शनिवार, 28 सितंबर 2019

“गिद्ध” (मैथिली लघुकथा) [giddh - Maithili short story]

“बाबी गै घर पर गिद्ध बैस गेने की होईत छैक?” रमण अपन बालमन में उठल प्रश्न बाबी से पुछैत बाजल छल भोरहे से गाम में अनहोर उठल छल जे सीडी झा के घर पर गिद्ध बैस गेलै य।

"बाउ रे जै घर पर गिद्ध बैस जाइत छै ने तै घर में भूत-प्रेत के वास होमय लागैत छै
किएकि गिद्ध बड्ढ अधलाह जीव होइत छैक, मुइल जीव के नोचि के खाइत छैक”
 
रमण कइएक बेर गिद्ध नामक ऐ विशालकाय पक्षी के घरक पछुआर में बड़का ताड़ गाछ पर बैसल देखने छल, आ गोटेक बेर बाबी संगे खेत दिस गेला पर देखने छल मुइल जानवर के मांस नोचैत
। 

मुदा रमण टीवी पर रामायण मे देखने छल जे जटायु आ संपाती नाम के गिद्ध के त महिमा मंडन कैल गेल छै। हुनका सबके आदरणीय मानल गेल छैक। ई विरोधाभास के ल क अकसरहा रमन के मोन मे भ्रम के स्थिति ठाढ़ भ जाय छल।

ई घटना ओय समय के छल जखन रमण करीब छ: वर्षक बालक छलाह आ गाम में रहैत छलाह
समय बितला पर रमण अपन बाबी आ माय संगे बाबूजी लग रह गाजियाबाद चलि आयल छल रमण के बाबूजी गाजियाबाद के एकटा फैक्ट्री में अकाउंटेंट के काज करैत छलखिन रमण के नाम एकटा प्राइवेट इस्कूल में लिखा देल गेल छल आब रमण 13  वर्ष के भ गेल छलाह घर से इस्कूल करीब २ किलोमीटर छलै रमण रोज सायकल से इस्कूल जाइत छलाह रास्ता में एकटा चौर पड़ै छलै जै में रमण देखैत छलाह जे लोक अपन मुइल पशु सबहक लहास फेंक के चलि जाय छल रमण देखैत छल जे अक्सरहां एकटा 16-17 वर्षक छौरा ओय लहास के चमड़ा छोड़ाबैत रहे छल आ ओय लहास के गिद्ध-कुकुर सब मिल के खाइय छल, बाद में ओ छौरा ओय में से बचल हड्डी सब के सोहो अपना झोरा में भरि लैत छल ई देख के रमण के ओ छौरा के प्रति बड्ड घिन आबैत छलै, मुदा मोन में जिज्ञासा सेहो उठैत छलै जे "ओ एहन अधलाह काज किएक करैत अछि?" ओय हड्डी सब के ओ की करैत अछि? ककरो-ककरो से ओ सुनने छल जे किछ लोक हड्डी से कालाजादू करैत छैक? कतेको बेर रमण के भेलै जे ओकरा जा के पूछी जे "तों ई की करैत छहक आ ऐ काज से तोरा की भेटैत छह?" मुदा रमण के अपन आ ओकर वेश-भूषा के अंतर सदिखन ओकरा लग जा क ओकरा विषय में बात करै के साहस करै से रोकि दैत छल

एक दिन रमण जखन इस्कूल जाय छल त ओकरा घर से कनिकबे आगाँ एकटा मोदियाइन के घर छलै, जे 3-4 टा माल जाल पोसने छल
ओ देखलक जे ओत  किछु गोटे ओहि छौरा के घेरने छल आ अंधाधुंध लठियेने छलै भीड़ से किछु सम्मिलित स्वर सुनबा में आबि रहल छल जे "मार सार के, ई गिद्ध थिकै, यैह बड्ड दिन से नजर लगउने छल फलां के माल पर जाहि कारणे ओ मरि गेल बहुतो के माल जाल पर एकर गिद्ध बला नजैर रहैत छैक... आदि आदि।" मारि खाइत-खाइत छौरा अधमरू भ गेल छल। ओ त निक भेलै जे कियौ पुलिस के सूचित क देने रहै, तैं पुलिस आबि के भीड़ के तीतर-बितर केलकै आ ओहि छौरा के जान बचलै

किछु दिन बाद एकदिन रमण घर पर कोनो बात से रूसल छल
छुट्टी के दिन छलैक ओ नेहेनहो सोनेने नै छल एहिना गंजी पैजामा पहिरने घर से परा गेल छल घुमैत-घामैत ओहि चौर दिस पहुँचल देखलक त ओ छौरा फेर नजैर एलै बस फेर की, रमण ओकरा लग पहुँचलै ओकरा पुछलकै हौ! तो एहन अधलाह काज किएक करै छहक? लोक के माल-जाल के काला-जादू से मारि दैत छहक, आ ओकर खाल खिंचैत छहक! ओहि दिन एतेक मारि लागलह तैयो फेर यैह काज!

ओ कहलक मुइल माल-जाल के खाल-हड्डी निकालनाइ हमर खानदानी धंधा छियै
मुदा हमसब किनको माल-जाल के मारि दैत छियै आ की नजैर-गुजैर लगा दैत छियै ई सौ टका अनर्गल आरोप अछि हमरा सब पर ऐ तरहे भीड़ अक्सरहा हमरा सब पर अत्याचार करैत अछि

हमसब जे ई चमड़ा छोड़ा के ल जाइत छी, ताहि के सफैया क के आ फेर पोलिस आदि क चमका के रंग रंगक, जुत्ता, बेल्ट, बैग, पर्स आ कतेको आन आन श्रृंगारक आ उपयोगक वास्तुजात बनायल जाइत अछि, जे सभगोटे के भोग्य आ शुद्ध बुझना जाइत छैक
आ अहाँ की कहलियै हड्डी.....हा..हा..हा.., यौ जी हड्डी के हमसब कालाजादू के उपयोग नै करैत छियै सभटा माल दिल्ली के शाहदरा-उस्मानपुर एरिया में भेज देल जाइत छैक जत ओकर सफैया होइत छैक फेर फैक्ट्री में कटाई-घिसाई-पोलिस क के रंग रंग के सजावट के वास्तु जात, भगवान क मूर्ति, स्त्रीगण के श्रृंगार के लेल माला-झुमका आदि कतेको आकर्षक वस्तुजात एहि हड्डी सभ के बनायल जाइत छैक बड़का मेला आ मार्केट सब में जे सस्ता सस्ता में मोती माला सब देखैत छियैक, से कोनो असली होइत छैक! सभटा एहि हड्डी सब के बनाओल जाइत छैक से ई वस्तु जात कियौ हो, पंडित, मुल्ला, बनिया-रार, साहेब-गुलाम सब के सिनेह्गर लागैत छैक, आ हमरा सन के काज केनिहार सभके लेल अधलाह होइत छैक!  

