मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

जहाज पर की बातें और दक्षिण की संस्कृति ।

 

जहाज पर की बातें और दक्षिण की संस्कृति ।

लेखक एवं अनुवादक : प्राणव झा

(केवल स्वांतः सुखाय, अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )

 

एक बार मैं डीएनबी परीक्षा के सिलसिले में बैंगलोर जा रहा था।  छठ के प्रतिहार षष्ठी का दिन था।  एयरपोर्ट पर जब चेक-इन के लाइन में था तो अपने आगे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को खड़ा देखा जो किसी से फोन पर भोजपुरी मे बातें कर रहा था। उसका हुलिया कहा जाए तो कुछ ऐसा था कि एक पैंट-कमीज पहने, कमीज को अंडरसूटिंग नहीं किया गया था, पैरों मे हवाई चप्पल पहने कांधे पर एक कपड़े का थैली लटकाए एक हाथ मे मोबाइल और दूसरे हाथ मे टिकट लिए। फोन पर उनकी बातें सुन यह समझने मे परेशानी नहीं रही कि ये सज्जन बिहार से संबंध रखते हैं। इसी से फोन रखने के बाद अपनेपन मे मैंने उनसे पूछा कि क्या जी आप बैंगलोर जा रहे हैं क्या? 9W-815  फ्लाइट से जा रहे हैं क्या?  वो उत्तर में बोले कि जी हाँ, किन्तु फ्लाइट का नाम टिकट में लिखा है मुझे अंग्रेजी पढ़ना नहीं आता है आप पढ़ लीजिए।  तो मैंने फिर से पूछा कि आपका बेटा रहता है वहाँ क्या? इसपर वो बोले कि नहीं, मेरे मालिक के बेटे बहू रहते हैं। उन्ही के लिए छठ का प्रसाद ले कर जा रहे हैं। आगे उन्होने प्रश्न किया कि बोलिए तो बैंगलोर मे कोई टिकरी-पिडुकिया नहीं बिकता होगा क्या, कि ये बुड्ढा मुझे इतने पैसे खर्च करके बैंगलोर प्रसाद पहुंचाने के लिए भेज रहा है! दो हजार से कम का तो यह टिकट नहीं होगा। मैंने कहा कि बैंगलोर का टिकट चार हजार से कम का नहीं होगा मेरा देखिये सात हजार का है। फिर उनका टिकट देखते हुए कहा कि आपका टिकट साढ़े चार हजार का है।  फिर मैंने कहा कि बात टिकरी-पिडुकिया का नहीं है बात छठि माई के लिए आस्था और बेटा-बहू के लिए स्नेह का है।

 

फिर वो आगे बोलने लगे कि मैं हवाई चप्पल पहन कर आया हूँ, तो  मुझे हवाई जहाज में बैठने देगा न? मैंने  आश्वासन देते हुए कहा महाराज कोई दिक्कत नहीं है और अब तो प्रधानमंत्री जी ने भी कहा है कि हवाई चप्पल वाले सब हवाई यात्रा कर सकते हैं। संजोग से मेरी नजर तभी एक विदेशी महिला पर पड़ी जो हवाई चप्पल पहने हुये थी। मैंने उनकी ओर दिखाते हुये कहा कि देखिये उसने भी पहन रखी है। इन सज्जन की नज़र उस महिला के हाफ पेण्ट पर चली गई।  छठ के सीजन तक ठंढ भी आ ही चुकी होती है।  उसने पूछा कि इन लोगों को ठंढ नहीं लगता है कि ये हाफ पेण्ट पहन कर घूमती रहती है! मैंने कहा नहीं जी, ये सब ठंढे देश के निवासी हैं न इसलिए इतना तापमान इन लोगों के लिए गर्मी ही समझिए।  फिर  वो बताने लगे कि मालिक ने मेरे जाने के लिए रु० 4999 का जूता खरीद दिया था, बोले कि बिना जूता पहने मत जाना नहीं तो एयरपोर्ट से भगा देगा। किन्तु मुझे जूते पहनने की आदत नहीं है इसीलिए जोखिम उठाकर चप्पल पहन कर आ गया।

 

