रेल काअनुभव
लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक: प्रणव झा (केवल अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु)
वैद्यनाथधाम से गाँव आ रहा था। उस डिब्बा मे एक बंगाली सज्जन का परिवार था। बंगाली बाबू, उनकी पत्नी, एक युवती कन्या तथा एक स्तनन्धय शिशु। उन लोगों ने एक सम्पूर्ण गद्दा पर अपना एकाधिकार स्थापित किया हुआ था। उस बेंच पर और कोई आकार बैठे यह उन लोगों को अभीष्ट नहीं था। इसलिए खूब फैल कर बैठे थे। साथ ही साथ बक्सा-बिस्तर और अन्यान्य सामान का ऐसा चक्रव्यूह बनाया था जिसे भेद कर प्रवेश करना किसी के लिए सहज नहीं था। आगन्तुक शत्रु से मोर्चा लेने हेतु बंगाली बाबू स्वयं अगले मुख पर बैठे थे।
शेष बर्थ लोगों से गचागच भरा हुआ था।
झाझामे दो मारवाड़ी सज्जन चढ़े। अच्छे खासे भारी भरकम। अढाइ-अढाइ मन से कम नहीं। बंगाली बाबू आक्रमणकारी को आए देख अपने दुर्ग रक्षा ले किए सन्नद्ध हो गए। दोनों सज्जन इधर-उधर देखकर बंगाली बाबू को सम्बोधन करके कहे -'उधर बहुत जगह है! आप जरा खिसक जाइये तो हमलोग भी बैठ जाँय।'
बंगाली बाबू गुस्सा करके बोले -'जोगह कहाँ है? दोशर डब्बा देखिये।'
मारवाड़ी-'बाबू शाब! और कहीं जगह नहीं है। जरा आप ही तकलीफ कीजिए।'
परन्तु बंगाली बाबू टस-से-मस नहीं हुए। अंततः दोनों मारवाड़ी सज्जन हम लोगों के बर्थ के पास आकर खड़े हो गए। किसी किसी प्रकार से बैठाने का समावेश किया गया।
उधर बंगाली बाबू अपनी प्रौढा पत्नी के आराम से सर टिका कर लेट जाने का जुगाड़ लगाने लगे। उनको कष्ट न हो इसके लिए गले के नीचे एक टाकिया भी रख दिए ।
गिद्धौर मे एक वृद्धा चढ़ी। दीनतापूर्ण दृष्टि से बंगाली बाबू की ओर देखते हुए खड़ी हो गई। परन्तु बंगाली बाबू उस मूक-प्रार्थना से विचलित होनेवाले जीव नहीं थे। वो दूसरी ओर देखने लगे , जैसे लोग भिक्षुक से आँख फेर लेते हैं।
अन्तमे बूढी स्पष्ट शब्द मे एक बिलांग बैठने योग्य स्थान की भिक्षा मांगी। बंगाली बाबू इस हेतु पहले से ही तैयार थे! कहे-'जोनानी गाड़ीमे जाइये, जोनानी मे!'
बूढी ने कहा-'जनानी गाड़ीमे स्थान नहीं है। मुझे एक स्टॆशन जाना है। जमुइमे उतर जाऊँगी।'
बंगाली बाबू उत्तर दिए-'एक स्टेशन जाना है। तब तो उशी माफिक खड़े-खड़े भी चोलने शोकता है।'
यह कहकर बंगाली बाबू और फैल कर बैठ गए। मैं स्वयं ट्रंक पर बैठ गया और वृद्धा को अपने स्थान पर बैठा दिया। वो मुझे आशीर्वाद देते हुए बैठ गई और जमुइ पहुँचने पर उतर गई।
जमुइमे तीन गोरखा चढ़े। कमर मे एक-एक हाथ की खुखरी बांधे हुए। वो लोग सीधे बंगाली बाबू की ओर धावा कर दिए।
बंगाली बाबू दूर से ही घुड़की दिए-'इधर कहाँ आने माङता है? दोशर डोब्बामे जाओ।'
परन्तु नेपाली बोको क्या समझे! उनके किलाबन्दी को तोड़ते-मसलते नजदीक मे पहुँच गए। बंगाली बाबू भयभीत होते हुए बोले-'ओ रे बाबा! जोनाना शोभ के मुड़ी पर बोशेगा की? हाम एलार्म खींचता है।'
