Friday 19 January 2024

तीर्थयात्रा (लेखक : हरिमोहन झा ।। अनुवादक : प्रणव झा)

 

 तीर्थयात्रा

लेखक : हरिमोहन झा ।। अनुवादक : प्रणव झा

 

एक बार कलकत्ता मे जो दृश्य देखा था वो अब तक आँख मे नाच रहा है। बोटेनिकल गार्डन गया था। विशाल वटवृक्ष को देखकर मन मे एक भावना उठी। एक ही मूल से कितने शाखा-प्रशाखा निकली हुई हैं! ऐसा ही यह मानव समाज है। किन्तु यदि इस सामान्य बात को मानव याद रख सकता!

मैं यह सोच ही रहा था कि तबतक एक ऐसा सुंदर दृश्य उपस्थित हो गया जो अब तक स्मृतिपटल पर अंकित है।

सामने मैदान मे हरे घास पर कुछ लोग गोलाकार पंक्ति बना कर बैठे थे। उस गोले मे बच्चे-वृद्ध-महिलाएं सब निर्विकार भाव से सम्मिलित थे। स्त्री-पुरुष का कोई भेद भाव नहीं। सभी के आगे मे पत्तल और मिट्टी के कुलहर मे पानी रखा था एक लड़की अत्यंत फुर्ती के साथ पूरी परोस रही थी। एक किशोरी उसी फुर्ती से सब्जी परोस रही थी। देखते-देखते सभी के पत्तल चीनी, अचार, रायता, और मिठाई से भर गया। सब लोग एक साथ तृप्ति पूर्वक भोजन किए। भोजन समाप्त होने के पश्चात कुछ नवयुवक पत्तल और कुलहर सब उठाकर कूड़े के ढेर पर फेंक आए। मैदान पूर्ववत साफ हो गया था। जैसे वहाँ कुछ हुआ ही हो। यह सब सिनेमा के चित्र जैसे हो गया।

मुझे अपने गाँव का भोज स्मरण हो आया। इतने लोग खाते तो धमाचौकड़ी मच जाता रे पानी लाओ ! अरे, एक पत्तल इधर चाहिए। अरे सब्जी उठाओ। अरे,अरे, मैं अब नहीं लूँगा। नहीं,नहीं उनको और दही दो। ओह! उनको खुद ही लेने का मन है। इत्यादि। परंतु यहाँ पर निःशब्द सारा कार्य संपादित हो गया।

ये लोग कौन हैं? कहाँ से आए हैं? कहाँ जाएंगे? यहाँ भोजन का क्या उद्देश्य? आदि अनेक प्रश्न मेरे मन मे उठाने लगा।

तबतक देखा कि दल के नर-नारी अपना-अपना बैग-थर्मस कंधे पर लटकाकर विदा हो रहे थे।

कुतूहलवश एक स्काउट वेश धारी नवयुवक से पूछा। उनसे ज्ञात हुआ कि ये लोग चौबीस प्रगना निवासी हैं। सप्तग्राम के। करीब बीस परिवार के लोग इस दल मे शामिल हैं। परंतु एक सम्मिलित परिवार की भांति तीर्थाटन कर रहे हैं। सब अपना-अपना रुपया पहले ही अग्रिम जमा कर दिए हैं। उसी से खर्च होता है। एक व्यक्ति हिसाब रखता है। कोई यात्रा का प्रोग्राम बनाता है, कोई ठहरने का प्रबंध करता है। इस प्रकार से योग्यता अनुसार सभी का काम बाँटा हुआ है। आज विचार हुआ कि यहाँ पर आकर पिकनिक किया जाए। इस दल मे पत्नी-पति, भाई-बहन, सास-बहू, सभी हैं किन्तु सब एक साथ मिलकर सहयोग पूर्वक कार्य करते हैं। अब यहाँ से ये लोग पूरी,वलटेयर,मद्रास,रामेश्वर आदि नाना स्थान होते हुए एक महीने मे घूम कर लौटेंगे।

यह बात देखकर मेरे मन मे एक लालसा हुई। अहा! यदि अपने देश मे भी यह सहयोग संभव हो पता! जब बंगभूमि मे इतना पारस्परिक सौहार्द हो सकता है तो मिथिला के मिट्टी पर क्यूँ नहीं।

मैंने निश्चय किया कि, जो हो। एक बार मैं भी अपने गाँव के ऐसे ही दल संगठित कर देशाटन करूंगा।

गाँव पहुँच कर मुझे दल संगठित करने मे कैसे कैसे अनुभव प्राप्त हुए, वह एक अलग अध्याय है।

संक्षेप मे बस इतना कह देता हूँ कि गूजर बाबा के दालान से यार चाचा के खलिहान, पंडित जी के मकान से आलोपीनाथ के डेरी तक, मुसाइ मामा के दुकान से तालाब पर के ब्रह्मस्थान तक दौड़ते-दौड़ते चप्पल घिस गया।

महिलाओं के बीच तीर्थयात्रा का नाम सुनते ही ऐसा उत्साह का तरंग गया कि सब मिलकर श्रीजगन्नाथ जी का गीत गाना शुरू दी - 'श्रीजगन्नाथजीक चरणकमलमे नैन हमारो अटको। '

बड़कीदादी, सहजो बुआ, लाल चाची, फुच्चुन की माँ, बड़हरिया वाली, पंडिताइन, जगदंबा, सभी अपने डाला-पिटारा खाली करने लगे। बारह-चौदह लोगों का दल तैयार हो गया।

किन्तु अग्रिम राशि जमा करना किसी को स्वीकार नहीं हुआ। सभी को अपना अपना खर्च अलग से करने मे ही लाभ जान पड़ा।

देखते-देखते चावल-चूड़ा,सत्तू और पकवानों के गठरी का ढेर लग गया और एक दिन जय जगन्नाथ कहते हुए हमलोग रेल मे सवार हो गए।

सिमरियाघाट पहुँचने के पश्चात लोग जहाज मे चढ़ने लगे। जब सब सामान जहाज पर लद गया तब बड़ी दादी घोषणा कर दी कि यहाँ से गंगास्नान किए बिना मैं आगे नहीं बढ़ूँगी। सहजो बुआ, लाल चाची और पंडिताइन भी अपनी-अपनी साड़ी मे तह लगाकर उनके पीछे लग गए। अलोपीनाथ उनलोगों को स्नान कराने घाट की ओर ले गए।

बड़ी दादी झुककर ऐसे धनुषाकार हो गई थी कि उनका सर झुक कर घुटनों के समक्ष आकर खड़ा हो गया था। तथापि पुण्य लूटने के लालच मे वो हाथ मे एक लाठी लेकर झुकते-झुकते विदा हुई। सहजो बुआ और लाल चाची उनको कदम कदम पर सहारा देते हुए जा रही थी। तब जाकर वो चींटी के चाल से आगे बढ़ रही थी। इस प्रकार से जबतक वो गंगा जी मे एक डुबकी लगाई तबतक जहाज ने सिटी दे दिया। परिणाम यह हुआ कि चारो लोग उसी पार छुट गए

जहाज पर यार चाचा लाल चाची पर गुस्सा होने लगे और पंडित जी पंडिताइन पर। इन लोगों को क्या काम था कि बुड्ढी के साथ डुबकी देने गई! अब रहें शाम तक सब लोग एकादशी करते हुए। गठरी-मोटरी तो सब जहाज पर ही हैं और अलोपीनाथ खलिहाथ लोटा डुलाते हुए गया है। साथ मे पैसे भी नहीं हैं कि दो पैसे का मुरमुरा भी खरीदेंगे।

अंत मे सारा क्रोध बड़ी दादी के धर्मांधता पर जा कर केन्द्रित हुआ।

तबतक एक और समस्या उत्पन्न हुआ। गूजर बाबा का पेट कुछ खराब था। मैंने जहाज पर का शौचालय दिखा दिया। किन्तु वो मुझे डांटते हुए बोलेलोग गंगा मैया की पूजा करने आते हैं और तीर्थ मे आकर इनपर यही कर्म करूँ? लाख समझने पर भी वो नहीं माने। बोलेतुम नास्तिक हो किन्तु मैं अपनी आस्तिकता कैसे छोड़ दूँ?