जौं हमरा सन के काज केनिहार नै होइ, आ ई गिद्ध कुकुर नै होइ त अहाँक ई समाज मुइल जानवर के सड़ल लहास से पटल पड़ल रहत आ ओकरा कियौ उठेनाहर नै भेंटत
हम सब छी त अहाँ सब ऐ सड़ांध से छुटकारा पाबैत छी मुदा तैयो अहाँ सब हमरा सब के गिद्ध कहि प्रताड़ित करबै, मौक़ा पाबिते लठियेबै, मारबई, आ इज्जत के त खैर छोड़िये दिय!

आब रमण सब किछु बुझि गेल छल। पारिस्थितिकि में गिद्ध के महत्वो, आ इहो बुझि गेल छल कि केना अहाँक पहिरन-ओरहन सेहो अहाँके कोनो लोक से संवाद करै में आ ओकरा विषय में वास्तविकता जानै में एकटा अवरोधक जेकाँ काज करै छैक
रमण के मोन पड़लैन जे कोना गांधीजी चम्पारण में किसानक दुखदर्द के देख अपन सूट-बूट त्यागि देने छलाह, तै के बाद हुनका देश के अंतिम आ सबसे कमजोर तबका सब के समस्या समझ में भांगट नै रहल छलैन्ह 
 
इति।

एनबीई की कार्यप्रणाली


सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं, एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
देता हूं तुमको मैं ज्ञान, क्या होता है प्रत्ययन
अस्पताल जिनमें हो, कम से कम 200 बेड
अनुभवी शिक्षक और, जरूरत के सारे इक्विपमेंट
करते हैं वो आवेदन, चलाने कोर्स डीएनबी
दस्तावेज के साथ भेजते, आवेदन की पूरी फी
फिर होता है निरीक्षण, और लग जाते हैं परीक्षक
रपट भेजते हैं जो करके, अस्पताल का परीक्षण
उन रपटों का अध्ययन करके, कमियां हैं खोजी जाती
उन कमियों को दूर करने की, उसके बाद बारी आती
फिर 1 दिन प्रत्ययन समिति की, बैठक है बुलाई जाती
रखा जाता केस और फिर, सामूहिक निर्णय आता
किसी को मिलता सुझाव और, कोई है प्रत्ययन पाता
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं, एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
  
एनबीई करवाता है, कितनी सारी परीक्षाएं
डॉक्टर बनने के लिए सभी को, इनसे तो गुजरना है
नीट पीजी, एसएस, एम डी एस के साथ एफ़एमजीई भी
डीएनबी, एफ़एनबी तो,  ट्रेनिंग के बाद करना है जी
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
डीएनबी में प्रवेश के हेतु होता ऑनलाइन काउंसलिंग
सीट आवंटनके बाद है मिलता, जॉइनिंग के लिए 7 दिन
जॉइनिंग के बाद उम्मीदवार, करवाते हैं पंजीयन
अस्पताल में ट्रेनिंग करते लगाकर अपना तन और मन
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
बढ़ाते अपना ज्ञान वेबइनियर और सीएमई द्वारा
एफ़एटी परीक्षा से लेते हैं, भाँप अपनी कमियां सारा
तब आता है थीसिस को, सबमिट करने की बारी
साथ शुरू हो जाता है, अंतिम परीक्षा की तैयारी
करते हैं उत्तीर्ण जो परीक्षाएं प्रायोगिक और सिद्धान्त
मिलती हैं डिग्री उनको जब आयोजित होता है दीक्षांत
सुनो तुम्हें सुनाता हूं मैं,
एनबीई की कार्यप्रणाली
गुमसुम हो कर बैठे हो क्यों, खोलो हाथ बजाओ ताली
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1.    एनबीई का है यह नारा स्वास्थ्य सुलभ हो देश हमारा
2.    जय भारत जय
एनबीई

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

नालंदा की एक सैर (A visit to Nalanda)


ह्वेनसांग मेमोरियल, नालंदा

ह्वेनसांग एक चीनी भिक्षु-विद्वान थे, जिन्होंने 7 वीं शताब्दी मे नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने, बुद्ध की सच्ची शिक्षाओं की पांडुलिपियों को एकत्र करने और बुद्ध से जुड़े पवित्र स्थानों की यात्रा करने के लिए चीन से भारत की यात्रा की । ह्वेनसांग ने सिल्क रूट और भारत में अपनी यात्रा के 17 वर्षों का एक विस्तृत विवरण छोड़ा है, जो बाद मे भारत मे बौद्ध धर्म की स्थापना एवं विकास की सूचना का प्राथमिक स्रोत बना। 


सन 629 में उसे एक स्वप्न में भारत जाने की प्रेरणा मिली। उसी समय तंग वंश और तुर्कों का युद्ध चल रहे थे। इस कारण राजा ने विदेश यात्राएं निषेध कर रखीं थीं। पर बौद्ध पाठ्यों में मतभेद और भ्रम के कारण इसने भारत जाकर मूल पाठ का अध्ययन करने का निश्चय किया। और फिर किर्गिस्तान, तियानशन, उज्बेकिस्तान, ताशकंद, फारस आदि मार्ग से होते हुए भारत पहुंचे थे और वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय मे अध्ययन-अध्यापन किया था।


नव नंद महाविहार के संस्थापक और निदेशक जगदीश कश्यप ने नालंदा में उस स्थान पर  एक ह्वेनसांग मेमोरियल की स्थापना के विचार का प्रस्ताव रखा जिस स्थान पर ह्वेनसांग ने बौद्ध धर्म की सच्ची समझ की खोज में अपना लंबा तीर्थयात्रा समाप्त किया। स्मारक का निर्माण 1957 में भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री झोउ एन-लाई द्वारा संयुक्त रूप से शुरू किया गया था। लेकिन अपरिहार्य कारणों से यह तब पूरा नहीं हो सका। 2005 में, भारत और चीन के विशेषज्ञों की एक टीम ने नवीकरण के संबंध में सुझाव दिए, जिसके बाद 2007 में स्मारक पूरा हुआ। 

ह्वेनसांग मेमोरियल भारत और चीन की साझा बौद्ध विरासत का प्रतीक है। यह भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक संबंध को प्रदर्शित करता है। यह भविष्य में दोनों देशों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का एक मंच भी है।