आगे चेक-इन के बाद डेस्क की लड़की अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करते हुये उनसे बैगेज के लिए पूछी तो वो मेरा मुँह ताकने लगे। मैंने उससे कहा कि इनके पास इस थैले को छोड़ कर और कोई बैगेज नहीं है। फिर वो इनको जभी आगे जाने के लिए बोली बस ये सीधे आगे बढ़ कर बैगेज वाले लिफ्ट पर फांदने लगे। उसने रोक-थाम किया और मेरी ओर देख कर व्यंगात्मक मुस्कान छोड़ने लगी। मैंने उन सज्जन को  कहा अब आगे बाएँ ओर जाना है आप रुकिए मैं भी चेक-इन करा कर साथ चलते हैं। मेरे साथ मे परीक्षा मटेरियल का अटायची था जिसका वजन लिमिट से कुछ ज्यादा हो गया था।  वैसे तो उसका किराया सरकार घर से जाना था किन्तु मैं आदत से मजबूर सरकार के पैसे बचाने खातिर बोला कि ये सज्जन मेरे साथ हैं इसलिए अतिरिक्त वजन का भार इनके टिकट में मैनेज कर लीजिए। उस के बाद हम अंदर की ओर विदा हुए।  हम दोनों की बाते समझने मे इनको कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उन्होने कहा कि आपने अपनी अटैची का भार मेरे टिकट में चिपका दिया यह ठीक नहीं। मुझे आगे पकड़ेगा तो मैं एक भी रुपए नहीं दूंगा। मैंने उसे समझाते हुए कहा – आप चिंता न करें आपको एक भी रुपए नहीं लगेगा और यदि लगेगा तो मैं पैसे दे दूंगा। जब उनका मन शांत हो गया तो वो पूछे बैंगलोर घूमने के लिए जा रहे हो? मैंने कहा – नहीं। डॉक्टर लोगों की एक परीक्षा है उसी सिलसिला में जा रहा हूँ।  तब वो बोले – ओह! तब तो आप बड़े डॉक्टर हैं क्या? मैंने चुटकी लेते हुए कहा - नहीं, मैं तो डॉक्टर बनाने वाली फैक्ट्री में कार्यरत एक मजदूर हूँ।  फिर मैंने पूछा कि आप अपने मालिक के यहाँ क्या करते हैं? वो बोले – सच कहिए तो लोग मुझे उसका चमचा कहते हैं। बाँकी आप मुझे उसका ड्राइवर, नौकर, खबास,मित्र जो मन हो वह कह सकते हैं। बुड्ढे कि पत्नी है नहीं, बेटा बहू बैंगलोर मे रहते हैं, दस कट्टा में घर बनाए हुए है। उतने बड़े घर मे मैं ही उसके साथ रहता हूँ।

फिर वो बताने लगे कि -  मेरे बेटे को उसने अपने पैसों से कोचिंग कराया और अब बेटा आईआईटी में पढ़ता है।  एक बेटी है जिसे रेडियोग्राफी में डिप्लोमा करवा रहा है और कहा है कि कोर्स करने पर उसके लिए एक इमेजिंग सेंटर खोल देगा पार्टनरशिप पर।  मैं मन ही मन सोचने लगा कि इसका मालिक इसे कितना प्यार करता है। और यह भी जो उसे बुड्ढा-बुड्ढा कह कर सम्बोधित कर रहा है वो लगाव से ही करता होगा!  उसने अपने मालिक के काम-धंधा के और भी बहुत सारे राज सब बताया जिसकी चर्चा करना ठीक नहीं रहेगा।  जहाज पर मेरी सीट विंडो वाली थी और उस सज्जन के साथ एक और लड़का था दोनों ही खिड़की से झाँक झाँक कर देखने के चक्कर मे मुझे पीसने लगे। इसी बीच मे एक परिचारिका कॉफी लेकर आई और इन्हे दी। दूध और चीनी का पैकेट खत्म हो गया था सो जबतक वो लाने गई तबतक ये कॉफी बनाकर चुस्की लेने लगे। बस मुँह का स्वाद कड़वा हो गया। तब तक में वो परिचारिका दूध चीनी ले आई और मैं कॉफी बना कर पीने लगा। इनको हुआ कि ये बेवकूफ बन गए। मैंने पूछा कि चाहिए क्या? वो हाँ बोले। तब मैंने परिचारिका से एक और कॉफी का अनुरोध किया जो वो मान गई ।  भोजन करने के उपरांत हाथ पोछते हुए वो बोले कि भोजन तो अच्छा था, उससे भी अच्छा प्लेट था किन्तु भात ही कम दिया इसी से पेट नहीं भरा।  अस्तु इसी प्रकार से वो मेरा मनोरंजन करते हुए बैंगलोर पहुंचा दिए। अब सुनिए कहानी का दूसरा  भाग।

 