एक घंटे तक गूजर बाबा पेट पर हाथ रखे बैठे रहे। अंततः मोकामा घाट पर आकार उनके समस्या का हल हुआ।

मोकामा मे गाड़ी आया और चला गया। कारण कि सिमरिया मे चार लोग खामोशी से बैठे हैं, वो जाएंगे तभी यह काफिला आगे बढ़ेगा। अप शाम तक प्लेटफॉर्म पर बैठकर तपस्या करिए। धीरे-धीरे चूड़ा, सत्तू और साँच का पिटारा सब खुलने लगा। पुरुष लोगों के भोजन समाप्त हो जाने के पश्चात फुच्चुन की माँ चुटकी बजकर मुझे बुलाकर बोली अरे! जरा पुरुषों को उधर टहल आने को कहिए ताकि इधर महिलाएं भी कुछ खा-पी सके।

हमलोग उस जगह से चले गए तो महिलाएं पूरे मुंह पर पल्लू किए ढंके मुंह मे ठेकुआ तोड़ कर खाने लगी।

गूजर बाबा अलग से शतरंजी बिछकर लेट गए। पंडित जी एक हत्था पका केला किए। केला खाकर छिलका जहां-तहां फेंक दिए। मैं उठाने के लिए चला तो मना कर दिए।

संध्याकाल अलोपीनाथ बड़ी दादी आदि को लेकर पहुंचे। आते ही सब पर बरस पड़े- आप लोगों को जरा सा विचार नहीं है। हम सब को छोड़ कर इसपार चले आए। क्या-क्या परेशानी उठाए हैं यह मैं ही जानता हूँ। पांचों लोगों को सोलह दंड एकादशी हो गया। उसपर से एक काना टीटीसी वो किसी भी तरह से आने नहीं दे रहा था। ये मिट्टी के माधव जैसे जो बैठे हैं वो भी अगर गठरी लेकर उतार गए रहते तो हम क्यूँ इतने पराभव मे पड़ते?

ये कहकर अलोपीनाथ फुच्चन की माँ पर हाथ छोड़ने लगे। किन्तु यार चाचा ने रोक लिया। बोले जो हो गया सो हो गया अब सबसे पहले आप लोग खा पी कर सुभ्यस्त होइए।

कुछ समय उपरांत तीनों बूढ़ी के पल्लू के नीचे मुँह चलने लगा। बड़ी बाबी एक रसगुल्ला मुँह मे दिए वो उनके गले मे जाकर फँस गया। ऐसे अटक गया कि आँख उल्टा हो गया, बेहोसी आने लगा। वो सहजो बुआ के गोदी मे गिरी। लाल चाची पानी का छींटा देने लगी। पंडिताइन पंखा झेलने लगी। फुच्चन की माँ आँसू-बलगम साफ करने लगी। जेब थोड़ा पानी पिलाया गया तब जाकर एकबार रसगुल्ला थोड़ा सड़का और बूढ़ी आँख खोली

उधर गूजर बाबा पेट पकड़ कर लेते हुए थे। मैं नजदीक मे जाकर पूछा क्या बाबा ! कुछ खाओगे ?

वो बोले खाऊँगा तो नहीं, यदि कागजी नींबू का शर्बत पिलाओगे तो पी लेंगे।

कागजी नींबू तो नहीं मिला। फेरीवाला से एक ग्लास शर्बत लेकर गूजर बाबा के हाथ मे दिया। वो ऐसे ही हाथ मे लिए रहे।

मैंने पूछा- बाबा पीते क्यूँ नहीं हैं?

वो बोले मैं क्या तुम लोगों कि तरह अंग्रेजिया हूँ कि गटगट पी जाऊंगा? पहले हाथ पैर धोऊंगा, कुल्ला करूंगा तब यह पीऊँगा कि ऐसे ही? पहले एक लोटा जल लाओ।

उनको जल दे ही रहा था कि गाड़ी की धमक सुनाई दी।   गाड़ी गई! गाड़ी गई ! चारो ओर खलबली मच गई। गुजर बाबा हड़बड़ा कर जो उठे तो असंतुलित होकर गिरने लगे। उनको आलोपीनाथ सम्हाले। उधर सहजो बुआ और लाल चाची मिलकर बड़ी दादी को पकड़ कर उठाने लगी।

गाड़ी आते ही मूसाई मामा अपना गठरी लेकर दौड़े। किन्तु दुर्भाग्यवश पांडित जी द्वारा फेंके गए केले के छिलके पर उनका पैर चला गया। वो सीधे नाक के बल गिरे। गठरी से लोटा लुढ़कते लुढ़कते कहाँ से कहाँ चला गया। जब तक वो उठते तब तक मुसाफिरों ने ऐसा रेलमपेल मचाया कि उनके साँच की गठरी पैरों तले रौंद दिया गया था। सब उसी पर कूदकर गाड़ी पर चढ़ने लगे थे।

बड़ी दादी और गुजर बाबा को किसी प्रकार से रेल मे चढ़ाया गया। जब गाड़ी चलने लगा तब दादी लाल काकी से पुछीं क्या जी? गाड़ी छूट गई? हम लोग यहीं रह गए? तब लोगों ने समझाया कि आप भी गाड़ी मे ही बैठी हैं।

किउल मे एक दूसरा ही कांड हो गया। मुसाई मामा का घुटना फट गया था। बीच बीच मे कराहते हुए जा रहे थे कुछ लोगों को चाय लेते हुए देख उनको शौख हुआ कि जरा पी कर देखते हैं कि कैसा होता है। खिड़की के बाहर सर करके जैसे ही पीने लगे कि जीभ जल गया। ऐसे तिलमिला कर उठे कि सीसा का ग्लास हाथ से छूटकर गिर गया। गरम चाय एक मुसाफिर के पैर पर गिरा और ग्लास चूर-चूर हो गया। अब मुसाइ मामा अवग्रह मे पड़ गए। वो मुसाफिर युद्ध करने हेतु चोटी पकड़ लिया उधर चाय वाला ग्लास का दाम वसूलने के लिए अलग ही सर पर सवार था। तबतक गाड़ी खुल गई। मुसाइ मामा को अचानक एक युक्ति सूझ गया। वो अपना चूड़चूड़ हुए साँच की गठरी उन दोनों के बीच फेंक दिए और इस प्रकार से दोनों यमदूत से अपना पिंड छुड़ाया। मुसाई मामा की ऐसी होशियारी देख पंडित जी बहुत प्रशंसा किए।

झाझा पहुँचते पहुँचते बड़ी दादी प्यास से व्याकुल हो उठी। वो चापाकल का पानी नहीं पीती थी। आलोपीनाथ बोतल से गंगाजल देने लगे। किन्तु रेल के उस बरहबर्ना डब्बे मे जल पीना उन्हे स्वीकार नहीं हुआ। बोली- अब एक ही बार बाबा के धाम पर पहुँच कर ही जल पियूँगी

जसीडीह पहुँचते ही यात्री के दल पर पंडाओं का आक्रमण आरंभ हो गया। खास कर बड़ी दादी और गूजर बाबा को देखकर वो लोग ऐसे ही मंडराने लगे जैसे लाश पर गिद्ध मँडराते हैं। बाबू कौन जिला घर? कौन प्रगना?  गाँव कौन सा?