स्मारक चीनी और भारतीय स्थापत्य शैली से प्रेरित है। सतत रूप से वक्र छत को संतुलित तरीके से डिज़ाइन किया गया है, क्षैतिज रेखाओं मे विभक्त किया गया है जो बुरी आत्माओं को दूर करती है ऐसा  माना जाता है। छत मे नीली चमकती हुई टाइलें लगी हैं जो स्वर्ग और आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं। दीवालों पर लाल रंग जो बुरी आत्माओं को दूर रखनेवाला और खुशी का प्रतीक है, तथा स्वर्ण रंग जो इमारत को एक धात्विक चमक देती है का मिश्रित प्रयोग दिखाता है । चीनी और भारतीय वास्तुशिल्प तत्वों को कलात्मक रूप से ह्वेनसांग को सीखने, ध्यान और भुगतान करने के लिए एक शांतिपूर्ण स्थान बनाने के लिए मिश्रित किया गया है।


प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय 22 जल निकायों से घिरा हुआ है। ह्वेनसांग मेमोरियल ऐतिहासिक पद्मपुष्करनी झील के पूर्वी तट पर स्थित है।



बड़े कांस्य गेट को मुख्य संरचना के घुमावदार छत और नीली चमकते हुए टाइल के विवरण के साथ पूरक करने के लिए बनाया गया है। एक सौंदर्य विशेषता होने के अलावा, यह चीनी सांस्कृतिक प्रभाव का भी प्रतिनिधित्व करता है; ऐसा माना जाता है की यह बुरी आत्माओं को मुख्य कक्षों में प्रवेश करने से रोकने के लिए एक स्क्रीन की तरह कार्य करता है।



स्मारक के अंदर वेदी पर ह्वेनसांग की एक कांस्य प्रतिमा है, उपदेश मुद्रा में। उन्हें एक चीनी तीर्थयात्री (यात्रा पर जाने वाले साधु) के रूप में जाना गया था और बौद्ध धर्म के प्रसार में उनके योगदान को बौद्धों द्वारा स्वीकार किया गया है, इसलिए  उन्हें एक बौद्ध संत के रूप में चित्रित किया गया है।

मूर्ति के पीछे सफेद संगमरमर की दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की एक उभरी हुई प्रतिमा है। ह्वेनसांग की इच्छा थी कि उनके अगले जन्म में वे मैत्रेय बुद्ध के साथ पैदा हों ताकि उन्हें मैत्रेय के साथ अभ्यास करने और मुक्ति पाने का अवसर मिले, कदाचित इसी कांसेप्ट को दर्शाती यह संरचना है।


समाकर के अंदर दीवारों पर बुद्ध और ह्वेनसांग के जीवन के अनगिनत किस्सों को एक वृत्तिचित्र के रूप मे बताती सैंकड़ों तस्वीरें एवं प्रिंटेड पेंटिंग्स हैं। ये बुद्ध और ह्वेनसांग के पुण्य जीवन और आत्म बलिदान के महत्व पर जोर देने वाली कहानियां हैं। ये कथाएँ कई भारतीय और चीनी स्मारकों को जोड़ने वाली हैं, जिनमें अजंता की गुफाएँ, किज़िल और दुनहुआंग की गुफाएँ शामिल हैं। स्मारक की छत पर बनी आकृति अजंता की गुफाओं मे से एक की प्रतिकृति है।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भग्नावशेष कैंपस
तुर्कों का आक्रमण भारतीय इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है. तुर्क आक्रमण ने समकालीन भारत को न सिर्फ आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर किया अपितु बौद्धिक रूप से पंगु करने और पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ा.

इसका सबसे क्रूर उदहारण है तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के द्वारा तत्कालीन विश्व में शिक्षा ार शोध का उत्कृष्टतम केंद्र नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर देना और साथ ही इसमें अध्ययन-अध्यापन करनेवाले और प्रश्रय देनेवाले हजारों बोद्धो की ह्त्या और यहाँ के पुस्तकालयों में रखे हजारों पुस्तकों एवं शोधपत्र को जलाकर ख़ाक कर देना. कहते हैं की यहां लगी आग की महीनों तक धधकती रही थी.

यह एक कृतघ्न, मुर्ख और क्रूर लुटेरे शासक का ऐसा कुकर्म था जिसने सैंकड़ो विद्वानों के जीवन भर के शोध को ख़ाक में मिला दिया और तत्कालीन भारत के बौद्धिकता को सैंकड़ो वर्ष पीछे पहुंचा दिया. यह भारतीय इतिहास में कृतघ्नता का भी एक ज्वलंत उदहारण है, क्योंकि कहते हैं कि बख्तियार खिलजी जब एकबार बीमार हुआ और अपने वैद्यों के इलाज से ठीक नहीं हुआ तब किसी बौद्ध वैद्य ने अपने इलाज से उसे ठीक कर दिया. पर उस मुर्ख कुकर्मी आक्रमणकारी को यह बेहद नागवार गुजरा कि उसके धर्मावलम्बियों के पास जिसका इलाज नहीं था वो कोई विधर्मी के पास कैसे हो! और इसी खुंदक में उस कृतघ्न ने न सिर्फ हजारों बौद्धों की ह्त्या करवाई अपितु उनके ज्ञान के सबसे बड़े केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय को ही नष्ट कर दिया.


नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। 


अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। 

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम को प्राप्त है। बाद में महान सम्राट हर्षवर्धन और फिर पालवंश के राजा धर्मपाल ने भी इसके विस्तार और विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया।


हर्षवर्धन ने यहां उस समय में मल्टीस्टोरी लाइब्रेरी बनवाई थी, जिसमे हर विषय के ग्रन्थ और शोध उपलब्ध थे। इसमें अध्यापन कक्ष एक खुले ऑडिटोरिम की तरह है जिसके दोनों छोड़ पर छात्रों के कमरे बने हुए हैं, आगे आचार्यों के लिए ऊँचा मंच और पीछे के विद्यार्थियों के लिए भी ऊंचा मंच बना हुआ है. साथ ही पानी पिने के कुँए भी बने हुए हैं. छात्रावास के कमरों का आकार देखकर साथ गए सत्यप्रकाश गोपाल जी का वक्तव्य था की पटना में छात्रावास का आकार भी लगभग इतना ही होता है।

विश्वविद्यालय परिसर के भग्नावशेषों के दिवालों की मोटाई लगभग आठ फुट की होगी. इसे देखकर मुझे बरबस ही दिल्ली के पचास गज वाले और छह इंच मोटी दीवाल वाले घरों की याद आ गई, और मैं कल्पना करने लगा की यदि ऐसी मोटी दीवाले वहां बनाई जाए तो फिर तो बस दीवाल ही दीवाल हो कमरा के लिए तो जगह ही न बचे 😂.


