Friday 6 September 2019

नालंदा की एक सैर (A visit to Nalanda)


ह्वेनसांग मेमोरियल, नालंदा

ह्वेनसांग एक चीनी भिक्षु-विद्वान थे, जिन्होंने 7 वीं शताब्दी मे नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने, बुद्ध की सच्ची शिक्षाओं की पांडुलिपियों को एकत्र करने और बुद्ध से जुड़े पवित्र स्थानों की यात्रा करने के लिए चीन से भारत की यात्रा की । ह्वेनसांग ने सिल्क रूट और भारत में अपनी यात्रा के 17 वर्षों का एक विस्तृत विवरण छोड़ा है, जो बाद मे भारत मे बौद्ध धर्म की स्थापना एवं विकास की सूचना का प्राथमिक स्रोत बना। 


सन 629 में उसे एक स्वप्न में भारत जाने की प्रेरणा मिली। उसी समय तंग वंश और तुर्कों का युद्ध चल रहे थे। इस कारण राजा ने विदेश यात्राएं निषेध कर रखीं थीं। पर बौद्ध पाठ्यों में मतभेद और भ्रम के कारण इसने भारत जाकर मूल पाठ का अध्ययन करने का निश्चय किया। और फिर किर्गिस्तान, तियानशन, उज्बेकिस्तान, ताशकंद, फारस आदि मार्ग से होते हुए भारत पहुंचे थे और वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय मे अध्ययन-अध्यापन किया था।


नव नंद महाविहार के संस्थापक और निदेशक जगदीश कश्यप ने नालंदा में उस स्थान पर  एक ह्वेनसांग मेमोरियल की स्थापना के विचार का प्रस्ताव रखा जिस स्थान पर ह्वेनसांग ने बौद्ध धर्म की सच्ची समझ की खोज में अपना लंबा तीर्थयात्रा समाप्त किया। स्मारक का निर्माण 1957 में भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री झोउ एन-लाई द्वारा संयुक्त रूप से शुरू किया गया था। लेकिन अपरिहार्य कारणों से यह तब पूरा नहीं हो सका। 2005 में, भारत और चीन के विशेषज्ञों की एक टीम ने नवीकरण के संबंध में सुझाव दिए, जिसके बाद 2007 में स्मारक पूरा हुआ। 

ह्वेनसांग मेमोरियल भारत और चीन की साझा बौद्ध विरासत का प्रतीक है। यह भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक संबंध को प्रदर्शित करता है। यह भविष्य में दोनों देशों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का एक मंच भी है।


स्मारक चीनी और भारतीय स्थापत्य शैली से प्रेरित है। सतत रूप से वक्र छत को संतुलित तरीके से डिज़ाइन किया गया है, क्षैतिज रेखाओं मे विभक्त किया गया है जो बुरी आत्माओं को दूर करती है ऐसा  माना जाता है। छत मे नीली चमकती हुई टाइलें लगी हैं जो स्वर्ग और आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं। दीवालों पर लाल रंग जो बुरी आत्माओं को दूर रखनेवाला और खुशी का प्रतीक है, तथा स्वर्ण रंग जो इमारत को एक धात्विक चमक देती है का मिश्रित प्रयोग दिखाता है । चीनी और भारतीय वास्तुशिल्प तत्वों को कलात्मक रूप से ह्वेनसांग को सीखने, ध्यान और भुगतान करने के लिए एक शांतिपूर्ण स्थान बनाने के लिए मिश्रित किया गया है।


प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय 22 जल निकायों से घिरा हुआ है। ह्वेनसांग मेमोरियल ऐतिहासिक पद्मपुष्करनी झील के पूर्वी तट पर स्थित है।



बड़े कांस्य गेट को मुख्य संरचना के घुमावदार छत और नीली चमकते हुए टाइल के विवरण के साथ पूरक करने के लिए बनाया गया है। एक सौंदर्य विशेषता होने के अलावा, यह चीनी सांस्कृतिक प्रभाव का भी प्रतिनिधित्व करता है; ऐसा माना जाता है की यह बुरी आत्माओं को मुख्य कक्षों में प्रवेश करने से रोकने के लिए एक स्क्रीन की तरह कार्य करता है।



स्मारक के अंदर वेदी पर ह्वेनसांग की एक कांस्य प्रतिमा है, उपदेश मुद्रा में। उन्हें एक चीनी तीर्थयात्री (यात्रा पर जाने वाले साधु) के रूप में जाना गया था और बौद्ध धर्म के प्रसार में उनके योगदान को बौद्धों द्वारा स्वीकार किया गया है, इसलिए  उन्हें एक बौद्ध संत के रूप में चित्रित किया गया है।