देखते-देखते एक पंडा जोंक की तरह हम सब से चिपक गया। लाख झिड़कने के बाद भी हटने वाला नहीं। वैद्यनाथ धाम तक हमलोगों के साथ आए और जब हमलोग धर्मशाला मे आकार डेरा जमाए तब भी साथ ही रहे। वो बार बार प्रत्येक महिला से पुछने लगे माताराम ! किस प्रकार का दर्शन रहेगा? कौन सा जल लेकर पूजन होगा? हरिद्वार के जल से या नर्मदा के जल से या समुद्र के जल से? कितने का संकल्प रहेगा? कितने ब्राह्मणों का भोजन होगा?

मैंने कहा- अरे महाराज ! अभी तो जान छोड़िए। हम लोग खाएँगे, पिएंगे, आराम करेंगे। दर्शन करा दीजिएगा

यह कहना था कि बड़ी दादी मेरे पर क्रुद्ध हो गई तुम लोगों ने तो सारा धर्म-कर्म उठा दिया है। जब तक दर्शन नहीं होगा तब तक मैं पानी कैसे पी सकती हूँ?

गुजर बाबा ने भी उनका अनुमोदन किया। फलस्वरूप सभी लोग शिवगंगा मे स्नान करके पंडा के साथ बाबा के मंदिर को गए। केवल मैं और मूसाई मामा डेरा की चौकीदारी के लिए रह गए। कुछ देर मे अलोपीनाथ भी लौट आए।

मैंने पूछा- क्या जी? आप दर्शन करने नहीं गए?

वो बोले जल्दी से लोटा निकालिए। शौचालय किधर है?

यह कर वो कान पर जनेऊ चढ़ाते हुए हड़बड़ाए हुए विदा हुए।

दस मिनट बाद अलोपीनाथ आकर ओं-ओं उल्टियाँ करने लगे।

मूसाई मामा पुछे  - क्या जी! शौचालय कैसा था ?

यह प्रश्न सुनते ही अलोपीनाथ को और तेजी से उल्टियाँ होने लगी। आश्वास्थ भेला पर बोले मुझे तो अंधेरे मे कुछ दिखा नहीं। किन्तु बदबू जो फैला हुआ था अरे बाप रे बाप ! अभी तक सर फटा जा रहा है। मुझे तो चौखट के अंदर जाने का साहस नहीं हुआ। बाहर ही बैठ गया अब दूसरे के जाने योग्य नहीं है।

मूसाई मामा बोले तब अब मैं क्या करूँ? आपको दीपक लेकर जाना उचित था।

अलोपीनाथ बोला हा, एक दीपक तो यहाँ होना आवश्यक है।

मूसाई मामा बोले एक प्रकाश अवश्य रहना चाहिए

मैंने देखा ये दोनों चाहिए से आगे नहीं बढ़ेंगे। जानते हैं कि आवश्यकता तो दूसरे को ही है फिर अलोपीनाथ अपने कमर से पैसे क्यूँ निकालेंगे? और मूसाई मामा उनसे क्या कम थे कि अपना बटुआ खोलते? किन्तु केवल प्रस्ताव करने से तो प्रकाश नहीं होगा। अत: मैं उठा और बाहर से मोमबत्ती सलाई खरीदकर जलाए ले आया।

मूसाई मामा मोमबत्ती लेकर अंदर गए। पुनः बोले मुझसे अंदर नहीं बैठा जाएगा। बाहर मैदान से हो आता हूँ।

कुएं पर का दृश्य और विचित्र था। चारो ओर फिसलन, काई लगा हुआ। नीचे मे घुटने भर कीचड़ लगा हुआ। जगह-जगह पर दातुन की कुच्ची और जीभिया का ढेर लगा हुआ। शुद्ध मिट्टी ढूंढो तो कहीं मिलना नहीं। जिधर हाथ दो उधर ही भुरभुरा। अलोपीनाथ बीच चबूतरा पर हाथ मटियाते हुए धर्मशाला के लोगों की आलोचना करने लगा पापी सब आकर घिना देता है।

मैंने कहा अलोपी भाई आप भी तो इस काम मे योगदान दे रहे हैं। कल जो इस चबूतरा पर स्नान करने आएगा वो आपके लिए भी यही बात कहेगा।

अलोपीनाथ उठे तो मैंने एक बाल्टी पानी लेकर चबूतरा को साफ कर दिया।

अलोपीनाथ बोले ये तो फिर ऐसा ही हो जाएगा, व्यर्थ ही बाल्टी का पानी खर्च किए।

यह कह वो एक हाथ मे लोटा और दूसरे हाथ मे मोमबत्ती लेकर विदा हुए।

मैंने कहा - अलोपी भाई ! कुआं फिसलन भरा है। बचा के चलना

अलोपीनाथ बोले मैं क्या मूसाई झा की तरह अकुशल हूँ कि फिसल कर गिर जाऊंगा?

यह कहते हुए अलोपीनाथ फिसल गए। सम्हलने का बहुत प्रयास किए तथापि घुटने भर कीचड़ मे लुढ़क गए। धोती लथपथ हो गया मैंने अंदाजे से हाथ पकड़ कर उठाया। वो कराहते हुए बोले कमर टूट गया। सुबह मूसाई झा का मुंह देखकर उठा था, उसी का फल है अब सीधे शिवगंगा ले चलो।

मूसाई मामा शिवगंगा पर कुल्ला कर रहे थे। अलोपीनाथ को देखकर ठहाका लगाकर हँस पड़े। बोले कैसे बेढंगे हो। थोड़ा देखकर चलना चाहिए।

अलोपीनाथ उत्तर दिए दूसरे के लिए ऐसे ही बात निकलता है। आप जो मोकामा मे मुँह के बल गिरे थे! अभी तक नाक कुचाया हुआ है। मैंने देखा कि शायद बात बढ़ जाए। इसीलिए दोनों को शांत करते हुए पूछा कि आपलोग अभी भोजन क्या करेंगे?

अलोपीनाथ बोले – मेरे पास तो चने का सत्तू है। बहुत खुशबूदार। हरी मिर्च और नमक भी साथ मे ले लिया है। तुम अपने लिए जो लाओगे उसी मे से एक-दो चपाती मैं भी खा लूँगा ।

मुसाइ मामा से पूछा तो वो गिरगिराने लगे; मेरे साँच की पोटली तो किउल मे ही रह गया। अभी खास भूख नहीं है । तुम अपने लिए जो लाओगे उसी मे से एक-दो चपाती मैं भी खा लूँगा ।

अलोपीनाथ प्रेम से सत्तू घोलने लगे। मैं भी अपने लिए कुछ लाने हेतु बाजार की तरफ विदा हुआ। यह देख मुसाइ मामा याद दिला दिए – देखना मैं दो – चार चपाती से ज्यादा नहीं खाऊँगा। अतः मेरे लिए चार-पाँच से ज्यादा मत लेना। पाँच-सात से ज्यादा मुझसे नहीं खाया जाएगा ।

मैं दोनों के लिए आधा किलो गर्मागर्म पूड़ी- सब्जी ले आए। मुसाइ मामा कान बंद किए सोये हुए थे। मेरी आहट पाते ही फटाफट उठे। मैंने दोना-पत्तल उनके आगे रखकर अपने लिए पानी लाने कुएं पर गया। वहाँ बहुत फिसलन थी। इसलिए बहुत सावधानी से धीरे-धीरे अंगुली दबा कर वहाँ पर पानी भरा और कुल्ला आचमन करके हाथ पैर धोकर लोटा मे पानी लिए वापस आया।

तबतक देखता हूँ कि मुसाइ मामा सारा पूड़ी समाप्त कर पत्तल फेंक रहे हैं। बोले – वाह ! बहुत विलक्षण चपाती बनाया था। तुमने अच्छा किया कि दुकान पर ही भोजन करके चले आए । किन्तु ऐ जी! बहुत ज्यादा ले आए थे। मुझे इतने की आवश्यकता नहीं थी।

