चाह ये है एक दिन मैं क्षितिज के उस पार देखूँ
चक्षु ऐसे दो विधाता, युग-युगों का सार देखूँ
इस धरा के गोद मे प्रकृति संग कुछ पल गुज़ारूँ
पर्वतों को चाँदनी के वृंत पलकों से निहारू
लाल-पीले दूर नभ मे हो बिखेरे सविता गुलाल
दूर पथ पर है खड़ा, अविचल बड़ा यह वट विशाल
शाम होते लौट आते सैंकड़ों पंछी घरों मे
है इनका ये ही सहारा, धूप मे, झंझावातों मे
सागरों के मौज में जल तरंग संगीत देखूँ
सर्पों के बांबियों मे जीवनयुक्त अंधकार देखूँ
देख पाऊँ सागरों के अनंत गहराई का सार
बर्फ के चादर से ढँकी ध्रुवों के सीमा के पार
घुप अंधेरे मे सुनू मैं रात्रि सन्नाटे का राग
पुष्प, पल्लव, जीव, पादप संग हो खेलूँ मैं फाग
बादलों के पंख चढ़कर भर लूँ स्वप्नों के उड़ान
पथिक यूं फिरता रहूँ मैं समय की सीमा को लांघ
- 26.03.2024
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