Friday 1 March 2024

बसंती सवेरा



बसंती पवन का लिए फिर थपेरा

भुवन फिर से निकले, हुआ फिर सवेरा।


फसल गा रही हैं, खड़ी खेत झूमे

उषा की किरण फिर, नदी तट को चूमे।


खड़ी खेत सरसों और गेहूँ की बाली

कहीं दूर फैली है टेसुओं की लाली।


चटख रंग बिखेरे कहीं पर कुसुम है

खड़ी मेढ पर अलसी जाने क्यूँ गुम है।


ली सबने अंगड़ाई, हटाकर रजाई 

कहीं बज रही है मानस की चौपाई।


कोयल गा रही थी, कहीं आम चढ़ कर

किया कान में कू, न जाने क्या पढ़ कर।


टना टन घंटी स्वर का खोले पिटारा

बड़े चाव से गैया खा रही थी चारा।


सुशोभित हुआ है, लिए आम मंजर

हुआ वो भी उर्वर, जमीं जो थी बंजर।


कहीं फाग़ गा रहे युवाओं की टोली

प्रकृति जैसे मनुज संग खेले हैं होली।


बसंती सवेरा है किसको न भाए

जो सोए रहे, वो पीछे पछताए।


प्रफुल्लित है मन, प्रफुल्लित दिशाएं

चलो साथ मिलकर सृजन गीत गाएं।

 - 01.03.2024


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