बंगाली बाबू जलदीबाजी मे जंजीर खींचने हेतु उद्यत हुए। यह देख नेपाली सब हँसते हुए दूसरे कोठली मे चले गए।
अब बंगाली बाबू सुभ्यस्त होकर थर्मस बाहर निकाले। उनकी पत्नी प्याली मे चाय भर भर कर बांटने लगी । कन्या टिफिन-केरिअर से बिस्कुट बहार निकली। लाभी लोग चाय-पानी मे लग गए।
ताबतक गाड़ी किउल पहुँच गई। एक सज्जन हाथमे 'आनन्द बाजार पत्रिका' लिए कोठली ले सामने पहुँचे। उनके पीछे दो महिलाएं बङला परिधान मे थी और एक दस वर्ष का बालक।
उनको देखते ही बंगाली बाबू ने पुकारा -'मोशय! एइदिगे आशुन'।
दो ही मिनट के अंदर दोनों परिवार दूध-चीनी जाइए घुल-मिल कर ऐसे एकाकार हो गए जो अपरिचित हेतु अलग करना कठिन था।
मैंने अनुमान किया कि नवागन्तुक व्यक्ति बंगाली सज्जन के कोई आत्मीय सम्बन्धी होंगे। परन्तु जब दोनों मे वार्तालाप होने लगा तन समझ मे आया कि इन दोनों का पूर्व मे कभी भेंट नहीं हुआ था। बंङलामे जो बातचीत हुआ उससे मुझे कुछ परिचय मिल गया था।
ये जो सज्जन पहले से बैठे थे उनका नाम है राखाल बनर्जी। नदिया जिला घर है। मेरठमे ठिकेदारी करते हैं। दुर्गापूजा मे देश आए थे। अब पुनः काम पर जा रहे हैं। कन्या आइ. एस. सी. मे पढ रही है।
नवागन्तुक हैं अतुल बनर्जी। घर है मुर्शिदाबाद। जमालपुर मे डाक्टरी करते हैं। बड़े भाइ बम्बइ के एक कारखाने मे इंजीनियर हैं। भतीजी बी.ए. मे पढती है, उसका विवाह होना है। इसलिए माता तथा पत्नी-पुत्र को लेकर वहाँ जा रहे हैं।
अब बनर्जी तथा चटर्जी परिवार मे शिष्टाचार का आदान-प्रदान होने लगा। बनर्जी की पत्नी चटर्जी की माता को आँचल जोड़ कर प्रणाम की। चटर्जी पत्नी बनर्जी के शिशु को गोद मे लेकर दुलार करने लगी। बनर्जी की कन्या चाय बिस्कुट लेकर चटर्जी की पत्नी के आगे बढा दी। बनर्जी महाशय चटर्जी के बालक को पूछे-'बलो, की पऽड़ छऽ।'
चटर्जी साहेब नीचे उतर कर पूरी सब्जी ले आए। चटर्जी की पत्नी परसय लगलथिन्ह। बनर्जी की पत्नी टिफिन-केरिअर से खीरमोहन बाहर कर उसमे मिला दी। सभी लोग ऐसे सहज भाव से खाने लगे जैसे एक ही परिवार के हों।
यह दृश्य देख मुझे अपूर्व आनन्द हुआ। मन मे अनेक भाव के तरंग उठने लगे। इन दोनों परिवारों का पहले कभी भेंट नहीं हुआ प्रायः इसके बाद पुनः भेंट होने की संभावन भी नहीं है । तथापि इतनी ही देर मे और इतने ही समय हेतु दोनों मे कितना अपनत्व हो गया है! यही कारण है कि इस जाति का सर्वत्र अभ्युदय है। यही बनर्जी महाशय जो कुछ समय पहले तक पत्थर कि मूर्त्ति बने बैठे थे, थोड़ी ही देर मे अचानक से सरसता का स्रोत कैसे फूट पड़ा? यह 'आनन्द बाजार पत्रिका' की माया है। बंग भाषा मे इतनी शक्ति है कि दो नितान्त अपरिचित व्यक्ति को क्षण भर मे ऎक्य सूत्र मे बांध दिया। यदि कदाचित बंगला भाषा का यह प्रताप मैथिली मे भी आ जाए ? परन्तु....
