो जाता था तो कहते थे – देखिए मैंने पहले ही लिख दिया था कि ‘बेटा न बेटी’ अर्थात कन्या या बालक कुछ भी नहीं।
इतने मे ही झारखंडी को पेशाब लगा। वो उठकर कनैल के झाड़ी म ए पेशाब कर आए। यह देखते ही भोलबाबा उनको डांटना शुरू किए – अरे गदहे! चुल्लू भर भी पानी ले गए थे ?
झारखंडी घबराहट से सहम उठे। भोलबाबा बोलने लगे – ये तुम्हारा दोष नहीं है , युग का दोष है। उन दिनों मे तो इतनी मर्यादा थी कि लोग पेशाब भी करते थे तो धोती का गांठ खोल कर। पानी के साथ मिट्टी का भी उपयोग करते थे। आज के लड़के लोग तो खड़े खड़े ही अर्घ्य देते हैं।
पंडित जी बोले – आहा! उन दिनों की मर्यादा की क्या कहानी कहें।
भोलबाबा बोले – मर्यादा का तो इतना विचार था कि मेरे फूफाजी शौच के लिए खेत की ओर जाते तो लोटा और गिलास दोनों लेकर जाते। लोग पुछते कि गिलास किस लिए ? तो बोलते की लघुशंका करने हेतु अलग से बर्तन ले लाता हूँ।
ठीठर को हँसी लग गया। भोलबाबा हँसते हुए बोले – हीही-हीही क्या कर रहे हो ? बुद्धिनाथ पाठक कभी भी पत्नी को इसलिए चुम्मा नहीं लिए कि उनका गाल जूठा हो जाएगा। आज के लड़कों को इतना विचार होगा क्या ?
यार चाचा बोले – उन दिनों मे औरतों मे भी मर्यादा का विचार था ।
भोलबाबा बोले – विचार तो ऐसा था कि अन्हराठाढी वाली विधवा अपने बेटे के ससुराल मे उपहार भिजवाती ठी। समधन हेतु साड़ी-लहठी सजाकर भेजती थी। कोई बोला कि समधन के पेट मे बच्चा भी है। तो उस गर्भस्थ शिशु हेतु कमीज-टोपी और घाघरा-चोली दोनों वस्तु सील कर भिजवा दी । समधन भी वैसी ही मर्यादा वाली थी। उपहार ले जानेवाले के साथ एक कुत्ता भी था। उसके पूंछ मे भी एक जोड़ी धोती बांध दी थी। अब क्या इतना विचार लोगों को होगा ?
फोंचाई पाठक समर्थन करते हुए बोले – कभी नहीं। उन दिनों जाती कि कैसी मर्यादा थी !
भोलबाबा बोले – मर्यादा तो ऐसा ठा कि मेरे जैसे बुड्ढे सज्जन चुटकी मे सिंदूर लिए फिरते थे। जहां कहीं भी गोरी माँग देखते थे कि रगड़ देते थे। उम्र मे भले ही वो अपनी सास से भी बड़े हों। इसलिए सास लोग उन दिनों इतना पर्दा करती थीं कि प्रणाम करने का शगुन रुपए भी दरवाजे के कोने से फेंक देती थी। अब के सास तो दामाद के साथ एक ही रिक्शा पर बैठ कर बाजार जाती है।
काशीनाथ बोले – अब पहले वाला रीति-नीति कहाँ रहा ?
भोलबाबा बोले – अरे, मेरे दादीसास तो नवमी-दशमी को बिल्ली के आँख मे भी काजल लगा देते थे। अब की औरत लोग तो सब विधि-व्यवहार को उठाकर ताक पर रख दी हैं।
यार चाचा बोले – उन दिनों लोगों मे निष्ठा थी।
भोलबाबा बोले – निष्ठा तो ऐसा ठा कोई तुलादान करता ठा, कोई जीबि श्राद्ध करता था। अब ये बातें मूर्खता मे गिनी जाती है।
मधुकान्त – आज के लोग कंजूस हो गए हैं।
भोलबाबा- अरे, कंजूस तो पहले भी एक से एक होते थे। तथापि धर्म –कर्म मे तो खर्च करते ही थे। थोल्हाई चौधरी का नाम सुने हो?