यह कहते हुए मुसाइ मामा ने तृप्तिसूचक डकार किया। मेरे तो मन मे आया कि कह दूँ – ‘अरे महाराजा? मेरा अंश भी तो आप ही उदरस्थ कर लिए। इसीलिए तो अभी डकार हो रहा है! किन्तु संकोचवश नहीं कह पाया। मैं चुपचाप दुकान पर जाकर भोजन कर आया।

ताबतक दर्शनार्थी सब का झुंड लौट आया। इन लोगों को अभी बाहर से ही दर्शन हुआ है । कल सुबह मे विधिवत पूजा करेंगी।

जिस आश्रय मे हम सब को डेरा मिला था वहाँ कुप्प अंधेरा था। मोमबत्ती के प्रकाश मे देखा तो जो सब धर्मयात्री वहाँ पहले ठहरे थे वो प्रचुर परिणाम मे अपना स्मृति चिन्ह छोड़ गए थे। थूक, बलगम, और जूठन से वो नरक कुंड बना हुआ था। मैं दुकान से एक झाड़ू लाकर उसे साफ किया। एक बाल्टी पानी से उसे अच्छे से धोया। तब बड़ा दरी बिछकर सभी को कहा – आ जाइए।

किन्तु आए केवल पुरुष वर्ग। स्त्रीगण वैसे ही बीच अँगने मे खड़े रहे। तब जाकर मुझे अपनी मूर्खता का बोध हुआ। जिस दरी पर गूजर बाबा, यार चाचा, पंडित जी प्रभृति बैठेंगे, उसपर बड़ी दादी , लाल चाची, पंडिताइन प्रभृति कैसे आ सकती हैं। जो नारी हजारों वर्षों से स्वयं को शूद्र तुल्य समझते आए हैं वो आज ब्राह्मण के समक्ष होकर कैसे बैठ सकती हैं। और जौं ऐसा दुस्साहस करती भी तो क्या पुरुष वर्ग को काय सहन होता? गूजर बाबा का नाक कट जाता। यार चाचा का मूंछ मुंडा जाता। पंडित जी की पगड़ी गिर जाती।

खैर। मैंने तुरंत ही अपनी गलती का सुधार किया। गूजर बाबा को संबोधित करते हुए कहा – क्या? आपका बिस्तर इसी पर लगा दूँ?

वो बोले – नहीं नहीं। तुम नहीं। अलोपीनाथ कर देंगे। और तुम भी उस तरफ अपना कंबल बिछा लो।

मैं उनका मुंह देखने लगा तो बोले – तुम समझते नहीं हो। अभी बारहों वर्ण का जूठा तुम उठाए हो। जबतक स्नान नहीं करोगे ताबतक अछूत जैसे रहोगे! क्यूँ जी पंडित जी ?

पंडित जी सर हिलाकर अनुमोदन किए। अगत्या मैंने अलग से अपना कंबल बिछाया। और स्त्रीगण एक कोने मे जिधर सबसे अधिक अंधेरा था दुबक कर लेट गई।

सुबह स्त्रीगण कब उठाकर अपने नित्यक्रिया से निवृत हुई हमे पता ही नहीं चला। नींद खुलने पर देखता हूँ कि सभी लोग शिवगंगा मे स्नान करके मंदिर जाने कि तैयारी कर रहे थे। गूजर बाबा का मुंह कुछ भारी देखा। पूछा – क्या बाबा? रात मे नींद खूब हुआ कि नहीं?

इतना पुछना था कि बाबा बूमकार छोड़े- तुम मेरे से मज़ाक करते हो? सारी रात मेरे पेट मे चूहा दंड पेला है और तुम पूछते हो कि नींद खूब हुआ?

मैंने विनय के साथ हाथ जोड़कर बोला – बाबा? आपने तो रात स्वयं ही कहा था कि भोजन नहीं करेंगे।

गूजर बाबा बोले – हा, किन्तु तुम्हारे लिए खुद क्या उचित था? और कुछ नहीं तो अमौट घोल कर भी तो दे दिए होते? तुम्हें क्या बोलूँ? बेवकूफ अलोपीनाथ को इतना नहीं खयाल आया । अब मुझे दिख रहा है कि अपटी खेत मे प्राण जाएगा।

अलोपीनाथ अमौट घोलने का उपक्रम करने लगे तो गूजर बाबा डांट कर बोले – अरे पागल! इतना ज्ञान भी नहीं है कि अभी बिना बाबा पर जल चढ़ाए मुंह मे कुछ कैसे दे सकते हैं?

खैर। सभी लोग एक एक लोटा जल लेकर बाबा के मंदिर जाते गए। केवल मैं डेरा के रखवाली मे रह गया। बैठे-बैठे धर्मशाला का दृश्य देखने लगा। हम लोग पवित्र स्थान को कैसे भ्रष्ट करते हैं यह देखना हो तो किसी धर्मशाला मे जाकर देखिए।

एक बाबाजी बीच आँगन मे दातुन कर वहीं पर कुच्ची और जीभिया फेंक कफ निकाल रहे थे। मैंने टोका तो बोले – ‘धरम साला’ किसी का खरीदा हुआ है?

मैंने कहा – नहीं बाबा, ‘धरम साला, तो आपही का है। जो करना हो कीजिए।

जो धर्म को अपना ‘साला’ समझ सकता है वो सुरालय को भी अपने ससुरालय मे परिणत कर सकता है। ऐसे ऐसे यात्री को स्वर्ग मे स्थान नहीं मिलना चाहिए। क्योंकि जो धर्मशाला को ‘जर्मशाला’ बना सकते हैं उनको ‘अमर टोली’ को ‘चमार टोली’ बनाने मे कितनी देर लगेगी।

एक सुबह गए गए भक्त लोग ठीक बारह बजे लौट कर आए । सभी लोगों का मुंह का रंग उड़ा हुआ था। पता चला कि ये लोग इस-इस तरह से पंडा के फेर मे फँसते गए कि कोई दशा बाँकी नहीं रहा। बड़ी बाबी मंदिर मे दाब-पिच गई। अधमरू होकर हाँफते हुए आई है। गूजर बाबा को अलोपीनाथ गोद मे उठाए आए हैं। सहजो बुआ को पंडा ऐसे न संकल्प पढ़ाया कि जितने रुपए लाई थी सारा ले लिया। लाल चाची को बाईस जगह प्रणाम करवा कर बाईस रुपए ले लिए । फुच्चुन माई को एक बोतल पानी देकर पीछे दस रुपए वसूल लिए । आलोपीनाथ के माथे पर लोटा गिर गया उससे एक बड़ा गुमड़ा उग आया। इस प्रकार सभी को एक न एक चरण लग ही गया था।

अब विचार होने लगा कि आगे क्या किया जाए? वृद्ध लोगों को आशक्त देख यार चाचा और पंडित जी कि राय हुई कि गूजर बाबा और बड़ी दादी अब आगे नहीं बढ़ें। पंडित जी का मौसेरा भाई मूसन झा यहीं धाम पर पूजापाठ करते थे । वही घर पहुंचा देंगे। किन्तु यह विचार न बाबा को मान्य हुआ न दादी को।

गूजर बाबा बोले – मैं बच जाऊंगा तो तीर्थ करके घर लौटूँगा। नहीं, यदि रास्ते मे कुछ हो गया तो तुम लोग हो ही, एक लकड़ी डाल देना। उदय हाथ मुद मंगल मोरे। इस खातिर चिंता क्यों कर रहे हो?

