Friday 19 January 2024

संगठन की समस्या (लेखक : हरिमोहन झा । अनुवादक : प्रणव झा)

 

श्रीमान् सम्पादक जी,

यहाँ कुशल है, वहाँ भी होगा। आगे बात यह है कि आपका पत्र मिला। किन्तु लेख क्या भेजूँ यह मन मे ही नहीं रहा है।

पता नहीं किस लग्न मे यह उन्माद सवार हुआ कि समाज का संगठन करू। एक निवेदन लिखा और विशिष्ट व्यक्ति की सूची बनाकर एक तरफ से विदा हुआ। कहा कि पहले विद्यालय से ही शुरू किया जाए। सबसे पहले व्याकरणाचार्य मिले। नम्रतापूर्वक बोलासमाज का संगठन””

व्याकरणाचार्य बात काटते हुए बोले -प्रथमग्रासे मक्षिकापातः! 'संगठन' शब्द ही अशुद्ध है। यह किसी भी प्रकार से पूर्ण नहीं हो सकता है।

मैंने कहा -परन्तु....

वै०-परन्तु क्या? 'गठ्' धातु व्याकरणमे है ही नहीं, तब उपसर्ग-प्रत्यय लगेगा किस मे? आपलोग जोरजबर्दस्ती से करोगे वो हम कैसे मान लेंगे? 'गठ्' धातु आप कहाँ से लाए? पाणिनि का सूत्र दिखाईए। 'संगठन' कभी भी हो ही नहीं सकता है।

मैंने मन ही मन कहासच मे नहीं हो सकता है। त्रिकाल में भी नहीं। जबतक आप जैसे विद्या-दिग्गज विद्यमान रहेंगे तबतक 'संगठन' की क्या कथा 'गठन' भी नहीं हो सकता है सामने से कहा तब यहाँ पर कौन सा शब्द होना चाहिए?

वै० जी बोले-'संघटन' शब्द होना चाहिए। सम्यक् रूपेण घटनम् इति संघटनम्। 'सम' उपसर्गपूर्व के 'घट्' धातुमे ल्युट् प्रत्यय लगाइए। तब मेरा कोई विवाद नहीं रहेगा।

मैंने कहा अच्छी बात हैफिर यही रहे

बै० जी बोले- सो नहीं होगा, काट कर बना ही दीजिए। तबतक मैं इस कागज पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता हूँ

अगत्या 'संगठन' काट कर 'संघटन' करना ही पड़ा तदुपरान्त द्वितीय अध्यापक के यहाँ गया वो  अकर्मकांडी थे। 'संघटन' शब्द देखते ही बोले - इसका अर्थ क्या ? यही कि सबका सभी से संघटन हो, अर्थात सब का छुआ हुआ हर कोई खाए, स्पृश्यता का कुछ भी विचार नहीं रह जाए। यदि यही करना है तो इसमे मुझे क्यूँ गूँथ रहे हैं? सभी लोग तो अब च्युत होते ही जा रहे हैं। कुछ लोगों को तो बचे रहने दीजिए।

मैंने कहापंडित जी, यह अर्थ नहीं है !

कर्मकांडी- तब क्या अर्थ है?

मैंयही कि सभी लोग पारस्परिक सहयोग से कार्य करें, जिससे सामूहिक उन्नति हो

कर्मकांडी- तब केवल संघ रखिए उसमे मुझे आपत्ति नहीं। किन्तु टन निश्चित रूप से हटा ही दीजिए तभी मैं हस्ताक्षर करूंगा।

अब 'संघटन' खंडित होकर केवल 'संघ' रह गया। उसके बाद जो तीसरे अध्यापक मिले वो वैदिक थे। बोलेसंघ क्यूँ? यह तो बौद्ध संप्रदाय की वस्तु है। नास्तिक भिक्षुक लोग वेद विरोध हेतु अपना संघ बनाते थे। हमलोग सनातन धर्मी होकर वेद विरोधी नाम क्यूँ धारण करेंगे ? सो क्या दूसरा शब्द नहीं है?

मैंने कहाअच्छी बात है, तो फिर जो शब्द आपको वेद अनुकूल लगता है वही कहा जाए

सामवेदी जी सोचने लगे सोचते-सोचते बोले - 'समवाय' शब्द रख सकते हैं।  

अस्तु। 'संघ' काटकर 'समवाय'  बनाया गया अब जो अध्यापक मिले वो नैयायिक थे। 'समवाय' शब्द देखते ही वो शास्त्रार्थ की मुद्रामे गए। बोले - समवाय नित्य सम्बन्ध है। जो वस्तु नित्य है उसके लिए प्रयास क्यूँ? जाति तो स्वतः समवाय सम्बन्धाऽवच्छेदेन व्यक्तिमे रहता है। तब फिर इस हेतु चंदा का क्या काम? समवाय कब नहीं था कि आप आरंभ करोगे ?