श्रोता लोग बोले – नहीं, उनकी कहानी कहिए ॥
भोलबाबा सुपारी काटते हुए बोले – वो इतने मोटे थे कि जांघ मे जांघ चिपक जाता था। अपना हाथ उस जगह तक नहीं पहुंचता था तो नौकर शौच करवा देता था।
अजगैबीनाथ बोले – हद हो गै ।
भोलबाबा डांटने के अंदाज मे बोले – तुमको इतने मे ही आश्चर्य हो रहा है ? वो एक दिन तालाब मे स्नान करने गए तो पेट के तह मे एक पोठी मछली चली गै। वो मछली उसमे साथ दिन तक पड़ी रही। जब सड़ के गंध करने लगी तो एक दिन मालिश करते समय नौकर को बोले कि जरा देखो तो क्या है? तब वो तह के नीचे से मछली बाहर कर दिया ।
मुकुन्द ने पूछा- फिर क्या हुआ बाबा?
भोलबाबा बोले – वो चार मन भारी थे । किन्तु जब तुलादान करने की बारी आई तो दो दिन पहले से ही खाना छोड़ दिये थे और जुलाब लेना शुरू कर दिए की पहले थोड़ा हल्का हो जाएंगे फिर तुला पर बैठेंगे ।
झारखंडी बोले – बाप रे बाप ! इतने बड़े कंजूस !
भोलबाबा बोले – तुम इतने पर ही बाप-बाप करने लगे । झलबा झा सभागाछी गए तो कम खानेवाला वर ढूंघने लगे कि महुअक मे कम खीर आवश्यक होगा। दमड़ीलाल को अपनी पत्नी का यौवन नहीं देखा जाता था ।
श्रोतागण ने पूछा – वो क्यों बाबा ?
भोलबाबा बोले – अरे, यौवन का उत्कर्ष देख उनको भय होता था कि चोली सिलवाने मे ज्यादा कपड़ा लग जाएगा ।
रसिकनंदन बोले – वो भारी अभागल थे ।
भोलबाबा बोले – अरे, अभागले तो ऐसे ऐसे होते थे कि ठाकुर गोवर्धन सिंह ससुराल मे रात भर खाट कसते ही रह गए।
श्रोतागण उत्सुक होते हुए पुछे – वो कैसे बाबा ?
भोलबाबा बोले – जब पहली रात सुहाग की सेज पर गए तो लगा कि खाट थोड़ा सा झूल रहा है । बस रस्सी खोल कर फिर से बुनने बैठ गए । उधर नवयौवना वधू रातभर खड़ी ही रह गई। जब सुबह होने पर वो बाहर निकाल गई तब जाकर इनका बुनाई पूरा हुआ ।
मौजेलाल बोले – ओहो ! संसार मे कैसे कैसे बेवकूफ होते हैं।
भोलबाबा बोले – अरे, बेवकूफ तो ऐसे ऐसे होते हैं कि हजारीमल परदेश गए तो पत्नी की कमर मे ताला लगाकर गए। किन्तु पत्नी भी होशियार थी, दूसरी चाबी बनवा ली ।
मुकुन्द बोले – हुंह , ऐसे ऐसे बेवकूफ भी होते हैं!
भोलबाबा बोले – मैंने तो एक से एक नाक डुबानेवाले देख रखे हैं। लाला नन्दन लाल के बेटा को गुरु अक्षर सिखाते थे – त थ द ध न । ये सुनकर उसने गुरुजी को बर्खास्त कर दिया ।
काशीनाथ – वो क्यूँ बाबा ?
भोलबाबा – उनकी इच्छा थी कि द ध न नहीं पढ़ावे ‘ल ध न’ पढ़ावे । अर्थात लेने का हाल समझे देने का नहीं। इसीलिए उसके नाम मे केवल ‘ल’ अक्षर भर दिए – लाला लल्लूलाल ।
मधुकान्त – हद थे वो !
तभी एक पंडित ने उनपर श्लोक बनाया –
आदौ नकारः परतो नकारः
मध्ये नकारेण हतो दकारः
त्रिभिर्नकारैः परिवेष्टितस्य
का दानशक्तिर्वद नन्दनस्य ।
अर्थात, आदि मे भी ‘न’ अंत मे भी ‘न’ । बीच मे एक ‘द’ अक्षर है भी तो उसपर ‘न’ सवार । तब तीन –तीन नकार से युक्त नन्दन को दान करने की शक्ति कहाँ से आएगी ?