बड़ी दादी भी लाख समझाने पर भी नहीं मानी। बोली- आह! यदि यह शरीर जगन्नाथ जी के काम आ जाए तो इससे बढ़ कर और क्या आनंद हो सकता है? जहां गिर जाऊँगी, वहीं फूँक देना।

अगत्या पुनः सभी मोटा-पिटारा बांधने लगे। भोजन के बाद सभी लोग स्टेशन पर आते गए। वहाँ देखा कि यार चाचा, पंडित जी और अलोपीनाथ कुछ गुप्त परामर्श कर रहे थे । मुझे देख अलोपीनाथ बोले – अरे बाबू! तुम कहते हो कि कलकत्ता होते हुए पूरी चलें। किन्तु पंडित जी का विचार है कि आसनसोल से सीधे खड़गपुर होते हुए पूरी जाने पर किराया कम लगेगा। तब कलकत्ता होते हुए क्यूँ जाएँ? वो क्या कोई तीर्थ है ?

मैंने कहा – केवल कुछ ही अंतर किराया मे पड़ेगा। किन्तु उससे बहुत अधिक सुविधा होगी। और कलकत्ता मे कई देखने योग्य वस्तु हैं वो भी देखते चलेंगे।

अलोपीनाथ सभी की रुचि देख उचितवक्ता जैसे बोले – अरे बाबू! हमलोग हैं गरीब आदमी। जिसमे कम खर्च पड़ेगा उसी रास्ते से चलेंगे। किन्तु तुम्हें यदि अपना शौक है कि सभी को कलकत्ता दिखाते हुए चलें, तो जितना अधिक लगेगा वो तुम देना।

जबतक मैं कुछ उत्तर देता तबतक मुसाइ मामा बोल उठे – ये कौन भारी बात है ? दस लोगों मे दस रुपए ज्यादा लगेंगे वो ये दे देंगे। अरे, जब ये अग्रेश होकर लाए हैं तो अभी यदि किसी के देह-नेह को कुछ हो जाता है तो फिर सारा खर्चा इन्ही का लगेगा या किसी और का ?

मैंने देखा कि इस विषय मे अलोपीनाथ और मुसाइ मामा मे एकमत्य है, रंगमात्र भेद नहीं। ताबतक सहजो बुआ मेरे तरफ देखकर बोली – मैं तो जो लेकर आई थी वो सारा यही पर पंडा ले लिया। आगे जो खर्च पड़ेगा वो तुम किए जाओ। मैं गाँव पहुँच कर दे दूँगी।

अस्तु। भागीरथ प्रयास के बाद किसी प्रकार हमलोग कलकत्ता वाले गाड़ी मे चढ़े । कौन कैसे डब्बे मे चढ़ा उसका ठिकाना नहीं रहा।

प्रातः काल जब सभी लोग हावड़ा स्टेशन पर उतरे तो गिनती होने लगी। लोग पूरे हो गए तब समान कि खोज शुरू हुई। और सारी वस्तुए तो मिल गईं बस एक बक्से का पता नहीं लगा। एक दूसरे को दोष देने लगे। तब यार चाचा बोले – अब व्यर्थ बहस करने से क्या फायदा। आगे सावधान रहें।

पूरी की गाड़ी रात मे मिलेगी, तबतक यहीं समय बिताना पड़ेगा। दिन भर प्लेटफॉर्म पर बैठ कर क्या करेंगे? ताबतक घूमफिर कर कलकत्ता क्यूँ न देख लिया जाए ?

किन्तु हाबड़ा के हड़बड़-खड़बड़ देख कर गूजर बाबा को साहस नहीं हुआ। बोले – ये मायापुरी है। मैं इस भूमि पर पैर नहीं दूंगा। तुमलोग नए पीढ़ी के हो, जाकर देख आओ। मैं आज दिन भर यहीं आराम करूंगा।

यार चाचा और पंडित जी को कलकत्ता देखा हुआ था। अतः वो दोनों भी गूजर बाबा के सेवा मे रह गए। बड़ी दादी और सहजों पीसी भी वहीं रहना पसंद की। शेष स्त्रीगण मेरे साथ कलकत्ता देखने के लिए चली। मुसाइ मामा और अलोपीनाथ भी साथ लग गए।

हावड़ा स्टेशन से बाहर आकार सभी लोगों को तट्राम के पास ले आया। मुसाइ मामा ट्राम गाड़ी को हाथ से अच्छे से ठोक बजाकर बोले – अजब सवारी है। कौन सर है कौन पूंछ कुछ पता ही नहीं चलता है। बिजली पर ही चलती है। धन्य कहें अंग्रेज़ बहादुर का जो ऐसी ऐसी वस्तु बनाकर रख गए हैं।

ताबतक ट्राम सरसराने लगा। मुसाइ मामा चिल्ला उठे – अरे ! यह तो मुझे लिए जा रहा है।

उनका हाथ पकड़ मैंने उतारा।

वो बोले- नहीं, नहीं। ऐसी बेयख्तियारी सवारी पर नहीं चढ़ना चाहिए। कब चल दे, कहाँ ले जाए उसका ठिकाना नहीं। सवारी तो उसे कहें जो जहां कहें ‘अरे रुक’ वहीं खड़ी हो जाए।

तबतक दूसरा ट्राम आ गया । मैंने महिलाओं से कहा – चढ़ते जाइए। आगे कुर्सी पर बैठ जाइए। ढढ़ियर वाली पंडिताइन का मुँह देखने लगी, पंडिताइन और फुच्चुन माई लाल चाची का। ये लोग मुँह देखते हुए खड़े रहे।

ऐसे-ऐसे जगह पर ही अनुभव होता है कि अपने और अन्य प्रांत की महिलाओं के अभिवृत्ति मे क्या अंतर होता है। “गंगा बहे जिसके दक्षिण दिशा, पूर्व कोशी की धारा। पश्चिम बहे गंडकी, उत्तर हिमालय विस्तारा” – इस चौहद्दी मे वह अभिवृत्ति मिलना दुर्लभ है।

जब अचानक ट्राम चलने लगा तो फुच्चुनमाई असंतुलित होकर ढढ़ियर वाली पर आ गई, और दोनों के धक्के से लाल चाची गिर गई। मुसाइ मामा बोले – मैं पहले ही कह रहा था कि ऐसी सवारी पर नहीं चढ़ना चाहिए। ये रो रक्ष रहा कि बड़ी दादी नहीं हैं, नहीं तो एक ही धक्का मे भवसागर पार हो जाती।

ट्राम धर्मातल्ला पहुँच गया। सभी को उतारा। अब यहाँ से कालीघाट वाले ट्राम पर चढ़ेंगे। किन्तु देखा तो अलोपीनाथ का पता नहीं। वो कहाँ लोप हो गए?

मुसाइ मामा बोले – मैंने उन्हे खड़ाम पहने ‘टड़ाम’ पर चढ़ते देखा था। उसके बाद क्या हो गए ये नहीं कह सकता हूँ।

लाल चाची बोली – उनको यहाँ कुछ देखा-समझा नहीं है। अकेले खो जाएंगे। अब सबसे पहले उन्हे खोजकर उपकर करना चाहिए।

हे भगवान ! इस कलकत्ता नगरी के विशाल जनसमुद्र मे अलोपीनाथ का पता कहाँ लगाया जाए ?

मैं इसी चिंता मे मग्न था कि अलोपीनाथ दिख पड़े। कान पर जनेऊ चढ़ाए वो आगे आगे दौड़े आ रहे थे और पीछे पीछे एक ट्राम उनका पीछा कराते हा रहा था। मैं दौड़ कर उनका हाथ पकड़े ले आया।

वो बोले – ओह! आज कटते कटते बचा। गया था थोड़ा पेशाब करने ! सो जहीं बैठूँ, वहीं हड़हड़ करता एक ‘टड़ाम’ पहुँच जाए। अरे बाबू! जिधर देखूँ उधर ही एक कानखजूरे की तरह सरसर चला आता। मैं घिर गया और भागा तो एक पीछे से खदेड़ते चला आ रहा था वो तो देखा ही तुमने। अब ऐसे स्थान मे नहीं रहना चाहिए ।

कालीघाट के ट्राम पर सवार होकर हमलोग काली मंदिर आए । वहाँ एक झुंड पंडा और पंडाइन ने हम सब को पकड़ लिया। सभी लोग घाट पर स्नान कर मंदिर मे फल फूल प्रसाद चढ़ाकर दर्शन किए। महिलाओं ने भिंगी साड़ी एक तरफ फैला दिया और मंदिर प्रांगण मे बैठकर भगवती गीत गाना शुरू  कर दिया। - जय जगनन्दिनि भवतारिणि जगदम्बे !