यही सब सोचते –सोचते मोकामा घाट आ गया। इच्छा तो था कि यह अभिनव दृश्य-जो अपने देशमे देखना दुर्लभ है -कुछ और दूर तक देखते चलें । परन्तु मोकामा घाट मे उतरना था।
जहाज से गंगा पार कर अपनी भूमि पर पैर दिया । सिमरिया घाट मे ट्रेन लगी हुई थी। परन्तु उस मे जो दृश्य देखा वो आज तक उसी तरह आँखों मे नाच रहा है।
हाथ मे गंगाजली लिए एक वृद्धा चढना चाह रही थी, परन्तु लोग चढने नहीं देते हैं। गाड़ी के अंदर मल्ल युद्ध हो रहा है। वृद्धा का बेटा दरबाजा खोल कर अंदर जाने हेतु भगीरथ प्रयत्न कर रहा है और उधर से तीन –चार लोग गरदन पकर कर धक्का दे रहे हैं ।
वृद्धा के हाथमे एक साजी और गंगाजली है। पीछे मे पुत्रवधू अपने स्तनपेयी शिशु को लिए खड़ी है।
वृद्धा को अपने एकमात्र सरवन पुत्र का भरोसा है। इसलिए चुपचाप खड़ी थी। परन्तु जब देखी कि बेटा के कंठ पर चार लोग सवार हैं तो चिल्ला उठी -'अरेओ बाबू लोग! मैं प्रार्थना करती हूँ । मेरा सरवन पूत छः महीने से बीमार है। उसको चढ़ने दो।'
परन्तु वृद्धा के अनुनय पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सरवन पूत को बाहर धकेल कर अंदर से दरवाजा बन्द कर लिया।
वृद्धा कलप कर कहने लगी-'अरे ओ बाबू! हम लोगों को भी चढ़ा लो । हमलोग खड़े खड़े ही जाएंगे । दुहाई बाबू भैया को। बहुत पुण्य होगा।'
परन्तु वृद्धा का कातर प्रार्थना आरण्यरोदन की तरह साबित हुआ। पुत्रवधू बेचारी बच्चे को लिए हुए अवग्रहमे पड़ी थी। जहाँ स्वामी और सास बोलनेवाले मौजूद हैं वहाँ वो क्या बोलेगी ? अपने स्थान पर संकुचित होते हुए खड़ी रही। कुलवधू के अनुरूप शालीनतापूर्ण मर्यादा को वो यहाँ भी नहीं छोड़ सकी । कैसे छोड़ती ? मिथिला की कन्या का जन्म ही इसी हेतु होता है कि वो पृथ्वी की भांति सर्वसहा बन कर रहे । तब वो देवी अपनी जन्मसिद्ध कुलीनता का कैसे त्याग करें ? सहिष्णुता की मूर्ति बनी खड़ी रही ।
जब मुझसे नहीं देखा गया तो वहाँ जा पहुंचा और कोठली के अंदर वाले यात्री सब को संबोधन कर कहा - देखिए , इतनी देर से आपका एक देशी भाई प्रार्थना कर रहा है, संग मे वृद्धा माता है, प्रसूतिका पत्नी है । आप लोगों को जरा भी विचार नहीं है?
एक व्यक्ति बोले - देशी भाय हैं तो क्या सर पर उठा लें
मैंने कहा - देखिए , आप लोग जो अपने पिटारे को नीचे रख लें तो ये तीनों लोग खुशी से बैठ सकते हैं।
एक व्यक्ति ने उत्तर दिया – पिटारे मे खाने-पीने की वस्तु है। नीचे कैसे रहेगा?
हम – तो ऊपर वर्थ पर रख दीजिए । अरे ,ये बेचारे किसी प्रकार खड़े होकर भी चले जाएंगे, परंतु ये दो अबलाएँ जो हैं। आप लोगों के संग मे भी स्त्रीगण हैं ।उनके बीच मे ही बैठा दीजिए ।
दूसरे व्यक्ति बोले –ये कैसे होगा ? वहाँ पर बच्चा सोया है। उसे मैं दब जाने दूँ?
