Saturday 31 August 2019

"औघड़" पुस्तक समीक्षा

 डार्क हॉर्स के लेखक Nilotpal Mrinal जब अपनी नयी किताब औघड़ ले कर आए तो पहले तो मैं शीर्षक देख कर भ्रमित हुआ था की ये शायद साधु संतो की दुनिया की कोई कहानी होगी. पर प्रोमो देखने के बाद पता चला की ये ग्रामीण समाज की वास्तविकता को दिखाती हुई कोई कहानी है. बस फिर क्या था यह किताब मेरे इस वर्ष के लिस्ट में सबसे ऊपर थी और संजोग ऐसा की पुस्तक मेले में मुझे यह स्वयं लेखक के हाथों से ही प्राप्त हुआ.

जैसा की लेखक ने पुस्तक की भूमिका में ही लिखा है की वो किताब नहीं अपने मौत की जमानत लिख रहे हैं, वैसा ही उन्होंने एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी का ऐसा तानाबाना बुना है की चाहे वो कोई भी पंथी हो, उसके पाखण्ड और दोहरे चरित्र को उजागर करने में कोई चूक नहीं की गई है.

कहानी के केंद्र में कहानी का नायक विरंची कुमार है. अमूमन कहानियों के नायक विशिष्ट गुण या शक्ति वाले दिखाए जाते हैं पर विरंची दा में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिलता है, वो अपनी लड़ाई भी अंततः हार ही जाता है, पर इस पात्र को लेखक ने जिस तरह कहानी में उतारा है, ज्यों ज्यों आप कहानी में आगे बढ़ाते जाते हैं त्यों त्यों विरंची किताब के पन्नों से उतारकर आपके ह्रदय में स्थान बनाने लगता है. अपनी तमाम खामियों के बावजूद भी वो फुकन सिंह के सामंतवाद को अकेले ही चुनौती देता है और उसके सामंतवादी दीवार को अपने पेशाब से ढाह देने का भरसक प्रयास करता है.

गांव मे जिस तरह से जातिय भेदभाव देखने को मिलता है, उसे लेखक ने बखूबी अंजाम दिया है, जिसमें लेखक जाति की जड़ को तलाशते हुए कहता है कि हिंदुस्तान में ऊंची जाति के बारे में पता करना तो आसान है लेकिन नीची जाति की खोज आज भी जारी है।इस जातीय व्यवस्था को जिसका में खुद साक्षी हूँ लेखक ने बखूबी उतारा है. यहाँ मध्यम जातियाँ उनसे निचली जातियों से वैसा ही व्यवहार रखती है जैसा ऊँची कही जानेवाली जातियों के लोग. लेखक ने जातिवादी राजनीति या सोशल इंजीनियरिंग करने वालों को भी बखूबी आड़े हाथ लिया है. दलित वर्ग से आनेवाला अधिकारी दारोगा पासवान और वीडियो मंडल दोनों ही पैसों के खातिर सामंत फूकन सिंह की गोद में बैठ जाते हैं और दलित महिला मधु को जिस प्रकार से प्रताड़ित करता है वह समाज के एक और सच्चाई को बयां करता है की किस तरह से समाज और राजनीति में कुछ लोग जो खुद को दलितों-पिछडो की नुमाइंदगी करनेवाले बताते हैं पर वास्तव में खुद सामंतवादी सोच के हो जाते हैं और पैसे और पावर के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं. वहीँ यह भी दिखने का प्रयास किया गया है की किस तरह से आर्थिक सक्षमता और प्रशासन में भागीदारी ही जातगत विभेद को ख़त्म कर सकती है. जो फुकन सिंह आम पिछडो और दलित से स्पर्श भी नहीं गवारा करता है वही फुकन सिंह दलित जाति से आनेवाले दरोगा और वीडियो के साथ रातभर साथ बैठ खाना पीना भी करता है. जो फुकन सिंह पवित्तर दास को अपने दरवाजे पर बिठाना तक नहीं चाहता वही राजनैतिक साझेदारी ह जाने के बाद उसी पवित्तर दास के साथ गलबहिया डाले रहता है.