अपने कार्य के सिलसिले में मैं मेडिकल कॉलेज/अस्पताल के प्रोफ़ेसर, हेड आदि से भेंट करता रहता हूँ। किन्तु दिल्ली में या कहें कि उत्तर भारत के बड़े लोग जितने हाय-फाय में रहते हैं वैसा मैंने वहाँ नहीं देखा । सेंट जॉन मेडिकल कॉलेज में जब मैंने डीन से भेंट किया तो उनके साधारण भेष-भूषा, बोली-व्यवहार ने मुझे  आकर्षित किया।  दिल्ली में जहां इंविजिलेशन में साधारण नॉन-मेडिकल स्टाफ को लगा दिया जाता है, वहाँ ड्यूटी में रेजिडेंट डॉक्टर लोगों को लगाया गया था। यह  एक क्रिश्चिनिटी कॉलेज था जिसमे ड्यूटी पर कइ महिलाएँ थी। 1-2 नन को छोड़ मैंने देखा कि सभी महिलाओं ने बहुत सलीके से तह किए साड़ी पहने हुए थी। कुछ नवयुवती ने सलवार सूट पहन रखा था वो भी पारंपरिक जैसा। मैं सोचने लगा कि नए-नए मॉडर्न ड्रेस क्रिस्चन समाज से आया है जो देश-विदेश में सभी जगह फैले हुए हैं। ये लोग निश्चित ही कन्वर्टेड क्रिश्चन होंगे किन्तु धर्म परिवर्तन के बाद भी अपनी भेष-भूषा संस्कृति नहीं त्यागी है। आगे भोजन काल में जब भोजन करने गया तो देखता हूँ कि डीन सहित रेजिडेंट डॉक्टर और सारे बड़े-छोटे स्टाफ एक ही  टेबल पर एक ही साथ भोजन करने बैठे हुए हैं जो उत्तर भारत में नहीं दिखता है। यहाँ अक्सर ही बड़े-छोटे पदों का भेदभाव किया जाता है।  भोजन के लिए जब मैं चम्मच ढूँढने लगा तो चम्मच ही नहीं था।  डीन मेरे मन की बात समझते हुए बोले कि सर, हमारे इधर चम्मच से खाने की परम्परा नहीं है इसिलिए इधर चम्मच नहीं रखा जाता है। फिर वो एक चपरासी को बुलाकर कहीं से एक चम्मच की व्यवस्था करने को कहे।  पांच मिनट बाद वो कहीं से एक चम्मच का जुगाड़ कर के लाया । मैं फिर सोचने लगा कि चम्मच-काँटा से खाने की पद्धति कदाचित क्रिस्चन लोग लाए थे किन्तु ये लोग हाथ से खाने के दक्खिन के परम्परा पर अभी भी कायम हैं। फिर मैं सोचने लगा कि एक ये लोग हैं जो धर्म बदलने के बावजूद  अपनी संस्कृति नहीं भूले हैं और एक हम लोग हैं जो अंग्रेजिया बनने के चक्कर में  शनैः-शनैः अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं।

[संस्मरण – अक्तूबर 2017]

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

बादल आई फेर तू आयल छलही हमरा आँगन

 

 
 

बादल आई फेर तू आयल छलही हमरा आँगन

 

बादल आई फेर तू आयल छलही हमरा आँगन,

आ बरसि के चलि गेलही ;

हम तोहर आभारो नै जता सकलहु !

तोहर बुन्नी से अपन गमछो नै भिजा सकलहु !

 

तू बड्ड व्यस्त छलहि सबहक प्यास मेटाबऽ मे।

मुदा काइल्खन तू फेर आबिहें।

बाँहि खोलि करबाक अछि तोहर स्वागत,

आ भिजेबाक अछि तोहर बुन्नि से अपन तन मन।

बंद करऽ के अछि तोहर बुन्नि के अपन मुट्ठी मे

आ झूमि के करबाक अछि प्रेम से तोहर आलिंगन।

 

पुछबाक अछि ई प्रश्न तोहर कारी घट से

सुनि रहल छहि न रे करिया बदरी ?

कोना लऽ आबय  छहीं तूँ मरुभूमियो मे हरियरी ?

कि मेटा सकय छहीं पियास ओहो अभागल सभ के

सुखायल अछि कंठ जेकर सदि से, कईएक जनम से।

 

भेंट सकत की सभके कोनो दिन तोहर बुन्नीक हिस्सा

आनंदित हेतईक की सभटा मनुक्खक जीवनक खिस्सा!

के छैक जे चोरा लैत अछि सब बेर तोहर  मेघ के ?

इन्द्र छैक, कोनो दानव आ कि कोनो आन देवता

आ कि ऐ पापक भागी सेहो छी हम मनुक्खे टा !