अलोपीनाथ बोले – केवल गीत से पेट नहीं भरेगा। मैं जा रहा हूँ उस दुकान पर।

मुसाइ मामा बोले – चलो मैं भी चलता हूँ।

दोनों एक दूसरे से ‘आप खिलाईये’ ‘आप खिलाईये’ करते हुए सामने मिठाई के दुकान पर गए। मैं चुपचाप वहीं बैठकर दोनों के गतिविधि का निरीक्षण करने लगा। अत्यंत मनोरंजक दृश्य दिखने मे आया । दोनों लोगो कुर्सी पर पालथी मार कर डट गए और गरमागरम पूरी जलेबी पर हाथ फेरने लगे।

आज मुसाइ मामा और अलोपीनाथ मे विशेष मित्रता हो गया था। इसलिए एक साथ सम्मिलित होकर एक टेबल पर बैठे थे।

अलोपीनाथ विचारे कि यदि पहले खाकर उठ जाऊंगा तो हलुआई मेरे से ही दाम माँगेगा। अतः पहले इन्ही को उठने देना चाहिए। यह विचार कर वो अंतिम जलेबी को अत्यंत मंद गति से काटनेलगे।

इधर मुसाइ मामा खुद ही फटकनाथ गिरधारी, जिनको लोटा न थाली ! वो अपने अंतिम चपाती को और मंद गति से काटने लग गए। दोनों दोस्त मे 'स्लो ईटिग कम्पिटीशन' चलने लगा ।

अंत मे मुसाइ मामा विजयी हुए। अलोपीनाथ उठकर हाथ धोने आँगन मे गए। वहाँ जान बूझकर बहुत देर तक खरिका करने लगे। परंतु मुसाइ मामा खुद ही बहुत चालाक । अलोपीनाथ का चालाकी देख वो समझ गए कि इंका खरिका जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है । बस, वो चट से लोटा मे पानी लेकर कान पर जनेऊ चढ़ा कर एक तरफ विदा हो गए।

अलोपीनाथ परास्त हो गए। अंततः दोनों व्यक्ति के भोजन का दाम एक रुपया चौदह आना उनही को जेब से बाहर करना पड़ा। मन मसोस कर रह गए। मनमे लक्ष्य करके मुसाइ मामा को गाली दिए।

जब मुसाइ मामा नकली शौच से वापस आए तो अलोपीनाथ उनकी धृष्टता देख अंदर ही अंदर कुफ़र कर रह गए! किन्तु बोले तो बोले क्या ?

परंतु इस क्षुद्र घटना का परिणाम आगे जाकर बाहर आया। दोनों व्यक्ति के क्षणिक मैत्री के कोमल तन्तु पर ऐसा मार्मिक आघात लगा कि वो मृणाल-सूत्र बीच से दो खंड हो गया।

जब स्त्रीगण प्रसाद पा चुकी थी तब मैंने लाल चाची से पूछा – अब किधर चलेंगे?

वो बोली जिधर ले चलोगे।

मैंने कहा – चिड़ियाँघर चलिए ।

लाल चाची – वहाँ क्या कोई देवता हैं? तब जाकर क्या करेंगे? किसी देवस्थान ले चलो ।

मैंने कहा – फिर तो पारसनाथ मंदिर चलिए।

वहाँ पहुँचकर अलोपीनाथ और मुसाइ मामा मे झड़गा फंस गया। मुसाइ मामा बजलाह - न गच्छेत् जैनमन्दिरम्। इस मंदिर मे नहीं जाना चाहिए।

अलोपीनाथ बोले – आप पंडिताई छाँट रहे हैं। इतने लोग जो जा रहे हैं वो बेवकूफ हैं और आप ही एक बुद्धिमान हैं!

मुसाइ मामा बोले – आप शास्त्र नहीं पढे हैं तो क्या समझोगे ?

अलोपीनाथ को एक रुपए चौदह आना का विष था। यह बात सुनते ही ज्वाला धधक उठा। बोले – ओ! आप दक्षिण के ब्राह्मण होकर क्या बोलेंगे ?

मुसाइ मामा क्रुद्ध होकर बोले – आपके कुल खानदान मे किसी ने शास्त्र का मुंह भी देखा है? पिता फरठिया बाभन थे। आप स्वयं बीड़ी बेचते हो। ब्राह्मण के कोख से जन्म लेकर बनिया का पेशा करते हो। और उसपर लज्जा नहीं आटो है कि शास्त्र का नाम लेते हैं। पतित!

इतना सुनते ही अलोपीनाथ मुसाइ मामा के गले मे हाथ डाल दिए। मुसाइ मामा गिरगीरने लगे। अरे दौरिए जी। यह चांडाल ब्रह्महत्या कर रहा है।

मैं आगे बढ़ गया था। मुसाइ मामा का आर्तनाद सुनकर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो दोनों मे गुत्थम गुत्थी हो रही थी। मैंने दौर कर दोनों को अलग किया।

तब तक महिलाओं को ऐसा बघजर लग गया था कि सभी मूर्ति बनकर खड़े थे। अब सभी लोग अलोपीनाथ को दस हजार ताने देने लगे। लाल काकी बेज्जत करते हुए बोली – छि: ! तुम्हारी बुद्धि कैसी हुई ? परदेश मे आकार लड़ाई कर रहे हो? अपने से बड़े पर कोई हाथ छोड़े? अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी – सुनो लोगों! अभी बुरा मुहूर्त बीत रहा है। अब लौट कर चलते चलो स्टेशन पर ।

स्टेशन पर आकार दिखा कि गूजर बाबा को बुखार लग गया है। यार चाचा पंखा झेल रहे थे। उधर सहजो बुआ बड़ी दादी के सर पर गुलरोगन पचा रही थी। पंडित जी समान पर अटके हुए नवग्रह स्त्रोत पाठ कर रहे थे।

10 बजे रात मे हमलोग एक्स्प्रेस मे सवार हुए और दूसरे दिन प्रातः काल पूरी पहुँच गए। स्टेशन पर उतरते ही हमलोग चारो ओर से पंडा के चक्रव्युह मे फंस गए । एक ने गूजर बाबा का हाथ पकड़ा। दूसरे ने बड़ी दादी की डाली उठा ली। तीसरा पंडित जी को घसीटने लगा।

हमलोगों के लाख प्रयान्त के उपरांत भी उस नागपाश से अपने को छुड़ा नहीं पाए। अंततः शिकारी कुत्ते से घिरे भेड़ के झुंड जैसे हमलोग समुद्र किनारे स्वर्ग द्वार तक आ गए। पंडा लोग स्त्रीगण के हाथ मे अक्षत नारियल देकर संकल्प पढ़ाने लगे। तब वो लोग लहर लेने हेतु पंक्तिबद्ध होकर सर झुकाकर बैठ गई।

एक ही बार समुद्र का लहर आया और उसमे सभी महिलाएं बह गई। बड़ी दादी डूबने लगी। सहजो बुआ उनको सम्हालने गई तो खुद भी कई पलटी खाकर गिरी । लाल चाची को चार हाथ ऊपर फेंक दिया। पंडिताइन को ऐसे न लोटपोट किया कि पीठ कंधा सब छील गया। फुच्चुन माई का चंदहार कहाँ बह कर गया उसका पता नहीं। तबतक जगदंबा चिल्ला उठी – अरे अरे , ढढ़ियार वाली को बहाए जा रहा है।