यार चाचा बोले – आहा। कैसे कैसे अपूर्व पंडित होते थे।
भोलबाबा बोले – पंडित तो ऐसे ऐसे होते थे कि जितने समय मे एक ढेला फेंका जाए उतने समय मे समस्या का समाधान कर देते थे । सलेमपुर के एक पंडित ने श्लोक बनाया : -
नाना नाना नाना नाना निन्नी निन्नी निनी निनी।
नुन्नू नुन्नू नुनू नुनू नानानिन्नी नुनुन्नुनः।
अब के पंडित को इसका अर्थ लगाने तो कटहल, चूड़ा और आमपापड़ तीनों बहने लगेगा।
पंडित जी बोले – इसमे क्या संदेह? अब न वैसे पंडित रहे ना ही वैसा शास्त्रार्थ ।
शास्त्रार्थ शब्द सुन भोलबाबा को और भी जोश चढ़ गया । बोले – शास्त्रार्थी तो ऐसे ऐसे होते थे कि धुरंधर शास्त्री आजन्म खड़ाऊँ नहीं पहने ।
काशीनाथ पूछे – वो क्यूँ बाबा ?
भोलबाबा बोले – वो पूछे कि कौन सा खड़ाऊ पहले पहनूँ? लोग बोले –दाहिना । तो पुछने लगे – बायाँ क्यूँ नहीं । लोग बोले बायाँ। तो पुछने लगे दाहिना क्यों नहीं । इस प्रश्न का कभी भी समाधान नहीं हो सका। इसलिए दोनों पैर का खड़ाऊँ वैसे ही रह गया।
फ़ोंचई पाठक बोले – आहा! उन दिनों कैसे-कैसे विषय पर शास्त्रार्थ होता था ।
भोलबाबा बोले – शास्त्रार्थ तो ऐसे ऐसे विषयों पर चलता था कि जब घड़ा टूट गया तो फिर उसका घड़ापन कहाँ गया? शालिग्राम चुराने से पाप होगा या पुण्य? गंगा स्नान के समय कुल्ला फेंकना हो तो कहाँ फेंके । स्त्री को मोक्ष मिले या नहीं ।
मधुकान्त पूछे – बाबा। अंत मे क्या निर्णय आया ?
भोलाबाबा- अंत मे यह निर्णय हुआ कि स्त्री को जब मूंछ पर्यंत नहीं मिलता तो मोक्ष कहाँ से मिलेगा?
फ़ोंचई पाठक बोले – आहा! क्या विलक्षण युक्ति !
भोलाबाबा तंबाकू की डिबिया बाहर निकाले। दोनों नाशिका मे तंबाकू चूर्ण लेते हुए बोले – शास्त्रार्थ तो ऐसे ऐसे देखे हैं कि अब लोगों को विश्वास नहीं होगा। एकबार कंकाली मंदिर मे शास्त्रार्थ छिड़ा कि स्त्री शिक्षा होना चाहिए या नहीं? काले बाल वालों का पक्षा था कि होना चाहिए। सफ़ेद बाल वालों का पक्ष था कि नहीं होना चाहिए । दोनों ओर से युक्ति एवं प्रमाण की बरसात होने लगी। 1 बजे दिन से जो शास्त्रार्थ शुरू हुआ सो रात के 11 बज गए। ढाई किलो तंबाकू चूर्ण खर्च हो गया पर फिर भी निर्णय नहीं हो पाया। तब जाकर एक मध्यस्थ बिठाए गए जिनका आधा बाल काला था और आधा सफ़ेद। वो मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए ताम्रपत्र पर सिद्धान्त लिखे –
कुचोद्गमावधिः पाठः बालिकानां विधीयते ।
अर्थात बालिकाएँ तभी तक पढ़ें जब तक यौवन अंकुरित न हो। वो ताम्रपत्र कदाचित अभी भी दरभंगा मे होगा ही। परंतु अब जो वो पंडित लोग आकार देखते तो देखते ही उनको चक्कर आने लगता ।
