हज़ारों गीत हैं अपने ज़हन में।
मगर एक ख़ास गाना ढूँढ़ते हैं।
जहाँ परवाह हो मेरी किसी को,
वही बस इक ठिकाना ढूंढ़ते हैं।
गगन मे दूर कहीं इक छोड़ पर हो
तरक्की के किसी इक मोर पर हो
जिसे सुनकर मगन हो साथवाले
वही धुन गुनगुनाना चाहता हूँ।
नहीं है चाह की छू लूँ गगन को
खिला दूँ फिर से मैं बिखरे चमन को
के आँसू पोछ पाऊँ कुछ मनुज के
कुछ ऐसा कर दिखाना चाहता हूँ ।
जो पुछे कौन है, क्या नाम इसका
जमाने मे भला क्या काम इसका
मनुज हूँ ये ही है पहचान मेरी
सभी को ये बताना चाहता हूँ ।
के पतझड़ से लड़ें बहार आने तक
घुटन के बीच अंतिम सांस आने तक
करूँ मैं सामना हर स्थिति का
वही हिम्मत जुटाना चाहता हूँ।
प्रलय के बीच नवनिर्माण सा हो
की देवों से मिले सम्मान सा हो
जीत लूँ मैं यहाँ सबके हृदय को
विजय का राग गाना चाहता हूँ ।
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