वास्तव मे समुद्र का लहर ढढ़ियरवाली को पीछे की ओर बहा के ले जा रहा था । वो अपने बहते हुए साड़ी को पकड़ने का निष्फल प्रयास कर रही थी। ताबतक दूसरा हिलकोर उनको घाट पर लाकर पटक दिया। । वो झट से साड़ी सम्हालकर उठने लगी। किन्तु मुँह नाक मे बहुत सारा समुद्र का पानी चला गया था। उल्टियाँ होने लगी जिससे बेसुध हो गई। लाल चाची उनका पीठ सहलाने लगी। तबतक हल्ला उठा कि बड़ी दादी बेहोश हो गई है।

एक ही लहर मे तो यह हाल। पुनः दूसरा लहर लेने का साहस किसी को नहीं हुआ। महिलाओं की यह हालत देख पुरुष लोग भी सतर्क हो गए। गूजर बाबा चुल्लू भर जल लेकर दूर से ही सिक्त कर लिया। यार चाचा और पंडित जी घुटने भर जल मे उकड़ू बैठकर लहर लेकर भागे। मैं, अलोपीनाथ और मुसाइ मामा जल मे प्रवेश कर गए। अलोपीनाथ और मुसाइ मामा एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ने लगे । तबतक एक बड़ा हिलोर आया जो अलोपीनाथ का गमछा बहा कर ले गया और मुसाइ मामा के कमर से चाबी का गुच्छा! दोनों समुद्र को गाली देते हुए बाहर आए।

जगन्नाथ जी के मंदिर मे पहुँचने के बाद जो दुर्दशा हुआ वो वर्णनीय नहीं। जैसे ही हमलोग सिंहद्वार पर पहुंचे कि फट से एक व्यक्ति ने लपक कर गूजर बाबा के कपाल पर तिलक कर दिया। गूजर बाबा ने एक कैचा दिया तो फेंक दिया और भोजन का दावा करने लगा। एक व्यक्ति यार चाचा के हाथ मे जबर्दस्ती एक फूल थमहा दिया और रुपए की मांग करने लगा। एक व्यक्ति पंडित जी के गले मे माला पहना कर नए वस्त्र हेतु चराने लगा। एक व्यक्ति बड़ी दादी को पटाने लगा कि अटका पर कितना चढ़ाओगे?

इस प्रकार से कदम कदम पर सत्कार प्राप्त करते हुए भक्तगण मंदिर के भीतर पहुंचे ।

जो कुछ कसर बाँकी था वो दर्शन के समय पूर्ण हो गया। दोनों ओर के रेड़ा के बीच मे बड़ी दादी गर्मी से बेदम हो गई। उनको पंडा अपने कंधे पर चढ़ाकर बाहर लाए। पानी का छींटा देने पर होश हुआ।

बड़ी दादी जाकर बत्तीस रुपए अटका पर चढ़ा आई। बोली – यही जमा उस जगह काम देगा। और क्या कुछ साथ जाता है?

बड़ी दादी का भक्ति देख पंडा लोग जयजयकार कर दिए ।

तब लाल चाची भी बत्तीस रुपए बाहर किए । देखादेखी होड़ लग गया। क्रमशः पंडिताइन, ढढ़ियर वाली, फुच्चुन माई सभी अपने अपने गेंठ खोलने लगे।

तबतक एक झुंड देवता सभी के पीछे लग गए कि ब्राह्मण भोजन कराइए। हमलोगो मे कोई खाया नहीं था। सभी भूख से लहालोट, और उसपर भिक्षुक दल कंठ पर सवार! ऐसा दृश्य धर्म-प्राण भारतवर्ष छोड़ और किस देश मे मिल सकता है?

अस्तु। होते होते ब्राह्मण भोजन हुआ। उसके बाद दक्षिणा के लिए बवंडर उठ गया। इस प्रकार से बारह से दो बज गया। तब सभी लोग धर्मशाला मे आकर डेरा डाले। किसी को होश नहीं था। जब पंडा जी भरी टोकरी महाप्रसाद लाए तब सबको जैसे चैतन्य हुआ। पीछे जाकर ज्ञात हुआ कि इस प्रसाद का मूल्य कैसा होता है। क्योंकि लौटते वक्त पंडा जी यार चाचा से हेंडनोट लिखाकर एक का चार गुना दाम वसूल कर लिए।

अस्तु। संध्याकाल पंडा जी आकार सभी को आरती दिखाने ले गए। और इस बहाने से एक बार पुनः शोषण का अवसर उनको मिल गया। सभी लोग निचोरे हुए नींबू का लुगदी बन गए, तथापि उनको चूसने का लालच नहीं गया।

दूसरे दिन प्रातः काल लोग चन्दन तालाब मे स्नान कर जनकपुर गए। वहाँ पर भिक्षुक का पलटन हमलोगों को घेर लिया। जितना भजाए हुए खुले पैसे थे वो सारा बाँट दिया तथापि जान छुड़ाना कठिन हो गया। एक को देने पर चार लोग जुट जाए और जिसे नहीं मिले वही शनिदेव की तरह पीछे लग जाए। मैं मन मे सोचने लगा कि इसका कारण क्या है ? दरिद्रता?लालच? मूर्खता? अथवा इस देश की अंध दानशीलता?

रात मे घूम-घाम कर धर्मशाला आया तो देखता हूँ कि  'तीन तिरहुतिया तेरह पाक' चरितार्थ हो रहा है। यार चाचा और पंडित जी मे इतना मैत्री होने के बावजूद दोनों व्यक्ति का चूल्हा अलग जल रहा है। सहजो बुआ अलग से अपना खिचड़ी उबाल रही हैं। अलोपीनाथ दोनों व्यक्ति कंडे जोड़कर लिट्टी और परवल का चोखा बना रहे हैं। मुसाइ मामा अटका पर चार पैसे का प्रसाद खरीद लिए हैं, वही भोग लगा रहे हैं। इस प्रकार से सभी का अलग-अलग खटाल ही था।

मैं रात मे सोये-सोये विचार करने लगा कि वो कलकत्ता वाला स्वप्न अंतत: नहीं ही फलित होगा। क्या वो एकता वो सहयोग हमारे समाज मे असंभव है? मैंने किस उत्साह से यह दल संयोजित किया और क्या फल मिला? 'विनायकं प्रकुर्वाणः रचयामास वानरम्।' क्या इतना श्रम और व्यय व्यर्थ गया? अब भी प्रयास करके देखना चाहिए कि इस दिशा मे कहाँ तक सफलता मिलती है।

सुबह उठकर मंडली को सविनय निवेदन किए कि आज सभी लोगों को मेरे तरफ से निमंत्रण है। यह सुन सबको प्रसन्नता हुई।

पंडित जी बोले – वाह! वाह! बहुत उत्तम विचार। यह आप ही से होगा। क्यों नहीं? क्यों नहीं?