 

सुनही न, तू आबिहें, फेर आबिहें हमरा आँगन

अपन बुन्नी से भिजाबिहें हमरा  सबहक तन मन।

 

-      , अगस्त 2024


 

तीसरी प्रतिज्ञा [मूल मैथिली कथा का अनुवाद]

 

तीसरी प्रतिज्ञा

लेखक एवं अनुवादक : प्राणव झा

(केवल स्वांतः सुखाय, अकादमिक एवं शोध कार्य हेतु )

 

आज राघव का सिविल सेवा का अंतिम परिणाम आनेवाला था इसलिए कल रात से ही उनका मन छटपटा रहा है। एक क्षण के लिए भी नींद उनकी आँखों मे नहीं आ सकी। क्यों न हो, कई वर्षों से जो उनकी आँखों मे स्वप्न था वह अब उनके मात्र एक क्लिक की दूरी पर था। काँपते हाथों से उसने परिणाम के लिए क्लिक किया और .....।
Raghav Jha: All India Rank 24 : Got Selected for Indian Administrative Service.
यह देखकर उनकी मन:स्थिति जो हुई उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। उनको हुआ जैसे उनके पंख लग गए हो और वो दूर आसमान मे उड़े जा रहे थे। किन्तु स्वयं को चिकोटी काट कर उन्होने खुद को सचेत किया। फिर बरबस ही उन्हे नौ वर्ष पहले की वो घटना याद आ गई , आज की स्थिति को जिसका परिणाम कहा जा सकता है।


उस वक्त राघव दसवीं में गए थे। पिताजी एक सामान्य सरकारी कर्मचारी थे। घर में सारी मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध थी किंतु भोग-विलासिता दे दूरी बनी हुई थी। राघव के दो बाल सखा थे – बंटी और मोंटी। बंटी के पिताजी भी सरकारी कर्मचारी ही थे, और मोंटी के पिताजी व्यापारी थे। मोंटी के पिताजी ने उसे एकटा बढिया विडियो गेम खरीद कर दिया था जिसके देखा देखी मे बंटी ने भी अपने पिताजी से कह कर वैसा ही विडियो गेम खरीदवा लिया था। अब दोनों दोस्त राघव को चिढ़ाने लगे थे कि देखो हम लोगों के पास इतना बढ़िया विडियो गेम है और आपके पास नहीं है। यह सुन सुन कर राघव बहुत दुखी हो गए थे। उसने पिताजी के पास जिद किया कि पिताजी मेरे लिए भी वैसा ही विडियो गेम मंगा दीजिए। पिताजी ने उनको समझाया कि बाबू वो वीडियो गेम बहुत महंगा है और अभी खरीदना आवश्यक नहीं है। अभी दीदी को इंजिनियरिंग मे दाखिला दिलवाना है उसमे खर्चा होगा। और अन्य काम हैं। किन्तु राघव कहाँ मानने वाले थे। उन्होने कहा कि मोंटी और बंटी के पिताजी ने भी तो दिलाया है न! इसपर पिताजी बोले कि मोंटी के पापा अमीर व्यापारी हैं और बंटी के पापा घुसखोर। उनसे आप अपनी बराबरी क्यों करते हो ? इस पर राघव तुनक कर बोले कि ऐसी ईमानदारी को लेकर क्या करोगे जो बेटे के शौख भी पूरी नहीं कर सकता! इतना कह कर वह मुँह फुलाए वहाँ से चले गए। किन्तु उनकी आँखों मे अभी भी विडियो गेमे नाच रहा था।  

 