मूर्ति के पीछे सफेद संगमरमर की दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की एक उभरी हुई प्रतिमा है। ह्वेनसांग की इच्छा थी कि उनके अगले जन्म में वे मैत्रेय बुद्ध के साथ पैदा हों ताकि उन्हें मैत्रेय के साथ अभ्यास करने और मुक्ति पाने का अवसर मिले, कदाचित इसी कांसेप्ट को दर्शाती यह संरचना है।


समाकर के अंदर दीवारों पर बुद्ध और ह्वेनसांग के जीवन के अनगिनत किस्सों को एक वृत्तिचित्र के रूप मे बताती सैंकड़ों तस्वीरें एवं प्रिंटेड पेंटिंग्स हैं। ये बुद्ध और ह्वेनसांग के पुण्य जीवन और आत्म बलिदान के महत्व पर जोर देने वाली कहानियां हैं। ये कथाएँ कई भारतीय और चीनी स्मारकों को जोड़ने वाली हैं, जिनमें अजंता की गुफाएँ, किज़िल और दुनहुआंग की गुफाएँ शामिल हैं। स्मारक की छत पर बनी आकृति अजंता की गुफाओं मे से एक की प्रतिकृति है।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भग्नावशेष कैंपस
तुर्कों का आक्रमण भारतीय इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है. तुर्क आक्रमण ने समकालीन भारत को न सिर्फ आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर किया अपितु बौद्धिक रूप से पंगु करने और पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ा.

इसका सबसे क्रूर उदहारण है तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के द्वारा तत्कालीन विश्व में शिक्षा ार शोध का उत्कृष्टतम केंद्र नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर देना और साथ ही इसमें अध्ययन-अध्यापन करनेवाले और प्रश्रय देनेवाले हजारों बोद्धो की ह्त्या और यहाँ के पुस्तकालयों में रखे हजारों पुस्तकों एवं शोधपत्र को जलाकर ख़ाक कर देना. कहते हैं की यहां लगी आग की महीनों तक धधकती रही थी.

यह एक कृतघ्न, मुर्ख और क्रूर लुटेरे शासक का ऐसा कुकर्म था जिसने सैंकड़ो विद्वानों के जीवन भर के शोध को ख़ाक में मिला दिया और तत्कालीन भारत के बौद्धिकता को सैंकड़ो वर्ष पीछे पहुंचा दिया. यह भारतीय इतिहास में कृतघ्नता का भी एक ज्वलंत उदहारण है, क्योंकि कहते हैं कि बख्तियार खिलजी जब एकबार बीमार हुआ और अपने वैद्यों के इलाज से ठीक नहीं हुआ तब किसी बौद्ध वैद्य ने अपने इलाज से उसे ठीक कर दिया. पर उस मुर्ख कुकर्मी आक्रमणकारी को यह बेहद नागवार गुजरा कि उसके धर्मावलम्बियों के पास जिसका इलाज नहीं था वो कोई विधर्मी के पास कैसे हो! और इसी खुंदक में उस कृतघ्न ने न सिर्फ हजारों बौद्धों की ह्त्या करवाई अपितु उनके ज्ञान के सबसे बड़े केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय को ही नष्ट कर दिया.


नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। 


अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। 

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम को प्राप्त है। बाद में महान सम्राट हर्षवर्धन और फिर पालवंश के राजा धर्मपाल ने भी इसके विस्तार और विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया।


हर्षवर्धन ने यहां उस समय में मल्टीस्टोरी लाइब्रेरी बनवाई थी, जिसमे हर विषय के ग्रन्थ और शोध उपलब्ध थे। इसमें अध्यापन कक्ष एक खुले ऑडिटोरिम की तरह है जिसके दोनों छोड़ पर छात्रों के कमरे बने हुए हैं, आगे आचार्यों के लिए ऊँचा मंच और पीछे के विद्यार्थियों के लिए भी ऊंचा मंच बना हुआ है. साथ ही पानी पिने के कुँए भी बने हुए हैं. छात्रावास के कमरों का आकार देखकर साथ गए सत्यप्रकाश गोपाल जी का वक्तव्य था की पटना में छात्रावास का आकार भी लगभग इतना ही होता है।

विश्वविद्यालय परिसर के भग्नावशेषों के दिवालों की मोटाई लगभग आठ फुट की होगी. इसे देखकर मुझे बरबस ही दिल्ली के पचास गज वाले और छह इंच मोटी दीवाल वाले घरों की याद आ गई, और मैं कल्पना करने लगा की यदि ऐसी मोटी दीवाले वहां बनाई जाए तो फिर तो बस दीवाल ही दीवाल हो कमरा के लिए तो जगह ही न बचे 😂.