यह तर्क सुनकर मैं भगवान से गुहार लगाने लगा - हे दीनबन्धो! दयासिन्धो! करुणावरुणालय!  यह जटिल तर्कपाश बिना सुदर्शन चक्र के  खंडित होनेवाला नहीं है। नैयायिकजी के जाल से मेरा उद्धार करिए। परंतु यह आप क्यूँ करेंगे? ऐसी-ऐसी लीला से तो आप अपना मनोरंजन करते हैं। नहीं तो ऐसे ऐसे नैयायिक की सृष्टि करने का आपका प्रयोजन क्या था?

नैयायिकजी मुझे चुप देखकर बोले सोच क्या रहे हैं? समवाय मेरे आपके करने से नहीं हो सकता है। क्योंकि चिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वं कर्त्तृत्वम्। सो चिकीर्षा और प्रयत्न कार्य के निमित्त से होता है। प्रागभावविध्वंसि कार्यम्। जब प्रागभाव है ही नहीं, तो फिर विध्वंस होगा किसका?  पहले आप यह सिद्ध करिए कि समवाय का अभी आभाव है, तब तदभावप्रतियोगिक कार्यत्व का  निरूपण हो सकता है। अन्यथा प्रयत्न करना  व्यर्थ है।

मैं सर पर हाथ रखकर बैठ गया। इतना प्रयत्न व्यर्थ गया। अब क्या किया जाए?

नैयायिकजी को कुछ दया गया। बोलेदेखिए, न्यायशास्त्र नहीं बढ़ने के कारण आप लोग 'समवाय' और 'संयोग' के भेद को नहीं समझते हैं। नित्य-सम्बन्धः समवायः। अनित्यसम्बन्धः संयोगः। समवाय अनादि और अनन्त है। संयोग सादि और सान्त है। यही दोनोंमे भेद है। अतएव प्रयत्न 'संयोग' हेतु किया जा सकता है, 'समवाय' के हेतु नहीं। अब समझे?

मैंने मनमे कहा -दयानिधान! जौं इतना ही समझने की शक्ति होती तो आपके समक्ष यह निवेदन लेकर आनेकी मूर्खता क्यूँ करता?

अस्तु। नैयायिक जी अपने हाथों से  'समवाय' को काटकर 'संयोग' बना दिए।

तदुपरान्त जो अध्यापक मिले वो साहित्याचार्य थे। 'संयोग' शब्द देखते ही देखते ही फुसफुसाने लगे। व्यंग्य करते हुए पूछे - क्या ?  इसमे केवल नायक ही रहेंगे या नायिका भी रगेंगी? आप लोग अभी युवक हैं। होली का समय है। जो जो मन हो करते जाइए। किन्तु मेरे जैसे वृद्धों के हेतु तो अब योग का मार्ग ही उचित है। जो लोग तरुण-तरुणी हैं वो लोग संयोगमे सम्मिलित होएँ।

अब क्या उपाय हो? जहीं जाता हूँ वहीं एक चरण लग जाता है! मैं इसी विडम्बना मे पड़ा हुआ था कि ज्योतिषीजी बीचमे ही टोकते हुए बोलेआज यात्रा का दिन ही नहीं है तो कार्य सिद्ध कैसे होगा? आप किस दिशा से आए हैं?

मैंदक्षिण से

ज्यो०- तब तो सीधे दिक्शूलमे चले हैं। एक भदवा, दूसरा दिक्शूल! तब कहीं काम बने!

तब तक आयुर्वेदाचार्य भी वहाँ आकार उपस्थित हुए। सभी बातें जानकार बोलेअरे जी, जबतक लोगों का पित्त और वायु शांत नहीं होगा तबतक झगड़ा बंद होना असंभव। अतः यदि आप स्थायी एकता चाहते हैं तो लोगों को गूलर खिलाइए। उसमे पित्त और वायु दोनों का शमन करने का सामर्थ्य है। यदि आपको गूलर मिलने मे कठिनाई हो तो मेरे उदुम्बरपाकक का प्रचार करिए। पाव भरका दाम केवल सवा रुपए मात्र। आप दाम बाद मे भिजवा दीजिए।

यह कहकर वैद्यजी ने एक डब्बा मेरे हाथमे थम्हा दिया। मैं झक मारकर आगे विदा हुआ कि रास्ते में मिले फकीरन झा। पूछे- ओजो, कहाँ भटक रहे हो ?

सारी बातें सुनकर बोले जी! आपको और दूसरा कोई काम नहीं है? तो चलिए मुझे एक खाट बुनना है एक तरफ से आप रस्सी पकराते जाना

इस प्रकार से मैं ऐसी बेगारी मे फंस गया कि अब जाकर छुट्टी मिला है। मूज जे जोड़ से ऐसा रगड़ा पड़ा है कि हाथों मे पीड़ा हो रही है। ऐसी स्थिति मे मैं लेख कैसे लिखूँ यह आप ही लोग कहिए।

आपका  कुशलाकांक्षी
सेवानन्द झा

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