मैं –आपका बच्चा नहि दबेगा। ये लोग उस कोने मे चिपक कर बैठ जाएंगे! इनके संग मे तो आपसे भी छोटा बच्चा है। अपनी सन्तान की तरह दूसरे को भी समझना चाहिए।
अब तरह-तरह की बोलीयाँ अंदर से आने लगी।
एक-वकील बन कर पैरवी करने आएँ हैं ।
दूसरा- सारा कानून यहीं झाड़ने आए हैं।
तीसरा – बहुत दया हो रही है तो क्यों नहीं अपनी जगह पर ले जाते हैं ।
चौथा – हम लोग जहां बैठे हैं वहाँ से किसी भी प्रकार से नहीं हट सकते हैं।
मैंने विनयपूर्वक कहा –अच्छा ,तो आप लोगों को जरा भी खिसकने की आवश्यकता नहीं है। ये दोनों सास बहू इस बक्से पर बैठ जाएगी। और इनको कहीं खड़ा होने की जगह दे दीजिए ।
कोठली के यात्रीगण एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। एक व्यक्ति के मन मे कुछ दया का संचार हो उठा। उसने कहा – क्या करोगे? आने दो।
मैंने श्रवणकुमार को सम्बोधन करते हुए कहा- आप लोग आइए । ये लोग जहां दिखा देंगे , बैठ जाइए।
श्रवण कुमार आगे बढ़े। उनके पीछे वृद्धा माता। उस पर सलज्जा पुत्रवधू।
मैं आश्वस्त होकर अपने डिब्बा मे गया। जीवन मे एक पुण्य कार्य तो आज हुआ। यही विचार करते हुए खिड़की से बाहर देखता हूँ तो बदन सिहर उठा । श्रवण कुमार कोठली ले मुँह मे आधा प्रवेश किए हुए हैं, वृद्धा माता रेल के पाँवदान पर खड़ी एक पैर अंदर देना चाहती है, गजगामिनी पुत्रवधू एक चरण प्लेटफार्म पर और दूसरा पाँवदान पर दी है। गाड़ी खुलने खुलने पर है।
तब तक पीछे से एक झुंड मोगल हू-हू करते हुए पहुँच गए और वृद्धा तथा पुत्रवधू को धक्का देकर नीचे करते, श्रवणकुमा को धकेल बाहर करते, स्वयं सभी अंदर चले गए। गाड़ी चलने लगी। श्रवणकुमार नीचाँ गिर पड़े। वृद्धा माता का वो करुण दृष्टि और कुलवधू के मुखपर वो विवशता का चिह्न अभी तक मुझसे भूला नहीं जाता । वह भूलने की वस्तु भी नहीं है।
उस दिन से मैंने न जाने कितनी बार इस प्रश्न पर विचार किया होगा। चटर्जी की माता और बनर्जी के पत्नी मे जो मर्यादा था वही मर्यादा तो इन वृद्धा और युवती मे भी था। परन्तु उनके नारीत्व का आदर क्यों नहीं हुआ? बंगालिनी वृद्धा ऐसे इस वृद्धा को कोई अपने स्थान से उठ कर हाथ पकड़ कर क्यों नहीं बैठाया? और यह जो गृहिणीत्व के गरिमा से मण्डित कुलवधू थी वो क्या चटर्जी के पत्नीक समान आसनपर बैठाने योग्य नहीं थी? उनका किसी ने उचित सत्कार क्यों नहीं किया? गाड़ी मे तो कितनी ही स्त्री थी, क्यों नहीं किसी हो हुआ कि बनर्जी के पत्नी जैसे आगे बढ़ कर प्रेमपूर्वक अपने पास ले जाएँ ? बनर्जी के शिशु जैसे उनके बच्चे को भी दुलार करने वाला कोई क्यों नहीं मिला?
मैं जितना ही ज्यादा इसपर सोचता हूँ उतना ही समस्या जटिल होता जाता है। गाड़ीमे भर कर अपने देशवासी थे! परन्तु जब चार लोग आगे पहुँच गए कि सभी सकदम! किसी को बोलने का साहस नहीं पड़ा। टुकुर-टुकुर माता और कुलवधू का अपमान देखते रह गए। रक्त मे रंचमात्र उफान क्यों नहीं उठा? क्यों नहीं कोई जंजीर खींचने हेतु खड़ा हुआ ? क्यों नहीं कोई सपूत ऐसा बाहर हुआ जो श्रवणकुमार का हाथ पकड़ अंदर ले आते और सास-बहू का मार्ग प्रशस्त कर कहते –आप लोग आ जाइए !
बात है कि बंगवासी अपने लोगों को सर पर चढ़ाते हैं और हमलोग अपने लोगों को पैर से ठोकर मरते हैं ।
थोड़ी ही दूरी का तो अंतर है । तब बंग और मिथिला के भूमि मे इतनी भिन्नता क्यों? 'पद्मा' और 'कमला' तो एक ही अर्थ का वाचक है, तब दोनों के पानी मे इतना अन्तर क्यों?