तस्वीर में जो भग्नावशेष दिख रहा है वो विश्वविद्यालय प्रांगण में बना स्तूप है जो बिहार के प्रतिक चिन्हों में से एक है।



काला बुद्ध उर्फ तेलिया बाबा का मंदिर


भगवान बुद्ध की यह विशालकाय और भव्य प्रतिमा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के प्रांगण से सटे एक मंदिर में स्थापित है। यह मंदिर इस रूप मे अद्वितीय है कि काली बेसाल्ट चट्टान का उपयोग कर भगवान बुद्ध की इतनी बड़ी मूर्ति बनाया गया है जो कि बहुत कम ही दिखाई देता है।

मजेदार बात यह है कि भौतिकतावाद के विरोधी महात्मा बुद्ध को यहाँ भी भौतिकतावाद का प्रतीक बना दिया गया है(बहुत से घरों में सुख समृद्धि के लिए लाफ़िंग बुद्धा और स्लीपिंग बुद्धा के मूर्ति रखने का चलन है) और लोग इन्हें तेलिया भैरब बाबा के नाम से पूजते हैं। मंदिर में उपस्थित पुजारी बताते हैं कि यहां सच्चे दिल से मांगी हर मन्नत पूरी होती है। यहां हर पहर लोगों का आना-जाना लगा रहता है और लोग बुद्ध की विशालकाय मूर्ति पर अपने बच्चों को मोटा होने, उनमें रिकेट्स, एनिमिया, सुखड़ा सहित कई तरह की बीमारियों से निजात दिलाने के लिए सरसों का तेल और सात प्रकार के अनाज चढ़ाते हैं. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. 

यहां भगवान बुद्ध की तेलिया बाबा के नाम पर स्थापित मूर्ति की ख्याति स्थानीय स्तर ही नहीं, विदेशों में भी है. बड़ी संख्या में थाई और नेपाली बौद्ध यहां आकर मंत्र जाप करते हैं. बुद्ध की मूर्ति पर तेल चढ़ाते हैं और रूमाल या पेपर से मूर्ति पर लगाए गए तेल को पोंछकर अपने शरीर पर मालिश करते हैं.
जलमंदिर पावापुरी

पावापुरी में स्थित जल मंदिर जैन धर्म के लोगों का एक पवित्र तीर्थ स्थान है। कहते हैं कि भगवान महावीर का महापरिनिर्वाण इसी जगह पर हुआ था और इस मंदिर के अंदर भगवान महावीर की चरण पादुका है, जो सभी जैन लोगों के लिए पूजनीय है। एक विशाल झील के बीचोंबीच स्थित जल मंदिर का दृश्य बहुत ही मनभावन है। इस मंदिर का आर्किटेक्चर भी सुंदर है सफेद संगमरमर से बना मंदिर कुछ कमलाकृति लिए हुए है।

 

चारों तरफ विशाल जल जल राशि में कमल ही कमल खिले नजर आते हैं, जो बहुत ही मनोरम नजारा प्रस्तुत करता है। 



इस जल में कई प्रकार के पक्षियों का भी डेरा है जैसे सिल्ली, बत्तख, स्वैम्पहेन, चकेबा आदि। 
झील के बीचो-बीच बने इस मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 600 फीट लंबा एक पूल है जिसके आरंभ द्वार पर आप दो-तीन सूचना पट्ट देखेंगे जिसे पढ़कर इस मंदिर से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना आपको प्राप्त हो सकती है। कुल मिलाकर या एक अच्छा मनोरम दृश्य वाला पर्यटन केंद्र है जहां आप जाकर कुछ समय के लिए ही सही जीवन की आपाधापी के बीच कुछ सुकून सा प्राप्त कर सकते हैं। 



यदि आप अपने कार से नहीं हैं, तो इन स्थलों की यात्रा का लुफ्त ई-रिक्शा से भी करके उठा सकते हैं जो आपको एक अलग ही मजा और अनुभव दे सकता है।

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