तस्वीर में जो भग्नावशेष दिख रहा है वो विश्वविद्यालय प्रांगण में बना स्तूप है जो बिहार के प्रतिक चिन्हों में से एक है।



काला बुद्ध उर्फ तेलिया बाबा का मंदिर


भगवान बुद्ध की यह विशालकाय और भव्य प्रतिमा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के प्रांगण से सटे एक मंदिर में स्थापित है। यह मंदिर इस रूप मे अद्वितीय है कि काली बेसाल्ट चट्टान का उपयोग कर भगवान बुद्ध की इतनी बड़ी मूर्ति बनाया गया है जो कि बहुत कम ही दिखाई देता है।

मजेदार बात यह है कि भौतिकतावाद के विरोधी महात्मा बुद्ध को यहाँ भी भौतिकतावाद का प्रतीक बना दिया गया है(बहुत से घरों में सुख समृद्धि के लिए लाफ़िंग बुद्धा और स्लीपिंग बुद्धा के मूर्ति रखने का चलन है) और लोग इन्हें तेलिया भैरब बाबा के नाम से पूजते हैं। मंदिर में उपस्थित पुजारी बताते हैं कि यहां सच्चे दिल से मांगी हर मन्नत पूरी होती है। यहां हर पहर लोगों का आना-जाना लगा रहता है और लोग बुद्ध की विशालकाय मूर्ति पर अपने बच्चों को मोटा होने, उनमें रिकेट्स, एनिमिया, सुखड़ा सहित कई तरह की बीमारियों से निजात दिलाने के लिए सरसों का तेल और सात प्रकार के अनाज चढ़ाते हैं. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. 

यहां भगवान बुद्ध की तेलिया बाबा के नाम पर स्थापित मूर्ति की ख्याति स्थानीय स्तर ही नहीं, विदेशों में भी है. बड़ी संख्या में थाई और नेपाली बौद्ध यहां आकर मंत्र जाप करते हैं. बुद्ध की मूर्ति पर तेल चढ़ाते हैं और रूमाल या पेपर से मूर्ति पर लगाए गए तेल को पोंछकर अपने शरीर पर मालिश करते हैं.
जलमंदिर पावापुरी

पावापुरी में स्थित जल मंदिर जैन धर्म के लोगों का एक पवित्र तीर्थ स्थान है। कहते हैं कि भगवान महावीर का महापरिनिर्वाण इसी जगह पर हुआ था और इस मंदिर के अंदर भगवान महावीर की चरण पादुका है, जो सभी जैन लोगों के लिए पूजनीय है। एक विशाल झील के बीचोंबीच स्थित जल मंदिर का दृश्य बहुत ही मनभावन है। इस मंदिर का आर्किटेक्चर भी सुंदर है सफेद संगमरमर से बना मंदिर कुछ कमलाकृति लिए हुए है।

 

चारों तरफ विशाल जल जल राशि में कमल ही कमल खिले नजर आते हैं, जो बहुत ही मनोरम नजारा प्रस्तुत करता है। 



इस जल में कई प्रकार के पक्षियों का भी डेरा है जैसे सिल्ली, बत्तख, स्वैम्पहेन, चकेबा आदि। 
झील के बीचो-बीच बने इस मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 600 फीट लंबा एक पूल है जिसके आरंभ द्वार पर आप दो-तीन सूचना पट्ट देखेंगे जिसे पढ़कर इस मंदिर से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना आपको प्राप्त हो सकती है। कुल मिलाकर या एक अच्छा मनोरम दृश्य वाला पर्यटन केंद्र है जहां आप जाकर कुछ समय के लिए ही सही जीवन की आपाधापी के बीच कुछ सुकून सा प्राप्त कर सकते हैं। 



यदि आप अपने कार से नहीं हैं, तो इन स्थलों की यात्रा का लुफ्त ई-रिक्शा से भी करके उठा सकते हैं जो आपको एक अलग ही मजा और अनुभव दे सकता है।

शनिवार, 31 अगस्त 2019

"औघड़" पुस्तक समीक्षा

 डार्क हॉर्स के लेखक Nilotpal Mrinal जब अपनी नयी किताब औघड़ ले कर आए तो पहले तो मैं शीर्षक देख कर भ्रमित हुआ था की ये शायद साधु संतो की दुनिया की कोई कहानी होगी. पर प्रोमो देखने के बाद पता चला की ये ग्रामीण समाज की वास्तविकता को दिखाती हुई कोई कहानी है. बस फिर क्या था यह किताब मेरे इस वर्ष के लिस्ट में सबसे ऊपर थी और संजोग ऐसा की पुस्तक मेले में मुझे यह स्वयं लेखक के हाथों से ही प्राप्त हुआ.

जैसा की लेखक ने पुस्तक की भूमिका में ही लिखा है की वो किताब नहीं अपने मौत की जमानत लिख रहे हैं, वैसा ही उन्होंने एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी का ऐसा तानाबाना बुना है की चाहे वो कोई भी पंथी हो, उसके पाखण्ड और दोहरे चरित्र को उजागर करने में कोई चूक नहीं की गई है.

कहानी के केंद्र में कहानी का नायक विरंची कुमार है. अमूमन कहानियों के नायक विशिष्ट गुण या शक्ति वाले दिखाए जाते हैं पर विरंची दा में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिलता है, वो अपनी लड़ाई भी अंततः हार ही जाता है, पर इस पात्र को लेखक ने जिस तरह कहानी में उतारा है, ज्यों ज्यों आप कहानी में आगे बढ़ाते जाते हैं त्यों त्यों विरंची किताब के पन्नों से उतारकर आपके ह्रदय में स्थान बनाने लगता है. अपनी तमाम खामियों के बावजूद भी वो फुकन सिंह के सामंतवाद को अकेले ही चुनौती देता है और उसके सामंतवादी दीवार को अपने पेशाब से ढाह देने का भरसक प्रयास करता है.