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रेलक अनुभव बीछल कथा
लेखक : हरिमोहन झा अनुवादक : प्रणव झा
वैद्यनाथधामसॅं गाम अबैत रही। ओहि डिब्बामे एक बंगाली सज्जनक परिवार छलैन्ह। बंगाली बाबू, हुनक स्त्री, एक युवती कन्या तथा एक स्तनन्धय शिशु। ओ लोकनि एक सम्पूर्ण गद्दापर अपन एकाधिकार स्थापित कएने छलाह। ओहि बेंचपर और केओ आबि कए बैसए से हुनका लोकनिकें अभीष्ट नहि छलन्हि। तैं खूब पसरि कए बैसल छलाह। संगहि-संग पेटी-बिस्तर ओ अन्यान्य सामानक तेहन चक्रव्यूह बनौने छलाह जकरा भेदि कय प्रवेश कयनाइ ककरो हेतु सहज नहि छलैक। आगन्तुक शत्रुसॅं मोर्चा लेबाक हेतु बंगाली बाबू स्वयं अगिला मोहड़ापर बैसल छलाह।
शेष बर्थ लोकसॅं गचागच भरल छल।
झाझामे दुइटा मारवाड़ी सज्जन चढलाह। बेस भारी भरकम। अढाइ-अढाइ मनसॅं कम नहि। बंगाली बाबू आक्रमणकारीकें आयल देखि अपन दुर्गरक्षाक हेतु सन्नद्ध भय गेलाह। दुनू सज्जन एम्हर-ओम्हर ताकि बंगाली बाबूकें सम्बोधन कय कहलथिन्ह-'उधर भोत जगह है! आप जरा खिसक जाइये तो हमलोग भी बैठ जाँय।'
बंगाली बाबू बिगड़ि कय बजलाह-'जोगह कहाँ है? दोशर डब्बा देखिये।'
मारवाड़ी-'बाबू शाब! और कहीं जगह नहीं है। जरा आप ही तकलीफ कीजिए।'
परन्तु बंगाली बाबू टस-सॅं-मस नहि भेलाह। अगत्या दुनू मारवाड़ी सज्जन हमरा लोकनिक बर्थ लग आबि ठाढ भय गेलाह। कोनो-कोनो तरहें बैसएबाक समावेश कयल गेलन्हि।
ओम्हर बंगाली बाबू अपन प्रौढा पत्नीकें आरामसॅं ओङठि जयबाक ब्योंत अगाबए लगलाह। हुनका कष्ट नहि होइन्ह तदर्थ एकटा गलतकियो राखि देलथिन्ह।
गिद्धौरमे एकटा वृद्धा चढलीह। दीनतापूर्ण दृष्टिसॅं बंगाली बाबू दिस तकैत ठाढि भय गेलीह। परन्तु बंगाली बाबू ओहि मूक-प्रार्थनासॅं विचलित होमयबला जीव नहि छलाह। ओ दोसर दिस ताकय लगलाह, जेना लोक भिक्षुकसॅं आँखि फेरि लैत अछि।
अन्तमे बूढी स्पष्ट शब्दें एक बीत बैसबा योग्य स्थानक भिक्षा मङलथिन्ह। बंगाली बाबू एहि हेतु पहिनहिसॅं तैयार छलाह! कहलथिन्ह-'जोनानी गाड़ीमे जाइये, जोनानी मे!'
बूढी कहलथिन्ह-'जनानी गाड़ीमे स्थान नहि छैक। हमरा एक स्टॆशन जयबाक अछि। जमुइमे उतरि जाएब।'
बंगाली बाबू उत्तर देलथिन्ह-'एक स्टेशन जाना है। तब तो उशी माफिक खड़े-खड़े भी चोलने शोकता है।'
ई कहि बंगाली बाबू और पसरि कए बैसि गेलाह। हम स्वयं ट्रंकपर बैसि गेलहुँ आ वृद्धाकें अपना स्थानपर बैसा देलिअन्हि। ओ हमरा आशीर्वाद दैत बैसि गेलीह और जमुइ पहुँचलापर उतरि गेलीह।
जमुइमे तीनटा गोरखा चढल। डाँड़मे एक-एक हाथक खुखरी खोंसने। ओ सभ सोझे बंगाली बाबू दिस धावा कय देलकन्हि।
बंगाली बाबू फराकेसॅं घुड़की देलथिन्ह-'इधर कहाँ आने माङता है? दोशर डोब्बामे जाओ।'
परन्तु नेपाली बोको की बुझौ! हुनक किलाबन्दीकें धङैत-धङैत लगमे पहुँचि गेलन्हि। बंगाली बाबू भयभीत होइत बजलाह-'ओ रे बाबा! जोनाना शोभ के मुड़ी पर बोशेगा की? हाम एलार्म खींचता है।'