शेखर के चरित्र में लेखक ने किताबी नारीवादी और किताबी मार्क्सवादी का भी बखूबी पोल खोला है. नारी उन्मुक्तता पर जब वो अपने माँ-बाप को पाठ पढ़ता हुआ साथ खाने की बात करता है तो उसकी माँ बहुत ही स्वाभाविक सा जवाब देती है की तेरे पिताजी मुझपर कोई जुल्म नहीं कर रहे हैं, बस सबको खिलाकर खाना अच्छा लगता है. नारी सवतंत्रता पर ग्रामीण महिलाओं बीच दिया उसका भाषण उन महिलाओं के पल्ले ही नहीं पड़ता है और वो उसे ही लम्पट समझ लेती है.

ऐसे ही धर्म को अफीम बोलने पर भोला भाला लखन बहुत ही मासूमियत से उससे सवाल करता है की शेखर भैया यदि धर्म अफीम है इसलिए धर्म खराब है तो फिर आप हमारे लोगों के साथ गांजा क्यों धूँकते हैं (मार्क्स ने कहा "धर्म अफ़ीम है, त मार्क्सवादी लोग धर्म छोड़ दिया।ये अफ़ीम काहे नही छोड़ता ई लोग शेखर बाबू?"). कहानी में कई ऐसे मोड़ आए जहां परिस्थिति को सम्हालने में शेखर का किताबी ज्ञान फेल हुआ है. फिर भी शेखर का एक डायलॉग जो वह अपने पिता को कहता है की आप जैसे लोग अपनी इज्जत बना के नहीं बल्कि बचा के चलते हैं और इसके लिए समाज में हो रहे हर सही गलत से आँखे फेर लेते हैं, समाज के एक बड़े वर्ग पर सवाल खड़ा करता है (इस वर्ग में कदाचित मैं भी हूँ).

अच्छी शिक्षा और पहचान ही आपको सशक्त बनाता है, इसका भी एक बढ़िया उदाहरण कहानी में है, जब जुझारू और जीवट विरंची और मधु दरोगा पासवान के जुल्म के शिकार हो जाते हैं और उसके जाल से निकलने में बेबस नजर आते हैं वही डरपोक शेखर का अच्छे कॉलेज से पढ़ा लिखा होना और कॉन्टेक्ट काम आता है और वो आसानी से उन्हें दरोगा पासवान के चंगुल से बचा लेता है.

मौजूदा समय चुनावों का है और इस कहानी में चुनावी दांव पेंच की घटनाएं आपको कई नई पुरानी घटनाओं से जोड़ सकती है. विरंची की ही एक कहानी ले लें तो वो फुकन सिंह के नॉमिनेशन में भी शामिल हो जाता है और वक्त आने पर उसी के विरुद्ध पवित्तर दास को मैदान में खड़ा कर देता है. मगर अंततः वही पवित्तर दास उसे धोखा दे देता है और उसके साथ ही उसके अरमानों का भी क़त्ल कर देता है।

कहानी के मध्य तक आते आते जहां कहानी मार्मिक स्थिति में पहुँच जाती है (मधु के साथ दुष्कर्म की कहानी), वहीँ आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे लगता है की अंततः संघर्ष की जीत होगी पर अंततः संघर्ष फिर हार जाता है एक नए संघर्ष का बीज डालकर. “औघड़” अपने आप में एक दुनिया है जो आपके आंखों के सामने बनी और उपन्यास खत्म होते-होते आपके निकले आँसू, और अफसोस के साथ खत्म होती है. पर एक अज्ञात औघड़ जो एक बार फिर से फुकन सिंह के चारदीवाली की दीवार को ढाह देना चाहता है, के उपसंहार के साथ ही लेखक पाठकों में एक उम्मीद की किरण और कल्पनाशीलता भी छोड़ जाता है की विरंची के बाद कौन है वो औघड़ जो एकबार फिर से संघर्ष के पथ पर निकल पड़ा है. इस कहानी के पात्रों में मेरी कल्पनाशीलता तो यही कहती है की शायद चन्दन बाबा हो या लखन लुहार. बहरहाल इस रेस का डार्कहॉर्स कौन होगा यह भविष्य के लेखनी में ही छुपा है. लेखक की सबसे बड़ी पूंजी इस पुस्तक में यही है कि वह पाठक को पूरी तरह से बांधे रहता है. #विश्वपुस्तकदिवस पर एक अच्छे किताब के लिए नीलोत्पल मृणाल भाई को बधाई। जय हो।

पीएस : किताब मैंने जनवरी में ही पढ़ ली थी पर आलस और व्यस्तता के कारण प्रतिक्रया देने में थोड़ी देरी हो गई.(23 अप्रैल 2019)

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