श्रोतागण को रस लेते देख भोलबाबा पुनः बटुआ से सरौता निकाल लिए । फिर कतरा काटते हुए बोले – एकबार ऐसा शास्त्रार्थ उठा कि लाठी ही चल गया था। कोई बाराती था। वहीं ‘कन्यादान’ पर शास्त्रार्थ ठहर गया। बाराती की ओर से एक दिग्गज पूर्वपक्ष उपस्थित किए कि “कथं नाम कन्यादानम । “ दान का अर्थ है कि अपनी वस्तु का स्वत्व त्याग किसी और को अर्पित करना। अब बताइए कि कन्यादान से पूर्व कन्या पर पिता का अधिकार होता है कि नहीं? यदि हाँ तो ये तो गाली हो जाएगी और यदि ना तो फिर दान करने का अधिकार कैसा? अरे बाबू, इसपर जो घनघोर मचा वो क्या बताऊँ कहाँ तक बताऊँ। कन्यापक्ष मे खलबली मच गई की इसने तो गाँव की इज्जत उतार दी। कन्यापक्ष वालों को उसवक्त कोई उत्तर नहीं सूझा तो बाराती पर लाठी चलाने लगे। कितने सर फूटे उसका कोई ठिकाना नहीं । तब जाकर एक नब्बे वर्षीय सिद्धान्तगजकेसरी गाड़ी पर मँगवाए गए। उनके सर मे आधा किलो ब्राह्मी तेल मालिश किया गया। एक भरी तंबाकू चूर्ण उनके नाशिका मे ठूँसा गया। चार लोग सहारा देकर उनको खड़ा किए । तब वो उत्तर पक्ष करते हुए बोले – मान लीजिए कि एक भूमि है। उस भूमि पर एक नारियल का पेड़ है। उस वृक्ष मे फल लगा है। उस फल के अंदर जल है। अब मान लीजिए भूमि वाला भूमि का दान कर देता है। तब उस भूमि के साथ उस जल का भी दान हो जाता है। समझो कि तद्वते'''' तद्वते'''' तद्वते''''।
यह समाधान सुनते ही सनातन धर्म का जयजयकार होने लगा ।
श्रोता लोग चकित विस्मित और अवाक थे। पंडित जी बोले – वाह ! कैसे कैसे बेजोड़ पंडित उन दिनों मे होते थे।
भोलबाबा बोले – पंडित कि क्या कहें , उनके नौकर पर्यंत तार्किक होते थे। पंडित चूड़ामणि झा झोंटन खबास से पस्त थे।
काशीनाथ पूछे – वो कैसे बाबा?
भोलबाबा- एक दिन पंडित जी बोले कि जाओ वैद्य के यहाँ जाकर दवाई ले आओ। उसने पूछा – यदि वैद्य जी नहीं होंगे तो ? पंडित जी बोले – अरे, होंगे ही वो । फिर उसने पूछा – यदि उनके पास दवाई नहीं हुआ तो? ये बोले – होगा ही, जाओ। उसने फिर पूछा – यदि दवाई नहीं दिए तो? ये बोले – देंगे ही, जाओ। तथापि उसने हार नहीं मानी । पूछा – यदि दवाई का लाभ नहीं मिला तो ? इस पर पंडित जी निरुत्तर हो गए॥ जहां कोई काम देते कि इसी प्रकार तर्क करने लगे ।
फ़ोंचई पाठक बोले – उन दिनों शूद्र भी ऐसे वाक्चतुर होते थे।
भोलबाबा बोले – वाक्चतुर तो ऐसे होते थे कि टेकुआ तेली पंडित टेकनाथ शास्त्री को चुप करा दिया था।
मुकुन्द पूछे – वो कैसे बाबा ?
भोलबाबा बोले – अरे, टेकनाथ शास्त्री तेली के यहाँ गए। कोल्हू के बैल के गर्दन मे घंटी बंधा देख पूछे- अरे ये किसलिए ? उसने कहा – जब यह चलता है तो घंटी बज जाती है, जिससे पता चल जाता है कि ये काम कर रहा है कि नहीं । शास्त्री जी शंका किए कि यदि यह खड़ा खड़ा ही घंटी बजाने लगे तो ? तेली ने तुरंत जवाब दिया – सरकार, इस बैल ने न्यायशास्त्र नहीं पढ़ रखा है।
यार चाचा बोले – कभी कभी स्पर्श से भी घड़ा फूट जाता है।
भोलबाबा बोले – वो तो होता ही है। मेरे मामा शास्त्रार्थ मे दिग्विजय किए हुए थे । उनका प्रण था कि जो मुझे हरा देगा उसका आजीवन चाकरी करूंगा। किन्तु ऐसा संयोग हुआ कि एक दिन मेरी मामी ने ही उन्हे परास्त कर दिया।
श्रोतागण उत्सुकतापूर्वक पूछे – वो कैसे ?