गांव मे जिस तरह से जातिय भेदभाव देखने को मिलता है, उसे लेखक ने बखूबी अंजाम दिया है, जिसमें लेखक जाति की जड़ को तलाशते हुए कहता है कि हिंदुस्तान में ऊंची जाति के बारे में पता करना तो आसान है लेकिन नीची जाति की खोज आज भी जारी है।इस जातीय व्यवस्था को जिसका में खुद साक्षी हूँ लेखक ने बखूबी उतारा है. यहाँ मध्यम जातियाँ उनसे निचली जातियों से वैसा ही व्यवहार रखती है जैसा ऊँची कही जानेवाली जातियों के लोग. लेखक ने जातिवादी राजनीति या सोशल इंजीनियरिंग करने वालों को भी बखूबी आड़े हाथ लिया है. दलित वर्ग से आनेवाला अधिकारी दारोगा पासवान और वीडियो मंडल दोनों ही पैसों के खातिर सामंत फूकन सिंह की गोद में बैठ जाते हैं और दलित महिला मधु को जिस प्रकार से प्रताड़ित करता है वह समाज के एक और सच्चाई को बयां करता है की किस तरह से समाज और राजनीति में कुछ लोग जो खुद को दलितों-पिछडो की नुमाइंदगी करनेवाले बताते हैं पर वास्तव में खुद सामंतवादी सोच के हो जाते हैं और पैसे और पावर के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं. वहीँ यह भी दिखने का प्रयास किया गया है की किस तरह से आर्थिक सक्षमता और प्रशासन में भागीदारी ही जातगत विभेद को ख़त्म कर सकती है. जो फुकन सिंह आम पिछडो और दलित से स्पर्श भी नहीं गवारा करता है वही फुकन सिंह दलित जाति से आनेवाले दरोगा और वीडियो के साथ रातभर साथ बैठ खाना पीना भी करता है. जो फुकन सिंह पवित्तर दास को अपने दरवाजे पर बिठाना तक नहीं चाहता वही राजनैतिक साझेदारी ह जाने के बाद उसी पवित्तर दास के साथ गलबहिया डाले रहता है.

शेखर के चरित्र में लेखक ने किताबी नारीवादी और किताबी मार्क्सवादी का भी बखूबी पोल खोला है. नारी उन्मुक्तता पर जब वो अपने माँ-बाप को पाठ पढ़ता हुआ साथ खाने की बात करता है तो उसकी माँ बहुत ही स्वाभाविक सा जवाब देती है की तेरे पिताजी मुझपर कोई जुल्म नहीं कर रहे हैं, बस सबको खिलाकर खाना अच्छा लगता है. नारी सवतंत्रता पर ग्रामीण महिलाओं बीच दिया उसका भाषण उन महिलाओं के पल्ले ही नहीं पड़ता है और वो उसे ही लम्पट समझ लेती है.

ऐसे ही धर्म को अफीम बोलने पर भोला भाला लखन बहुत ही मासूमियत से उससे सवाल करता है की शेखर भैया यदि धर्म अफीम है इसलिए धर्म खराब है तो फिर आप हमारे लोगों के साथ गांजा क्यों धूँकते हैं (मार्क्स ने कहा "धर्म अफ़ीम है, त मार्क्सवादी लोग धर्म छोड़ दिया।ये अफ़ीम काहे नही छोड़ता ई लोग शेखर बाबू?"). कहानी में कई ऐसे मोड़ आए जहां परिस्थिति को सम्हालने में शेखर का किताबी ज्ञान फेल हुआ है. फिर भी शेखर का एक डायलॉग जो वह अपने पिता को कहता है की आप जैसे लोग अपनी इज्जत बना के नहीं बल्कि बचा के चलते हैं और इसके लिए समाज में हो रहे हर सही गलत से आँखे फेर लेते हैं, समाज के एक बड़े वर्ग पर सवाल खड़ा करता है (इस वर्ग में कदाचित मैं भी हूँ).

अच्छी शिक्षा और पहचान ही आपको सशक्त बनाता है, इसका भी एक बढ़िया उदाहरण कहानी में है, जब जुझारू और जीवट विरंची और मधु दरोगा पासवान के जुल्म के शिकार हो जाते हैं और उसके जाल से निकलने में बेबस नजर आते हैं वही डरपोक शेखर का अच्छे कॉलेज से पढ़ा लिखा होना और कॉन्टेक्ट काम आता है और वो आसानी से उन्हें दरोगा पासवान के चंगुल से बचा लेता है.

मौजूदा समय चुनावों का है और इस कहानी में चुनावी दांव पेंच की घटनाएं आपको कई नई पुरानी घटनाओं से जोड़ सकती है. विरंची की ही एक कहानी ले लें तो वो फुकन सिंह के नॉमिनेशन में भी शामिल हो जाता है और वक्त आने पर उसी के विरुद्ध पवित्तर दास को मैदान में खड़ा कर देता है. मगर अंततः वही पवित्तर दास उसे धोखा दे देता है और उसके साथ ही उसके अरमानों का भी क़त्ल कर देता है।

कहानी के मध्य तक आते आते जहां कहानी मार्मिक स्थिति में पहुँच जाती है (मधु के साथ दुष्कर्म की कहानी), वहीँ आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे लगता है की अंततः संघर्ष की जीत होगी पर अंततः संघर्ष फिर हार जाता है एक नए संघर्ष का बीज डालकर. “औघड़” अपने आप में एक दुनिया है जो आपके आंखों के सामने बनी और उपन्यास खत्म होते-होते आपके निकले आँसू, और अफसोस के साथ खत्म होती है. पर एक अज्ञात औघड़ जो एक बार फिर से फुकन सिंह के चारदीवाली की दीवार को ढाह देना चाहता है, के उपसंहार के साथ ही लेखक पाठकों में एक उम्मीद की किरण और कल्पनाशीलता भी छोड़ जाता है की विरंची के बाद कौन है वो औघड़ जो एकबार फिर से संघर्ष के पथ पर निकल पड़ा है. इस कहानी के पात्रों में मेरी कल्पनाशीलता तो यही कहती है की शायद चन्दन बाबा हो या लखन लुहार. बहरहाल इस रेस का डार्कहॉर्स कौन होगा यह भविष्य के लेखनी में ही छुपा है. लेखक की सबसे बड़ी पूंजी इस पुस्तक में यही है कि वह पाठक को पूरी तरह से बांधे रहता है. #विश्वपुस्तकदिवस पर एक अच्छे किताब के लिए नीलोत्पल मृणाल भाई को बधाई। जय हो।

पीएस : किताब मैंने जनवरी में ही पढ़ ली थी पर आलस और व्यस्तता के कारण प्रतिक्रया देने में थोड़ी देरी हो गई.(23 अप्रैल 2019)

पोथी के समीक्षा: पपुआ ढपुआ सनपटुआ (मैथिली)


पद्मनाभ जी के हिंदी, अंग्रेजी आ मैथिली ब्लॉग/रचना सब हम विद्यार्थी जीवन सं २००५-०६ से पढ़ैत आबि रहल छी, जखन ओ "आदि यायावर", "बकवासबाज" आदि नाम सं ब्लॉग लिखैत छलाह. फेर "कतेक रास बात" पर सेहो कतेक रास बात कहला. तदुपरांत अपन वेबसाइट पर सेहो अपन शोध के विषय सहित आन आन विषय पर सेहो कतेक बात लिखला. फेर हिनकर एकटा किताब आयल छल "भोथर पेन्सिल स लिखल" दू सै टाका द क ओ किताब पढ़ै में तखन हम सक्षम नै रही आ नै यहां लाइब्रेरी व्यवस्था मैथिली में बनल अछी जे छात्र लोक आ पढ़ै के इच्छुक लोक लाइब्रेरी से किताब पढ़ै