बंगाली बाबू धड़फड़ा कए जिंजिर खिंचबाक हेतु उद्यत भेलाह। ई देखि नेपाली सभ हॅंसैत दोसरा कोठलीमे चल गेल।
आब बंगाली बाबू सुभ्यस्त भए थर्मस बहार कएलन्हि। हुनक स्त्री पियाला सभमे चाह भरि भरि कए बाँटए लगलथिन। कन्या टिफिन-केरिअरसॅं बिस्कुट बहार कएलथिन्ह। सभ गोटे चाह-पानीमे लगलाह।
तावत गाड़ी किउल पहुँचि गेल। एक सज्जन हाथमे 'आनन्द बाजार पत्रिका' नेने कोठलीक सामने पहुँचलाह। हुनका पाछाँ दुइटा स्त्री बङला परिधानमे छलथिन्ह आर एकटा दस वर्षक बालक।
हुनका देखितहि बंगाली बाबू सोर कएलथिन्ह-'मोशय! एइदिगे आशुन'।
दुइए मिनटक भीतर दुहू परिवार दूध-चीनी जकाँ घुलि-मिलि कए तेना एकाकार भऽ गेल जे अनठिआक हेतु फुटकाएब कठिन छलैक।
हम अनुमान कयल जे नवागन्तुक व्यक्ति बंगाली सज्जनक कोनो आत्मीय सम्बन्धी होइथिन्ह। परन्तु जखन दुनूमे वार्तालाप होमए लगलन्हि, तखन बुझल जे हिनका दुनूकें पूर्वमे कहियो भेट नहि छलन्हि। बंङलामे जे बातचीत भेलन्हि ताहिसॅं हमरो किछु परिचय भेटि गेल।
ई जे सज्जन पहिनेसॅं बैसल छथि तनिका नाम छन्हि राखाल बनर्जी। नदिया जिला घर छन्हि। मेरठमे ठिकेदारी करैत छथि। दुर्गापूजामे देश आयल छलाह। आब पुनः काजपर जा रहल छथि। कन्या आइ. एस. सी. मे पढि रहल छथिन्ह।
नवागन्तुक छथि अतुल बनर्जी। घर छन्हि मुर्शिदाबाद। जमालपुरमे डाक्टरी करैत छथि। बड़का भाइ बम्बइक एक मिलमे इंजीनियर छथिन्ह। भतीजी बी.ए. मे पढैत छथिन्ह, तनिक विवाह हएतन्हि। तैं माय तथा स्त्री-पुत्रकें लऽ कऽ ओतए जा रहल छथि।
आब बनर्जी तथा चटर्जी परिवारमे शिष्टाचारक आदान-प्रदान होमऽ लागल। बनर्जीक पत्नी चटर्जीक माताकें आँचर जोड़ि कऽ प्रणाम कएलथिन्ह। चटर्जी पत्नी बनर्जीक शिशुकें कोरामे लऽ दुलार करऽ लगलथिन्ह। बनर्जीक कन्या चाह बिस्कुट लऽ कऽ चटर्जीक पत्नीक आगाँ बढा देलथिन्ह। बनर्जी महाशय चटर्जीक बालककें पुछलथिन्ह-'बलो, की पऽड़ छऽ।'
चटर्जी साहेब नीचाँ उतरि कऽ पूरी तरकारी लऽ अएलाह। चटर्जीक पत्नी परसय लगलथिन्ह। बनर्जीक पत्नी टिफिन-केरिअरसॅं खीरमोहन बहार कए ओहिमे मिला देलथिन्ह। सभ गोटे तेना सहज भावसॅं खाय लगलाह जेना एके परिवारक होथि।
ई दृश्य देखि हमरा अपूर्व आनन्द भेल। मनमे अनेक भावक तरंग उठए लागल। एहि दुनू परिवारकें कहियो पूर्वक भेंट नहि। प्रायः एकरा बाद पुनः भेंट हैबाक संभावनो नहि। तथापि एतबे कालमे, आर एतबे कालक हेतु, दुनूमे कतेक अपनैती भऽ गेलैक अछि! इएह कारण थिक जे एहि जातिक सर्वत्र अभ्युदय छैक। इएह बनर्जी महाशय जे थोड़ेक काल पहिने पाथरक मूर्त्ति भेल बैसल छलाह, तनिकामे एकाएक सरसताक स्रोत कोना फूटि पड़लन्हि? ई 'आनन्द बाजार पत्रिका' क माया थिक। बंगभाषामे एतेक शक्ति छैक जे दू नितान्त अपरिचित व्यक्तिकें क्षण भरिमे ऎक्य सूत्रमे बान्हि देलक। यदि कदाचित बंगला भाषाक ई प्रताप मैथिलिओमे आबि जइतैक? परन्तु....