रात मे उसने क्रोध मे खाना भी नहीं खाया था। सोते रातों मे उसे खयाल आया कि क्यों न पिताजी का बटुआ चोरी कर लिया जाए और उसमे जो रुपए होंगे उससे दोस्तों के साथ जाकर वीडियो गेम खरीद लेंगे। यह सोचते ही वो उठे और चुपचाप पिताजी के कुर्ते से उनका बटुआ निकाल लिया। सुबह पिताजी को चुनाव ड्यूटी मे जाना था। इसलिए वो सुबह उषाकाल से पहले ही निकल गए । जल्दीबाजी मे उन्होने अपने कुर्ता के जेब को भी नहीं देखा जिसमे उनका बटुआ था और बटुए मे पैसे-कौड़ी के साथ साथ उनका पहचान पत्र, बस पास आदि भी था। बस मे बैठे पिताजी जा रहे थे तभी टिकट चेकर लोग पहुंचे। पिताजी से टिकट मांगने पर उन्होने जभी पास निकालने के लिए जेब मे हाथ दिया तो ..... अरे बाप रे बटुआ तो है ही नहीं! अब उनको हुआ कि क्या करें क्या न करे! उन्होने टिकट चेकर को बात समझाने का प्रयास किया किन्तु वो मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। इनके पास जुर्माना भरने के भी पैसे नहीं थे। उस समय मे मोबाईल फ़ोन की उतनी चलती भी नहीं थी। टीसी उनको बस से उतार कर वाद विवाद करे लगा। खैर, इस मामले को किसी प्रकार निपटा कर किसी तरह से पिताजी ड्यूटी पर पहुँचे थे। किन्तु समय पर चुनाव ड्यूटी पर नहीं पहुँचने के कारण अधिकारी ने उनपर काम मे लापरवाही का आरोप लगा कर उनको सस्पेंड कर दिया। दु:खी मन से पिताजी घर पहुँचे और माँ को सारी बातें बताकर फूट-फूट कर रोने लगे। इसी बीच राघव भी कहीं से खेलते कूदते घर पहुँचे। पहले तो उनको माजरा कुछ समझ मे नहीं आया, किन्तु बात जानने के बाद तो जैसे उनको काटो तो खून नहीं। आत्मग्लानी से वो डूबे जा रहे थे । हो रहा था कि धरती फट जाए और मैं इसमे समा जाऊँ। सोचने लगे कि आज मेरे कारण से पिताजी को निलंबित होना पड़ा और बदनामी हुई वो अलग। कुछ क्षण के लिए तो उनको अपने आप से , जिंदगी से घृणा होने लगा, नाना प्रकार के  नाकारात्मक खयाल आने लगे। एक क्षण होता कि फाँसी लगा लें। अगले क्षण होता कि नदी मे जाकर डूब जाएँ। किन्तु फिर उन्होने अपने आप को सम्हाला और खुद से कहा कि आज मेरे से बहुत बड़ा अपराध हो गया है जिसका फल पिताजी और पूरे परिवार को भोगना पड़ा है। किन्तु मैं कायर नहीं हूँ। मैं इस अपराध का प्रायश्चित करूंगा। किन्तु राघव को यह हिम्मत नहीं हुई कि वो सारी सच्चाई पिताजी को जाकर बता देते। तथापि राघव ने तत्क्षण तीन प्रतिज्ञाएँ ली:
1. जिंदगी मे कभी भी किसी भी प्रकार की चोरी नहीं करूंगा।

2. कभी भी कोई अनावश्यक मांग नहीं करूंगा।

3. पिताजी को आई.ए.एस बन कर दिखाऊँगा और तभी इस अपराध के लिए क्षमा माँगूँगा ।

उसके बाद फिर राघव ने पिताजी का बटुआ अति गोपनिय रूप से रख दिया था। वह दिन है और आज का दिन है, राघव ने सदैव ही अपने दोनों प्रतिज्ञाओं का पालन किया है और प्रतिपल अपने तीसरी प्रतिज्ञ  का पालन करने हेतु प्रयत्नशील रहे हैं। और आज वो दिन आ ही गया, जब उनकी तीसरी प्रतिज्ञा पूर्ण होने जा रही थी।

यह सब सोचते हुए राघव की आँखों से खुशी की आँसू बहने लगे ।

वो वहाँ से सीधे पिताजी का बटुआ निकालने के लिए गए। और फिर गए पिताजी को यह खबर सुनाने। आज-कल इंटरने का जमाना है और कोई खबर फैलाने मे मिनट भी कहाँ लगता है! पिताजी को अन्य लोगों से खबर मिल गई थी कि उनके बेटे ने गाँव-समाज का नाक ऊपर किया है और मिथिला का नाम रौशन। पिताजी खुशी से झूमते हुए राघव के सामने आए। अब राघव के लिए खुद को रोकना बहुत मुश्किल हो गया था। वो पिताजी से लिपट कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगे। उनकी आँखों से गंगा-यमुना बहने लगी। पिताजी ने कहा धत्त पगले, तुमने तो गाँव-समाज का इतना नाम किया है और ऐसे पागलों कि तरह क्यूँ रो रहे हो ! अब राघव ने रोते रोते नौ वर्ष पूर्व की सारी घटनाएँ सुनाने लगा। और अंत मे पिताजी को वो बटुआ निकाल कर दिया। अब सारी ग्लानि सारा अपराध बोध समाप्त हो गया था। आँसुओं की बारिश मे सब साफ हो गया था। लग रहा था जैसे घनघोर घटाटोप के बाद दिन खुल गया था।

        - [नई दिल्ली, 13 जून 2014 ]