भोलबाबा सुपारी का कतरा मुंह मे देते हुए बोले – मेरे मामा प्रत्येक दिन विद्यार्थी को पढ़ाते थे कि - यत्र-यत्र धूमः तत्र-तत्र वह्निः (जहां जहां धुआँ होता है वहाँ – वहाँ आग होता है )। नित्य रसोईघर से ये सुनते सुनते मेरी मामी आरिज हो गई। उन्होने एक घड़े मे धुआँ जमा कर उसका मुख ढक्कन से बंद कर दिया। जब मामा दालान पर पढ़ा रहे थे - यत्र-यत्र धूमः तत्र-तत्र वह्निः, तब वो उस जगह घड़ा पटक कर बोली अत्र धूमः कुत्र वह्नि? (यहाँ धुआँ है, अग्नि कहाँ है? ) गुरु और विद्यार्थी अवाक रह गए। कुछ जवाब नहीं सूझ रहा था। उस दिन से मेरे मामा प्रतिज्ञा अनुसार दोनों काल चूल्हा फूंकने लगे।
मधुकान्त बोले – उन दिनों मे लोग कितने वचननिष्ठ होते थे !
भोलबाबा- वचननिष्ठ तो ऐसे होते थे कि एक बार सत्यदेव झा गलती से अपनी पत्नी को भाभी बोल दिए उस दिन से जीवन भर अपनी पत्नी को पैर छूकर प्रणाम करते रहे।
काशीनाथ – आहा ! धन्य था उस समय का विचार ।
भोलबाबा- विचार तो ऐसा था कि नवहथवाली बहुरिया आग मे जल कर मर गई, किन्तु कुल लज्जा को त्याग कर घर से बाहर नहीं भागी ।
यार चाचा – वाह रे कुलकन्या !
भोलबाबा- कुलकन्या तो ऐसी होती थी कि बबूजन चौधरी भोजन कर रहे थे। उनके छोटे भाई की पत्नी कोठी के पीछे छिप कर बैठी थी। उस जगह एक वयस्क गहूमान उनके शरीर मे लिपट गया। किन्तु उनके मुख से एक सिसकी भी क्यूँकर निकलता! जबतक चौधरी जी भोजन का रसास्वादन कर हाथ धोने हेतु दालान पर गए तब तक वो निर्जीव हो चुकी थी।
पंडित जी – आहा हा ! इसी का नाम मर्यादा है।
भोलबाबा- मर्यादा तो ऐसा था कि मणिपुर की रानी पालकी मे आ रही थी। गलती से थोड़ा सा कनिष्ठ अंगुली बाहर हो गया था। यह देखते ही अंगरक्षक सिपाही खच्च से तलवार लेकर उतना अंश काट दिया । जिस अंगुली पर परपुरुष की दृष्टि पर गई, उसका पातिव्रत्य नष्ट हो गया, अतः वह अंग शरीर मे रहकर क्या करेगा। जब राजा को यह समाचार ज्ञात हुआ तो उस सिपाही को इनाम मे जागीर लिख दिया ।
मुकुन्द बोले – अहा! वो दिन क्या फिर लौट कर आ सकता है?
भोलबाबा उसको डांटते हुए बोले – चुप रहो। अब महिला लोग कुर्सी पर बैठने लगे हैं । पुरुष के साथ बैठ कर खाने लगे हैं। घोडा पर चढ़ने लगी हैं। बंदूक चलाने लगी है। कूदती है, फाँदती है, तैरती है, नाचती हैं। केवल एक ही काम बाँकी रह गया है। पुरुष को गर्भ धारण करवाना। वो भी कुछ दिनों मे कर ही देंगी। जब इतना सब होने लगा तो कैसे भगवान को देखा जाएगा। इसलिए वर्षा नहीं होती है, इसलिए अकाल पड़ता है, इसलिए भूकंप होता है! किन्तु अब मुझे जीना ही कितने दिन हैं?
यह कहते हुए भोलबाबा अपने रूईभरे जैकेट के ऊपर चादर लपेटते हुए उठकर विदा हुए और मंडली बर्खास्त हो गया।
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