यार चाचा बोले – अरे बाबू ! आप तो आदर्श नवयुवक हैं। मैं गाँव पहुंचुंगा तो दस लोगों मे आपकी प्रशंसा करूंगा ।

गूजर बाबा अनुमोदन करते हुए बोले – इसमे क्या संदेह? इनका वंश कैसा है? पक्षधर मिश्र की संतान

जबतक भक्तगण मंदिर मे दर्शन करने गए तबतक मैं भोजन की व्यवस्था मे लग गया। अलोपीनाथ और मुसाइ मामा को साथ मे लेकर दुकान पर गया। वहाँ टोकरी मे पूरी, सब्जी, चटनी, रायता, मिठाई, अँचार, दही, चीनी, सभी वस्तुएँ पर्याप्त मात्र मे लेते आया।

धर्मशाला के पीछे एक छोटी सी फुलवारी थी। हमलोगों ने वही स्थान चुन लिया। सभी समान लेकर उस जगह रखवाया। मुसाइ मामा और अलोपीनाथ को पत्ते-पानी का जिम्मा दिया । तबतक ढढ़ियार वाली को बोला - आप ही पूरी – मिठाई परोसना । जगदंबा को बोला तुम ही सब्जी दही चीनी परोसना।

इस प्रकार मैं काम बाँट रहा था , तबतक शेष महिलाएं भी पहुँच गई। मैंने सभी को गोल पंक्ति मे बैठा दिया। बड़ी दादी को समझ मे नहीं आया। बोली- क्या? यहाँ पर कोई पूजा होगी?

अलोपीनाथ बोले – जी, असली पूजा होगी!

लाल चाची बोली – तुम लोगों को कौन कौन सा खेल मन मे आता रहता है? यहाँ पर लोग कैसे खाएँगे? ना लिपा हुआ , न बुहारा हुआ, ण ही एक्बट्टी हुआ!

मैंने सविनय कहा कि यहाँ परदेश मे यह सब नहीं लगता है और यह तो धर्मक्षेत्र है।

अलोपीनाथ और मुसाइ मामा भी थोड़ा लजाते हुए अपना पानी-पत्ता लेकर पांति मे बैठ गए।

तब मैं शेष पुरुषों को बुलाने हेतु धर्मशाला के अंदर  गया।

यार चाचा पुछे – किस जगह प्रबंध है?

मैंने कहा – उद्यान मे ।

पंडित जी व्यंग करते हुए पूछे  - क्या ? कुर्सी मेज का भी इंतजाम है?

मैंने कहा – नहीं नीचे मे ही आसन लगा है । 

गूजर बाबा पूछे – क्या सब खिलाओगे ?

मैंने कहा – पूड़ी, सब्जी, मिठाई, अचार, दही-चीनी,

गूजर बाबा बोले मैं तो नमक दिया हुआ सब्जी खाऊँगा नहीं। हाँ थोड़ा दही-चीनी लेकर मधुपर्क कर लूँगा। चलो यह भो भी देख ही लिया जाए।

तीनों लोग प्रसन्न चित्त से मेरे पीछे चले। परंतु भोज के स्थान पर दृष्टि परते ही एकाएक ठिठक कर सभी खड़े हो गए। जैसे बघजर लग गया हो। स्त्रीगण पत्ते पर बैठी है और ढढ़ियाबाली तथा जगदम्बा आँचल बांध कर परोस रही हैं। ऐसा अभूतपूर्व दृश्य देख तीनों व्यक्ति स्तंभित रह गए।

पंडित जी बोले – मुझे तो लग रहा था कि महिलाएं पीछे खाएँगी । जब वही लोग पहले बैठ गए तो हम लोगों को अभी बिझो क्यों कराया गया?

यार चाचा बोले – उस गोले मे दो पुरुषों को बैठे देख रहे हैं। बीच मे चार खाली आसन देख रहे हैं। क्या? हमलोगों को भी ले जाकर आप उसी बीच मे बिठाना चाहते हैं?

गूजर बाबा क्रोध से थरथर कांपते हुए बोले – तुम यहाँ पर भैरवी चक्र लगाना चाहते हो ? इसी खातिर हम लोगों को यहाँ ले आए हो ?

मेरे मुँह से कुछ उत्तर नहीं निकाला। अपराधी की तरह मौन रहा। अब जाकर बड़ी दादी और सहजो बुआ को वस्तुस्थिति का बोध हुआ। दादी मेरी ओर आग्नेय नेत्रों से देखते हुए बोली – तुम पुरुषों के बीच मे हमलोगों को बिठाकर बेज्जत करते हो? सब को भ्रष्ट करना चाहते हो ? जो किसी ने नहीं किया वो तुम करोगे? सो जबतक हमलोग जीवित हैं तबतक नहीं होने देंगे। रखो मिठाई अपने सर पर!

यह कहकर वो पत्ते को तोड़-मरोड़ कर और ज्यादा ज़ोर से दूर फेंक दी ।

पंडित जी पंडिताइन को ताना देते हुए बोले – आप भी अपटुडेट बनना चाहती हैं। मार बेंत घुटना तोड़ दूंगा, नहीं तो उठिए!

यार चाचा लाल चाची को डांटते हुए बोले – आप जो मकुना माधव जैसे पालथी लगाकर बैठी हो सो लज्जा नहीं आती है ? उठिए ।

अपने पक्ष का बहुमत देख सहजो बुआ और बाघिन बन गई। शेष महिलाओं पर अग्निवर्षा करते हुए बोली – अरे फुच्चुन माई ! आप बड़ी गब्बर हैं। इतना हो गया और आप पत्ता लिए बैठी हैं? क्या मिठाई आँख से कभी देखी नहीं हैं? और ढढ़ियार वाली को न देखिए ! ये भी छमछम करके परोसने गई है! सभी सखी झुम्मरी खेले, लूल्ही बोली मैं भी! सिंह कटे कटरे मे मिझर होने जाते हैं ! और जगदंबा जो इतना फ़चर फ़चर कर रही है सो मैं क्या बोलूँ ? चौदह वर्ष हो गया है। अब क्या बाँकी है ? कुमारि-वारि कहीं ऐसे करे ! किन्तु कौन बोले ? मैं क्या अंधी हूँ ! सब देखा है । पर जानकर होगा क्या ? आज-कल क्या कोई विचार है ?

परिणामस्वरूप पंडिताइन, लालचाची , जगदम्बा, ढढियावाली, ओ फुच्चुनमाय सभी खट्टे मन से उठ विदा हुई। अलोपीनाथ और मुसाइ मामा देखे कि अब सभी उठ गए हैं तो अंततः वो दोनों भी विवश होकर पत्ते पर से उठ गए।

अब गूजर बाबा वज्र कठोर शब्द मे मुझे संबोधित करते हुए बोले – अभी तुम गाँव मे रहते तो पाँच पंच मिलकर तुमपर जुर्माना करते। परंतु परदेश मे हो इसलिए मैं छोड़ देता हूँ। तुम्हारी सजा बस इतना कि तुम अभी तुरंत अपना झोला-झपटा उठाकर डेरा कहीं अन्य ले जाओ। हमलोग एक मिनट तुम्हारे साथ नहीं रह सकते हैं। मैं शुरू से ही तुम्हारी नास्तिकता देखते आ रहा हूँ। परंतु अंदर मे इतना गुंडई भरा है यह भान नहीं हो रहा था। अब सभी बात दर्पण की तरह झलक रहा है। तुम अच्छे लोगों के बहू, बेटी के साथ रहने योग्य नहीं हो । या तुम्ही अन्य कहीं डेरा करो अथवा हमलोग ही कहीं अन्यत्र चले जाते हैं। बस, अब तुम्हारा एक भी शब्द नहीं सुनुंगा।

यार चाचा और पंडित जी अपने को कुछ आधुनिक विचार का समझते थे । परंतु अभी एक भी अक्षर किसी के मुँह से नहीं बाहर निकला ।

मैं चुपचाप अपना सूटकेस और बिस्तर उठाया और रिक्शा पर चढ़ कर पराजित सैनिक जैसे स्टेशन विदा हुआ । रास्ते मे जगन्नाथ जी के चमकते हुए कलश को प्रणाम करते हुए कहा – हे बाबा जगन्नाथ ! मैं धन-धन्य आरोग्य-संतति नहीं मांगता हूँ । जौं आप मे यथार्थ सामर्थ्य हो त हमरा जाति के बुद्धि प्रदान करू !

अनुवादक – प्रणव झा

 

 

 

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