Wednesday 16 September 2020

तृष्णा Craving

 

हाथ मे था सीप और

मोती को मैं फिरता रहा ।

एक अंजाने सफर पर

रात दिन चलता रहा ॥

 

कुछ तो थी उलझन, जिन्हे

सँवारने की होड़ मे ।

जिंदगी के तृष्णा जाल मे

और भी फँसता रहा ॥

 

कल को मेरी आत्मा ने

फिर से ये दोहरा दिया ।

वृक्ष की छाया मे न ठहरे!

क्यूँ धूप मे तू तपता रहा!!

 

आदमी ही हूँ, मैं कैसे

छोड़ दूँ फितरत भला!

पाखंड, तृष्णा, मोह से

बच सकूँ कैसे भला!!


पथडिगा हूँ मैं भले

मुझको शरण मे स्थान दे।

पार पाउ माया से तेरी

प्रभु मुझे वह ज्ञान दे ॥

No comments:

Post a Comment