किछु समय पूर्व पद्मनाभ जी के दोसर किताब जे की कथा शैली में लिखल एकटा कथेतर अछी आयल. "पापुआ ढपुआ सनपटुआ". लेखक कहैत छैथ जे ओ ई किताब अपन व्यस्त जीवन सं समय निकली क कइएक बर्ष में लिखलैथ अछी. ई हुनकर अपन भाषा से प्रेम छलैन जे ओ ई किताब मैथिली में लिखलाह नै त ओ किताब अंग्रेजी या हिंदी में सेहो लिखबा में सक्षम छैथ. किएकि लेखक हमर प्रिय व्यक्तित्व छैथ , तैं हम व्यग्रता सं किताब के आश देखैत रही.

किताब उपलब्ध भेला पर जखन हम किताब पढनाइ शुरू केलहुँ, त शुरुआत में कहानी बहुत सपाट लागल, आ हमरा लेखक से जेहन उम्मीद छल कथा औय उम्मीद पर ठाढ़ भेल नै बुझना गेल छल. मुदा आधा कथा के बाद एकदम से कथा में जान आबि जायत अछी आ लगै अछी जे ई पद्मनाभ जी के रचना छैक. अंत भला त सब भला के तर्ज पर कथा के समापन हंसी-ख़ुशी में भ जायत अछी.

यद्यपि कथा के नायक आ नायिका अमोल आ वर्षा छैथ, मुदा हमरा लेखे ई कथा के वास्तविक नायक रंजीत छैथ. वर्षा शहर में रहै वाली पढ़ल लिखल मिथिलानी छैथ, अपना के नवीन सेहो बुझैत छथिन, नव युग के अनुसार सोचे समझै, निर्णय लेब में सक्षम मुदा तखनो समाज के लेल ओ कोनो एस्सेट जेका नै छैथ. आईआईटी से पढ़ल आ पैघ एमएनसी में काज करै बला अमोल में सेहो समाज के आगा ल जाय बला या अपन परिवार के अपन दम पर चला लेबय बला हुनर नै छैन. मुदा एकटा साधारण किसान घर से निकलल आ अपना बूता पर बैंक में ऑफिसर बनल रंजीत समाज के लेल संपत्ति सन छैथ. ओ अपन हिनस्ताय करबा क, बदनाम भ क, दुखित भ के भी नै खाली वर्षा के मन माफिक विवाह होमय दैत छथिन अपितु अपन भाई के करियर बनाब में सेहो अप्रत्यक्ष सहयोग करैत छैथ. ओ ककरो स वैर आ ईर्ष्या भाव नै रखैथ छैथ. क्षमा हुनकर सभसँ पैघ हथियार छैन जेकर प्रयोग सं समय बिटला पर ओ सब के ह्रदय जीति लैत छैथ. समाजक कुरीति सब के खुलि क विरोध करै के सहस रंजीत में छैन्ह, ताहि लेल ओ समाज से कटि के भले रही जाइत छैथ. क्षमा के संग हुनकर व्यक्तित्व बहुत सोझरायल आ सूझ बुझ बला सेहो छैन्ह. जे वर्षा कहियो हिनका दुत्कारने छलीह, समय एला पर ओहि वर्षा के लगभग टूटि चुकल पारिवारिक रिश्ता के ओ अपन सूझ-बुझ से बचा लैत छैथ.

अमोलक बहिन के कथा में बेसी स्थान नै मुदा हिनकर व्यक्तित्व, छोट शहर से देश के प्रतिष्ठित विश्विद्यालय तक के सफर, फेर राजनीती आ ऐ सब के बीच मैथिल समाज के प्रतिकार, आदर्श विवाह के लेल डिटरमिनेशन, हिनकर व्यक्तित्व के मैथिल समाज के परिपेक्ष्य में नायिका के रूप में स्थापित करैत अछी. ओना विवाह नै करै के निर्णय द के पिता के दुखी केनाय हमारा लेखे उचित नै छल,मुदा बाद में विभा सेहो ऐ बात के रियालॉयज केलखिन आ विवाह के लेल तैयार भेली आ भगवती के कृपा आ पिता के ह्रदय से देल आशीर्वाद सं हुनका रंजीत सन वर सेहो भेटलैन.

ओना कथा में इहो बात पर फोकस थीक जे इंजीनियरिंग के पढ़ाई कर वाली भौतिक सुख-सुविधा के आकांक्षी वर्षा होइथ आ की जेे एन यू के शोधार्थी आ क्रांतिकारी विभा, दुनू अपन मनमुताबिक जीवनसाथी के तलाश मैथिले समाज में करैत छैथ. एक बेर हमर एकटा दोस्त (जे बाद में प्रेम विवाह केला) कहने छलाह जे मैथिल लैडका-लैडकी प्रेमो करैत अछी त ई देखिये क जे सामने वाला मैथिल अछी की नै. वास्तव में ई बहुत हद तक ठीको छैक(जे साइत लेखक के सेहो लगैत हेतैन) किएकि बहुत बेसी सामाजिक आ सांस्कृतिक अंतर(जेना खेनाइ-पिनाई-पाबैनि-तिहार-लर-लगन-सर-कुटुम-समाज आदि) भेने परिवार में एडजस्ट केनाइ बेस कठिन भ जाइत अछी. तैं जाती-पाति आदि सं बेसी रहन-सहन(लाइफ-स्टाइल) मैच करब बेसी आवश्यक अछी एकटा परिवार के ढांचा के मजबूत करै में.

विमल के व्यक्तित्व कथा के एकटा पावर-पैकेट चरित्र अछी जे कथा में एकटा नया कोण जोरि दैत अछी. बकौल लेखक, विमल के चरित्र एकटा वास्तविक जीवन के पात्र सं लेल गेल अछि. ओना त कथा के अन्य पात्र सब के सेहो वास्तविक जीवन के बहुत लग अछी आ नब्बे आ दू हजार के दशक में पैघ होइत जेनेरेशन के कहानी अछी, ताहि लेल हम ऐ कथा के कथेतर कहल अछी. विमल के कथा, पाठक के शोणित के प्रवाह बढ़ा देने हेतैन से हमर विश्वास अछी. ई पात्र पाठक के लेल बहुत प्रेरणा दायी सेहो अछी. आ हम आशा करैत छी की ई पात्र कइएक टा युवा के प्रेरणा देतैन.