इएह सभ सोचैत-सोचैत मोकामाघाट आबि गेल। इच्छा तॅं रहए जे ई अभिनव दृश्य-जे अपना देशमे देखब दुर्लभ अछि-किछु और दूर धरि देखैत चली। परन्तु मोकामाघाटमे उतरबाक छल।
जहाजसॅं गंगा पार कए अपना भूमिपर पयर देलहुँ। सिमरिया घाटमे ट्रेन लागल छल। परन्तु ओहिमे जे दृश्य देखल से आइ धरि ओहिना आँखिमे नाचि रहल अछि।
हाथमे गंगाजली नेने एकटा वृद्धा चढए चाहै छथि, परन्तु लोक चढए नहि दैत छन्हि। गाड़ीक भीतर मल्लयुद्ध भय रहल अछि। वृद्धाक बेटा दरबाजा खोलि कऽ भीतर जयबाक हेतु भगीरथ प्रयत्न कए रहल छथि और ओम्हरसॅं तीन -चारि गोटे गरदनिया दऽ कऽ बाहर ठेलि रहल छन्हि।
वृद्धाक हाथमे एकटा साजी आओर गंगाजली छन्हि। पाछाँमे पुतहु अपन दुग्धपा शिशुकें नेने ठाढि छथिन्ह।
वृद्धाकें अपन एकमात्र सरवन पुत्रक भरोस छन्हि। तैं चुपचाप ठाढि छलीह। परन्तु जखन देखलन्हि जे बेटाक कंठपर चारि गोटे सवार अछि त चिचिआ उठलीह-'हे औ बाबू लोकनि! हम नेहोरा करै छी। हमर सरवन पूत छओ माससॅं दुखिताह छथि। हुनका चढऽ दिऔन्ह।'
परन्तु वृद्धाक अनुनय पर केओ ध्यान नहि देलकन्हि। सरवन पूतकें बाहर धकेलि कऽ भीतरसॅं दरवाजा बन्द कऽ लेलकन्हि।
वृद्धा कलपि कऽ कहए लगलथिन्ह-'हे औ बाबू! हमरो लोकनिकें चढा लियऽ। हम सभ ठाढिए जाएब। दोहाइ बाबू भैयाकें। बहुत पुण्य हएत।'
परन्तु वृद्धाक कातर प्रार्थना आरण्यरोदन भेलन्हि। पुतहु बेचारी नेनाकें नेने अवग्रहमे पड़लि। जहाँ स्वामी ओ सासु बजनिहार मौजूद छथि तहाँ ओ की बजतीहि? अपना स्थानपर संकुचित भेलि ठाढि रहलीहि। कुलवधूक अनुरूप शालीनतापूर्ण मर्यादा कैं ओ एहूठाम नहि छोड़ि सकलीहि । कोना छोड़थु ? मिथिलाक कन्याक जन्मे एहि हेतु होइ छैन्ह ओ पृथ्वी जकाँ सर्वसहा बनि कऽ रहथि । तखन ओ देवी अपन जन्मसिद्ध कुलीनताक कोना त्याग करथु ? सहिष्णुताक मूर्ति बनल ठाढ़ि रहलीहि ।
जखन हमरा नहि देखल गेल तखन ओहिठाम जा पहुँचलहुँ और कोठलीक भीतर वला यात्री सभ कैं संबोधन कय कहलिऎन्ह - देखू , एतीकाल सॅं अहाँक एकटा देशी भाय नेहोरा कऽ रहल छथि, संग मे वृद्धा माता छथिन्ह, प्रसूतिका स्त्री छथिन्ह । अहाँ लोकनि कैं कनेको विचार नहि अछि ?
एक गोटे बजलाह - देशी भाय छथि तैं कि माथ पर उठा लिअन्हि ? एहि मे जगह कहाँ छैक ?
हम कहलिऎन्ह - देखू , अहाँ लोकनि जॅं अपन मोटरी नीचा राखि ली तॅं ई तीनू गोटे खुशी सॅं बैसि जा सकैत छथि ।
एक गोटा उत्तर देलन्हि - मोटरी मे खैएबा-पिउबाक वस्तु अछि । नीचा कोना रहत ?
हम - तॅं ऊपर वर्थ पर राखि दिऔक । हे , ई बेचारे कहुना ठाढ़ो भेल चल जैताह , परन्तु ई दू टा अबला जे छथि । अहूँ लोकनिक संग मे स्त्रीगण छथि । हुनके बीच मे बैसा दिऔन्ह ।
दोसर गोटे बजलाह-से कोना हएतन्हि? ओहिठाम बच्चा सूतल छैक। ओकरा हम पिचाए दिऔक?
