गर देखनी हो तनहाइयां
तो दिल मे मेरे झांक लो
हो पैमाना तेरे पास तो,
दर्द मेरा आंक लो
इन पहाड़ों में कहीं पिस रही
मन की अभिलाषायें कई
चढ कर उपर लुढक जाती हैं
मन की आशाएं कई
ये खेत हैं कपास के,
या जैसे स्वयं मैं हीं हूं
पक कर भी स्वेतवर्णिय
उडने को बस तैयार हूं
पर जो है बागवां मेरा
बांधना है मुझको चाहता
ढंकने समाज की नग्नता,
मुझको लुटाना चाहता
जाने उन्हे क्या प्रिय है
अभिलाषा मेरी, या समाज की
यह चिरप्रतीक्षित प्रश्न है
या बस समस्या आज की
जो भी हो, अंतिम पंख तक
उड़ने की चाहत मन मे है
जो वक्त हो तो देख लेना
ये द्वंद तो जीवन मे है !!
- 15 नवंबर 2011
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