कथा के भूमिका में लेखक कहैत छैथि जे "कथा के पात्र जेना लगै अछी जे हमारे वास्तविक जीवन के अंग सब अछी, सभसँ कतौ ने कतौ जिनगी में भेंट भेल अछी". हम अपन व्यक्तित्व में सेहो रंजीत आ अमोल के चरित्र सब के मिश्रण देखैत छी. ई बात सेहो हमरा कथा से बानहने रहल.

पोथी के नाम "पापुआ ढपुआ सनपटुआ" किये राखल गेल से हमरा पहिने हे स अनुमान छल किएकि हम लेखक के फॉलो करैत रहै छी, आ ई बात कथा के पात्र रंजीत के मुंह सं ओ बाजी दैत छैथ. मुदा पोथी के कवर डिजाइन हमरा अखन तक स्पष्ट नै भेल, से लेखक से आग्रह जे एकरा स्पष्ट करि.

कथा के संपादन में किछु त्रुटि अवस्से बुझाना जाइत अछी. कथा में कइएक टा पैराग्राफ/कथांश दोहरायल गेल अछी. जकरा सुधार कैल जा सकै छल जै से कथा आरो बेसी कसल बनी सकै छल. किछु मैथिली शब्द में सेहो त्रुटि छैक, खैर "नयी वाली हिंदी" के तर्ज "नया वाला मैथिली" विधा के रचना कहल जा सकै अछी आ लेखक किएकि मूल रूप सं टेक्नोक्रेट छैथ त ई छूट देल जा सकै अछी. किछु प्रिंटिंग त्रुटि सेहो छैक, जै में एकहि शब्द के किछु अंश उपरका लाइन में आ बांकी अगिला लाइन में छैक.

पुस्तक ककरा पढ़ै के चाही: हमारा हिसाब नवतुरिया आ युवा लोक सब के किताब निक लगतैन आ प्रेरक सेहो हेतैन, तैं हिनका सब के किताब पढ़बाक चाहि. किताब पढ़बा के प्रेमी आ अधवयसु आदमी जे अपन जिनगी में स्ट्रगल केलाह तिनको किताब निक लगतैन. मुदा जे किताब में पूर्ण मैथिली साहित्य खोजता तिनका किताब सं निराशा भेंट सकै अछी. कथा के बहुत बेसी ड्रामेटिक सेहो नै बनायल गेल अछी, बेसी फोकस चरित्र सब पर कैल गेल अछी.

छूटल बढ़ल फेर कखनो. पद्मनाभ जी के पोथी के लेल ढेरी-ढाकी शुभकामना . पहिली बेर हम मैथिली किताब ऑनलाइन किनलहुँ अछी आ निक सं भेट गेल ऐ के लेल सेप्पी मार्ट, Mukund Mayank, विकास वत्सनाभ के सेहो बधाई

पुनश्च: ई पोथी हम अपन पीसा के सेहो पढ़ै लेल देने रहियैन जे बड़का पढ़ाक छैथ, हुनकर प्रतिक्रिया छल जे मैथिली में कतेको निक पोथी सब थीक, ऐ कथा में जान नै छौ, साहित्यिक रूप सं बड्ड कमजोर पोथी छौ

"कुली लाइन्स" पुस्तक समीक्षा



विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर एक व्यंग कथा संग्रह के बाद दो दूर देशों की यात्रा वृतांत और फिर .................. कुली लाइंस।


किताब के प्रकाशन के वक्त मैंने कहा था की जिस गति से मैं लेखक को पढ़ता हूँ उस गति से ये नई किताब लिख डालते हैं। एक सज्जन ने तो यहाँ तक कह दिया की प्रवीण जी जिस गति से और जिस विविधता से लिखते हैं, यदि 2-4 अफेयर कर लें तो राजकलम के नए वर्जन साबित हो सकते हैं।


कुली लाइंस के जरिए लेखक ने भारतीय इतिहास के एक अनछुए या कम छूए पहलू पर प्रकाश डालने का कार्य किया है। जहां पहले की किताबें लेखक ने अपने बुद्धि, अनुभव और सोच के आधार पर लिखी हैं वही इस पुस्तक मे इनके साथ ही शोध का बड़ा इनपुट डाला गया है। जिस तरह के विषय और जिस तरह का शोध किताब मे दिखता है यह सच मे ही सरहनीय है क्योंकि निश्चित ही इसके लिए काफी मेहनत और यात्रा की गई होगी। पुस्तक मे सभी संदर्भों को फुटनोट और इंडेक्सिंग के जरिये बेहतर तरीके से रखा गया है। एक समीक्षक के शब्दों मे कहें तो लेखक पेशे से भले चिकित्सक हैं पर इनके अंदर एक इतिहासिक जासूस छिपा है जिसने इतिहास के पन्नों से कुछ ऐसे तथ्यों को ढूंढ निकालने का प्रयास किया है जो कही छिप गए थे।


पुस्तक को जब आप पढ़ना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी तिलिस्म मे घुसते जा रहे हो। हिन्द महासागर के रियूनियन द्वीप की ओर 1826 ई. में मज़दूरों से भरा जहाज़ बढ़ रहा था। यह शुरुआत थी भारत की जड़ों से लाखों भारतीयों को अलग करने की। औद्योगिक क्रांति के बाद अंग्रेजों और कुछ अन्य यूरोपीय देशों द्वारा विशाल साम्राज्य के लालच मे अपने कॉलोनियों के गरीब और लाचार लाखों मानवों के साथ अमानवीय व्यवहार का स्याह पक्क्ष  और हिन्दुस्तानी बिदेसियों के संघर्ष की यह गाथा क्यों  भुला दी गई? एक सामन्तवादी भारत से अनजान द्वीपों पर गये ये अँगूठा-छाप लोग आख़िर किस तरह जी पाये? उनकी पीढ़ियों से हिन्दुस्तानियत ख़त्म हो गई या बची हुई है? यदि बची हुई  है तो किस तरह से? लेखक पुराने आर्काइवों, भिन्न भाषाओं में लिखे रिपोर्ताज़ों और गिरमिट वंशजों से यह तफ़्तीश करने निकलते हैं। उन्हें षड्यन्त्र और यातनाओं के मध्य खड़ा होता एक ऐसा भारत नज़र आने लगता है, जिसमें मुख्य भूमि की वर्तमान समस्याओं के कई सूत्र हैं। मॉरीशस से कनाडा तक की फ़ाइलों में ऐसे कई राज़ दबे हैं, जिसपर से पर्दा हटाने का प्रयास लेखक करते नजर आते हैं। यद्यपि लेखक के अथक प्रयासों के बाद भी पुस्तक मे कई कहानियों के अधूरे तार ही डाले गए हैं, पर इस उम्मीद के साथ की पाठकों तक पहुँचने के बाद इन अधूरे तारों को जोड़ने की संभावना बने।


पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक को कई जानकारियाँ मिलती है। हिन्द महासागर में स्थित रियूनियन द्वीप, सूरीनाम, मॉरीशस, सेशेल्स, फिज़ी, दक्षिणी अमेरिका के गुयाना, ट्रिनिडाड और टोबैगो, जमैका, यूरोप के नीदरलैंड, युगान्डा, जंजीबार, दक्षिणी अफ्रीका, कनाडा के अलावा करीबी देश म्यांमार, सिंगापुर और मलेशिया आदि देशों में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मद्रास आदि राज्यों से भारी संख्या में भारतीयों को ले जाया गया। यहाँ इन लोगों मे से अधिकांश को बहला फुसला कर ले जाया गया, वो भी एक ऐसे कंटरैक्ट(गिरमिट) के तहत, जिसके बारे मे उन्हे बिलकुल भी भान तक नहीं था। उन्हे झूठे-मुठे सपने दिखाए गए, और उनके साथ यात्रा के दौरान तथा बाद मे भी वर्षों तक अत्याचार और शोषण किया गया। इस पुस्तक के जरिये लेखक ने उस समय के भारतीय गांवों के सामाजिक और आर्थिक स्थिति को भी छूने की कोशिश की है। लेखक ने कई संभ्रांत महिलाओं और पुरुषों का उल्लेख किया है जो उस वक्त के विशिष्ट सामाजिक परिवेश की वजह से अरकाटी के झांसे मे आ गए और स्वेच्छा से गिरमिटिया बनाने को तैयार हुए। इन महिलाओं के साथ भी बहुत अत्याचार, यौनाचार और हत्याओं की बहुत सी घटनाएँ हुई।


पुस्तक के द्वारा जहां “अरकाटी”, “कन्त्राकी” जैसे कई शब्दों के विषय मे ज्ञान होता है वहीं “चटनी संगीत”, “बैठक संगीत” आदि शब्दों से भी परिचय होता है।


इस किताब को पढ़ने से पहले मैं रामचरित मानस को हिंदुओं के एक बड़े धर्मग्रंथ के रूप मे जानता था, पर इस किताब को पढ़कर यह अहसास होता है कि तुलसीदास जी ने आमजनों की भाषा मे राम कथा लिखकर मानव इतिहास के लिए कितना बड़ा काम किया है। अलग अलग देश मे गिरमिटिया बना कर ले जा रहे लाखों लोग 60 से 90 दिन के जहाज़ी यात्रा पर अत्यंत दयनीय और विपरीत परिस्थिति मे भगवान राम के और रामचरित मानस के कथा के बल पर प्राप्त ऊर्जा के सहारे ही खुद को बचाए रख सके और आगे के एक अपरिचित देश मे जंगल और बागानो मे काम करते हुए अपने जीवन संघर्ष को पूरा कर सके ताकि उनका वंश आगे तक चल पाए।  पुस्तक मे पंडित तोताराम के साथ ही एक मौलवी साहब का भी जिक्र आता है, जो जहाज पर और बाद मे गिरमिट जीवन के दौरान भी लोगों को रामचरित मानस की कथा बाँचते हैं, जिससे लोगों का दुख-दर्द कम, होता है और उनमे जीवन संघर्ष की प्रेरणा मिलती है, साथ ही यह एक अच्छा जरिया यूनियन(एक) होने का भी था। इनके अलावा रामगुलाम, लछमन दास, जानकी आदि कई ऐसे पात्र के संदर्भ पाठक को रोमांचित करते हैं जो अमानवीय परीथितियों मे भी अपने जिजीविषा और अपने हुनर से एक भुला दिये गए इतिहास मे ही सही अपनी एक विशिष्ट जगह बनाते हैं।


इस पुस्तक के जरिये गांधीजी के विषय मे भी कुछ और अंजाने पहलुओं को जानने का अवसर मिलता है। जहां तोताराम जैसे गिरमिट के साथ गांधीजी संपर्क मे बने रहते हैं और उनके द्वारा प्राप्त जानकारी के आधार पर गिरमिटिया मजदूरों की स्थिति को विश्व पटल पर रखते हैं वहीं, मनीनाल डॉक्टर जैसे अपने सिपाहसालारों को फ़िजी और मौरिसस जैसे देशों मे इनके हक की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए भेज कर इनके स्थिति मे परिवर्तन की कवायद करते हैं।


पुस्तक के द्वारा पाठकों को इन लाखों अनपढ़ मजदूरों के जिजीविषा और संघर्ष के साथ ही इनके आगे के पीढ़ियों के बारे मे जानने का भी अवसर मिलता है। पुस्तक के द्वारा पता चलता है की कैसे कैरेबियाई देश मे ये लोग भारत से आम ले कर जाते हैं। धान की खेती और गौपालन शुरू करते हैं। धीरे धीरे जिस देश मे गए वहाँ के आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था मे खुद को मजबूत करते हैं। अपने आगामी पीढ़ियों को पढ़ाते-लिखाते हैं और और उच्च स्थान तक पहुंचाते हैं। (कमला प्रसाद बिसेसर, आसना कन्हाई, शिवसागर रामगुलाम, महेंद्र चौधरी आदि कुछ अग्रणी नाम हैं). इन सब के बीच भी जबकि वो अपनी मान मर्यादा, जात, कहीं कहीं धर्म आदि सबकुछ खो देते हैं किन्तु अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और अपना भारतीयपन बचा के रखने मे कामियाब होते हैं, साथ ही कामयाब होते हैं अपने नई पीढ़ी को एक सम्मानित और सुखी जिंदगी देने मे।

पुस्तक से सबसे यादगार संवाद मेरे लिए तोतराम जी का है जब उनके खाने को लेकर एक अंग्रेज़ उनसे पूछता है की "टुम किटना खाता है, टुम आदमी है की घोड़ा?" इसके जवाब मे तोताराम जी कहते हैं "हुजूर था तो आदमी ही पर कुदाल थमहाकर आपने घोड़ा बना दिया"

कुल मिलाकर देखें तो पुस्तक आपको भावुक करेगी, रोमांचित करेगी और कई जानकारियाँ देने के साथ ही इस संदर्भ मे कुछ और जानने को भी प्रेरित करेगी। इसीलिए मुझे लगता है की यह पुस्तक हर उस भारतीय को पढ़ना चाहिए जो आधुनिक इतिहास के कुछ अनछूए पहलू को जानना चाहते हैं, अपने देश के सांस्कृतिक फैलाव के विषय मे जानना-मनन करना चाहती है।