हम-अहाँक बच्चा नहि पिचाएत। ई लोकनि ओहि कोनमे सटि कऽ बैसि जइतीह! हिनका संगमे तॅं ओहूसॅं छोट नेना छन्हि। अपने सन्तान जकाँ दोसरोके बूझक चाही।
आब तरह-तरहक बोली भीतरसॅं आबए लागल।
एक-ओकील बनि कऽ पैरबी करए आएल छथिन्ह।
दोसर- सभटा कानून एहीठाम झाड़य आयल छथि।
तेसर-बड़े दरेक होइ छन्हि त अपने जगहपर किएक ने लऽ जाइत छथिन्ह।
चारिम- हमरा लोकनि जतए बैसल छी, ततएसॅं किन्नहु नहि हटि सकैत छी।
हम विनयपूर्वक कहलिअन्हि-बेस, तॅं अहाँ लोकनिकें कनेको घुसुकबाक प्रयोजन नहि। ई दुनू सासु-पुतहु एहि पेटीपर बैसि रहतीहि। और हिनका कतहु ठाढ होएबाक जगह दिऔन्ह।
कोठलीक यात्रीगण एक दोसराक मुँह ताकए लगलाह। एक गोटाक मनमे किछु दयाक संचार भऽ उठलन्हि। कहलथिन्ह- की करबहक? आबऽ दहक।
हम श्रवणकुमारकें सम्बोधन करैत कहलिअन्हि-अहाँ लोकनि अबै जाउ। ई लोकनि जतए देखा देथि, बैसि जाउ।
श्रवण कुमार आगाँ बढलाह। हुनका पाछाँ वृद्धा माता। ततः पर सलज्जा पुत्रवधू।
हम आश्वस्त भय अपना डिब्बामे गेलहुँ। जीवनमे एकटा पुण्य कार्य तॅं आइ भेल। इएह विचारैत खिड़कीसॅं बाहर देखैत छी कि देह सिहरि उठल। श्रवण कुमार कोठलीक मुँहमे आधा प्रवेश कएने छथि, वृद्धा माता रेलक पाओदानपर ठाढि एक पैर भीतर देबय चाहैत छथि, गजगामिनी पुत्रवधू एक चरण प्लेटफार्मपर ओ दोसर पाओदानपर देने छथि। गाड़ी खुजबा-खुजबापर अछि।
तावत पाछासॅं एक झुंड मोगल हू-हू करैत पहुँचि गेल और वृद्धा तथा पुत्रवधूकें ठेलि कऽ नीचाँ करैत, श्रवणकुमाकें धकेलि बाहर करैत, अपने सभ भीतर चलि गेल। गाड़ी चलए लागि गेल। श्रवणकुमार नीचाँ खसि पड़लाह। वृद्धा माताक ओ करुण दृष्टि और कुलवधूक मुखपर ओ विवशताक चिह्न एखनधरि हमरा नहि बिसरैत अछि । ओ बिसरबाक वस्तुओ नहि।
तहियासॅं हम नहि जानि कतेक बेर एहि प्रश्नपर विचार कैने हैब। चटर्जीक माता ओ बनर्जीक पत्नीमे जे मर्यादा छलन्हि सहए मर्यादा तॅं एहू वृद्धा ओ युवतीमे छलन्हि। परन्तु हुनक नारीत्वक आदर किएक नहि भेलन्हि? बंगालिनी वृद्धा जकाँ एहू वृद्धाकें केओ अपना स्थानसॅं उठि हाथ धऽ कऽ किएक नहि बैसौलकन्हि? आर ई जे गृहिणीत्वक गरिमासॅं मण्डित कुलवधू छलीह से कि चटर्जीक पत्नीक समान आसनपर बैसाबए योग्य नहि छलीह? हुनकर केओ उचित सत्कार किएक नहि कैलकन्हि ? गाड़ीमे तॅं कतेको स्त्री छलीह, किएक ने किनको भेलन्हि जे बनर्जीक पत्नी जकाँ आगाँ बढि प्रेमपूर्वक अपना लग लऽ जैअन्हि? बनर्जीक शिशु जकाँ हुनको बच्चाकें दुलार करएवला केओ किएक ने भेटलैन्ह?
हम जतेक अधिक एहिपर सोचै छी ततेक समस्या जटिल भेल जाइत अछि। गाड़ीमे भरि कऽ अपन देशवासी रहथि! परन्तु जखन चारिटा आगा पहुँचि गेलन्हि कि सभ सकदम! किनको बजबाक साहस नहि पड़लैन्ह। टुकुर-टुकुर माता ओ कुलवधूक अपमान देखैत रहि गेलाह। शोणितमे रंचमात्र उफान किऎक ने उठलन्हि? किऎक ने केओ जिंजिर खिचबाक हेतु ठाढ भेलाह? किऎक ने केओ सपूत एहन बहरएलाह जे श्रवणकुमारक हाथ धए भीतर लऽ अबितथि और सासु-पुतहुक मार्ग प्रशस्त बना कहितथिन्ह-अहाँ लोकनि अबै जाउ!
बात अछि जे बंगवासी अपना लोककें माथपर चढबैत छथि और हमरा सभ अपना लोककें पएरसॅं ठोकरबैत छी।
थोड़बे दूरक तॅं अन्तर छैक। तखन बंग ओ मिथिलाक भूमिमे एतेक भिन्नता किऎक? 'पद्मा' ओ 'कमला' तॅं एक्के अर्थक वाचक थिकीह, तखन दुनूक पानिमे एतबा अन्तर किऎक?
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